सांसद वेतन में सौ
फीसदी का ईजाफा चाहते हैं। दिल्ली के ‘आम’ विधायकों को खर्च के लिए 84 हजार रूपए मासिक की पगार कम पड़ जाती है।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव आम जनता की तरह सरकारी बस में सफर करना
चाहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि ये तीन कहानियां अलग अलग है, लेकिन इनके किरदार
एक ही हैं, राजनेता !
वही लोग, जो जनता के
बीच वोट मांगते वक्त ये कहते आए हैं कि वे जनता की सेवा के लिए राजनीति में आए
हैं। उन्हें सत्ता की कोई लालसा नहीं है। लेकिन जनता के इन जनप्रतिनिधियों को अब
जनता की सेवा के लिए अपनी जेब की चिंता भी सताने लगी है। वे जनता की सेवा का हवाला
देते हुए मोटी पगार के साथ ही सरकारी सुख सुविधाओं से भी पूरी तरह लैस हो जाना
चाहते हैं।
खाना भी बाजार से दस
गुना दाम पर सरकारी सब्सिडी का खाने वाले हमारे सांसदों को पगार में सौ फीसदी का
ईजाफा चाहिए। (पढ़ें-क्यों न बढ़े ? आखिर सवाल सांसदों की पगार का है !)
समाज सेवी अन्ना
हजारे के आंदोलन से जन्मी आम आदमी की राजनीति करने का दावा करने वाली “आम आदमी पार्टी” पर दिल्ली की जनता
ने भरोसा जताया कि शायद इनकी कथनी और करनी में फर्क नहीं होगा। लेकिन अब दिल्ली के
“आम” विधायकों भी अपनी
जेब की चिंता सताने लगी है। जनता की सेवा के लिए विधायकों को 84 हजार रूपए मासिक
वेतन कम पड़ने लगा है।
जनसेवा करने वाले नेताओं
की ये कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती। तेलंगाना राज्य के लिए लंबी लड़ाई का हिस्सा
रहे टीआरएस के केसीआर इन सब से दो कदम आगे हैं। तेलंगाना के पिछड़ेपन की कहानियों
सुनाने वाले केसीआर आंध्र प्रदेश से अलग होने के बाद तेलंगाना राज्य के
मुख्यमंत्री बने तो तेलंगाना के लोगों को उम्मीद जगी थी कि शायद अब तेलंगाना का
विकास होगा। लेकिन पांच करोड़ की लग्जरी बस खरीद की कहानी तो कुछ और ही बयां कर
रही है। विकास तेलंगाना का हो रहा है या केसीआर का ? दिन तेलंगाना के बहुर रहे हैं या फिर
केसीआर के, ये इस घटना से साफ हो जाता है।
मजेदार बात तो ये है
कि पांच करोड़ की इस लग्जरी बस की खरीद पर सीएम ऑफिस के प्रवक्ता ने बताया, ''सीएम भी राज्य के अन्य नागरिकों की तरह
सरकारी बस से सफर करना चाहते हैं। यह कोई लग्जरी बस नहीं है”।
समझ गए ना आप कि
केसीआर आम जनता की तरह सरकारी बस में सफर करना चाहते हैं, इसलिए पांच करोड़ की इस
बस को खरीदा गया है।
याद रखिए ये सब उस
देश में हो रहा है, जहां एक लड़की इसलिए खुदकुशी कर लेती है क्योंकि उसे शौच के
लिए खुले में बाहर जाना पड़ता है। वो अपने माता-पिता से घर में शौचालय निर्माण की
मांग करती है लेकिन उसके माता-पिता पैसे की तंगी के चलते घर में शौचालय का निर्माण
नहीं करवा पाते। झारखंड के दुमका की ये कहानी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है।
दुमका की ये कहानी
सुर्खियां जरूर बटोर रही हैं लेकिन सवाल फिर खड़ा होता है कि आखिर कितने दिन? क्या हमारे सासंदों
को, विधायकों को लग्जरी बस खरीदने वाले मुख्यमंत्री के साथ ही “स्वच्छ भारत” और “हर घर शौचालय” का नारा देने वाले
हमारे प्रधानमंत्री को ये ख़बर झकझोर पाएगी ? अगर इसका जवाब हां में है, तो क्या उम्मीद करें कि अब ये तस्वीर बदलेगी ?
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