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शनिवार, 28 दिसंबर 2013

खत्म हुई “राज” नीति !

ये लगती तो किसी फिल्म की कहानी की ही तरह है लेकिन ये कहानी फिल्मी बिल्कुल भी नहीं है। ये लगता तो किसी सपने की तरह है लेकिन ये सपना बिल्कुल भी नहीं है। सवा साल पहले राजनीति में उतरकर राज नीती को खत्म कर जनता की सेवा का संकल्प लेने वाली टीम केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में राजनीति के दलदल में बड़े-बड़े मगरमच्छ और घड़ियालों को पटखनी देने का न सिर्फ दम दिखाया बल्कि इसे कर भी दिखाया।
ये भारतीय राजनीति में पहली बार ही था कि सबसे बड़ा दल होने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी सरकार बनाने की ओर कदम बढ़ाने की बजाए अपने कदम पीछे खींचती हुई दिखाई दी। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद से लेकर अरविंद केजरीवाल के दिल्ली की मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद तक जो कुछ हुआ उसकी शायद भारतीय राजनीति को आदत नहीं थी।
लेकिन दिल्ली की जनता के दिल में जगह बनाकर दिल्ली की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने के साथ ही केजरीवाल ने भारत के राजनेताओं को ये संदेश दे दिया कि अब उन्हें बदलना होगा क्योंकि भारतीय राजनीति में बदलाव का आगाज हो चुका है और अगर उन्होंने खुद को नहीं बदला तो आवाम उन्हें बदल देगी।
दिल्ली की आवाम के भरोसे को जीतकर इतिहास के पन्नों में अपना नाम दर्ज करा चुके अरविंद केजरीवाल अब सिस्टम में रहकर सिस्टम को कितना बदल पाएंगे ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने के बाद जिस सादगी और भरोसे के साथ केजरीवाल ने अपने वादों को पूरा करने का संकल्प दोहराया है वह दिल को छू लेने वाला था। चेहरे पर जनता से किए वादों को पूरा करने की ख्वाईश के साथ आम आदमी का राज लाने की चाहत के बीच केजरीवाल के मन में एक अंजाना डर भी था, जो उनकी जुबां पर भी आया कि कहीं भविष्य में ऐसी स्थिति तो निर्मित नहीं हो जाएगी कि आप ही की तरह किसी दूसरी पार्टी को फिर से जन्म लेना पड़ेगा।
जनता के भरोसे से दिल्ली की सत्ता की बोगडोर संभाल रही टीम केजरीवाल के अंदर इस डर का कायम रहना बहुत जरूरी है, क्योंकि ये डर उन्हें उनके मकसद को याद दिलाता रहेगा और शायद आम आदमी पार्टी के गठन को सार्थक करन में मददगार भी सिद्ध होगा।  
अपनी टीम के साथ टीम केजरीवाल क्या कर पाएगी..? क्या नहीं कर पाएगी..? इसका जवाब तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन टीम केजरीवाल ने राजनीति को पूरी तरह न सही लेकिन बदलाव के मुहाने पर जरूर लाकर खड़ा कर दिया है। फिलहाल तो टीम अरविंद के साथ दिल्ली की जनता को बधाई जिन्होंने राजनीति में एक आम आदमी के राज के मार्ग को प्रशस्त कर दिया है। उम्मीद करते हैं बदलाव की ये बयार दिल्ली से पूरे देश में बहेगी और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में वास्तव में आम आदमी का राज होगा।


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बुधवार, 11 दिसंबर 2013

मेरे पास मां है !


केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद को टीवी पर सुनकर एक बार फिर से दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के उस दृश्य की याद ताजा कर दी जब पुलिस इंस्पेक्टर शशि कपूर अपने बड़े भाई अमिताभ बच्चन के तीखे तंज मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, दौलत है, तेरे पास क्या है..?” के जवाब में कहता है कि मेरे पास मां है। शशि कपूर का फिल्मी संवाद तो मां के वास्तवित प्रेम को दर्शाता है और मां की ममता की ताकत को बताता है, लेकिन हमारे विदेश मंत्री माननीय सलमान खुर्शीद साहब को सुनकर तो चाटुकारिता की महक ज्यादा आई बजाए इसके कि ये उनका सोनिया मांके प्रति प्यार है।
दरअसल अलग अलग मौकों पर गांधी परिवार की भक्ति को चाटुकारिता के तड़के से सजाने वाले सलमान खुर्शीद साहब ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि सोनिया गांधी सिर्फ राहुल गांधी की नहीं बल्कि पूरे देश की मां है। बात यहीं खत्म हो जाती तो ठीक था, राहुल के अलावा पीएम के लिए किसी दूसरे नाम के सवाल पर भी खुर्शीद साहब सोनिया भक्ति में ही डूबे दिखाई दिए। खुर्शीद साहब ने फरमाया कि सोनिया जी का निर्णय ही विकल्प होगा, जब आएगा तब पता चल जाएगा। ये उसी कांग्रेस पार्टी के नेता का बयान है, जो किसी राज्य के मुख्यमंत्री या फिर प्रधानमंत्री के नाम का चुनाव पार्टी में सर्वसम्मति से होने का दावा करती है, हालांकि इस दावे में कितनी हकीकत है, इसे आज खुर्शीद साहब ने बयां कर ही दिया।  
चाटुकारिता का तड़का लगाने में कई और कांग्रेसी भी माहिर हैं, जिनमें से एक नाम मणिशंक्कर अय्यर का भी है, राहुल के अलावा पीएम उम्मीदवार कौन के सवाल पर अय्यर साहब का जवाब भी खुर्शीद साहब की चरह चाटुकारिता से भरपूर था। अय्यर साहब बोले कि कांग्रेस में राहुल गांधी के अलावा उनकी(राहुल) मां ही पीएम पद की उम्मीदवार हो सकती है और कोई नहीं।
खुर्शीद साहब और अय्यर साहब के बयान का ये मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि कांग्रेस में कोई और नेता पीएम बनना ही नहीं चाहता। हसरतें तो जाने कितनों की होगी लेकिन अफसोस अपनी हसरतों का बयां करने की हिम्मत शायद किसी भी कांग्रेसी नेता में नहीं है। होती तो हर मंच पर कांग्रेसी नेता राहुल गांधी के अलावा किसी और को 2014 में पीएम के रूप में देखना पसंद न करने की बात न कहते। देखा जाए तो कांग्रेसी नेता हैं बड़े दिलवाले। पीएम बनने की हसरत तो हर कोई रखता है लेकिन इसके बाद भी पीएम के सवाल पर राहुल और सोनिया के अलावा किसी और का नाम तक जुबां पर नहीं लाते। इनके लिए तो बस इतना ही कह सकते हैं - लगे रहो नेता जी, लगे रहो, मां की भक्ति का आशीर्वाद अवश्य मिलेगा !


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मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

राजस्थान में क्यों हारी कांग्रेस ?

