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शनिवार, 30 मार्च 2013

भागो मुलायम...CBI आई..!


मुलायम सिंह को सीबीआई का बड़ा डर है। डर भी इस कदर की आए दिन सीबीआई के खौफ के किस्से सुनाते फिरते हैं। कहते हैं कि केन्द्र की कांग्रेस सरकार डराकर समर्थन लेती है और समर्थन न देने पर सीबीआई का डर दिखाती है। मुलायम ये भी कहते हैं कि कांग्रेस ने ही उनके पीछे सीबीआई को लगा दिया और ऐसा ही कुछ कांग्रेस ने डीएमके के साथ भी किया।
मुलायम यहीं नहीं रुकते वे केन्द्र सरकार पर जमकर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाते हैं। कहते हैं कि केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगा रही है। कोयला घोटाले,किसानों के कर्ज माफी घोटाले औऱ हेलिकॉप्टर सरीखे घोटालों के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए जमकर कोसते हैं लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस को समर्थन जारी रखते हैं। (पढ़ें- सीबीआई जिंदाबाद..!)
हालांकि इसके पीछे भी मुलायम अजीब से तर्क देते हैं। एक तरफ आडवाणी की तारीफ करते हैं और दूसरी तरफ भाजपा की ओर ईशारा करते हुए मुलायम कहते हैं कि वे सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए ही केन्द्र सरकार को समर्थन दे रहे हैं। मुलायम सिंह की बातों को अगर गंभीरता से लिया जाए तो मुलायम की बातें मुलायम पर ही कई सवाल खड़े करती है। मसलन मुलायम समर्थन न देने पर सीबीआई का डर दिखाने का आरोप कांग्रेस पर लगाते हैं और कांग्रेस को समर्थन जारी रखते हैं...इसका मतलब मुलायम सीबीआई से डरे हुए हैं और जानते हैं कि समर्थन वापस लिया तो सीबीआई उनके पीछे लगा दी जाएगी और कहीं सीबीआई के जाल में वे न फंस जाएं। आय़ से अधिक संपत्ति का मामला तो वैसे भी मुलायम सिंह की कमजोर कड़ी है..!
मुलायम का केन्द्र सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना और उसके बाद भी समर्थन देना जारी रखना क्या ये साबित करने के लिए काफी नहीं है कि मुलायम भी केन्द्र सरकार में हो रहे भ्रष्टाचार को अपना समर्थन दे रहे हैं..?
मुलायम भले ही लाख सफाई दें कि वे सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए कांग्रेस को समर्थन देना जारी रख रहे हैं लेकिन उनकी ये दलील गले तो नहीं उतरती।
अब मुलायम ऐसा क्यों करते हैं ये तो मुलायम ही जानें लेकिन सीबीआई का खौफ किस कदर मुलायम पर हावी है ये आए दिन मुलायम की केन्द्र सरकार के खिलाफ बयानबाजी जाहिर करती है और इसके बाद भी समर्थन जारी रखने की बात करना इस पर मुहर भी लगाती है। (पढ़ें- सीबीआई- फिर काम आया ब्रह्मास्त्र..!)
मुलायम ये कभी नहीं चाहेंगे कि उम्र के इस पड़ाव में केन्द्र सरकार से समर्थन वापस लेकर पंगा लें और बदले में अपना बुढ़ापा खराब करें..! जाहिर है मुलायम कि नजरें 2014 पर हैं और वे तीसरे मोर्चे के मुखिया के तौर पर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने का ख्वाब भी संजो रहे हैं ऐसे में अगर सीबीआई पीछे पड़ गयी तो मुलायम का तीसरे मोर्चे के सहारे पीएम की कुर्सी पर बैठने का ख्वाब अधूरा रह जाएगा..! यही वजह है कि मुलायम सिंह कांग्रेस के खिलाफ भड़ास तो खूब निकाल रहे हैं लेकिन समर्थन वापस लेने का दम मुलायम चाह कर भी नहीं दिखा पा रहे हैं..!
सही मायने में शायद यही राजनीति है...बोलो कुछ, करो कुछ और दिखाओ कुछ और...मुलायम सिंह भी तो कुछ ऐसा ही कर रहे हैं..! लेकिन देखना ये होगा कि क्या यूपी की जनता मुलायम के इस रूप को समझ पाएगी और 2014 में साईकिल को पंचर कर मुलायम की पार्टी को सबक सिखाएगी या फिर 2012 में हुए यूपी के विधानसभा चुनाव की तरह आम चुनाव में भी साईकिल पर मुहर लगाएगी..!

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गुरुवार, 28 मार्च 2013

महान हैं आसाराम जैसे संत..!


