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शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

दोगुनी सैलरी, लग्जरी बस और शौचालय !

सांसद वेतन में सौ फीसदी का ईजाफा चाहते हैं। दिल्ली के आम विधायकों को खर्च के लिए 84 हजार रूपए मासिक की पगार कम पड़ जाती है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव आम जनता की तरह सरकारी बस में सफर करना चाहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि ये तीन कहानियां अलग अलग है, लेकिन इनके किरदार एक ही हैं, राजनेता !
वही लोग, जो जनता के बीच वोट मांगते वक्त ये कहते आए हैं कि वे जनता की सेवा के लिए राजनीति में आए हैं। उन्हें सत्ता की कोई लालसा नहीं है। लेकिन जनता के इन जनप्रतिनिधियों को अब जनता की सेवा के लिए अपनी जेब की चिंता भी सताने लगी है। वे जनता की सेवा का हवाला देते हुए मोटी पगार के साथ ही सरकारी सुख सुविधाओं से भी पूरी तरह लैस हो जाना चाहते हैं।
खाना भी बाजार से दस गुना दाम पर सरकारी सब्सिडी का खाने वाले हमारे सांसदों को पगार में सौ फीसदी का ईजाफा चाहिए। (पढ़ें-क्यों न बढ़े ? आखिर सवाल सांसदों की पगार का है !)
समाज सेवी अन्ना हजारे के आंदोलन से जन्मी आम आदमी की राजनीति करने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी पर दिल्ली की जनता ने भरोसा जताया कि शायद इनकी कथनी और करनी में फर्क नहीं होगा। लेकिन अब दिल्ली के आम विधायकों भी अपनी जेब की चिंता सताने लगी है। जनता की सेवा के लिए विधायकों को 84 हजार रूपए मासिक वेतन कम पड़ने लगा है।
जनसेवा करने वाले नेताओं की ये कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती। तेलंगाना राज्य के लिए लंबी लड़ाई का हिस्सा रहे टीआरएस के केसीआर इन सब से दो कदम आगे हैं। तेलंगाना के पिछड़ेपन की कहानियों सुनाने वाले केसीआर आंध्र प्रदेश से अलग होने के बाद तेलंगाना राज्य के मुख्यमंत्री बने तो तेलंगाना के लोगों को उम्मीद जगी थी कि शायद अब तेलंगाना का विकास होगा। लेकिन पांच करोड़ की लग्जरी बस खरीद की कहानी तो कुछ और ही बयां कर रही है। विकास तेलंगाना का हो रहा है या केसीआर का ? दिन तेलंगाना के बहुर रहे हैं या फिर केसीआर के, ये इस घटना से साफ हो जाता है।
मजेदार बात तो ये है कि पांच करोड़ की इस लग्जरी बस की खरीद पर सीएम ऑफिस के प्रवक्ता ने बताया, ''सीएम भी राज्य के अन्य नागरिकों की तरह सरकारी बस से सफर करना चाहते हैं। यह कोई लग्जरी बस नहीं है
समझ गए ना आप कि केसीआर आम जनता की तरह सरकारी बस में सफर करना चाहते हैं, इसलिए पांच करोड़ की इस बस को खरीदा गया है।
याद रखिए ये सब उस देश में हो रहा है, जहां एक लड़की इसलिए खुदकुशी कर लेती है क्योंकि उसे शौच के लिए खुले में बाहर जाना पड़ता है। वो अपने माता-पिता से घर में शौचालय निर्माण की मांग करती है लेकिन उसके माता-पिता पैसे की तंगी के चलते घर में शौचालय का निर्माण नहीं करवा पाते। झारखंड के दुमका की ये कहानी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है।
दुमका की ये कहानी सुर्खियां जरूर बटोर रही हैं लेकिन सवाल फिर खड़ा होता है कि आखिर कितने दिन? क्या हमारे सासंदों को, विधायकों को लग्जरी बस खरीदने वाले मुख्यमंत्री के साथ ही स्वच्छ भारत और हर घर शौचालय का नारा देने वाले हमारे प्रधानमंत्री को ये ख़बर झकझोर पाएगी ? अगर इसका जवाब हां में है, तो क्या उम्मीद करें कि अब ये तस्वीर बदलेगी ?


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ख़बरों में सिर्फ हेमा मालिनी ! क्या सिर्फ वीआईपी और सेलीब्रिटी ही हैं ख़बर ?