राजस्थान में डूबते हाथ को तिनके का सहारा भी न मिला और चुनाव में सत्ताधारी दल का सूपड़ा ही साफ हो गया। विकास के मुद्दे पर दमदारी से चुनाव लड़ने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चुनावी नतीजे से पहले पूर्ण विश्वास था कि सत्ता परिवर्तन की रवायत को पीछे छोड़ इस बार राजस्थान में कांग्रेस पूरी दमदारी से लगातार दूसरी बार सत्ता में काबिज होगी लेकिन 8 दिसंबर को 8 बजे सुबह मतगणना शुरू होने के साथ ही स्पष्ट होने लगा था कि राजस्थान में गहलोत सरकार के सूर्यास्त का वक्त करीब आ गया है। इसकी तस्वीर कांग्रेस के लिए इतनी भयावह(कांग्रेस 21 सीट) होगी ये तो शायद ही किसी ने सोचा था लेकिन जनता के फैसले का कोई कैसे नकार सकता है।   
जनता के फैसले को गहलोत ने समझने में देर नहीं की और मतगणना शुरू होने के चंद घंटों बाद ही अपनी हार स्वीकार कर ली लेकिन इसका ठीकरा उन्होंने केन्द्र सरकार के सिर फोड़ कर अपने दामन को बचाने की कोशिश जरूर की लेकिन राजस्थान में कांग्रेस का एक तरह से जमीन के नीचे चले जाना कई अहम सवाल खड़े करता है कि क्या वाकई में चुनाव में ऐसा हुआ है जैसा कि अशोक गहलोत ने हार के बाद कहा या फिर इस करारी शिकस्त के पीछे कुछ और ही कारण थे।
जहां तक मेरी समझ में आया मोदी का असर कहीं न कहीं राजस्थान में हावी था लेकिन इसके अलावा कांग्रेस का चुनावी कुप्रबंधन, नेताओं की आपसी खटपट और टिकटों का वितरण भी इस करारी हार के लिए काफी हद तक जिम्मेदार रहा। (जरूर पढ़ें- राहुल के 82 वर्षीय युवा साथी !)
राहुल गांधी के युवाओं और दागियों को पार्टी और चुनाव से दूर रखवे का फार्मूला राजस्थान में उस वक्त फेल होता दिखा जब जातिगत वोटों के खातिर कांग्रेस ने दागियों के परिजनों को टिकट बांटने से जरा भी परहेज नहीं किया। बहुचर्चित भंवरी देवी मामले में जेल में बंद गहलोत के पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा की पत्नी लीला मदेरण औंसया में औंधें मुंह गिरी तो इसी मामले में जेल में बंद पूर्व विधायक मलखान सिंह की मां अमरी देवी 85 वर्ष में भी कुछ कमाल नहीं कर सकी। इसी तरह दुद्दू विधानसभा पर यौन शोषण मामले में जेल में बंद पूर्व मंत्री बाबू लाल नागर के भाई को हजारी लाल नागर और एक महिला की मौत पर मंत्री पद गंवाने वाले राम लाल जाट आसिंद सीट पर बड़े अंतर से चुनाव हारे जबकि दुष्कर्म के आरोंपों से घिरे विधायक उदयलाल आंजना भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। जातीय वोटरों को लुभाने के लिए कांग्रेस ने दागियों और उनके परिजनों को टिकट देने से परहेज नहीं किया और नतीजा सबके सामने है। कांग्रेस के ये भरोसेमंद घोड़े चुनावी दौड़ में फिसड्डी साबित हुए।  
ये छोड़िए मांडवा सीट से चुनाव लड़ने वाले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रभान सिंह तो चुनाव जीतना तो दूर अपनी जमानत तक नहीं बचा सके और चौथे नंबर पर रहे जबकि लाडनूं सीट से ताल ठोक रहे कांग्रेस के 83 वर्षीय हरजीराम बुरड़क भी बड़े अंतर से चुनाव हार गए। ये तो महज कुछ नाम हैं, गहलोत के 22 मंत्रियों का चुनाव हारना और 5 दर्जन से ज्यादा कांग्रेस प्रत्याशियों का 20 हजार से ज्यादा मतों के अंतर से चुनाव हारना बताने के लिए काफी है कि टिकट वितरण से लेकर चुनावी प्रबंधन में कांग्रेस नेतृत्व पूरी तरह फेल रहा और कांग्रेस राजस्थान के इतिहास में अपने न्यूनतम स्कोर पर आऊट हो गयी।


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रविवार, 8 दिसंबर 2013

बरसाती मेंढ़क का कमाल

70 विधानसभा सीटों वाली दिल्ली प्रदेश तो छोटा है लेकिन दिल्ली की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले का कद देशभर में अपने आप ऊंचा हो जाता है। सोचिए जो शीला दीक्षित 15 सालों तक इस कुर्सी पर राज करती रही, जिस पार्टी से वह आती है और देश की राजनीति में उस शख्सियत का क्या कद होगा..? चुनाव में इस शख्सियत को राजनीति में एक साल पहले कदम रखने वाले एक शख्स अरविंद केजरीवाल ने ये कहकर चुनौती दी कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जिस सीट से चुनाव लड़ेंगी, वह भी उसी सीट से मैदान में उतरेंगे।
राजनीतिक पंडितों की नजर में ये अति उत्साह में उठाया गया कदम था, जिसे दूसरी भाषा में पॉलीटिकल सुसाईड भी कहा जा रहा था। लेकिन 4 दिसंबर को दिल्ली के मतदाता जब अपने पोलिंग बूथ पर वोट डालने पहुंचे तो उनके मन में शायद कुछ और ही था। उन्हें केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के झाड़ू को दिल्ली की राजनीति से कांग्रेस और भाजपा को साफ करना एक बेहतर विकल्प लगा और जब 8 दिसंबर को ईवीएम का पिटारा खुला तो दिल्ली के लोगों की दिल की बात दुनिया के सामने आ गयी और आपके झाड़ू से दिल्लीवासियों ने कांग्रेस का सफाया कर दिया। केजरीवाल के साथ ही आम आदमी पार्टी इतिहास रच चुकी थी और सबके अनुमानों से परे केजरीवाल ने न सिर्फ नई दिल्ली सीट पर 15 सालों से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को न सिर्फ 25 हजार 864 वोटों से करारी हार का स्वाद चखा दिया बल्कि केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने राजनीति की अपनी पहली ही पारी में 28 सीटों में भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों को पटखनी देखकर आप के अस्तित्व पर सवाल उठाने वालों के मुंह पर ताला जड़ दिया।   
आप को बरसाती मेंढ़क की संज्ञा देने वाली शीला दीक्षित को नई दिल्ली विधानसभा सीट के परिणाम से ही ये समझ में आ चुका होगा कि जिन्हें वे बरसाती मेंढ़क समझ रही थी दिल्ली की जनता ने उन्हें राजनीति की गंदगी साफ करने का बीड़ा सौंप दिया है और इसके लिए झाड़ू उठाने से भी परहेज नहीं किया।      
वैसे भी शीला जी राजनीति के दलदल में बरसाती मेंढ़क ही ऐसा कमाल दिखा सकते हैं लेकिन अफसोस सत्ता के नशे में आप इन्हें पहचान नहीं पायी और अपने 40 साल के राजनीतिक करियर में हार का एक ऐसा दाग लगा बैठीं जो शायद ही कभी आपके दामन से मिट पाए। वैसे गलती आप की भी नहीं है 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाला कोई भी शख्स इस खुशफहमी का शिकार हो जाएगा कि वो अजेय है और उसे पराजित करना नामुमकिन है, लेकिन आपकी ये खुशफहमी भी आप ने ही दूर कर दी। आप के अऱविंद केजरीवाल ने तो आप को आपकी ही सीट पर ऐसा पटका की शायद ही आप इस सदमे से कभी उबर पाएं। वैसे हार के बाद आपकी बेवकूफ हैं हम वाली पंक्तियां आपके हार के दर्द को बयां भी कर रही थी।
असल राजनीति भी वैसे आपको राजनीति की अपनी संभवत: आखिरी पारी में ही समझ आयी होगी क्योंकि आपने ये शायद ही अपने राजनीतिक जीवन में सोचा होगा कि एक साल पहले राजनीति में आया एक शख्स आपके राजनीतिक करियर पर झाड़ू फेर कर चला जाएगा।
बहरहाल दिल्ली के चुनावी नतीजे शीला दीक्षित और कांग्रेस के लिए ही नहीं वरन देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के लिए भी एक सबक है कि राजनीति किसी की बपौती नहीं है। जनता अगर ठान ले तो किसी को भी शीला दीक्षित बना सकती है और किसी को भी अरविंद केजरीवाल बस सामने वाले की नीयत में खोट नहीं होना चाहिए। उम्मीद करते हैं आप आम आदमी की उम्मीद को धूमिल नहीं होने देगी और जनता के भरोसे को कायम रखेगी। आखिर में दिल्ली की जनता के साथ ही आम आदमी पार्टी को राजनीति में शानदार आगाज के लिए ढ़ेरों बधाई।


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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

क्योंकि ये आम नहीं, खास लोग हैं !