संत का नाम लेते ही मन में एक ऐसी छवि उत्पन्न होती है जो सांसारिक सुख-सुविधाओं से कोसों दूर हो। उसका आचरण ऐसा हो कि लोग उसे अपने जीवन में अपनाएं। उसका रहन सहन ऐसा हो कि लोग उसकी मिसाल दे। वो सिर्फ लोगों को उपदेश ही न दे बल्कि अपनी कही बातों को अपने जीवन में भी आत्मसात करे। वह लोगों को सतमार्ग में चलने की और बुराइयों से दूर रहने की सीख दे।
लेकिन क्या आज के समय में वाकई ऐसे लोग हैं..? क्या आज के समय में ऐसे लोग हैं जो संत कहलाने लायक हैं..? जिनका हमें आंख मूंद कर अनुसरण करना चाहिए..? अगर आप इसका जवाब हां में देने की सोच रहे हैं तो पहले आसाराम बापू के बारे में अपना सामान्य ज्ञान अपडेट कर लीजिए।
आसाराम बापू...नाम तो सुना ही होगा आपने...कभी टीवी पर प्रवचन देते भी सुना होगा। मन को मोह लेनी वाली बड़ी अच्छी और मधुर बातें करते हैं आसाराम बापू। लेकिन क्या वाकई में यही आसाराम बापू का वास्तविक चरित्र है..? क्या आसाराम बापू अपनी कही बातों को अपने जीवन में आत्मसात करते हैं..? वैसे तो दिल्ली गैंगरेप के मसले पर आसाराम बापू की बेतुकी टिप्पणी ही काफी थी उनके चरित्र को जानने के लिए लेकिन बापू के बोल  यहीं नहीं थमे। (जरूर पढ़ें- दिल्ली गैंगरेप- "राम राम" आसाराम)
होली पर आसाराम खूब पानी बहाते हैं लेकिन पानी की बर्बादी आसाराम को गलत नहीं लगती..! वे कहते हैं कि पानी किसी के बाप का नहीं है...जब पानी किसी के बाप का नहीं है तो फिर आपके बाप का भी नहीं है न महाराज..! (पढ़ें- भगवान से है यारी, बारिश करवा दूंगा: आसाराम)
आसाराम कहते हैं वे जब चाहें बारिश करवा सकते हैं...तो करवा दो न महाराज बड़ी कृपा होगी आपकी इस देश पर..! कम से कम हिंदुस्तान को आप जैसे संत होने का फायदा तो मिलेगा..! आज तक तो सिर्फ अंधविश्वास ही मिला है..!  कम से कम सूखे से परेशान  किसान आत्महत्या तो नहीं करेंगे..!
खुद को संत कहते हैं लेकिन आसाराम का अभिमान देखिए...इनका आचरण देखिए..! धर्म के नाम पर लोगों की आंखों में अंधविश्वास की पट्टी बांधकर अपना धंधा चलाना कोई इनसे सीखे..! बात सिर्फ आसाराम बापू की ही नहीं है...हिंदुस्तान में ऐसे संतों की फेरहिस्त कभी न खत्म होने जितनी लंबी है।
वैसे दोष आसाराम या इनके जैसे दूसरे संतों का भी नहीं है...जब अंधविश्वास में डूबे लोग आंख मूंदकर ऐसे संतों की जय जयकार करेंगे तो ऐसा ही होगा। क्यों न ये खुद को भगवान समझेंगे..? क्यों न ये भगवान को अपना यार कहेंगे..? क्यों न ये कहेंगे की मैं जब चाहूं...जहां चाहूं बारिश करवा सकता हूं..!
ये अच्छी तरह जानते हैं कि इनके अंध भक्त इनकी हर बात पर आंख मूंदकर यकीन कर लेंगे और ये उन्हें मूर्ख बनाते रहेंगे..! और  ये सब उस वक्त तक चलता रहेगा जब तक कि इनके अंध भक्तों के आंखों से अंधविश्वास की पट्टी नहीं खुलेगी और ये लोग ऐसे लोगों को भगवान का दर्जा देना बंद नहीं करेंगे..! लेकिन हिंदुस्तान में ऐसा कभी होगा इसकी उम्मीद कम ही है..!

