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बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

"पावर" के लिए बेचैन पवार !

गजब है भाई, ऐसे बेचैनी देखी है कभी, हालांकि राजनीति में कुछ भी संभव है, लेकिन महाराष्ट्र में चुनावी नतीजों के बाद से ही एनसीपी का भाजपा के प्रति बढ़ता प्रेम निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। ध्यान रहे कि ये वही एनसीपी है, जो चुनावी नतीजों से पहले भाजपा की धुर विरोधी हुआ करती थी, लेकिन जनता का फैसला क्या आया, शरद पवार साहब के तो सुर ही बदल गए।
महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों के पूरे नतीजे आने से पहले ही साफ हो चुकी चुनावी तस्वीर को भांपकर पहले तो एनसीपी ने खुद की भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान कर दिया। वजह बताई, महाराष्ट्र में स्थाई सरकार के गठन में अपनी भूमिका निभाना, लेकिन पवार साहब ये भूल गए कि इसकी असल वजह क्या हो सकती है, जो अब तक फूटी आंख न सुहाने वाली भाजपा को सरकार बनाने के लिए आप बिना शर्त समर्थन को तैयार हो गए, वो भी बिन मांगे। अब जब एनसीपी को लगा कि भाजपा अपनी पुरानी सहयोगी शिवसेना के साथ जाना ज्यादा पसंद करेगी और शिवसेना का रूख भी भाजपा के लिए नरम पड़ने लगा है, तो शरद पवार साहब ने नया दांव खेल दिया। ऐलान कर दिया कि सदन में बहुमत साबित करने के लिए वोटिंग की नौबत आती है, तो एनसीपी विधायक बॉयकॉट कर देंगे और वोटिंग में हिस्सा नहीं लेंगे। मंशा शायद यही थी कि भाजपा को ये संदेश चला जाए कि शिवसेना के दबाव में जाने से भाजपा बचे और बहुमत साबित करने के संकट से उसे एनसीपी निकाल लेगी। अब एनसीपी अपने इस भाजपा प्रेम के पीछे की उस वजह से भले ही इंकार कर रही हो, जिसकी चर्चा सियासी गलियारों में तैर रही है, कि एनसीपी भाजपा के साथ खड़े होकर बदले में भाजपा से चाहती है, कि पिछली सरकार में हुए भ्रष्टाचार और घोटालों की जांच भाजपा सरकार न कराए।
राजनीतिज्ञ वो भी शरद पवार जैसा, जाहिर है बिना किसी वजह के तो भाजपा को समर्थन देने के लिए ललायित नहीं हो रहे होंगे, वजह चर्चाओं में भी है, और इस वजह से आसानी से इंकार भी नहीं किया जा सकता। बहरहाल एनसीपी भाजपा को ऑफर पर ऑफर दिए जा रही है, और भाजपा ने भी शिवसेना के साथ कोई बात नहीं बन पाई है, यानि की भाजपा ने विकल्प खुले रखे हैं। ऐसे में देखना रोचक होगा कि आखिर भाजपा सरकार बनाने के लिए क्या रास्ता अख्तियार करना पसंद करेगी। अपनी पुरानी सहयोगी शिवसेना के समर्थन से सरकार बनाएगी, जिसकी संभावना ज्यादा प्रबल है, या फिर एनसीपी के लुभावने ऑफरों पर गौर करेगी ! बहरहाल देवेन्द्र फडनवीस के रूप में मुख्यमंत्री के नाम का तो ऐलान हो गया है, और उम्मीद है कि जल्द ही सरकार गठन का फार्मूला भी सबके सामने आ जाएगा कि आखिर भाजपा किसे अपने साथ लेकर चलती है। 


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सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

काला धन और चंदे का खेल !