किस्मत हो तो अपराधी...नहीं नहीं, फिल्म अभिनेता संजय दत्त जैसी। पहले तो एक गंभीर अपराध करने के बाद सजा होने पर लोगों का...नहीं नहीं, बड़े बड़े लोगों का दिल खोलकर समर्थन मिल जाता है और सजा माफ कराने कम कराने को लेकर मुहिम छिड़ जाती है। फिर जब जेल हो भी जाती है तो खुद की नासाज तबियत के नाम पर बड़ी ही आसानी से पेरोल मिल जाती है। मानो संजय दत्त जेल में किसी अपराध की सजा काटने नहीं बल्कि किसी फिल्म की शूटिंग के लिए पहुंचे हों। 14 दिन की छुट्टियां पूरी हो जाती हैं तो फिर बड़ी आसानी से एक ही आग्रह पर इस छुट्टी को 14 और दिन के लिए बढ़ा दिया जाता है।
हॉलिडे पैकेज समाप्त होने के बाद सजा पूरी करने के लिए संजय दत्त फिर से जेल पहुंच जाते हैं लेकिन अचानक से बकौल संजय दत्त उनके साथ ही उनकी पत्नी मान्यता और बेटी की तबियत बिगड़ जाती है और संजय दत्त फिर से जेल प्रशासन से एक महीने के हॉलिडे पैकेज की मांग करते हैं। जेल अधीक्षक महोदय भी दिल खोलकर इसे स्वीकार कर लेते हैं और डिवीजलन कमिश्नर से संजय दत्त को 30 दिन का हॉलिडे पैकेज मंजूर करने की सिफारिश कर देते हैं। नतीजा वही होता है, जो संजय दत्त जैसे बड़े बड़े लोगों की अर्जियों के साथ होता है। प्रशासन को संजय दत्त की छुट्टियों के पीछे की दलील इतनी दमदार लगती है और उनका दिल इतना पसीज जाता है कि वे इसे झट से स्वीकार कर लेते हैं। (जरूर पढ़ें- काश मैं भी संजय दत्त होता..!)
फर्ज कीजिए कि अगर एक आम कैदी अगर किसी भी वजह से पैरोल के लिए आवेदन करता है तो उसकी अर्जी का क्या हश्र होता होगा..? आम कैदी को अपनी सजा के दौरान शायद ही कभी इतनी आसानी से पेरोल मिलती हो, चाहे उस कैदी के लिए पेरोल कितनी ही जरूरी क्यों न हो..? चाहे उसके मां या पिता का निधन की क्यों न हो गया हो लेकिन पेरोल की अर्जी मंजूर होने की बजाए कूड़ेदान की शोभा बढ़ा रही होती है लेकिन कैदी को पेरोल नहीं मिलती है..! पेरोल तो बड़ी बात हो गयी, आम कैदी के परिजनों को कैदी से मिलने की अऩुमति ही बड़ी मशक्कत के बाद मिल पाती है, पेरोल मिलना तो बहुत दूर की बात है।
बड़ा आदमी होने के वाकई कई फायदे हैं। अपराध करो तो भी कोई अपराधी मानने को तैयार नहीं होता। अदालत सजा सुना भी देती है तो बड़े बड़े लोग उसके पक्ष में खड़े होकर सजा माफ करने की अपील शुरू कर देते हैं। बड़ा आदमी होने से आपके लिए कानून के मायने बदल जाते हैं और कई बार आप कानून से ऊपर हो जाते हैं। संजय दत्त भी तो बड़ा आदमी होने की, अभिनेता होने की, सेलिब्रेटी होनी की ही खा रहे हैं। आर्मस एक्ट के तहत दोषी ठहराए जाने के बाद भी कभी अपनी बीमारी के नाम पर तो कभी अपनी पत्नी और बेटी की बीमारी के नाम पर पेरोल का नहीं नहीं हॉलिडे पैकेज का जमकर लुत्फ उठा रहे हैं। वैसे उनकी पत्नी कितनी बीमार है इसकी कुछ तस्वीरें एक वेबसाईट के माध्यम से सामने आई हैं जिसमें उनकी पत्नी मान्यता शायद किसी पार्टी में अपनी बीमारी को ठीक कराने के लिए ही पहुंची थी। 
संजय दत्त बड़े आदमी हैं, सेलिब्रेटी हैं तो सोच रहा हूं क्यों न मैं भी संजय दत्त की सजा माफ करने की अपील कर दूं ताकि बार बार संजय दत्त पेरोल के लिए अपील कर कष्ट न उठाना पड़े और बार बार उनकी पेरोल मंजूर होने पर दूसरे कैदी ये सोच कर परेशान न हों कि काश में भी संजय दत्त होता, तो मेरे लिए भी सारे नियम कायदे शिथिल पड़ जाते और मैं भी अपने बीमार मां – बाप की सेवा और अपने पत्नी और बच्चों से मिलने के लिए जेल से कुछ दिनों के लिए बाहर निकल पाता।


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बुधवार, 4 दिसंबर 2013

एक्जिट पोल- कहीं खुशी, कहीं गम

पांच राज्यों मिजोरम, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान के बाद दिल्ली के चुनावी नतीजे चाहे कुछ भी हों लेकिन विभिन्न समाचार चैनलों और एजेंसियों के एक्जिट पोल सर्वे ने 2014 में मोदी के सहारे केन्द्र की सत्ता में आने को बैचेन भाजपा को फिलहाल खुश होने का मौका तो दे ही दिया है। अब ये खुशी 8 दिसंबर के बाद भी कायम रह पाएगी या नहीं ये तो पांच राज्यों के चुनावी नतीजों के सामने आने के बाद ही साफ हो पाएगा लेकिन फिलहाल चुनावी थकान उतार रहे भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए ये एक्जिट पोल किसी ऐसी नशीली दवा की तरह हैं, जिसने उनकी सारी थकान पलभर में ही छू मंतर जरूर कर दी होगी।
विभिन्न एक्जिट पोल को देखने के बाद खुश तो मोदी भी बहुत हो रहे होंगे और शायद मोदी पीएम की कुर्सी को अपने और करीब महसूस कर रहे होंगे। लेकिन कांग्रेस युवराज राहुल गांधी का चेहरा भुलाए नहीं भूलता। आखिर राहुल गांधी का क्या हाल हो रहा होगा जो अघोषित तौर पर 2014 में कांग्रेस के घोषित पीएम कैंडिडेट हैं। उन कांग्रेसी नेताओं का क्या हाल हो रहा होगा जिन्हें देश में पीएम की कुर्सी के लिए राहुल गांधी से योग्य कोई और नेता नहीं दिखाई देता। हालांकि ये लोग फिलहाल तो नतीजों से पूर्व एक्जिट पोल पर भरोसा न करने की बात कर रहे हैं लेकिन एक्जिट पोल में अगर स्थिति ठीक इसके उल्ट होती और कांग्रेस जीत के रथ पर सवार दिखाई दे रही होती तो शायद इनके सुर कुछ और ही होते और ये एक्जिट पोल के नतीजों को जनता की आवाज बताते नहीं अघा रहे होते।
एक्जिट पोल सर्वे में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के नतीजे भले ही बहुत ज्यादा चौंकाने वाले न हों लेकिन कुल 70 विधानसभा सीटों वाली देश की राजधानी दिल्ली के नतीजे चौंकाने वाले जरूर हैं। जिस तरह से अधिकतर एक्जिट पोल में कांग्रेस को अर्श से फर्श पर आते और भाजपा को बहुमत के करीब पहुंचते और दिल्ली में सरकार बनाने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी को करीब एक दर्जन से ज्यादा सीटें मिलने की बात कही जा रही है वो अपने आप में जनता का बड़े राजनीतिक दलों को एक बड़ा ईशारा है कि बेहतर विकल्प होने की स्थिति में जनता कांग्रेस और भाजपा को छोड़कर आप जैसे किसी पार्टी का भी हाथ थाम सकते हैं। सिर्फ एक साल पहले 26 नवंबर 2012 को गठित हुई आम आदमी पार्टी का दिल्ली में अगर विभिन्न एक्जिट पोल के अनुसार प्रदर्शन रहता है तो ये भाजपा और कांग्रेस के माथे पर बल लाने के लिए काफी है क्योंकि आम आदमी पार्टी आने वाले वक्त में दिल्ली से बाहर निकलकर भी दोनों बड़े दलों की नींद उड़ा सकती है जिसे कहीं न कहीं भारतीय राजनीति के लिए एक शुभ संकेत कहा जा सकता है बशर्ते आम आदमी पार्टी जनता से किए अपने वादों पर कायम रहे और भ्रष्टाचार की कालिख से खुद को बचाकर रखे।
बहरहाल 2014 के सेमीफाईनल माने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जनता ने तो अपना फैसला सुना दिया है जो 8 दिसंबर को देश के सामने आएगा लेकिन कम से कम तब तक तो विभिन्न समाचार चैनलों और एजेंसियों के इन एक्जिट पोल सर्वे को स्वीकार कर खुश होने और इसे नकार कर अपनी जीत के दावे करने के लिए तो सभी राजनीतिक दल स्वतंत्र हैं ही। फिलहाल तो इंतजार करते हैं 8 दिसंबर का और देखते हैं जनता ने अपने वोट की ताकत से इस बार किस किस की बोलती ईवीएम में बंद कर दी है।