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“राज” नीति- जम्मू कश्मीर से तमिलनाडु तक


कौन कहता है कि नेता जनता के लिए नहीं लड़ते..? उनकी हक की आवाज़ नहीं उठाते..? उनके लिए लड़ाई नहीं लड़ते..? उन्हें जनता की चिंता नहीं है..? नेताओं को जनता की चिंता भी है और वे उनके हक की आवाज़ भी उठाते हैं बशर्ते इसमें उनका भी तो कुछ फायदा होना चाहिए। नेताओं को वैसे भी जनता से क्या चाहिए एक अदद वोट। इस एक वोट के लिए तो हमारे नेतागण किसी भी हद तक जा सकते हैं..! वोटों को साधने का कोई मौका ये नेता नहीं छोड़ते चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े..!
हिंदुस्तान की राजनीति कुछ ऐसे ही चलती है। बरसों से यही तो होता आ रहा है। अलग – अलग राज्यों की भाषा, संस्कृति अलग- अलग है लेकिन नेताओं का चरित्र बिल्कुल एक  जैसा है..! उत्तर से लेकर दक्षिण तक की हालिया राजनीतिक हलचलें इस तस्वीर की धुंधलाहट को और साफ करती है। शुरुआत वर्तमान में सबसे चर्चित दक्षिणी राज्य तमिलनाडु से करते हैं। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को चेन्नई में आईपीएल मैचों में श्रीलंकाई खिलाड़ियों के खेलने पर एतराज है। इतना ही नहीं वे भारत सरकार से श्रीलंका से मैत्रीपूर्ण संबंध खत्म करने तक की वकालत करती हैं। उन्हें श्रीलंका को भारत का मित्र देश कहने में तक आपत्ति है। जयललिता तो जयललिता द्रमुक प्रमुख करुणानिधि को ही देख लिजिए।
श्रीलंकाई तमिलों के लिए केन्द्र सरकार से समर्थन तक वापस लेने से पीछे नहीं हटे। आखिर क्यों..? श्रीलंका के तमिलों के हितों की रक्षा के बहाने खुद को तमिलों का सबसे बड़ा हितैषी जो साबित करना है तभी तो तमिलनाडु में तमिलों की सहानुभूति हासिल कर पाएंगे..!
जयललिता के तेवर देखकर तो ऐसा लगता है कि जैसे तमिलनाडु में रहने वाले तमिलों को कोई दुख तकलीफ है ही नहीं..! जैसे तमिलनाडु में न तो तमिलों के मानवाधिकारों का हनन होता है और न ही तमिलों के साथ किसी तरह की ज्यादती..!
मैडम जी अच्छा लगा सुनकर कि आपको श्रीलंकाई तमिलों की चिंता है लेकिन पहले अपने राज्य के हालात तो सुधार लें...उनकी सुध तो ले लें...फिर करना श्रीलंकाई तमिलों की चिंता..!
जयललिता जी राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो(एनसीआरबी) के आंकड़े कहते हैं कि 2011 में देश में अपराधों के मामले में उत्तर प्रदेश(33.4 %) के बाद दूसरा नंबर तमिलनाडु (11.5 %) का है। आपको अपने घर को आग से बचाने की चिंता नहीं है लेकिन दूसरे के घर की आग की भभक आपको परेशान कर रही है।
