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शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

आम आदमी के भी तो सपने हैं

सपने तो सभी देखते हैं, एक सपना ही तो है जो अपना है, जो चाहे देखो, जिसे चाहो देखो, जो मन चाहे वो करो। न तो कोई सपने देखने का टिकट मांगने वाला और न ही आपको सपने देखने से रोकने वाला। ऐसे में अगर यूपी के उन्नाव के डौंडिया खेड़ा गांव में एक साधु शोभन सरकार ने सपने में राजा राम बक्श सिंह के किले में जमीन के अंदर सोने का भंडार देख लिया तो कौन सा गुनाह हो गया..!
ये बात अलग है कि साधु के सपने को मूर्त रूप देने के लिए केन्द्रीय मंत्री चरण दास महंत ने पूरी ताकत लगा दी जिसके बाद केन्द्र सरकार को भी साधु के सपने वाला सोने का भंडार नजर आने लगा और जीएसआई और एएसआई को काम पर लगा दिया कि खुदाई शुरु कर सोना निकाल कर लाओ। खास बात ये है कि डौडिया खेड़ा गांव के साधु शोभन सरकार ने ये सपना गहरी नींद में बंद आंखों से देखा था जबकि केन्द्र सरकार को ये सपना खुली आंखों से ही दिखाई देने लगा है और सरकार को उम्मीद है कि वे जनता से हकीकत में किए वादों को पूरा न कर पाए तो क्या साधु के सपने को पूरा करके ही दम लेंगे।
डौडिया खेड़ा में लगा मेला इसका प्रमाण भी है और जिस तरह से उन्नाव के डीएम ने फावड़ा चलाकर खजाने की खोज में खुदाई का शुभारंभ किया उससे तो यही जाहिर होता है कि सरकार के साथ ही आला प्रशासनिक अधिकारी भी कर्म से ज्यादा सपने में विश्वास रखते हैं।
सपने देखना और उसे पूरा करने की कोशिश करना अच्छी बात है लेकिन सरकार ने इतनी तत्परता अगर रोज रात को भूखे पेट सोने वाले के किसी दिन भरपेट खाना मिलने के सपने को पूरा करने में दिखाई होती तो कितना अच्छा होता।
सरकार ने अगर इतनी तत्परता एक बेरोजगार के नौकरी के सपने को पूरा करने में दिखाई होती तो कितना अच्छा होता।
सरकार ने इतनी तत्परता कर्ज के बोझ तले दबे किसान के खुशहाल जीवन के सपने को पूरा करने में दिखाई होती तो कितना अच्छा होता।
सरकार ने इतनी तत्परता अपराध मुक्त समाज का सपना देखने वाले एक आम आदमी के सपने को पूरा करने में दिखाई होती तो कितना अच्छा होता।
सरकार ने इतनी तत्परता महंगाई के बोझ तले आम आदमी के जरुरी सामान उसकी पहुंच में होने के सपने को पूरा करने में दिखाई होती तो कितना अच्छा होता।
सरकार ने इतनी तत्परता स्विस बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने के आम आदमी के सपने को पूरा करने में दिखाई होती तो कितना अच्छा होता।
सरकार ने इतनी तत्परता बिजली, पानी और सड़क से महरूम लाखों लोगों के बिजली, पानी और सड़क के सपने को पूरा करने में दिखाई होती तो कितना अच्छा होता।
सरकार से ऐसे सपनों को पूरा करने की उम्मीद लगाए बैठी इस देश की जनता के सपनों की फेरहिस्त काफी लंबी है, जो न तो नाजायज है और न ही इतनी मुश्किल जिसे पूरा करना किसी सरकार के बस की बात न हो लेकिन इन सपनों को पूरा करने का वक्त हमारी सरकार के पास नहीं है, क्योंकि वे तो कुर्सी के सपने को पूरा करने में ही व्यस्त हैं।
क्योंकि वे तो अपनी तिजोरियों को भरने के सपने देखने और उन्हें पूरा करने में व्यस्त हैं।
क्योंकि वे तो देश की जनता को जाति और धर्म के आधार पर बांट कर राज करने के अपने सपने को पूरा करने में ही व्यस्त हैं।
बहरहाल डौडिया खेड़ा में सपने को सोने में बदलने की कवायद जारी है, सोने के सपने पर भरोसा तो नहीं लेकिन फिर भी उम्मीद करते हैं कि ये सपना पूरा हो। साथ ही ये भी उम्मीद करते हैं कि सरकार साधु के सपने की तरह आम आदमी के उन सपनों को पूरा करने में भी इतनी ही तत्परता दिखाए। जिसके लिए न ही किसी तरह के सर्वे की जरुरत है और न ही किसी खुदाई की। जरूरत है तो सिर्फ ईमानदारी और सपनों को पूरा करने की इच्छाशक्ति की।      

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शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

देवदूतों का बोलबाला !