काले धन के मुद्दे पर पहले सुर्खियां और फिर वोट तो मोदी जी ने खूब बटोरे लेकिन जब बारी विदेशी बैंक में जमा भारतीयों के काले धन को वापस लाने की बात आई  तो काला धन वापस लाना तो छोड़िए, काला धन जमा करने वालों के नाम का खुलासा करने में भी खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली कहावत चरितार्थ होती दिखाई दी।  
सरकार ने सर्वोच्च न्यायलय में हलफनामा दाखिल कर नाम भी बताए तो सिर्फ तीन कारोबारियों के। डाबर समूह के प्रदीप बर्मन, गोवा की खनन कारोबारी राधा टिम्बलू और राजकोट के सर्राफ व्यापारी पंकज चमनलाल लोढ़िया के नाम सबूत के साथ सरकार ने दिए हैं। हालांकि इनमें से प्रदीप बर्मन ने अपने खाते को वैध बताते हुए सभी प्रकार के टैक्स चुकाए जाने का दावा किया है तो पंकज लोढ़िया ने तो स्विस बैंक में खाता होने की बात से ही साफ इंकार किया है। अब इनके दावों पर यकीन किया जाए तो लंबी जद्दोजहद के बाद सरकार ने जो तीन नाम सार्वजनिक किए हैं, वो मोदी सरकार के जमकर किरकिरी भी करा सकते हैं।
वैसे असल मुद्दा सार्वजनिक किए गए नामों की संख्या को लेकर है, जो सरकार के पूर्व में किए गए वादे के अनुसार कम से कम 136 तो होनी ही चाहिए थी, लेकिन सामने आए सिर्फ तीन नाम। अब इसके मोदी सरकार की क्या मंशा है, ये तो वे ही बेहतर समझ सकते हैं, लेकिन नाम न बताने से पहले भी सवालों के घेरे में आई मोदी सरकार की मुश्किलें नाम बताने के बाद अब और भी ज्यादा बढ़ गई हैं।
पहले नाम न बताने को लेकर सरकार विपक्षियों के निशाने पर थी, अब नाम बता दिए तो सिर्फ तीन ही नाम क्यों का सवाल मोदी सरकार से जवाब मांग रहा है। जाहिर है खाताधारकों की फेरहिस्त लंबी है, लेकिन सिर्फ तीन कारोबारियों के नाम ही क्यों का जवाब हर कोई जानना चाहता है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्मस की रिपोर्ट ने इन तीन नामों का भाजपा और कांग्रेस दोनों से जुड़ा एक और खुलासा कर भाजपा और कांग्रेस दोनों की नींद और उड़ा दी है। एडीआर की रिपोर्ट कहती है कि कालाधन रखने वाली गोवा के कारोबारी राधा टिंबलू की कंपनी टिंबलू प्राईवेट लिमिटेड ने वित्तीय वर्ष 2004 -2005 और 2011-2012 में भाजपा और कांग्रेस को एक करोड़ 83 लाख रूपए का चंदा भी दिया था। इसमें से बड़ी राशि भाजपा के खाते में आई जिसने टिंबलू प्राईवेट लिमिटेड से एक करोड़ 18 लाख रूपए का चंदा लिया तो कांग्रेस ने 65 लाख रूपए का चंदा लिया। वहीं राजकोट के सर्राफ पंकज लोढ़िया ने भी भाजपा को 2011-12 में 51 हजार रूपए का चंदा दिया था।
जाहिर है कालेधन के मुद्दे को जोरशोर से उठाने वाली भाजपा और तीन नाम सार्वजनिक करने वाली मोदी सरकार की मुश्किल इस खुलासे के बाद अब और बढ़ गई है। टैक्स चोरी कर विदेशी बैंकों में कालाधन रखने वालों से चंदा लेने पर सवाल उठने लाजिमी है, मजे की बात तो ये है कि कालेधन के मुद्दे पर विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस पर सवाल उठाने वाली भाजपा और अब विपक्ष में रहते हुए भाजपा पर सवाल उठा रही कांग्रेस दोनों ही अब एक जैसी स्थिति में है।
चंदे की रकम का बड़ा हिस्सा भले ही भाजपा के खाते में आया हो लेकिन कम ही सही चंदा कांग्रेस ने भी बटोरा है। ऐसे में कालेधन के मुद्दे के बाद एक दूसरे पर निशाना साधकर सियासी फायदा बटोरने वाली देश की दोनों बड़ी पार्टियां अब खुद सवालों के घेरे में हैं।
जाहिर है चंदा देने वालों के दोनों ही पार्टियों से अपने अपने व्यवसायिक स्वार्थ रहे होंगे, और इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि चंदे की एवज में सत्ताधारी दल से इन्होंने भरपूर फायदा भी उठाया होगा या उठाने की तैयारी में होंगी ! अब चाहे सफाई कोई कितनी ही दे, लेकिन काला धन रखने वालों से चंदा लेने के बाद दोनों ही पार्टियों पर भरोसा करना मुश्किल है। खासकर सत्ताधारी भाजपा पर जो कालेधन को वापस लाने और सभी अवैध खाताधारकों के नामों को उजागर करने का दावा कर रही है। वैसे भी नाम उन्हीं के उजागर हुए हैं, जिनसे लिया गया चंदा इन पार्टियों को मिलने वाली चंदे की रकम का बहुत छोटा सा हिस्सा है। ऐसे ही ये राजनीतिक दल चुनावों में पानी की तरह पैसा नहीं बहाते !