वोटों के लिए हमारे एक और राज्य बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी आजकल कुछ ज्यादा ही सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। उन्हें बिहार को हर हाल में विशेष राज्य का दर्जा जो दिलवाना है। कभी बिहार में तो कभी दिल्ली में बिहार के लोगों के नाम पर उनके हक की बात करते दिखाई दे रहे हैं। इस बहाने बिहार की जनता का हितैषी कहलाने का तमगा भी हासिल कर लेंगे ताकि आम चुनाव में भी बिहार की जनता इनकी पार्टी के उम्मीदवारों को जिता कर संसद पहुंचाए..!
इन सब से दो कदम आगे हैं जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला। साहब जिस देश में रहते हैं...जिस देश की खाते हैं उसके खिलाफ बोलने में नहीं हिचकते..! मानवता की दुहाई देकर देश के दुश्मनों की पैरवी करने का कोई मौका नहीं चूकते..! अफजल गुरु की फांसी के बाद उमर की प्रतिक्रिया को याद ही होगी आप सभी को। उमर की प्रतिक्रिया से तो ऐसा लग रहा था मानो अफजल को फांसी देकर सरकार ने बड़ी गलती कर दी..!
इन साहब को भी सिर्फ वोट ही दिखाई देते हैं। सीमा पार से आकर भारतीय सैनिकों का सिर कलम करने वाले या देश की संसद पर हमला करने वाले इन्हें नहीं दिखाई देते..! इन्हें तो कश्मीर में जवानों का हथियार लेकर चलने में तक आपत्ति है..! इनका बस चले तो आतंकी अगर जवानों पर हमला करें तो ये जवानों को मुकाबला करने के लिए लाठी पकड़ा दें..! हाल ही में सीआरपीएफ जवानों पर आतंकियों ने जब हमला किया तो क्या ऐसा नहीं हुआ था..?
ये कहानी सिर्फ तमिलनाडु, बिहार या जम्मू-कश्मीर की ही कहानी नहीं है...सभी राज्यों में कुछ ऐसा ही हो रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि हर राज्य में ये काम करने वाले सत्ताधारी दल के नेता अलग – अलग हैं...उनकी पार्टी अलग है लेकिन सबके तीर का निशाना एक ही है...वोटबैंक..! आखिर सत्ता की चाबी हासिल करने का यही तो सबसे सटीक तरीका जो लगता है इन्हें..!
विडंबना देखिए फैसला तो जनता को ही करना होता है लेकिन हमारे देश की जनता बड़ी भोली है...हर बार नेताओं की मीठी बातों पर इनके झूठे वादों पर एतबार कर लेती है...और इन्हें सौंप देती है सत्ता की चाबी...लेकिन बड़ा सवाल तो ये है कि आखिर कब तक..? क्या जनता समझ पाएगी इन नेताओं का चरित्र..?

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बुधवार, 27 मार्च 2013

किराए के समर्थकों से चाटुकारिता का तड़का..!


बात ज्यादा दिन पुरानी नहीं है जब मैं शिरडी जाने के लिए ग्वालियर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार कर रहा था कि अचानक स्टेशन परिसर में भारतीय जनता पार्टी का झंडा थामे एक हुजूम दाखिल हुआ। कुछ के हाथों में फूलों के हार थे तो कुछ के हाथों बंदूकों से तने थे। ग्वालियर - चंबल अंचल में जिसके पास जितनी बंदूकें उसे उतना बड़ा और ताकतवर समझा जाता है लिहाजा बंदूक थामे लोगों की तादाद भी फूल और झंडा लिए लोगों से कम नहीं थी।  
ये नजारा देख इतना तो समझ आ गया था कि भाजपा का कोई कद्दावर नेता ट्रेन से ग्वालियर पहुंचने वाला है और उसके स्वागत में ही स्थानीय नेता कार्यकर्ताओं की भीड़ के सहारे अपना शक्ति प्रदर्शन के साथ ही चाटुकारिता का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते थे।
जिज्ञासा हुई कि आखिर कौन भाजपा नेता यहां पहुंचने वाला है जिसके स्वागत मे ये लोग पलकें पावड़ें बिछाए बैठे हैं..? भाजपा का झंडा थामे एक व्यक्ति से पूछा तो वो तपाक से बोला उमा दीदी आ रही हैं और हम उन्हीं के स्वागत के लिए यहां आए हुए हैं। दरअसल भाजपा की फायर ब्रांड नेत्री और मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती दिल्ली से ग्वालियर पहुंच रही थी। रेलवे स्टेशन भाजपा कार्यकर्ताओं और भाजपा के झंडे थामे कार्यकर्ताओं से भाजपामय दिखाई दे रहा था और सभी लोग बेसब्री से ट्रेन का इंतजार करते दिखाई दे रहे थे।
इसी बीच मेरी नज़र कार्यकर्ताओं की भीड़ में सबसे पीछे भाजपा का झंडा थामे कुछ लोगों पर पड़ी तो बड़ी हैरानी हुई। संख्या में ये लोग करीब दो दर्जन से अधिक होंगे। कपड़ों से और इनके चेहरे देख इतना तो समझ आ रहा था कि ये लोग रिक्शा या रेहड़ी चलाने वाले, मजदूरी करने वाले या फिर रेलवे स्टेशन में पल्लेदारी करने वाले लोग थे। समझते देर न लगी कि उमा भारती का स्वागत करने पहुंचे स्थानीय नेताओं ने ज्यादा से ज्यादा कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटाने के लिए चाटुकारिता की सारी हदें पार करते हुए रिक्शा चालकों, मजदूरों और पल्लेदारों के हाथों में तक झंडा थमाने से गुरेज नहीं किया।
हालांकि राजनीति में ये कोई नई बात नहीं है क्योंकि हमारे देश में आमतौर पर चुनावी रैलियों में इस तरह के नजारे आम हैं। नेताओं की सभा में भीड़ जुटाने के लिए पैसे देकर इसी तरह लोगों को बुलाया जाता है और यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ था..!
मध्य प्रदेश में इसी साल नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं ऐसे में टिकट की होड़ अभी से शुरु हो गयी है। टिकट की चाह रखने वाले नेता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को उनके आगमन पर ज्यादा से ज्यादा कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटाकर शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं और इसी बहाने टिकट के लिए अपनी दावेदारी मजबूत करने में लगे हुए हैं।
उमा भारती की भाजपा में वापसी होने के बाद मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण में उमा भारती की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता लिहाजा उमा भारती के स्वागत में भी टिकट की चाह लगाए बैठे उमा समर्थक स्थानीय नेताओं ने उमा के स्वागत के बहाने कार्यकर्ताओं की भीड़ के साथ शक्ति प्रदर्शन का कोई मौका नहीं छोड़ा।
विडंबना देखिए किराए के समर्थकों के साथ शक्ति प्रदर्शन करने वाले ऐसे नेताओं को न सिर्फ चुनाव में टिकट मिल जाता है बल्कि ये लोग विधानसभा और संसद तक भी पहुंच जाते हैं..!
ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर क्यों सब कुछ जानते हुए भी जनता ऐसे नेताओं को चुनकर विधानसभा और संसद तक भेज देती है..!  क्या ऐसे नेताओं को चुनना जनता की मजबूरी है या फिर चुनाव में विकल्पविहीन जनता को नेताओं की पूरी जमात में कोई फर्क  ही नजर नहीं आता और इसका फायदा ऐसा नेताओं को मिलता है..?
जाहिर है सिर्फ बेहतर विकल्प न होना ही इसकी वजह नहीं है बल्कि कहीं न कहीं योग्य प्रत्याशी की बजाए पार्टी को वोट देने की प्रवृत्ति भी इसके लिए जिम्मेदार है। जब तक जनता राजनीतिक दलों के मोहपाश से खुद को मुक्त करके चुनाव मैदान में खड़े योग्य प्रत्याशी का चुनाव नहीं करेगी चाहे वो किसी भी दल से क्यों न हो तब तक ऐसे चाटुकार नेता ही संसद और विधानसभा में पहुंचते रहेंगे जिन्हें न तो अपने देश और प्रदेश की फिक्र है और न ही जनता से कोई सरोकार। (जरूर पढ़ें- आम आदमी जाए भाड़ में..!)।
उम्मीद करते हैं कि जनता पर छाया राजनीतिक दलों का मोहपाश टूटेगा और जनता आगामी विधानसभा और आम चुनाव में योग्य प्रत्याशियों को चुनकर विधानसभा और संसद में भेजेगी और देश और जनता को जूते की नोंक पर रखने खुद का विकास को सर्वोपरी रखने वाले चाटुकार नेताओं को सबक सिखाएगी।