आस्था के बाजार में सब कुछ बिकता है, बस आपके पास बेचने का हुनर होना चाहिए और खरीदने वाले की जेब में पैसा। वैसे धर्मस्थलों पर आपने कभी न कभी इस बात का अनुभव जरुर किया होगा। मेरा हाल ही में अजमेर और पुष्कर भ्रमण के दौरान कुछ ऐसा ही अनुभव रहा। हालांकि ये अनुभव मैं इससे पहले भी कई प्रसिद्ध धर्मस्थलों पर ले चुका हूं, लेकिन इस बार का अनुभव इसलिए आपसे साझा कर रहा हूं क्योंकि अब तक मैं समझता था कि ये सब सिर्फ हिंदुओं के धर्मस्थलों पर ही देखने को मिलता है, लेकिन वास्तव में अधिकतर धर्मस्थलों पर देवदूतों की ही तूती बोलती है।
बीते दिनों अपने कुछ मित्रों के साथ विश्व प्रसिद्ध दरगाह शरीफ अजेमर और पुष्कर जाना हुआ। गरीब नवाज़ के दर पर पहुंचते ही यहां भी हमें कुछ लोग ऐसे भी मिले जो आस्था के महाबाजार में आस्था के पुजारियों की जेबों को ढीली करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। अचानक से हमारे सामने प्रकट हुए एक महाशय ने भी हमें भीड़ से अलग हटकर बिना लाईन में लगे फटाफट दर्शन कराने का ऑफर दिया। इसके बदले में इन महाशय ने कोई पैसे की मांग तो नहीं कि लेकिन पुष्प हमें खरीदने ही थे, तो ऐसे में ऑफर बुरा नहीं लगा क्योंकि यहां से हमें पुष्कर के लिए भी कूच करना था और शाम तक जयपुर भी पहुंचना था।
खैर हम इन महाशय के साथ हो लिए और भारी भीड़ होने के बावजूद सिर्फ 5 मिनट में हम दर्शन कर फारिग हो गए। वहां भी नजराने के नाम पर पैसों की मांग करने वालों की कोई कमी नहीं थी। नजराने की डिमांड इस कीमत पर की जा रही थी कि ख्वाजा आपकी हर मुराद पूरी करेंगे और आपकी झोली खुशियों से भर देंगे। ये समझ नहीं आया कि क्या बिना नजराने के ख्वाजा अपने दर पर दुआ मांगने वालों की दुआओं को कबूल नहीं करेंगे और उन्हें खाली हाथ लौटा देंगे।
ख्वाजा के दर से हम पुष्कर के लिए रवाना हो गए। पुष्कर की धरती पर अभी हमारी गाड़ी ढंग से रुकी भी नहीं थी कि एक सज्जन हमारी गाड़ी के पास पहुंच गए। गाड़ी से नीचे उतरते ही इन महाशय ने ब्रह्मा जी के मंदिर के साथ ही पुष्कर सरोवर के दर्शन और यहां के धार्मिक महत्व को बताने की कीमत 50 रुपए बताते हुए अपने साथ चलने का अनुरोध किया। पुष्कर के धार्मिक महत्व और इतिहास की पूरी जानकारी देने के बाद ये हमें एक प्रसाद की दुकान पर लेकर गए और प्रसाद खरीदकर पूजा करने के लिए चलने की बात कही। जिसके बाद पुष्कर सरोवर के किनारे हम पांच मित्रों को इन्होंने वहां पर पहले से बैठे 5 अलग अलग पंडितों के पास बैठने के लिए कहा। पंडित जी ने कुछ ही मिनटों में पूजा संपन्न करा दी लेकिन पूजा के दौरान एक बार बीच में भोग के नाम पर 501 से लेकर 5001 तक की भेंट देने का अनुरोध किया और आखिर में अपनी दक्षिणा की मांगी की ताकि पूजा का फल हम लोगों को मिल सके। ये बात इस अंदाज में कह गई कि मानो भोग के लिए पैसे और पूजा कि मुहंमांगी दक्षिणा न देने पर जैसे भगवान हमसे रुष्ट हो जाएंगे और हम दर्शन करने के बाद भी प्रभु की कृपा से वंचित रह जाएंगे। खैर हम सभी ने अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार पंडित जी को दक्षिणा दी और इसके बाद हम दर्शन के लिए ब्रह्मा जी के मंदिर पहुंच गए। आखिर में ये सज्जन हमें मंदिर के बार स्थित एक देवी देवताओं की प्रतिमाओं की दुकान में भी लेकर गए और लगे हाथों दुकान से सामान खरीदने की सलाह भी दे डाली।
कुल मिलाकर दरगाह शरीफ से लेकर पुष्कर तक मुझे एक ही बात समझ में आयी कि धर्मस्थलों में भगवान के दर्शन हो या न हों लेकिन देवदूतों के दर्शन आपको जरुर हो जाएंगे जो देवों के दर्शन और पुण्य कमाने के नाम पर आपकी जेब ढीली करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं, लेकिन ये बात समझ में नहीं आयी कि निर्मल बाबा की तरह श्रद्धालुओं को प्रभु की कृपा दिलाने का दावा करने वाले इन देवदूतों पर आखिर प्रभु की कृपा क्यों नहीं बरसती।