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सोमवार, 2 दिसंबर 2013

गैस त्रासदी – स्कूल किताब से हकीकत तक

भोपाल गैस त्रासदीएक ऐसा सच जिसका सामना करने की हिम्मत शायद किसी में नहीं है, न इस त्रासदी का शिकार हुए लोगों में और न ही मध्य प्रदेश और न ही केन्द्र सरकार में। वजह बिल्कुल साफ है, त्रासदी को 29 बरस पूरे हो गए हैं लेकिन न तो इस त्रासदी के जिम्मेदार वॉरेन एंडरसन को सजा हुई और न ही पीड़ितों को इंसाफ मिल पाया। मुआवजे के नाम पर करोड़ों रूपए रेवड़ियों की तरह बांटे गए लेकिन वास्तविक रूप में इसके असल हकदारों की फेरहिस्त लंबी हैं जिन्हें मुआवजे तक नहीं मिल पाया। जबकि इसके उल्ट तस्वीर का एक और पहलू ये है कि मुआवजे के नाम पर कुछ लोगों ने जमकर चांदी काटी और गैस पीड़ित का तमग लगाकर ये लोग लखपति बन बैठे।
गैस पीड़ितों के हक में आवाज़ उठाने वाले करीब एक दर्जन से ज्यादा गैस पीड़ित संगठन दावा तो गैस पीड़ितों के हिमायती होने का करते हैं। गैस पीड़ितों के नाम पर धरना प्रदर्शन कर खूब सुर्खियां बटोरते हैं लेकिन गैस पीड़ितों के नाम पर बटोरे गए देश विदेश से करोड़ों की चंदे की रकम को कितना ये लोग पीड़ितों के कल्याण पर खर्च करते हैं इसका अंदाजा गैस पीड़ित संगठनों के आकाओं के आलीशान घर और रहन सहन को देखकर लगाया जा सकता है(गैस पीड़ितों के लिए कार्य कर रहे सभी संगठन इसमें शामिल नहीं)।
2008 से लेकर 2010 तक भोपाल में पत्रकारिता के दौरान इन चीजों को मैंने खुद महसूस भी किया। बचपन में किताबों में जब भोपाल गैस त्रासदी के बारे में पढ़ाई करते हुए हाथ में बच्चे को पकड़े एक महिला की मूर्ति देखते वक्त ये कभी नहीं सोचा था कि एक वक्त ऐसा भी आएगा जब मैं खुद भोपाल में इनके बीच कार्य कर रहा हूंगा। सोचा तो ये भी नहीं था कि इस दौरान ऐसी कड़वी हकीकतों से भी रूबरू होना पड़ेगा जिसके बारे में कभी कल्पना तक नहीं की थी।
त्रासदी के ठीक बाद से ही केन्द्र औऱ राज्य सरकार ने पूरी ईमानदारी के साथ अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई और गैस पीड़ितों की बजाए इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों की मदद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी..! मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर तो इस त्रासदी के मुख्य आरोपी वॉरेन एंडरसन को भोपाल से पहले दिल्ली और फिर दिल्ली से विदेश भगाने तक के गंभीर आरोप लगे..! हालांकि कांग्रेस ने हमेशा ही इसका खंडन किया लेकिन वॉरेन एंडरसन को भोपाल के जिलाधिकारी की सरकारी गाड़ी में एयरपोर्ट पहुंचाना और वहां से सरकारी विमान से दिल्ली पहुंचाना ये सवाल खड़े करता है कि अर्जुन सिंह और राजीव गांधी की भूमिका इस मामले में संदिग्ध थी..! अफसोस और ज्यादा होता है क्योंकि मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में चीजें आज भी नहीं बदली हैं। हजारों लोगों को मौत की नींद सुलाने वाली यूनियान कार्बाइड फैक्ट्री आज भी लोगों को मौत बांट रही है। 2-3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात ये मौत मिथाईल आइसोसायनाइट के रूप में हवा में घुलकर लोगों को तड़पा तड़पा कर मार रही थी तो आज फैक्ट्री परिसर में मौजूद हजारों टन जहरीला रसायनिक कचरा भोपाल की हवा, पानी में घुलकर लोगों को बीमारियों की सौगात दे रहा है। आश्चर्य उस वक्त होता है जब मौत बांट रहे इस रसायनिक कचरे के निष्पादन की बजाए इस पर राजनीति होती है। इससे भी बड़ा आश्चर्य ये जानकर होता है कि ये राजनीति करने वाले राजनीतिक दल नहीं बल्कि वो गैस पीड़ित संगठन हैं जो नहीं चाहते कि ये रसायनिक कचरा फैक्ट्री परिसर से निकाल कर इसे नष्ट किया जाए। अगर ऐसा नहीं होता तो जबलपुर हाईकोर्ट के इस कचरे को गुजरात के अंकलेश्वर में नष्ट करने के आदेश के बाद ये कचरा कब का नष्ट किया जा चुका होता। लेकिन ख़बरें तो यहां तक थी कि भोपाल के गैस पीड़ित संगठनों ने गुजरात के कुछ एनजीओ के साथ मिलकर गुजरात में इसका विरोध करवाना शुरु कर दिय। जिसके बाद गुजरात सरकार ने अंकलेश्वर में कचरा नष्ट किए जाने से इंकार कर दिया। इसके बाद इंदौर के निकट पीथमपुर में जब इस कचरे को नष्ट किया जाने लगा तो एक बार फिर से इसका विरोध शुरु हो गया। कुछ गैस पीड़ित संगठन दलील देते है कि इस कचरे को डाउ कैमिकल अपने देश लेकर जाए और वहीं इसे नष्ट किया जाए। इसके खिलाफ तो वे विरोध प्रदर्शन करते हैं लेकिन इससे भोपाल की हवा और पानी में हो रहे प्रदूषण से बीमार हो रहे लोगों की इनको चिंता नहीं है। देखा जाए तो सिर्फ गैस पीड़ित संगठन ही इसके लिए जिम्मेदार नहीं है बल्कि कहीं न कहीं सरकार का गैर जिम्मेदार रवैया भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। राजनीति से ऊपर उठकर सरकार ने राजनीतिक ईच्छाशक्ति दिखाई होती तो शायद 29 साल बाद भी कम से कम भोपाल की फिज़ा में ये जहर नहीं घुल रहा होता। उम्मीद करते हैं अगले साल जब ये त्रासदी अपने 30 साल पूरे कर चुकी होगी तो कम से कम फैक्ट्री परिसर में बिखरे पड़े हजारों टन जहरीले रसायनिक कचरे का निष्पादन हो चुका होगा।


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बुधवार, 27 नवंबर 2013

“आप” पर लगे आरोपों में कितना दम..?