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सोमवार, 25 मार्च 2013

तो 35 साल हो बालिग होने की उम्र..!


फिल्मी पर्दे से असल जीवन में तक खलनायक साबित हुए संजय दत्त की सजा माफ करने के लिए एक मुहिम छिड़ी है। मुहिम का झंडा मायानगरी से लेकर नेतानगरी तक बुलंद है। हर किसी को संजय दत्त निर्दोष नजर आ रहे हैं। मुहिम को देखकर ऐसा लगता है कि मानो ये मुहिम किसी अपराधी की सजा माफ करने के लिए न होकर किसी देशभक्त को न्याय दिलाने के लिए चल रही हो। बड़बोलेपन के लिए मशहूर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को तो संजय दत्त निर्दोष होने के साथ ही नासमझ भी नजर आते हैं।
दिग्गी बाबू कहते हैं कि जिस वक्त संजय दत्त के घर से पुलिस ने हथियार बरमद किए थे उस वक्त संजय दत्त नासमझ थे और नासमझी में संजय दत्त ने ये गलती कर दी। दिग्विजय सिंह को संजय दत्त के इस अपराध के पीछे उनकी नादान उम्र का दोष नजर आता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि दिग्विजय जिस नादान उम्र की बात कर रहे हैं वो उस वक्त 33 साल थी और बकौल दिग्विजय सिंह इस उम्र में संजय दत्त नासमझ थे। (पढ़ें- संजय दत्त- मेकिंग ऑफ रियल खलनायक..!)
अगर दिग्विजय सिंह की बात मान लें कि 33 साल की उम्र में कोई व्यक्ति नासमझ या नादान होता है तो फिर तो दिग्विजय सिंह को एक कदम और आगे बढ़ाकर केन्द्र सरकार से बालिग होने की उम्र 35 साल करने की अपील करनी चाहिए क्योंकि अभी तो हमारे देश में बालिग होने की उम्र 18 साल है।
जब 33 साल के व्यक्ति को इतनी समझ नहीं है कि अंडरवर्ल्ड के संपर्क में रहना, फोन पर अपराधियों से बात करना और अपने घर में अवैध हथियार रखना गैरकानूनी है तो फिर 18 साल से 33 साल के बीच के युवा को कितनी समझ होगी..! (पढ़ें- 'मासूम' मुन्ना ब्लास्ट के बाद भी करते थे 'भाई' से बात)
फिर तो दिग्विजय सिंह को सरकार से ये भी मांग करनी चाहिए कि 33 साल से कम उम्र के उन सभी अपराधियों को माफ कर दिया जाए जिन्हें अदालत सजा सुना चुकी है लेकिन दिग्विजय सिंह ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि 33 साल तक की उम्र के सभी अपराधी कांग्रेसी रहे सुनील दत्त की औलाद जो नहीं हैं..!
कांग्रेस ने भले ही दिग्विजय सिंह के इस बयान से पल्ला झाड़ लिया हो लेकिन कांग्रेस में दिग्विजय सिंह वही बोलते हैं जो आलाकमान चाहता है..! भले ही बाद में दिग्विजय के बयान से कांग्रेस पीछा छुड़ाने का प्रयास करती दिखाई देती है लेकिन विवादित मुद्दों पर दिग्विजय का बयान तब तक मीडिया की सुर्खियां बटोर चुका होता है। मुझे तो ऐसा एक भी मौका याद नहीं आता जब दिग्विजय सिंह के बड़बोलेपन पर कांग्रेस आलाकमान ने सख्ती दिखाते हुए दिग्विजय सिंह के खिलाफ कोई कार्रवाई की हो।
जाहिर है ये दिग्विजय के बड़बोलेपन को कांग्रेस आलाकमान का मौन समर्थन नहीं तो और क्या है..? खैर सरकार के फैसलों पर विपक्ष की घेराबंदी पर तो दिग्विजय की बोली समझ में आती है लेकिन एक अपराधी के लिए माफी की अपील क्या दर्शाती है..? वो भी तब जब देश का सर्वोच्च न्यायालय अपराध साबित होने पर संजय दत्त को 5 साल कारावास की सजा सुना चुका है वो भी इस टिप्पणी के साथ कि संजय दत्त के अपराध की प्रकृति काफी गंभीर थी जो माफी लायक नहीं है। (पढ़ें- संजय दत्त निर्दोष हैं..!)
बहरहाल संजय दत्त की सजा माफी को लेकर मुहिम जारी है...कोई राष्ट्रपति को चिट्ठी लिख रहा है तो कोई राज्यपाल से मुलाकात कर रहा है लेकिन विभिन्न अपराधों में जेल में बंद लाखों अपराधी जिन्हें अदालत सजा सुना चुकी है उन तक अगर ये खबर पहुंच रही होगी तो एक सवाल उनके जेहन में भी जरूर उठ रहा होगा कि काश मैं भी एक फिल्म स्टार होता तो मेरे लिए भी कोई आवाज उठाता...मेरे अपराध को भी कोई नादानी कहता और एक दिन मेरे भी सारे गुनाह माफ होते और अपने परिवार के साथ मैं भी खुली हवा में  सांस ले पाता..!