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गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

दोष आसाराम और नारायण का नहीं !

हमारे देश में आस्था का तोड़ नहीं है और आस्था अगर अंधी हो तो फिर क्या कहने। अंधी अस्था के सागर में डुबकी लगाने वालों से तो कोई जीत ही नहीं सकता। अब आसाराम के समर्थकों को ही देख लिजिए। ये आसारम के प्रति उनकी अंधी आस्था नहीं तो और क्या है। आसाराम जेल में बंद है, आसाराम का कुपुत्र नारायण साईं पुलिस के साथ चोर-सिपाही का खेल खेल रहा है, लेकिन इनके अंध समर्थकों को अब भी दोनों पाक साफ लगते हैं। उन्हें लग रहा है कि दोनों को साजिश के तहत फंसाया जा रहा है। माना कि मामला अदालत में है और दोनों अभी तक न्यायालय द्वारा दोषी करार नहीं दिए गए हैं, लेकिन बाप बेटे के खिलाफ रेप, यौन शोषण सहित तमाम आरोप और गवाह के सामने आने के बाद आसाराम का जेल पहुंचना और नारायण साई का सिर पर पैर रखकर भागना कम से कम ये तो जाहिर करता ही है कि दोनों पाक साफ तो नहीं है।
लाई डिटेक्टर मशीन के डर से आसाराम की याददाश्त भी वापस आ गयी और आसाराम को वह सब याद आ गया, जिन काली करतूतों को आसाराम ने संत का चोला ओढ़ कर अंजाम दिया था। अभी तक लड़की को पहचानने से ही इंकार करने वाले आसाराम को लड़की भी याद आ गयी और अपनी काली करतूत भी जो उसने पीड़िता के साथ की थी।
लेकिन इसके बाद भी आस्था के पुजारियों की आंखों से शर्म का पर्दा हटने को तैयार नहीं है। आसारम के अंध समर्थकों को अब भी अपने पूज्यनीय बापू पर पूरा भरोसा है। गजब है आस्था का अंध बाजार भी जहां बड़े-बड़े पापी भी आस्था के इन पुजारियों को संत नजर आते हैं। दुनिया दोष आसाराम और उसके बेटे नारायण साईं को दे रही है, लेकिन वास्तव में इनका इसमें कोई कसूर नहीं है। कसूर है आंखें बंद कर आस्था के नाम पर ऐसे संतों को पूजने वालों का जो इन्हें सिर माथे पर बैठाने में देर नहीं करते हैं और इन्हें  भगवान से भी ऊंचा दर्जा दे देते हैं। अब इनके ये कथित भगवान क्या गुल खिला रहे हैं, वह सबके सामने हैं, लेकिन अफसोस इस बात का है कि इनकी आंखों पर अंधी आस्था का पर्दा इस तरह पड़ा हुआ है कि इन्हें अब भी संत का चोला ओढ़े ये ढोंगी बेदाग नजर आते हैं। इन्हें अब भी लगता है कि कोई चमत्कार होगा और कपड़े धोने का टाईड टाईप कोई डिटरजेंट अचानक से आएगा और आसाराम औऱ नारायण साईं पर लगे सारे आरोपों को कपड़े पर लगे किसी दाग की तरह धो देगा लेकिन इन अंध समर्थकों को कौन समझाए कि ये सिर्फ विज्ञापन में ही होता है, असल जिंदगी में नहीं। आंखे खोलों अंधी आस्था के पुजारियों वर्ना हिंदुस्तान में अंध अस्था की रायल्टी के सहारे भगवान बने बैठे ऐसे कई आसाराम और नारायण साईं आपको बेवकूफ बनाते रहेंगे।   


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बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

मीडिया पर मेहरबान बहुगुणा सरकार !