ख़बरों में सिर्फ अभिनेत्री और भाजपा सांसद हेमा मालिनी है, ट्विटर पर हेमा मालिनी ट्रेंड कर रही है। लेकिन तेज रफ्तार दौड़ती हेमा मालिनी की मर्सडीज से जिस माता-पिता ने अपनी बच्ची को खोया उनकी चिंता किसी को नहीं है। इतनी ख़बर जरूर है कि ऑल्टो कार में सवार एक बच्ची की इस हादसे में मौत हो गई और चार लोग घायल हो गए। लेकिन वो लोग कहां है, उनकी सेहत कैसी है. ये जानने की फुर्सत किसी के पास नहीं है।
हेमा मालिनी को कितनी चोट लगी, कहां कहां चोट लगी ? उनकी कितनी जांच हुई, कहां कहां दर्द हो रहा है, कितना दर्द हो रहा है ? हर ख़बर टीवी पर है लेकिन नहीं है तो इस हादसे का दूसरा पक्ष। दूसरी गाड़ी में सवार वो घायल, जिन्हें भी चोट लगी है। कुछ को शायद हेमा मालिनी से भी ज्यादा लेकिन वो पिक्चर से गायब हैं, इसे उनका दुर्भाग्य कहेंगे कि वे वीआईपी नहीं है।  
हेमा मालिनी की सेहत को लेकर अस्पताल बकायदा मेडिकल बुलेटिन भी जारी करता है। हेमा मालिनी की सेहत की हर एक ख़बर का अपडेट दिया जा रहा है लेकिन अपडेट गायब है तो उस परिवार का जिसने इस हादसे में अपने कलेजे के टुकड़े को खो दिया।
कथित तौर पर डेढ़ सौ किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ रही हेमा मालिनी की मर्सडीज के ड्राईवर को तो गिरफ्तार कर लिया गया है, लेकिन सवाल बरकरार है कि क्या वीआईपी के लिए हिंदुस्तान में कोई कानून नहीं है ? सेलीब्रिटी और तेज रफ्तार के कहर की कहानियां हमारे देश में नई नहीं है। इस कहानी में एक और अध्याय जुड़ गया हेमा मालिनी की मर्सडीज से हुए इस हादसे का।
ये कहानी और भी दर्दनाक उस वक्त हो जाती हैं, जब हादसे के बाद कथित वीआईपी, सेलीब्रिटी वहां से खामोशी से निकल जाते हैं। हादसे में हुए घायलों की सुध लेने तक की फुर्सत उनके पास नहीं होती।
जैसी की ख़बर है कि इस हादसे के बाद हेमा मालिनी ने भी इस दस्तूर को निभाया और दूसरे घायलों को उनके हाल पर छोड़ अपने ईलाज की चिंता में चुपचाप वहां से निकल गई। ठीक है चोट ड्रीम गर्ल को भी लगी थी, लेकिन उनकी गाड़ी से हादसे के बाद क्या उन्हें घायलों की सुध नहीं लेनी चाहिए थी ? इसका जवाब तो हेमा मालिनी ही बेहतर दे सकती हैं।
हादसे में जो बच्ची इस दुनिया को छोड़ गई, वो तो कभी लौट कर नहीं आएगी, लेकिन सवाल ये है कि क्या अब भी रफ्तार के कहर को रोकने के लिए हमारी सरकार कुछ ठोस कदम उठाएगी। साथ ही एक और सवाल कि क्या हमारे देश में ख़बर का मतलब सिर्फ वीआईपी और सेलीब्रिटी ही हैं, आम आदमी का क्या ?


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बुधवार, 1 जुलाई 2015

क्यों न बढ़े ? आखिर सवाल सांसदों की पगार का है !