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रविवार, 24 मार्च 2013

शादी से पहले सेक्स क्यों..?


इंडिया टुडे- नीलसन के अध्य्यन में ये बात सामने आई है कि कैजुअल सेक्स की बढ़ती पहुंच के बावजूद आज लगभग 65 प्रतिशत पुरुष अपने लिए कुंवारी(वर्जिन) पत्नी की तलाश कर रहे हैं। यानि कि वह ऐसी महिला को अपनी जीवनसंगिनी नहीं बनाना चाहते जिसने विवाह से पहले किसी के साथ सेक्स किया हो। भारतीय युवाओं की मानसिकता को केन्द्र में रखकर किया गया ये सर्वेक्षण अलग अलग लोगों की सोच और मानसिकता पर फिट नहीं बैठता लिहाजा इसको लेकर विवाद गहराना लाजमी था।
इस सर्वे के बाद कुछ लोगों का ये मत है कि वर्तमान हालात और युवाओं की बदलती सोच और मानसिकता को देखते हुए वर्जिनिटी की अवधारणा को समाप्त कर देना चाहिए और शादी से पहले युवक- युवती के बीच शारीरिक संबंध को नैसर्गिक संबंध की तरह देखना चाहिए। लेकिन दूसरी तरफ परंपराओं और नैतिक समाज के पक्षधर लोगों का कहना है कि वर्जिनिटी की अवधारणा को समाप्त करने का अर्थ है युवाओं को सेक्स की खुली छूट दे देना। उन्हें किसी भी प्रकार की नैतिक जिम्मेदारियों से मुक्त कर देना। अगर हम ऐसा कुछ भी करते हैं तो यह सामाजिक और पारिवारिक ढांचे को पूरी तरह समाप्त कर देगा। (जरूर पढ़ें- कामसूत्र ने किया फेल..!)
वर्जिनिटी की आवधारणा को लेकर अपनी अपनी सोच और मानसिकता के लिहाज से लोगों के अलग – अलग मत हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि जब कई पुरुष शादी से पहले सेक्स संबंधों में लिप्त रहते हैं तो उनका वर्जिन बीवी का तलाश करना कितना सही है..? जैसे कि ये सर्वे भी कह रहा है कि 65 प्रतिशत पुरुष शादी के लिए वर्जिन बीवी की तलाश कर रहे हैं। सर्वे में भले ही ये प्रतिशत 65 हो लेकिन वास्तव में सौ प्रतिशत लोग ऐसा ही चाहते हैं..! फिर चाहे वो पुरुष हो या फिर कोई महिला..!
लेकिन मेरा व्यक्तिगत ये मत है कि अगर कोई पुरुष शादी से पहले सेक्स कर रहा है तो फिर उसे शादी के लिए किसी वर्जिन महिला की तलाश करने की बात करने का कोई हक नहीं है। जाहिर है ऐसे पुरुष महिला से अपेक्षा कर रहे हैं कि वो शादी से पहले किसी के साथ सेक्स न करे लेकिन खुद पर वे इस बात को लागू नहीं कर रहे। वो खुद को इससे अलग कैसे कर सकते हैं..? इसका मतलब तो ये है कि ऐसे पुरुष महिला को सिर्फ घर में रखा एक सामान समझते हैं जिसकी न तो कई सोच है...न ही कोई इच्छाएं..! (जरूर पढ़ें- अबोध कन्याओं से यौन अपराध क्यों..?)
निश्चित तौर पर शारीरिक संबंध एक व्यक्तिगत मसला है लेकिन भारतीय समाज शादी से पूर्व खासकर महिलाओं(महिलाओं इसलिए क्योंकि पुरुष ऐसा करते आए हैं और उन पर ऊंगली उठाने की बजाए महिलाओं को ही सॉफ्ट टारगेट बनाया जाता है।) को शारिरिक संबंध स्थापित करने की अनुमति नहीं देता और ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे जहां शादी से पूर्व शारीरिक संबंध उजागर होने पर महिलाओं को प्रताड़ित करने या समाज से बेदखल करने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया और कई बार महिला को अपनी जान से तक हाथ धोना पड़ा है...ऐसी स्थिति में हमने महिला के परिजनों को भी उसके साथ खड़ा होने की बजाए उसके विरोध में ही देखा है..!
जहां तक वर्जिनिटी की अवधारणा को लेकर भारतीय समाज की बात है तो मौजूदा हालात भले ही बदल गए हों। महिला और पुरुष दोनों की सोच और मानसिकता में बड़ा बदलाव आया हो लेकिन इसके बाद भी मूल्यों और आदर्श के पक्के भारतीय समाज में सेक्स जैसे विषय पर जहां आज भी खुलकर बात करने में लोग संकोच करते हैं वहां इसकी अवधारणा आज भी उतना ही स्थान रखती है जितना कि आज से पहले..! (जरूर पढ़ें- सेक्स एजुकेशन- कितनी कारगर..?)
वर्जिनिटी की अवधारणा को समाप्त करने से न सिर्फ विवाह पूर्व सेक्स संबंधों को बढ़ावा मिलेगा बल्कि ये भविष्य में शादी जैसे बंधन में आपसी विश्वास को भी कम करने में अपनी भूमिका अदा करेगा जिसका सीधा असर वैवाहिक जीवन पर पड़ेगा और कहीं न कहीं आपसी विश्वास से जुड़ी रहने वाली दांपत्य जीवन की डोर भी कमजोर पड़ेगी।
ऐसे में अगर वर्जिनिटी के महत्व को समाप्त कर दिया जाता है तो भारतीय समाज के लिए इसकी स्वीकारोक्ती आसान नहीं होगी क्योंकि जिस देश में सर्वे के मुताबिक 65 प्रतिशत युवा शादी के लिए वर्जिन पत्नी की तलाश करते हैं और महिलाओं के लिए वर्जिनिटी ही उनका गहना माना जाता है वो समाज कभी वर्जिनिटी की अवधारणा को समाप्त करने को अपनी मान्यता नहीं देगा..!

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राजनीति- चोर-चोर मौसेरे भाई..!


