भोपाल गैस त्रासदी…एक ऐसा सच जिसका सामना करने की हिम्मत शायद किसी में नहीं है, न इस
त्रासदी का शिकार हुए लोगों में और न ही मध्य प्रदेश और न ही केन्द्र
सरकार में। वजह बिल्कुल साफ है, त्रासदी को 29 बरस पूरे हो गए हैं लेकिन न तो इस त्रासदी के जिम्मेदार वॉरेन एंडरसन को
सजा हुई और न ही पीड़ितों को इंसाफ मिल पाया। मुआवजे के नाम पर करोड़ों रूपए
रेवड़ियों की तरह बांटे गए लेकिन वास्तविक रूप में इसके असल हकदारों की फेरहिस्त
लंबी हैं जिन्हें मुआवजे तक नहीं मिल पाया। जबकि इसके उल्ट तस्वीर का एक और पहलू
ये है कि मुआवजे के नाम पर कुछ लोगों ने जमकर चांदी काटी और गैस पीड़ित का तमग
लगाकर ये लोग लखपति बन बैठे।
गैस पीड़ितों के हक में आवाज़ उठाने वाले
करीब एक दर्जन से ज्यादा गैस पीड़ित संगठन दावा तो गैस पीड़ितों के हिमायती होने
का करते हैं। गैस पीड़ितों के नाम पर धरना प्रदर्शन कर खूब सुर्खियां बटोरते हैं
लेकिन गैस पीड़ितों के नाम पर बटोरे गए देश विदेश से करोड़ों की चंदे की रकम को
कितना ये लोग पीड़ितों के कल्याण पर खर्च करते हैं इसका अंदाजा गैस पीड़ित संगठनों
के आकाओं के आलीशान घर और रहन सहन को देखकर लगाया जा सकता है(गैस पीड़ितों के लिए
कार्य कर रहे सभी संगठन इसमें शामिल नहीं)।
2008
से लेकर 2010 तक भोपाल में पत्रकारिता के दौरान इन चीजों को मैंने खुद महसूस भी किया।
बचपन में किताबों में जब भोपाल गैस त्रासदी के बारे में पढ़ाई करते हुए हाथ में बच्चे
को पकड़े एक महिला की मूर्ति देखते वक्त ये कभी नहीं सोचा था कि एक वक्त ऐसा भी
आएगा जब मैं खुद भोपाल में इनके बीच कार्य कर रहा हूंगा। सोचा तो ये भी नहीं था कि
इस दौरान ऐसी कड़वी हकीकतों से भी रूबरू होना पड़ेगा जिसके बारे में कभी कल्पना तक
नहीं की थी।
त्रासदी के ठीक बाद से ही केन्द्र औऱ
राज्य सरकार ने पूरी ईमानदारी के साथ अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई और गैस पीड़ितों
की बजाए इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों की मदद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी..! मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और तत्कालीन प्रधानमंत्री
राजीव गांधी पर तो इस त्रासदी के मुख्य आरोपी वॉरेन एंडरसन को भोपाल से पहले
दिल्ली और फिर दिल्ली से विदेश भगाने तक के गंभीर आरोप लगे..! हालांकि कांग्रेस ने हमेशा ही इसका खंडन किया लेकिन वॉरेन एंडरसन को
भोपाल के जिलाधिकारी की सरकारी गाड़ी में एयरपोर्ट पहुंचाना और वहां से सरकारी
विमान से दिल्ली पहुंचाना ये सवाल खड़े करता है कि अर्जुन सिंह और राजीव गांधी की भूमिका
इस मामले में संदिग्ध थी..! अफसोस और ज्यादा होता है क्योंकि मध्य
प्रदेश की राजधानी भोपाल में चीजें आज भी नहीं बदली हैं। हजारों लोगों को मौत की
नींद सुलाने वाली यूनियान कार्बाइड फैक्ट्री आज भी लोगों को मौत बांट रही है। 2-3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात ये मौत मिथाईल
आइसोसायनाइट के रूप में हवा में घुलकर लोगों को तड़पा तड़पा कर मार रही थी तो आज
फैक्ट्री परिसर में मौजूद हजारों टन जहरीला रसायनिक कचरा भोपाल की हवा, पानी में घुलकर लोगों को बीमारियों की सौगात दे रहा है। आश्चर्य उस वक्त
होता है जब मौत बांट रहे इस रसायनिक कचरे के निष्पादन की बजाए इस पर राजनीति होती
है। इससे भी बड़ा आश्चर्य ये जानकर होता है कि ये राजनीति करने वाले राजनीतिक दल
नहीं बल्कि वो गैस पीड़ित संगठन हैं जो नहीं चाहते कि ये रसायनिक कचरा फैक्ट्री
परिसर से निकाल कर इसे नष्ट किया जाए। अगर ऐसा नहीं होता तो जबलपुर हाईकोर्ट के इस
कचरे को गुजरात के अंकलेश्वर में नष्ट करने के आदेश के बाद ये कचरा कब का नष्ट
किया जा चुका होता। लेकिन ख़बरें तो यहां तक थी कि भोपाल के गैस पीड़ित संगठनों ने
गुजरात के कुछ एनजीओ के साथ मिलकर गुजरात में इसका विरोध करवाना शुरु कर दिय। जिसके
बाद गुजरात सरकार ने अंकलेश्वर में कचरा नष्ट किए जाने से इंकार कर दिया। इसके बाद
इंदौर के निकट पीथमपुर में जब इस कचरे को नष्ट किया जाने लगा तो एक बार फिर से
इसका विरोध शुरु हो गया। कुछ गैस पीड़ित संगठन दलील देते है कि इस कचरे को डाउ
कैमिकल अपने देश लेकर जाए और वहीं इसे नष्ट किया जाए। इसके खिलाफ तो वे विरोध
प्रदर्शन करते हैं लेकिन इससे भोपाल की हवा और पानी में हो रहे प्रदूषण से बीमार
हो रहे लोगों की इनको चिंता नहीं है। देखा जाए तो सिर्फ गैस पीड़ित संगठन ही इसके
लिए जिम्मेदार नहीं है बल्कि कहीं न कहीं सरकार का गैर जिम्मेदार रवैया भी इसके
लिए कम जिम्मेदार नहीं है। राजनीति से ऊपर उठकर सरकार ने राजनीतिक ईच्छाशक्ति
दिखाई होती तो शायद 29 साल बाद भी कम से कम भोपाल की फिज़ा में
ये जहर नहीं घुल रहा होता। उम्मीद करते हैं अगले साल जब ये त्रासदी अपने 30 साल पूरे कर चुकी होगी तो कम से कम फैक्ट्री परिसर में बिखरे पड़े हजारों
टन जहरीले रसायनिक कचरे का निष्पादन हो चुका होगा।
deepaktiwari555@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें