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शनिवार, 13 जून 2015

लेकिन इनको शर्म नहीं आती !

सफाई कर्मचारियों की हड़ताल क्या समाप्त हुई, दिल्ली की सड़कों पर सफेद टोपी लगाए आप नेताओं के साथ ही भगवा टोपी लगाए भाजपा नेताओं का हुजूम उमड़ पड़ा। हड़ताल समाप्त होने के बाद सफाई कर्मचारी अपने काम में जुट चुके थे, लेकिन नेताओं का सियासत का कीड़ा शांत नहीं हुआ था। लाव-लश्कर के साथ ये अजब कौम मानो घर से सौगंध खाकर निकली थी कि 48 घंटे में दिल्ली को चमका देंगे। दिल्ली कितना चमकेगी ये तो पता नहीं लेकिन इनकी सियासत जरूर चमकती दिखाई दी।
सफाई कर्मचारियों की हड़ताल के दौरान जब पूर्वी दिल्ली के लोगों का जीना दूभर हो गया था, सड़कें कूड़े के ढेर से पट चुकी थी। उस वक्त दिल्ली को चमकाने की ख्याल किसी राजनेता के दिल में नहीं आया। कूड़े की सड़ांध इनकी नाक तक नहीं पहुंची थी, लेकिन सफाई कर्मचारियों के काम में जुटते ही इनका ज़मीर भी जाग गया कि दिल्ली तो हमारी भी है, दिल्ली तो देश की शान है, हमें इसको चमकाना है।
इनके कारनामों को देखकर दिल्ली वासियों को शर्म आ गई। कई जगह से दिल्ली वासियों ने इनको खदेड़ा भी, लेकिन इनको शर्म नहीं आई। ये टीवी पर गला फाड़-फाड़ कर बेशर्मों की तरह एक-दूसरे पर आरोप मढ़ते रहे।
स्वच्छ भारत का प्रधानमंत्री मोदी का नारा जब दिल्ली में ही दम तोड़ने लगा था तो भी दिल्ली के मोदी भक्त भाजपा कार्यकर्ताओं की नींद नहीं टूटी। हैरानी तो उस वक्त भी हुई, जब स्वच्छता पसंद पीएम मोदी को भी बदसूरत होती दिल्ली नज़र नहीं आई।
ऐसा ही कुछ हाल आम आदमी की पार्टी होने का दावा करने वाली आपनेताओं का भी था, जो हाथ में झाड़ू उठाने से कतराते दिखाई दिए, वही झाड़ू जिसके दम पर आप ने दिल्ली से भाजपा और कांग्रेस का सफाया कर दिया था।
सियासत का ये रंग कोई नया नहीं है, अलग-अलग मौकों पर राजनेताओं को सियासी रंग बदलते जनता ने कई बार देखा है, ये सब देख जनता को शर्म आ जाती है, लेकिन शर्म इन्हें नहीं आती !


deepaktiwari555@gmail.com

शुक्रवार, 12 जून 2015

भूख नहीं कमबख़्त सियासत मार देती है !



पापी पेट का सवाल है, वरना कौन कमबख्त तन को झुलसा देने वाली गर्मी में जी तोड़ मेहनत करता। अगर पापी पेट ना हो, तो दिन-रात खून-पसीना एक करने की ज़रूरत ही ना पड़े, लेकिन इतनी जद्दोजहद के बाद अगर मेहनताने के लिए भी आंदोलन का रास्ता अख्तियार करना पड़े, तो क्या ?
पूर्वी दिल्ली में सड़क किनारे जगह-जगह लगे कूड़े के ढ़ेर इस आंदोलन की कहानी खुद बयां कर रहे हैं। खास बात ये, कि हक की इस लड़ाई में सबसे ज्यादा नुकसान भी लड़ने वालों का ही होता है। फिर आम जनता तो है ही उस घुन की तरह है जो आटे के साथ हमेशा से पिसती आई है।
अगर कोई फायदे में है, तो वह है, इस लड़ाई के दूसरे सिरे पर खड़ी सरकार और सत्ता की लालसा लिए राजनीतिक दल, जिन्हे सफाई कर्मचारियों की परेशानी में भी अपना वोट बैंक दिखाई पड़ रहा है। सफाई कर्मचारियों की इस परेशानी में वे भले ही तन से साथ खड़े होने का दम भर रहे हैं, लेकिन असल में सियासी कौम अपने सियासी नफे नुकसान के गणित में उलझी हुई है।
इस जंग का आगाज़ करने वाले पूर्वी नगर निगम के सफाई कर्मचारियों के घर में खाने के लाले पड़े हुए हैं लेकिन घर से भरपेट नाश्ता कर इनके आंदोलन में शामिल होने वाले राजनीतिक दलों के नुमाईंदे एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेल रहे हैं।
सफाई कर्मचारियों के साथ ही इस लड़ाई का असर झेल रही आम जनता की दुश्वारियों से बेख़बर राजनेता अपनी-अपनी सियासत चमकाने में बेहद व्यस्त हैं। कुछ एसी कमरों में बैठकर प्रेस कांफ्रेंस कर एक दूसरे पर निशाना साध रहे हैं तो कुछ लाव-लश्कर के साथ धरना स्थल पर ही इनके सबसे बड़े हिमायती नज़र आ रहे हैं।
राजनीति को बदलने का सपना दिखाकर आम आदमी के नारे के साथ दिल्ली की सत्ता में काबिज अरविंद केजरीवाल सरकार हो, दिल्ली में नाम की विपक्षी पार्टी भाजपा या फिर राजनीतिक ऑक्सीजन तलाश रही कांग्रेस, सभी इनकी समस्या की बात कर रहे हैं, समाधान की नहीं ! हां, समाधान के सवाल पर गेंद एक-दूसरे के पाले में सरकाने में जरूर इनका कोई सानी नहीं है।
हालांकि दिल्ली सरकार को हाईकोर्ट की फटकार के बाद दो दिनों में बकाया वेतन के एमसीडी अधिकारियों के आश्वासन के बाद आखिर सफाई कर्मचारियों ने अपनी हड़ताल समाप्त करने का ऐलान जरूर किया है, लेकिन इसके बाद भी सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसी नौबत ही क्यों आन पड़ी ? इस सवाल का जवाब शायद ही कोई राजनेता दे पाए। साफ है, मेहनत करने वालों को भूख नहीं कमबख़्त सियासत मार देती है !


deepaktiwari555@gmail.com

बुधवार, 10 जून 2015

बिहार- सत्ता के लिए जहर का प्याला !

बिहार में चुनाव में बस अब थोड़ा वक्त बचा है, ऐसे में सत्ता के महायुद्ध की तैयारियां भी जोर पकड़ने लगी हैं। बिहार का चुनाव हमेशा से ही दिलचस्प रहा है, लेकिन इस बार बिहार चुनाव के नतीजे सिर्फ सरकार बनाने के गुणा-भाग तक ही सीमित नहीं रहेगें बल्कि बिहार के जरिए देश में राज करने वालों का राजनीतिक भविष्य भी तय करेगें।
केन्द्र की सत्ता में काबिज होने के बाद भाजपा जहां मोदी लहर के सहारे बिहार में भी भगवा फहराने का सपना देख रही है, वहीं मोदी लहर को हवा करने के लिए बिहार की राजनीति के दिग्गज एक मंच पर आ गए हैं।
ये सत्ता की ही लालसा है कि लालू और नीतिश कुमार की दोस्ती पहले दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है गुनगुनाते हुए दुश्मनी में तब्दील हुई और फिर से सत्ता के लिए दोनों दुश्मनी भुला, य़े दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे का राग गुनगुनाते दिखाई दे रहे हैं।
दुश्मनी से वापस दोस्ती का ये सफर कितना हसीन रहेगा इसके लिए दोस्ती का ऐलान करते वक्त लालू प्रसाद यादव के इस बयान से लगाया जा सकता है कि वे बिहार में भाजपा को रोकने के लिए किसी भी ज़हर को पीने के लिए तैयार हैं
ज़हर का प्याला तो सामने था नहीं, मतलब साफ है कि ये ज़हर और को नहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार हैं, जिनके नेतृत्व में लालू की राजद और जदयू ने चुनाव लड़ने का फैसला लिया है।
लालू के राज को जंगलराज बताकर जनता का भरोसा जीतने वाले नीतिश कुमार कैसे जनता के बीच लालू के हाथों में हाथ डाल वोट मांगेंगे ये देखना उतना ही दिलचस्प होगा, जितना की लालू का नीतिश को मुख्यमंत्री बनाने के लिए बिहार की जनता से वोट मांगना।
सत्ता की सीढ़ी में अपनी पीढ़ी को चढ़ाने में विश्वास रखने वाले लालू प्रसाद यादव के लिए परिवारवाद से बाहर निकलना इतना आसान तो नहीं लगता। आसान होता तो शायद राबड़ी देवी का नाम बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री की सूची में कभी नहीं जुड़ता लेकिन बिहार में ऐसा हुआ और इसे संभव करने वाले लालू ही थे।
बिहार में सत्ता के इस महायुद्ध में योद्धाओं की कमी होती नहीं दिख रही है, निर्णायक न सही लेकिन जातिवाद के तड़के से सत्ता का गणित बिगाड़ने वाले योद्धा भी किंग मेकर बनने का सपना देखने लगे हैं। कभी नीतिश के मांझी  रहे जीतनराम हो या फिर लालू प्रसाद के पप्पू यादव, अपनी अपनी पार्टी से नाता तोड़ने के बाद ये दोनों योद्धा भी नीतिश और लालू की राह मुश्किल करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
कह सकते हैं कि बिहार में इस बार सत्ता के लिए बिहार के इतिहास की सबसे रोचक जंग देखने को मिलेगी, लेकिन दोस्ती-दुश्मनी-दोस्ती के इस पाठ को बिहार की जनता कितना समझ पाएगी, ये तो चुनावी नतीजे ही तय करेंगे।


deepaktiwari555@gmail.com

56 इंच के सीने का सच !

मणिपुर में हमारे वीर सैनिकों की शहादत के बदला जिस तरह से भारतीय सेना ने म्यांमार सेना के साथ साझा ऑपरेशन में बड़े पैमाने पर उग्रवादियों के ठिकानों को ध्वस्त कर उनका सफाया करने के बाद लिया, वो 18 वीर जवानों की शहादत के बाद दिल को एक सुकून पहुंचाने वाली ख़बर थी।
ये बात अलग है कि जिस मां-बाप ने अपने लाल को खोया है, जिस बहन ने अपने भाई को खोया है, जिस पत्नी ने अपने सुहाग को खोया है और जिन बच्चों के सिर से उनके पिता का साया उठ गया है, उनका अपना तो कभी लौटकर नहीं आने वाला और न ही उसकी कमी कभी पूरी होने वाली है, लेकिन ये ख़बर उनके दुख को कुछ हद तक कम जरूर करने वाली है।
भारतीय शूरवीरों की इस जवाबी कार्रवाई की चहुं ओर तारीफ हो रही है और केन्द्र की मोदी सरकार भी इसका श्रेय लेने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। हालात तो ये है कि मोदी की सेना मोदी के 56 इंच के सीने का बखान करते नहीं थक रही है। सोशल मीडिया में मोदी की सेना के साथ ही 56 इंच के सीने का बखान करने में मोदी भक्त भी पीछे नहीं हैं !  
भारतीय सेना की यह जवाबी कार्रवाई निश्चित तौर पर काबिले तारीफ है, जैसा कि कहा जा रहा है कि सीमा पार म्यांमार में भारतीय शूरवीरों ने खुद को खरोंच आए बिना उग्रवादियों के ठिकानों को नेस्तनाबूद करने के साथ ही उग्रवादियों को भी मौत के घाट उतार दिया है, वह वाकई में हर भारतीय का सीने को 56 इंच का कर देती है।
मोदी सरकार इसका जमकर श्रेय ले, कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती, क्योंकि बात सिर्फ मणिपुर की नहीं है। मणिपुर की बात होगी तो बात कश्मीर की भी होगी। मोदी सरकार म्यांमार की कार्रवाई का श्रेय ले सकती है तो मोदी सरकार को कश्मीर में जो हो रहा है, उसकी भी जिम्मेदारी लेनी होगी ! वो भी तब जब जम्मू-कश्मीर सरकार में पीएम नरेन्द्र मोदी वाली भारतीय जनता पार्टी अहम सहयोगी है।
लेकिन कश्मीर में जो हो रहा है, उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए मोदी सरकार का एक भी मंत्री ट्विटर में नजर नहीं आता। तिरंगे की जगह पाकिस्तान के झंडे खुलेआम लहराए जा रहे हैं, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारों से घाटी गूंज रही है लेकिन ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत शायद किसी में दिखाई नहीं देती। अलगाववादी कश्मीर से लेकर दिल्ली तक सरकार और देश के खिलाफ जहर उगलते दिखाई देते हैं लेकिन होता क्या है, ये बताने की शायद जरूरत नहीं है !
कुछ एक भाजपा नेताओं का ज़मीर राजनीति से इतर जागता भी है तो उनका कद इतना छोटा है कि उनकी आवाज अलवागववादियों के नारों की गूंज में ही दम तोड़ देती है !
ऐसे वक्त में 56 इंच के सीने का बखान करने वालों को भी मानो सांप सूंघ जाता है। ऐसा नहीं है कि इस पर बात नहीं होती, बातें बहुत बड़ी-बड़ी होती हैं, लेकिन ये सिर्फ जुबानी जमा खर्च होता है, जो अक्सर ऐसी घटनाओं के बाद सरकार के बचाव में मीडिया में परोस दिया जाता है।
फिलहाल तो यही उम्मीद करते हैं, 56 इंच के सीने का फुलाव कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक सा रहेगा, और जिस दिन ये होगा हर भारतीय का सीना भी खुद ब खुद 56 इंच का हो जाएगा।

deepaktiwari555@gmail.com