उत्तराखंड में आई भीषण त्रासदी में जहां हजारों लोग मौत के आगोश में समा गए वहीं पलभर में लाखों लोगों की खुशियां मातम में बदल गयी। घर बार सब कुछ त्रासदी की भेंट चढ़ जाने से लोग सड़कों पर आ गए। पलभर में मानो उनकी दुनिया ही उजड़ गयी। ऐसे मुश्किल वक्त में देशवासियों ने दिल खोलकर आपदा प्रभावितों की मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाए। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि अभी तक मुख्यमंत्री राहत कोष में देशभर से करीब 327 करोड़ रुपए जमा हो चुके हैं जबकि बहुगुणा सरकार ने इस राशि में से करीब 125 करोड़ रुपए खर्च भी कर चुकी है। लेकिन सवाल ये खड़ा होता है कि फंड की कोई कमी न होने के बावजूद भी आपदा प्रभावितों की मदद को लेकर राज्य सरकार आखिर अपना खजाना खोलने में क्यों शर्मा रही है, जबकि अपनी नाकामियां छिपाने के लिए राज्य सरकार ने मीडिया के लिए खजाने का मुंह खोलने में जरा सी भी देर नहीं की।
सूबे के मुखिया विजय बहुगुणा कहते हैं कि आपदा प्रभावितों को हर संभव मदद दी जा रही है। उनके राहत एवं पुनर्वास में कोई कमी नहीं छोड़ी जा रही है, लेकिन ऐसा दिखता तो नहीं। जो दिख रहा है, वो यह कि विजय बहुगुणा ने आपदा के बाद से सरकारी नाकामी पर पर्दा डालने और सरकार की छवि चमकाने के लिए मीडिया पर दिल खोलकर सरकारी खजाना लुटाया। शायद ही ऐसा कोई समाचार चैनल, समाचार पत्र या फिर पत्रिका होगी जिसमें सरकार के गुणगान के लिए बहुगुणा ने सरकारी विज्ञापन के नाम पर पानी की तरह पैसा न बहाया हो।
सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार आपदा के बाद से सितंबर तक बहगुणा सरकार ने करीब साढ़े 22 करोड़ रुपए के सरकारी विज्ञापन विभिन्न समाचार चैनलों, समाचार पत्रों औऱ पत्रिकाओं को जारी किए। उत्तराखंड में आपदा प्रभावित दाने दाने को मोहताज हो रहे थे। लेकिन इन सरकारी विज्ञापनों के जरिए समाचार चैनलों, समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में सरकार की तारीफ में कसीदे पढ़े जा रहे थे। बताया जा रहा था कि आपदा के दौरान सरकार के गुडवर्क के चलते हजारों लोगों की जानें बचायी गयी तों आपदा प्रभावितों को तत्काल राहत सामग्री पहुंचाई गयी।
मुख्यमंत्री बहुगुणा भले ही राहत कोष में जमा पैसे का उपयोग आपदा प्रभावितों के कल्याण के लिए खर्च करने की बात कर रहे हों लेकिन बड़ा सवाल ये है कि कहीं आमजन के लिए चलने वाली तमाम सरकारी योजनाओं के पैसे की तरह ही राहत राशि की बंदरबाट तो नहीं होगी और ये पैसा आपदा प्रभावितों की जिंदगी रोशन करने की बजाए भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों की जेबों को तो रोशन नहीं करेगा। कुल मिलाकर उत्तराखंड सरकार के पास फिलहाल आपदा प्रभावितों की मदद के साथ ही आपदा प्रभावित क्षेत्रों के विकास के लिए फंड की कोई कमी नहीं है। कमी दिखाई देती है तो सरकार की नीयत में, कमी दिखाई देती है तो सरकार की ईच्छाशक्ति में, जिसका खामियाजा हर पल आपदा प्रभावितों को उठाना पड़ रहा है।

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