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रविवार, 26 अक्तूबर 2014

लहर, असर और दिल्ली का डर !

आम चुनाव के मुकाबले कम ही सही, लेकिन मोदी लहर का असर महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों पर भी दिखाई तो दिया लेकिन इसके बाद भी झारखंड और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव के साथ दिल्ली में विधानसभा चुनाव का ऐलान न होना हैरान जरूर करता है।
सवाल कई हैं, लेकिन जवाब शायद भाजपा के पास नहीं है। या कहें, कि जवाब तो है, लेकिन उसे कहने का साहस भाजपा नेताओं के पास नहीं है। दिल्ली में विधानसभा चुनाव कराने की बजाए खाली पड़ी तीन सीटों पर उपचुनाव कराने का ऐलान करना सवालों की फेरहिस्त को और लंबी कर देता है।
आम चुनाव के बाद 10 राज्यों की 33 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं आए तो मोदी लहर के हवा होने की हवा चलने लगी थी। लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा की धमाकेदार जीत ने दीवाली पर भाजपा की खुशी को दोगुना कर दिया। साथ ही मोदी लहर के हवा होने की बातें करने वाले विरोधियों पर निशाना साधने का मौका भी भाजपा नेताओं को मिल गया। लेकिन इसके बाद भी दिल्ली में चुनाव का ऐलान न होना साफ करता है कि दिल्ली को लेकर भाजपा के मन में डर अभी भी कायम है। भाजपा को शायद डर है कि दिल्ली की सत्ता हासिल करने की राह में आम आदमी पार्टी उसके लिए रोड़ा बन सकती है। शायद इसलिए ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव कराने की बजाए खाली पड़ी 3 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव कराना भाजपा को ज्यादा बेहतर विकल्प लगा !
उपचुनाव के नतीजे दिल्ली की जनता के मिजाज़ को भी बता देंगे। किस्मत से मिजाज़ भाजपा के पक्ष में रहा तो कुछ दिनों में या महीनों में दिल्ली में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया जाएगा और नतीजे मनमाफिक न आए तो फिर दिल्ली में राष्ट्रपति शासन तो लगा ही हुआ है। जैसे चल रहा है, चलने दिया जाए ! कम से कम दिल्ली की हार के कलंक से तो कुछ दिनों या महीनों तक बचा ही जा सकता है। इस दौरान जोड़ – तोड़ कर सरकार बनाने का वक्त तो रहेगा ही ! पता नहीं, लेकिन झारखंड और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ दिल्ली में विधानसभा चुनाव की बजाए तीन सीटों पर उपचुनाव के ऐलान के बाद से ही मन में कुछ ऐसे ही सवाल उठ रहे हैं।
बहरहाल आम चुनाव के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा तो भाजपा ने फतह कर लिया है, लेकिन झारखंड और जम्मू – कश्मीर विधानसभा चुनाव के साथ ही दिल्ली की तीन विधानसभा सीटों पर उपचुनाव भी भाजपा के लिए किसी बड़ी अग्निपरीक्षा से कम नहीं होगा। फैसला जनता को ही करना है, ऐसे में देखना रोचक होगा कि इन चुनाव में लहर कितना असर दिखाती है।


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