संसद की एक समिति ने सांसदों की पगार दोगुनी करने और पूर्व सांसदों की पेंशन 75 प्रतिशत बढ़ाने की सिफारिश की है। इस ख़बर के बाहर आते ही हंमामा मचा है। सवाल उठ रहे हैं कि आखिर क्यों सांसदों की पगार दोगुनी की जाए, पूर्व सांसदों की पेंशन में बढ़ोतरी की जाए ?
मुझे तो ये समझ नहीं आ रहा कि आखिर क्यों हमारे बेचारे सांसदों, पूर्व सांसदों की पगार और पेंशन बढ़ाने की सिफारिश मात्र पर उन पर ताने कसे जा रहे हैं ?
अब आप ये बताओ जो सांसद संसद की कैंटिन में बाजार दाम से दस गुना सस्ता खाना खाता हो, उसकी पगार क्यों न बढ़ाई जाए ? हमारे माननीय के पास पैसा होता कहां है ? जैसे-तैसे बेचारे चंदा एकत्र करके लाखों-करोड़ों जमा करते हैं और फिर इस पैसे को खर्च करके चुनाव जीत कर संसद में पहुंचते हैं, ऐसे में उनकी पगार तो बढ़नी ही चाहिए न।
अब सब्सिडी का खाना नहीं मिलेगा, पगार नहीं बढ़ेगी तो कैसे हमारे सांसद काम करेंगे ? संसद में कैसे हंगामा करेंगे ?
संसद को चलने से रोकने के लिए कैसे पूरे मन से जतन कर पाएंगे ?
पांच साल तक जी-तोड़ मेहनत करते हैं सांसद, ऐसे में 50 हजार रूपए की मामूली पगार में कैसे उनका गुजारा होगा ?
अब मानसून सत्र शुरु होने वाला है, कैसे हमारे सांसद महोदय हंगामे के बादल बरसाकर संसद को तर कर पाएंगे ? बहुत काम होता है भई, बहुत मेहनत करनी पड़ती है, हर कोई नहीं समझ सकता।
पगार की तारीख आते ही जब हर किसी के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है फिर यहां तो पगार बढ़ने की बात है, वो भी पूरे 100 फीसदी। अब एक पल के लिए सोचो, सांसदों की पगार दोगुनी हो जाती है तो फिर वे कितने मन से काम करेंगे। कम से कम संसद में सोएंगे तो नहीं ही ! क्या पता इस जोश में एक-आध चक्कर अपने संसदीय क्षेत्र का ही लगा लें, जनहित के कुछ काम ही करवा दें। सोचो देश की जनता का कितना भला होगा ?
इसलिए मैं तो कहता हूं कि विरोध मत करो। सब मिलकर मांग करो की हमारे सांसदों की पगार सौ फीसदी नहीं पूरे दो सौ फीसदी बढ़ा दो। पूर्व सांसदों की पगार भी 75 फीसदी नहीं पूरे सौ फीसदी बढ़ा दो, आखिर उन्होंने भी जनता के लिए सांसद रहते हुए कितना कुछ किया है। संसद में जनता की आवाज को बुलंद किया है भई।


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रविवार, 28 जून 2015

'हर राजनेता @#% बहुत &*%@ होता है !

राजेश रंजन कहो, पप्पू यादव कहो, क्या फर्क पड़ता है, लेकिन खबरदार जो राजनेता कहा ! ठीक है, बिहार के मधेपुरा से सांसद हैं, लेकिन राजनेता तो नहीं हैं ना। होते तो क्या राजनेताओं को गालियां बकते। वादे कर उन्हें पूरा न करने पर राजनेता रूपी कौम की तारीफ शायद ही कभी सुनने को मिले लेकिन पप्पू यादव ने जो बोला वो भी कहां सुनाई पड़ता है।
क्या कहा था पप्पू यादव ने, ये अभी तक आपने नहीं सुना है तो पढ़ लीजिए, सांसद जी बोले कि 'हर राजनेता @#% बहुत &*%@ होता है। मेरा बस चले तो राजनेता मिले और शूट ऐट साइट कर देना चाहिए। नाग मिले छोड़ दीजिए, राजनेता मिले, लात कंठ पर देकर मारिए। सोसाइटी को किसी ने कमजोर किया तो @%#( पॉलिटिशन ने।'
ये शब्द हैं देश की संसद में जनता के हक की आवाज़ उठाने वाले सांसद पप्पू यादव के। वो पप्पू यादव जो द्रोहकाल के पथिक नामक एक किताब भी लिख चुके हैं।
पप्पू यादव हाल ही में पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल से निष्कासित भी किये जा चुके हैं। बिहार में विधानसभा चुनाव सामने खड़ा है ऐसे में राजद से निकाले जाने के बाद से ही पप्पू यादव नया राजनीतिक ठौर तलाशते दिखाई दिए, लेकिन ठौर ना मिलने पर पप्पू यादव ने अपनी नई पार्टी जन क्रांति अधिकार मोर्चा का ही गठन कर लिया।
बिहार में अपना राजनीतिक वजूद बचाने की कोशिश में लगे पप्पू यादव का एक राजनेता होते हुए, राजनेताओं को गालियां बकना समझ से परे है। पप्पू यादव जी एक सवाल आपसे, क्या आप राजनेता नहीं है ?  इस सवाल का जवाब आप ना में तो नहीं दे पाएंगे फिर आप क्या हुए ? आप भी तो इस कौम का ही एक हिस्सा हैं। आप ने इस कौम में रहते हुए कोई अति विशिष्ट कार्य किया हो तो वो ही बता दीजिए। गूगल बाबा भी थक गए, लेकिन आपके बारे में ऐसा कुछ हमें खोज के नहीं दे पाए, जो आपको इन राजनेताओं से लग पहचान दिलाता हो। आपके नाम के साथ सीपीआईएम के नेता अजीत सरकार के बारे में कुछ सूचनाएं छनकर जरूर मिल गई।
खैर छोड़िए, ये तो पुरानी बात हो गई। लेकिन ये तो आपके कंठ से ताजा शब्द वर्षा हुई है, राजनेताओं के लिए। अब इस पर क्या कहेंगे ?
बिहार का विधानसभा चुनाव सामने खड़ा है, आपने नई पार्टी का गठन किया है ? कैसे खुद को जनता के सामने जस्टिफाई करेंगे कि आप राजनीति कर रहे हैं, आपकी राजनीतिक पार्टी है, लेकिन आप राजनेता नहीं है। आपकी पार्टी के प्रत्याशी जो विभिन्न सीटों से चुनाव लड़ेंगे वे कैसे अपने आप को जस्टिफाईकरेंगे ?
सपना तो आप बिहार का अगला मुख्यमंत्री बनने का देख रहे हैं लेकिन ये तो बताते जाईए जनाब कि जनता कैसे आप पर विश्वास करेगी ? क्यों आप पर आपकी पार्टी के प्रत्याशियों पर भरोसा करेगी ? नई-नई पार्टी का गठन किया है आपने, लगता है आवेश में आप कुछ ज्यादा ही बोल गए ! आज नहीं तो कल यही आप कहेंगे भी।