चाहे कोई कुछ भी कहे लेकिन इस बात को नहीं नकार सकता कि इस भौतिक युग में अर्थ के बिना सब अनर्थ हैं। मतलब साफ है कि आप अगर किसी अच्छे कार्य के लिए लड़ाई भी लड़ रहे हैं तो भी आप अर्थ पर ही निर्भर हैं। आम आदमी पार्टी अगर भ्रष्टाचार के खात्मे के लक्ष्य के साथ चुनावी मैदान में है, जैसा कि आप के नेता अरविंद केजरीवाल दावा कर रहे हैं तो जाहिर है कि बिना अर्थ के वे इस लड़ाई को बहुत लंबे समय तक नहीं लड़ सकते। लेकिन अर्थ जुटाने के लिए आप के नेता किस हद तक जा रहे हैं, ये गौर करने वाली बात है। क्योंकि अगर आप बेनामी चंदे या किसी के भी कालेधन का इस्तेमाल इसके लिए कर रहे हैं तो इसे कहीं से भी जायज नहीं ठहाराया जा सकता। और अगर ऐसा हो रहा है तो आप और ऐसा करने वाले दूसरे लोगों में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। चुनाव से ऐन पहले एक स्टिंग ऑपरेशन में आप के नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप ये सोचने पर मजबूर जरूर करते हैं।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भ्रष्टाचार के खात्मे और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ झंडा बुलंद कर दिल्ली के चुनावी समर में उतरी आम आदमी पार्टी ने सत्ताधारी कांग्रेस के साथ ही एक बार फिर से दिल्ली की सत्ता हासिल करने का ख्वाब देख रही भारतीय जनता पार्टी की भी रातों की नींद उड़ा दी है। लेकिन जो पार्टी भ्रष्टाचार के खात्मे के संकल्प के साथ आम आदमी से वोट की अपील कर रही थी उस पार्टी पर भ्रष्टाचार के आरोपों का लगना निश्चित तौर पर हैरान वाला है। मीडिया सरकार संस्था ने अपने स्टिंग में जो दावा किया था उस पर अगर यकीन किया जाए तो ये भाजपा और कांग्रेस के विकल्प के रूप में आप की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे लोगों का दिल तोड़ने के लिए काफी है। लेकिन स्टिंग को देखने के बाद मेरा व्यक्तिगत रूप से ये मानना है कि मीडिया सरकार के स्टिंग में आप के नेताओं पर लगे आरोपों में दम बिल्कुल भी नहीं है। ये इसलिए भी क्योंकि स्टिंग में आम आदमी पार्टी के नेता शाजिया इल्मी के साथ ही कुमार विश्वास भी कैश के बदले रसीद देने की बात करते नजर आ रहे थे। जहां तक कुमार विश्वास का 50 हजार कैश लेने की बात है तो प्रोफेशनली देखा जाए तो उनका किसी आयोजन के बदले उसकी फीस लेना और सुविधाएं लेना गलत तो नहीं है, वो भी जब वे उसकी रसीद भी दे रहे हैं।  
वहीं आम आदमी पार्टी का रॉ फुटेज देखने के बाद दावा है कि टीवी पर एडिटेड फुटेज दिखाई गयी और कई अहम हिस्सों को कांट छांट कर हटा दिया गया। अगर ये सही है तो ऐसे में स्टिंग करने वाली संस्था मीडिया सरकार पर सवाल तो उठते ही हैं। चुनावी समय में सिर्फ एक ही पार्टी के कई नेताओं को टारगेट कर स्टिंग करना भी मीडिया सरकार की नीयत पर शक करने को मजबूर करता है।
जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने अपने नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर आप ने साहस दिखाते हुए आरोप सही होने पर अपने उम्मीदवारों को चुनावी मैदान से वापस बुलाने तक की बात पूरी दमदारी से कही वो काबिले तारीफ है क्योंकि आज के समय में शायद ही कोई दूसरा ऐसा राजनीतिक दल होगा जो ये कहने का साहस दिखा पाएगा वो भी ऐसे वक्त पर जब वे उनकी जगह पर दूसरे उम्मीदवार को खड़ा नहीं कर सकते।
आप का कितना डर भाजपा और कांग्रेस में है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आप के नेताओं पर आरोप लगने के बाद भाजपा और कांग्रेस नेताओं ने इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और आप पर चौतरफा हमले शुरु कर दिए। हालांकि आप ने इस स्टिंग के कांग्रेस का हाथ होने का दावा किया है और इसके लिए 1400 करोड़ रूपए खर्च करने का आरोप लगाया है लेकिन कांग्रेस का या फिर भाजपा का इस स्टिंग के पीछे कितना हाथ है ये तो वे ही बेहतर जानते होंगे लेकिन इसके बहाने भाजपा और कांग्रेस नेताओं ने जिस तरह आप पर चढ़ाई शुरु कर दी थी, वो जाहिर करने के लिए काफी है कि कहीं न कहीं आपका डर दोनों ही पार्टियों में हावी जरुर है। वैसे भी जो पार्टियां गले तक भ्रष्टाचार में डूबी हुई हों, जिनके नेताओं पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लग चुके हों उनका भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आप पर सवाल उठाना कहीं से भी जायज तो नहीं ठहरा जा सकता। कम से कम इनके मुंह से ये बातें अच्छी तो बिल्कुल भी नहीं लगती।
बहरहाल दिल्ली के चुनावी नतीजों पर इस स्टिंग का कितना असर पड़ेगा और जनता आप के झाड़ू से कांग्रेस और भाजपा को किस हद तक साफ करेगी या फिर आप का झाड़ू आप पर ही उल्टा चलेगा ये तो 8 दिसंबर 2013 को दिल्ली विधानसभा के चुनावी नतीजों के बाद ही सामने आएगा लेकिन फिलहाल आप ने दिल्ली में तो कांग्रेस और भाजपा का बैंड बजाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है।


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सोमवार, 25 नवंबर 2013

जहरीला कौन..?

पांच राज्यों के चुनावी समर और 2014 के आम चुनाव से पहले सत्ता के जहर का नशा नेताओं के सिर चढ़कर बोल रहा है। खास बात ये है कि हर कोई इस जहर को पीने के लिए ललायित दिखाई दे रहा है। साथ ही किसने कितना जहर पिया..? कौन कितना जहरीला है इसका बखान भी खूब हो रहा है।
बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब राजस्थान की राजधानी जयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने कांग्रेस में नंबर दो की पोजीशन संभालने से पहले अपने भाषण में कहा था कि बीती रात उनकी मां सोनिया गांधी ने उन्हें ये बताया कि सत्ता जहर के समान है। राहुल के इस बयान के बाद हर कोई हैरान था कि अगर वाकई में सत्ता जहर है तो फिर क्यों राहुल गांधी की मां सोनिया गांधी ने थाल सजाकर प्याले में अपने युवराज राहुल को ये जहर पीने के लिए दिया..? सवाल ये भी उठने लगे कि क्या ये इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या की याद को ताजा कर देश की जनता के नाम एक भावुक अपील थी..? इस पर चर्चाओं का लंबा दौर चला। खैर बात आयी गयी हो गयी थी लिहाजा लोग इस बात को ये समझकर भूल गए थे कि शायद सत्ता के जहर की मदहोशी का कुछ अलग ही मजा होता है। लेकिन पांच राज्यों दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम के विधानसभा चुनाव के दौरान सोनिया गांधी ने भाजपा के लोगों को जहरीला कहकर एक बार फिर से उसी वाक्ये की याद ताजा कर दी। ऐसे में भाजपा के पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी कहां पीछे रहने वाले थे उन्होंने कांग्रेस पार्टी को ही ये कहकर सबसे जहरीली पार्टी करार दे दिया कि कांग्रेस सबसे ज्यादा वक्त तक सत्ता में रही है ऐसे में उससे जहरीली पार्टी कोई और कैसे हो सकती है..?
चुनावों में चर्चा जहर और जहरीले लोगों की हो रही है, तो ऐसे में जेहन में कई सवाल उठते हैं। मसलन, जहर तो वही पीना चाहेगा जो खुदकुशी करना चाहता हो लेकिन ये बात भी गौर करने वाली है कि खुदकुशी कोई अपनी खुशी से तो नहीं करता..! ऐसे में क्यों सोनिया ने अपने बेटे राहुल को सत्ता रूपी जहर का प्याला दिया..? क्यों राहुल ने खुशी से इस प्याले को स्वीकार किया और क्यों कांग्रेस और भाजपा दोनों एक दूसरे को जहरीला साबित करने में तुले हुए हैं। मान दोनों रहे हैं कि सत्ता जहर है और जहर राजनीतिक दलों के साथ ही उनके नेताओं में भी है लेकिन जुबानी जंग इस बात को साबित करने की हो रही है कि कौन ज्यादा जहरीला है..? भाजपा कांग्रेस को तो कांग्रेस भाजपा को ज्यादा जहरीला साबित करने पर तुली हुई है।
खास बात तो ये है कि इस जहर को हर राजनेता पीना चाहता है, लेकिन ये दुनिया जानती है कि उनके लिए ये जहर न होकर अमृत के समान है क्योंकि एक बार सत्ता मिलने पर ये अपनी कई पीढ़ियों को तारने का ऐसा इंतजाम कर लेते हैं कि ताकि फिर किसी को कुछ करने की जरूरत ही न पड़े।
जहर असल में किसी को पीना पड़ता है, उसका असर किसी को सहना पड़ता है तो वो है देश की जनता, जिसके दम पर ही ये राजनेता सत्ता हासिल करते हैं। कभी घोटालों और भ्रष्टाचार का जहर तो कभी महंगाई और सांप्रदायिक दंगों का जहर और ये सब भ्रष्ट मंत्री और नेताओं के मंथन से ही बाहर निकलता है। नेता को ऐश करते हैं लेकिन ये जहर देश की जनता का जीना मुहाल कर देता है। उम्मीद करते हैं कि देश की जनता इस बार वोट डालने से पहले सत्ता के लिए ललायित नेताओं की जहरीली फुंकार से बचने के उपाय पर भी विचार करेगी और ऐसे प्रत्याशियों को चुनेगी जो सत्ता के लिए नहीं जनता की सेवा के लिए काम करे।   


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शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

मोदी रन – आखिरी किश्त

(पढ़ें - मोदी रन PART-1)
मोदी बिहार को पार कर यूपी को रवाना हो गए, वही यूपी जिसे फतह करने की तैयारी मोदी ने सौंपी है, अपने हनुमान यानि कि अमित शाह को। जाहिर है 80 लोकसभा सीटों वाला उत्तर प्रदेश हमेशा से सबसे अहम केन्द्र रहा है और हमेशा रहेगा। लेकिन क्या इतना आसान होगा मोदी के लिए अपने हनुमान के बूते यूपी को पार पाना, उस यूपी को जहां कि राजनीति धर्म और जातिवाद के मकड़जाल में उलझी हुई है...(पूरा पढ़ें – मोदी रन पार्ट 2)

पीएम की कुर्सी के रास्ते की सबसे अहम और बड़ी अड़चन यूपी को मोदी ने कई चांस के बाद पार किया तो मोदी के सामने था तमिलनाडू, वही तमिलनाडू जो केन्द्र की सत्ता में अपना अलग स्थान रखता है। वही तमिलनाडू जिसके सामने केन्द्र की यूपीए सरकार कई बार घुटने टेकने पर मजबूर हो जाती है। वही तमिलनाडू जहां पर खाता तक खोलना भाजपा के लिए किसी सपने के सच होने जैसा है। 39 सांसदों वाले तमिलनाडू में कांग्रेस के पास 8 सांसद तो भी हैं, लेकिन भाजपा यहां पर शून्य है। डगर मुश्किल थी और कांग्रेस के साथ ही पार पाना था करूणानिधी की द्रमुक और जयललिता की अन्नाद्रमुक को। मोदी ये बात अच्छी तरह जानते भी थे लेकिन मोदी ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी और तमिलनाडू को फतह करने के लिए निकल पड़े। यहां भी मोदी के पास रिटेक का ही सहारा था और कई चांस के बाद मोदी तमिलनाडू को पार कर पाए।
तमिलनाडू के बाद मोदी पहुंचे असम तो यहां भी हालात कुछ वैसे ही थे। 14 सीटों वाले असम में कांग्रेस के पास 7 सीटें थी तो मोदी की भाजपा यहां भी शून्य ही थी। तमिलनाडू की भांति मोदी यहां भी गिरते पड़ते रिटेक के सहारे इसे पार कर गए और पहुंचे मध्य प्रदेश में जहां से मोदी के साथ ही भाजपा को बड़ी उम्मीदें हैं। हो भी क्यों न मध्य प्रदेश की 29 सीटों में से 16 पर भाजपा का कब्जा है और कांग्रेस के पास सिर्फ 12 सीटें हैं। भाजपा को यहां पर विधानसभा चुनाव में भी हैट्रिक की उम्मीद है तो लोकसभा चुनाव में अपनी सीटें 16 से आगे बढ़ने की उम्मीद। मश्किलें तो मोदी को मध्य प्रदेश में भी पेश आईं लेकिन मोदी ने आखिरकार मध्य प्रदेश को पार कर ही लिया। मध्य प्रदेश के बाद इसी तरह मोदी ने दौड़ते हुए, गिरते पड़ते, कई कई रिटेक के सहारे पंजाब, पश्चिम बंगाल, हरियाणा और ओडिशा समेत तमाम राज्यों को पार कर ही लिया।
खेल में तो हार जीत होती रहती है और साथ ही आपके पास खुद को बेहतर साबित करने के कई मौके भी होते हैं। सिर्फ खेल के हिसाब से सोचें तो मोदी के पास पीएम की कुर्सी तक पहुंचने के लिए हर राज्य को पार करना था, जो मोदी ने जैसे तैसे किया भी। लेकिन असल जिंदगी खेल से पूरी तरह अलग होती है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या वाकई में 2014 में भाजपा के पीएम उम्मीदवार मोदी के लिए इस कुर्सी पर काबिज होना इतना आसान है। जाहिर है असल जिंदगी में वो भी राजनीति में ये सब इतना आसान नहीं होता है, लेकिन चुनाव की रणभेरी में पीएम इन वेटिंग की पदवी संभाल कर जंग का ऐलान कर चुके मोदी के पास शायद कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। मोदी को पीएम की कुर्सी के आस पास भी पहुंचना है तो 2014 में भाजपा के हिंदी भाषी राज्यों के अलावा इस तिलिस्म को तोड़कर दूसरे राज्यों में भी भाजपा को आगे बढ़ाना होगा जो आसान लगता नहीं। सोशल नेटवर्किंग साईट्स में मोदी छाए हुए हैं, बातें मोदी लहर की भी हो रही हैं लेकिन सवाल ये है कि क्या ये बातें करने वाले, दफ्तर या घर पर बैठकर सोशल नेटवर्किंग साईट्स में मोदी की जय जयकार करने वाले क्या मतदान के दिन अपने अपने पोलिंग बूथ तक पहुंचेंगे और पहुंचेंगे भी तो क्या भाजपा के वोट में कनवर्ट हो पाएंगे..?
बहरहाल मोदी रन में मोदी को पीएम की कुर्सी तक पहुंचाकर मोदी समर्थकों के पास खुशी की वजह तो है और वे 2014 तक कई बार मोदी को इस खेल में तो कम से कम पीएम की कुर्सी तक पहुंचा सकते हैं लेकिन देखना होगा कि असल जिंदगी में क्या मोदी पीएम की कुर्सी तक पहुंच पाएंगे क्योंकि ये नहीं भूलना चाहिए कि रियल लाईफ में न तो मौके बार बार मिलते हैं और न ही रिटेक का कोई चांस होता है।

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मंगलवार, 19 नवंबर 2013

सचिन भारत रत्न तो ध्यानचंद और अटल क्यों नहीं..?

सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिलने पर उनके प्रशंसक फूले नहीं समा रहे हैं। क्रिकेट के शौकिनों के साथ ही सचिन के प्रशंसकों का खुश होना लाजिमी भी है क्योंकि क्रिकेट उनके लिए धर्म है तो सचिन तेंदुलकर क्रिकेट के भगवान। भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न पाना किसी के लिए भी गौरव की बात है लेकिन सवाल ये है कि क्या सचिन को सही वक्त पर भारत रत्न से सम्मानित किया गया..? कहीं ये फैसला जल्दबाजी में तो नहीं लिया गया..? खेल जगत की ही अगर बात करें तो क्या सचिन के चक्कर में दूसरे खिलाड़ियों को नजरअंदाज तो नहीं किया गया जो इसके हकदार थे..?
निश्चित तौर पर भारतीय क्रिकेट के लिए सचिन के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता लेकिन सचिन के अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास लेने के तुरंत बाद बिना देर किए सचिन को इस सम्मान से नवाजना गले नहीं उतरता। जिस तरह से सचिन को भारत रत्न से नवाजा गया उससे तो कम से कम भारत सरकार का ये फैसला जल्दबाजी में लिया गया लगता है..!
ये इसलिए क्योंकि सचिन के मामले में उन्हें ये सम्मान महज 42 वर्ष की आयु में प्रदान कर दिया जाता है लेकिन खेल जगत के ऐसे कई भारतीय खिलाड़ी जो अलग अलग खेलों में अपना जौहर दिखाकर भारत का नाम रोशन कर चुके हैं उन्हें इस सम्मान के लायक ही नहीं समझा गया।
फ्लॉंईंग सिख के नाम से मशहूर एथलीट मिल्खा सिंह हों या फिर हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद दोनों ने विश्व स्तर पर कई मौकों पर अपने बेहतरीन प्रदर्शन के दम पर न सिर्फ तिरंगे के सम्मान को बढ़ाया बल्कि देशवासियों को गर्व करने का मौका दिया। मिल्खा सिंह को दी गयी उड़न सिख की उपाधि और ध्यानचंद को हॉकी के जादूगर की उपाधि ये बताने के लिए काफी हैं कि अपने अपने खेल में दोनों का विश्व में कोई सानी नहीं है। ये इनके खेल की जादूगरी ही थी कि विश्वस्तर पर आज भी इनके नाम का डंका बजता है। हो सकता है सचिन के प्रशंसकों को ये बातें नागवार गुजरे लेकिन सचिन की तुलना में भारत रत्न के लिए हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद सिंह और उड़न सिख मिल्खा सिंह के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ये स्पष्ट करना चाहूंगा कि यहां विरोध सचिन को भारत रत्न दिए जाने का नहीं है बल्कि दूसरे खिलाड़ियों को नजरअंदाज करने का है कि आखिर क्यों ऐसा किया गया..?
सचिन को भारत रत्न से नवाजने के बाद एक और नाम की गूंज सुनाई देने लगी है कि आखिर क्यों भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को आज तक भारत रत्न से सम्मानित नहीं किया गया। अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न देने की मांग न सिर्फ उनकी पार्टी के लोग कर रहे हैं बल्कि विरोधी पार्टियों के नेताओं फारुख अब्दुल्ला और नीतिश कुमार का अटल को भारत रत्न देने की मांग करना ये जाहिर करता है कि अटल बिहारी वाजपेयी की छवि एक निर्विवाद नेता की है और वे इसके हकदार भी हैं। अटल ने भारतीय राजनीति में रहते हुए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम ऊंचा ही किया है ऐसे में उनकी दावेदारी को खारिज नहीं किया जा सकता। कांग्रेसी भले ही अटल बिहारी वाजपेयी के नाम को ये कहकर खारिज कर रहे हैं कि 2002 में गुजरात दंगों के वक्त अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री रहते हुए राजधर्म का पालन नहीं किया लेकिन इस सवाल का जवाब शायद इनके पास नहीं होगा कि 1975 में देश पर आपातकाल लादकर भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली को खतरे में डालने वाली इंदिरा गांधी और बफोर्स घोटाले में नाम आने वाले राजीव गांधी आखिर इसके हकदार कैसे हो गए..?
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु और इंदिरा गांधी का खुद को भारत रत्न से नवाजना भी कई बातें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या भारतीय राजनीति में नेहरु – गांधी परिवार के जो सदस्य देश के पीएम बने, वे ही भारत रत्न के हकदार हैं, फिर चाहे उनके साथ कई विवाद क्यों न जुड़े हों..?  
बहरहाल सचिन को भारत रत्न मिलने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न दिए जाने की मांग और मेजर ध्यानचंद और मिल्खा सिंह नजरअंदाज क्यों के सवाल चाहे लाखों उठ रहे हो लेकिन आज का सच तो यही है कि अटल बिहारी, ध्यानचंद और मिल्खा सिंह भारत रत्न नहीं है लेकिन क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर भारत रत्न हैं और यही इतिहास के पन्नों में भी दर्ज होगा। मचाते रहो हल्ला होगा वही जो मंजूरे यूपीए सरकार होगा।
आखिर में एक सवाल और भारत रत्न सचिन को टीवी पर विज्ञापनों  में विभिन्न कंपनियों के उत्पादों का प्रचार करते देखकर आपको कैसा लग रहा है..?


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शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

राजनीति - सिर्फ आरोप से न हो भविष्य का फैसला

राजनीति को पवित्र करने की जरुरत है, जरूरत है राजनीति से उन लोगों की सफाई की जो अपने पापों को धाने के लिए राजनीति की गंगा में डुबकी लगाने से परहेज नहीं करते। हो भी क्यों न..? राजनीति दागियों के लिए अपने अपराधों के दागों को छिपाने का सबसे आसान जरिया जो बन गयी है। सोने पर सुहागा तो तब हो जाता है जब ये दागी सांसद और विधायक सत्ताधारी दल का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। उस वक्त इनका आचरण देखने लायक होता है। वैसे भी अपराधियों के लिए राजनीति से बेहतर ऐशगाह और कहां हो सकती है..?
राजनीति की पेटेंट सफेद परिधान कुर्ता पायजामा में तो इनके सारे दाग जैसे छू मंतर हो जाते हैं। राजनीति दागी नेताओं के लिए टीवी पर अक्सर आने वाले उस टाईड डिटर्जेंट पाउडर और केक के विज्ञापन की तरह है, जो इनके दागों को पलक झपकते ही साफ कर देती है।  
ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर इसका ईलाज है क्या..? हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में यह कहा था कि 2 साल से ज्यादा की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों की सदस्यता खत्म कर दी जानी चाहिए। लेकिन मनमोहन कैबिनेट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए नए अध्यादेश की मंजूरी दे दी जिसके चलते सरकार ने दागी नेताओं को राहत देने का काम किया था। दागी नेताओं पर आई सुप्रीम कोर्ट की सुनामी टलने से दागियों के चेहरे खुशी से खिल गए थे लेकिन अचानक से कांग्रेस युवराज राहुल गांधी अध्यादेश को फाड़कर बाहर निकले और इसे नॉनसेंस कहते हुई अपनी पार्टी के नेता और देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक की किरकिरी कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
पीएम मनमोहन सिंह की मजबूरी सामने आई और उन्होंने इस अध्यादेश को वापस ले लिया जिसके पहले शिकार बने राजद अध्यक्ष और सासंद लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस सांसद राशिद मसूद।
अब केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कैबिनेट के सामने एक प्रस्ताव पेश किया है जिसके तहत बलात्कार, हत्या, अपहरण आदि जैसे गुनाहों (जिनमें न्यूनतम सात वर्ष तक की सजा होती है) के आरोपियों को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। राजनीतिक सुधारों की दिशा में सोचा जाए तो ये प्रस्ताव काबिले तारीफ है लेकिन इस प्रस्ताव के विरोध में भी आवाज बुलंद होनी शुरु हो गयी है। ऐसे में सवाल ये है कि सिब्बल के इस प्रस्ताव का विरोध कितना जायज है..?
ये सवाल इसलिए भी क्योंकि ये प्रस्ताव उन राजनेताओं के राजनीतिक भविष्य को चौपट कर सकता है, जो या तो झूठे आरोपों में फंसे हुए हैं या फिर जिन पर राजनीतिक साजिश के तहत आरोप लगाए गए हों। राजनीति में कुछ भी संभव है, ऐसे में निश्चित तौर पर इसका फायदा उठाकर राजनेता अपने फायदे के लिए और विरोधी नेताओं का राजनीतिक भविष्य चौपट करने के लिए उन पर झूठे आरोप भी लगाने से गुरेज नहीं करेंगे।
निश्चित तौर पर इस प्रस्ताव के विरोध से वास्तव में दागी नेताओं को बचने का एक अवसर मिल जाएगा लेकिन इसकी कीमत पर ईमानदार या फिर झूठे मामलों में फंसाए गए नेताओं के भविष्य को चौपट नहीं किया जाना चाहिए। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट पहले ही दागियों के राजनीतिक भविष्य को चौपट करने की दिशा में ऐतिहासिक फैसला दे ही चुका है जिसके दो बड़े शिकार भी लालू और राशिद मसूद के रूप में हमारे सामने मौजूद हैं। 
सिब्बल का ये प्रस्ताव सुधार की राजनीति के अंतर्गत जनता और समाज के हित में तो दिखाई देता है लेकिन इस प्रस्ताव को अमली जामा पहनाना ईमानदार राजनेताओं और राजनीति में जाने की ईच्छा रखने वाले लोगों के लिए एक बड़ी बाधा का काम करेगा। इसका मतलब ये भी नहीं कि राजनीति में सुधार की दिशा में सोचना बंद कर दिया जाए या इस पर काम न हो। सुप्रीम कोर्ट का हाल ही में आया ऐतिहासिक फैसला एक अच्छी शुरुआत दे चुका है। इस शुरुआत को आगे बढ़ाया जाना चाहिए लेकिन ये ध्यान भी रखा जाना चाहिए कि ये ईमानदार लोगों के लिए राजनीति के रास्ते बंद न हों बल्कि वे नए जोश के साथ राजनीति में प्रवेश करें।

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गुरुवार, 14 नवंबर 2013

राहुल के 82 वर्षीय युवा साथी !