अब तक तो सिर्फ सुना ही था कि चोर- चोर मौसेरे भाई होते हैं...लेकिन उत्तराखंड में इसकी बानगी भी खूब देखने को मिल रही है। मीडिया मे भले ही कांग्रेसी और भाजपाई एक दूसरे को आरोपों की बौछार कर खूब गरियाते देते फिरते दिखाई देते हों लेकिन पर्दे की पीछे की सच्चाई कुछ और ही है..!  भाजपा सरकार के कार्यकाल के घोटालों की जांच के लिए गठित भाटी जांच आयोग की टीडीसी घोटाले में रिपोर्ट सरकार को सौंपने के बाद भाजपा के खिलाफ बहुगुणा सरकार के नरम रवैये को देखते हुए तो कम से कम ऐसा ही लग रहा है..! (जरूर पढ़ें- विजय बहुगुणा कैसे बने मुख्यमंत्री..?)
दरअसल भाटी जांच आयोग की रिपोर्ट में दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बजाए बहुगुणा सरकार दोषियों को बचाते हुए मामले की लीपापोती करने में लगी है..! सरकार ने जांच आयोग की रिपोर्ट में उजागर नेताओं और अफसरों को अलग – अलग वर्ग में बांट दिया है। सरकार ने जहां एक ही अपराध में शामिल नेताओं के खिलाफ आयोग की रिपोर्ट को तहरीर में बदलकर अज्ञात के नाम से थाने में मुकदमा दर्ज कराया है तो वहीं रिपोर्ट में दोषी ठहराए गए अफसरों पर कार्रवाई की बजाए उसका परीक्षण कराने का फैसला लिया है। यानि की तहरीर के आधे हिस्से का परीक्षण सरकार करेगी और बाकी की विवेचना पुलिस करेगी जबकि कानून के जानकारों की नजरों में ये गलत है।
सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने भाजपा शासन में घोटालों की बाढ़ आने का आरोप लगाते हुए भाजपा शासन के सभी घोटालों को बेनकाब कर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का दम भरा था। घोटालों की जांच के लिए बकायदा बहुगुणा सरकार ने भाटी जांच आयोग का गठन भी किया था। इसके तहत भाटी जांच आयोग ने टीडीसी घोटाले पर हाल ही में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जिसके बाद दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने का दम भरने वाले बहुगुणा सरकार के तेवर ही बदल गए और अब सरकार दोषियों के खिलाफ नामजद रिपोर्ट कराने से भी पीछे हट रही है..! जबकि भाटी आयोग ने जब सरकार को जांच रिपोर्ट सौंपी थी तो मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने साफ कहा था कि रिपोर्ट में भाजपा के एक पूर्व मुख्यमंत्री और जिन लोगों को दोषी ठहराया गया है उनके खिलाफ नामजद रिपोर्ट दर्ज करायी जाएगी लेकिन अब अचानक बहुगुणा साहब को लगता है कि नामजद रिपोर्ट कराना जरूरी नहीं है। बहुगुणा अब कह रहे हैं कि नामजद रिपोर्ट दर्ज कराना अवश्यक नहीं था। (जरूर पढ़ें- शराब के लिए पैसे हैं...रसोई गैस के लिए नहीं..!)
आखिर बीते कुछ दिनों में ऐसा क्या हुआ कि भाजपाईयों के खिलाफ आक्रमक तेवर दिखाने वाले कांग्रेसी मुख्यमंत्री के तवर एकदम से नरम पड़ गए..? (जरूर पढ़ें- विजय बहुगुणा- कैसा गैरसैंणकैसा स्वाभिमान..? )
क्या भाजपा और कांग्रेस में पर्दे की पीछे कोई बड़ी डील हुई या फिर बहुगुणा साहब ये समझ गए कि सत्ता से बेदखल होने के बाद भविष्य में कभी उनकी बारी भी आ सकती है लिहाजा ज्यादा तेवर दिखाए तो कल कहीं उनके ये तेवर उन पर ही भारी न पड़ जाएं..!
जाहिर है अगर ऐसा कुछ नहीं हुआ तो फिर दर्ज रिपोर्ट नामजद होनी चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जनता के सामने तो विपक्षी दलों को चोर और भ्रष्टाचारी बताने वाले राजनीतिक दल खुद को जनता का हितैषी साबित करने की पूरी कोशिश करते हैं लेकिन जब भ्रष्टाचार और घोटालों की जांच के लिए गठित भाटी जांच आयोग जैसे किसी आयोग की रिपोर्ट आती है तो उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है..! (जरूर पढ़ें- 50 लाख का जनता दरबार..!)
कहा भी जाता है कि राजनीति में न तो कोई स्थाई दोस्त होता है और न ही स्थाई दुश्मन। क्या पता कब..? कहां किसका वक्त बदल जाए..? किसकी जरूरत कब..? कहां आन पड़े..? इसलिए वक्त के साथ अपने तेवर बदलते चलो क्या पता कल कहीं अपने ही पाप का घड़ा फूट जाए..! तब कौन काम आएगा..? कहीं बहुगुणा साहब भी तो यही नहीं कर रहे..? लगे रहो बहुगुणा साहब...लगे रहो अभी तो सिर्फ टीडीसी घोटाले की जांच रिपोर्ट आई है अभी तो 5 और घोटालों की जांच रिपोर्ट आनी हैं तब भी तो आपको अपने भविष्य की चिंता करते हुए भ्रष्टाचारियों और घोटालेबाजों का वर्तमान सुरक्षित करना है फिर चाहे वो विपक्षी पार्टी के ही क्यों न हों...आखिर सवाल आपके भविष्य से भी तो जुड़ा हुआ है..!
  
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