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ललित मोदी, ट्वीट और मीडिया !

ललित मोदी, अब तो ये नाम सुनते-सुनते कान पकने लगे हैं। टीवी खोलो, अख़बार उठाओ बस हर तरफ सिर्फ और सिर्फ ललित मोदी ने ये ट्वीट किया, इसका नाम लिया, उसका नाम लिया, इसके अलावा और कुछ भी नहीं है।
ललित मोदी खुद लंदन में आराम फरमा रहा है, लेकिन भूचाल हिंदुस्तान में आया हुआ है। चाय पीते-पीते ललित मोदी ट्वीट कर रहा है और भारतीय मीडिया पागल हुआ जा रहा है। सीधी सी बात कहूं तो ललित मोदी जो चाह रहा है, वही भारतीय मीडिया में चल रहा है।
पहले सवालों में घिरी, अक्सर विवादों से परे रहने वाली सुषमा स्वराज। सुषमा की ललित मोदी को मदद की ख़बर से सुषमा स्वराज सवालों के घेरे में आती दिखाई दी, तो मोदी सरकार के एक साल के कार्यकाल में कुछ बड़ा खोजने की कोशिश कर रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को तो मानो राजनीतिक ऑक्सीजन मिल गई। सुषमा के बाद विवादों में घिरी धौलपुर की महारानी और वर्तमान में राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे। कांग्रेस आक्रमक थी और बीजेपी बैकफुट पर लेकिन अब ललित मोदी का ट्वीट आया कि उन्होंने गांधी परिवार से भी मुलाकात की थी। राबर्ट और प्रियंका वाड्रा से वे मिले थे। ट्वीट आने की देर थी, बैकफुट पर खड़ी बीजेपी अचानक से आक्रमक हो गई। सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे पर जवाब देने से बचने वाली भाजपा अब कांग्रेस से सवाल कर रही है।
ललित मोदी ट्वीट पर ट्वीट कर रहा है और सत्ता से गलियारों से विपक्ष तक छटपटा रहे हैं। कुछ समाचार चैनल 24 घंटे सिर्फ ललित मोदी के चक्कर में घनचक्कर बने हुए हैं। सवालों में घिरे नेताओं के पीछे साए की तरह लगे हुए हैं। हर एक सेकेंड की रिपोर्टिंग का बखान कर रहे हैं। हमने ये खुलासा किया, हमने ये दिखाया। साथ ही इस इंतजार में हैं कि अब किसी का इस्तीफा हो तो फिर ख़बर का असर दिखाया जाए कि कैसे उनकी ख़बर ने दिग्गजों को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया !
नैतिकता के तकाजे पर इस्तीफा अब पुरानी बात हो गई है। वैसे भी सत्ता का नशा इतनी आसानी से तो नहीं उतरता ! ऐसे में कैसे हाथ आई कुर्सी को कोई कैसे छोड़ दे ? इसके लिए जरूरत होती है साहस की, जो आजकल के राजनेताओं में तो दिखने से रहा।
मतलब साफ है सुषमा और राजे के इस्तीफे के इंतजार में अपनी रात काली कर रहे लोगों को कुछ हासिल नहीं होने वाला। इस्तीफा, वो भी ऐसे वक्त में जब बिहार का विधानसभा चुनाव सामने खड़ा है। अब क्यों बिहार का किला फतह करने की आस लगाए बैठी भाजपा बैठे बिठाए अपने विरोधियों को निशाना साधने का मौका देगी ?


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