2014 में कांग्रेस से अघोषित पीएम प्रत्याशी राहुल गांधी कहते हैं कि युवा देश की तकदीर बदल सकते हैं। राहुल युवाओं से आह्वान करते हैं कि वे राजनीति में आएं। राहुल अपनी पार्टी में युवाओं को प्रतिनिधित्व देने की बातें करते हैं। राहुल कहते हैं कि राजनीति में आना आसान नहीं है क्योंकि हर कोई उनकी तरह राजनीतिक पृष्ठभूमि से नहीं होता लेकिन राहुल ये वादा जरुर करते हैं कि वे युवाओं को राजनीति में लाना चाहते हैं और चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा युवा संसद और विधानसभा में पहुंचे ताकि देश की बागडोर युवाओं के हाथों में हों। एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस के बहाने वे अपनी इस सोच को परवान चढ़ाने की पूरी कोशिश भी करते हैं। लेकिन कांग्रेस के युवराज की पार्टी में कुछ ऐसा भी होता है, जो गले नहीं उतरता।
राजस्थान के चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे राहुल के दो युवा साथियों को देखकर तो कम से कम ऐसा ही लगता है। दरअसल ये युवा साथी कुछ जरूरत से ज्यादा ही युवा हैं। 100 से 1 तक अगर उलटी गिनती करें तो इनकी उम्र करीब 18 वर्ष ही होती है, शायद इन दो केसों में राहुल की गिनती 100 से 1 की तरफ ही शुरु हुई होगी इसलिए ही ये दोनों राजस्थान के चुनावी मैदान में ताल ठोकते दिखाई दे रहे हैं। इनमें से एक भंवरी देवी यौन शोषण और हत्या के आरोप में जेल में बंद कांग्रेस विधायक मलखान सिंह की 82 वर्षीय माता अमरी देवी हैं, जिन्हें लूणी विधानसभा से टिकट मिला है तो दूसरे हैं, गहलोत सरकार में कृषि मंत्री हरजीराम बुरड़क जिन्हें टिकट मिला है लाडनूं विधानसभा सीट से। खास बात ये है कि उम्र के मामले में हरजीराम बुरड़क भी अमरी देवी की बराबरी कर रहे हैं और जीवन के 82 वसंत पूरे कर चुके हैं। बात यहीं खत्म हो जाती तो ठीक था लेकिन दिल्ली में अजय माकन की प्रेस कांफ्रेंस में दागियों को बचाने वाले अध्यादेश की कॉपी को नॉनसेंस कहते हुए सार्वजनिक रूप से फाड़ने वाले राहुल गांधी की फटा पोस्टर निकला राहुल वाली इमेज भी यहां पर उस वक्त धराशायी होती दिखाई दी जब कांग्रेस ने दागियों के परिजनों को दिल खोलकर टिकट बांटे।
बलात्कार के आरोप में जेल में बंद पूर्व मंत्री बाबू लाल नागर के भाई हजारी लाल नागर को दद्दू विधानसभा से अपना उम्मीदवार बनाया तो भंवरी देवी यौन शोषण और हत्या के आरोप में जेल मे बंद महिपाल मदेरणा की पत्नी लीला मदेरणा को जोधपुर की ओसियां विधानसभा से टिकट थमा दिया। भंवरी देवी मामले में जेल में बंद कांग्रेस विधायक मलखन सिंह की मां तो लूणी से कांग्रेस की उम्मीदवार हैं ही। ये छोड़िए दुष्कर्म के आरोपों से घिरे अपने विधायक उदय लाल आंजना को फिर से निम्बाहेड़ा विधानसभा सीट से टिकट थमा दिया तो एक महिला की मौत के मामले में मंत्री पद से हाथ धोने वाले रामलाल जाट को भी आसिंद विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाने में देर नहीं की। ये तो कुछ नाम है, प्रत्याशियों की सूची का पोस्टमार्टम किया जाए तो ये फेरहिस्त काफी लंबी दिखाई देगी।
इसके पीछे कांग्रेस का तर्क भी निराला है। कांग्रेस का कहना है कि ये टिकट विश्नोई और जाट समाज के दबाव में जारी किए गए हैं। अगर कांग्रेस के तर्कों से ही मतलब निकाला जाए तो साफ होता है कि वोटों के लिए न तो कांग्रेस को न तो 82 वर्षीय उम्मीदवार से परहेज है और न ही दागियों से क्योंकि राजस्थान में तो विधानसभा चुनाव के लिए जारी टिकटों की सूची में इनकी संख्या ठीक ठाक है।
इस सब के बाद अब राहुल गांधी की युवा और बेदाग नेताओं को संसद और विधानसभा पहुंचाने की सोच के साथ ही उनकी कथनी और करनी के फर्क का क्या मतलब निकाला जाए ये तो आप ही बेहतर बता सकते हैं। वैसे कुछ लोग हैं जो इसके जस्टिफाई भी कर सकते हैं, वो भी पूरे कुतर्कों के साथ, अब उनका नाम क्या लिखना जानते तो आप हैं ही।


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बुधवार, 13 नवंबर 2013

और नेता जी लुट गए !

लोकसभा चुनाव हो, विधानसभा चुनाव हों या फिर नगर निकाय या पंचायत के चुनाव। चुनाव जीतने के बाद खुद को राजा समझने वाले नेता जनता रूपी प्रजा को लूटने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते। भ्रष्टाचार और घोटालों के जरिए नेता जनता की खून पसीने की कमाई से अपनी नोटों को फसल को सींचने का कोई मौका नहीं छोड़ते क्योंकि ये नेता समझते हैं कि चुनाव जीतकर इन्होंने पांच साल का ऐश परमिट हासिल कर लिया है।
लेकिन चुनाव के वक्त जनता को लूटने वाले ये नेता भी कई बार लुट जाते हैं। ये बात अलग है कि इनकी धन दौलत तो नहीं लुटती, लेकिन धन दौलत का इंतजाम करने वाली कुर्सी पाने का इनका ख्वाब लुट कर जरुर टूट जाता है। इन्हें लूटने वाले भी इनके अपने ही होते हैं, लिहाजा अपनी महत्वकांक्षाओं को दबाकर अक्सर ये शांत बैठ जाते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपनी महत्वकांक्षाओं को दबा नहीं पाते और बागी हो जाते हैं। मैं बात चुनावी टिकट की कर रहा हूं जिसके लिए नेताओं की जद्दोजहद और मेहनत देखने लायक होती है, आखिर पांच साल का ऐश परमिट पाने की पहली बाधा तो चुनावी टिकट ही है।
देश के पांच राज्यों में चुनावी सरगर्मियां उफान पर हैं, अखबार से लेकर टीवी में चुनावी रंग में रंगे हुए हैं। सुबह की चाय के साथ अख़बार में ऐसी ही ख़बरों को टटोलते हुए राजस्थान के एक नामी दैनिक में एक नेता जी का टिकट कटने की ख़बर सुनी तो ख़बर को पूरा पढ़ने का मन किया। दरअसल एक नेता जी को चुनाव का टिकट मिलने के बाद उनसे छिन गया और उनकी जगह किसी दूसरे नेता को टिकट दे दिया गया। नेता जी का पांच साल का ऐश परमिट हासिल करने का ख्वाब टिकट लुटने के साथ ही टूट चुका था। नेता जी करते भी क्या लूटने वाला भी उनकी अपना ही बिरादरी का था और अपनी ही पार्टी का।
नेता जी बड़े महत्वकांक्षी थे, हर साल में पांच साल का ऐश परमिट हासिल करना चाहते थे। उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा भी था, लिहाजा नेता जी ने अपनी पार्टी से बगावत करने का ऐलान कर दिया और बागी होकर अपनी ही पार्टी के प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव मैदान में ताल ठोकने की तैयारी शुरु कर दी। आखिर अपने हक के लिए नेता जी खुद आवाज नहीं उठाएंगे तो कौन उठाएगा..?
अच्छा लगा नेता जी को किसी के हक के लिए लड़ते हुए देखकर फिर भले ही अपने बिना किसी स्वार्थ के किसी के हक में आवाज न उठाने वाले नेता जी अपने ही हक के लिए क्यों न बगावत का झंडा उठाकर चुनावी मैदान में कूद पड़ें हों। और भी अच्छा लगा क्योंकि जनता को लूटने वाले नेता जी को भी पता चला कि आखिर लूटे जाने पर कितना दर्द होता है, लूटे जाने पर कितनी तकलीफ होती है। चुनाव के वक्त कम से कम इस टिकटों की लूट का तो लुत्फ उठा ही सकते हैं। जय हो नेतानगरी की।।

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