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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

क्योंकि ये आम नहीं, खास लोग हैं !

किस्मत हो तो अपराधी...नहीं नहीं, फिल्म अभिनेता संजय दत्त जैसी। पहले तो एक गंभीर अपराध करने के बाद सजा होने पर लोगों का...नहीं नहीं, बड़े बड़े लोगों का दिल खोलकर समर्थन मिल जाता है और सजा माफ कराने कम कराने को लेकर मुहिम छिड़ जाती है। फिर जब जेल हो भी जाती है तो खुद की नासाज तबियत के नाम पर बड़ी ही आसानी से पेरोल मिल जाती है। मानो संजय दत्त जेल में किसी अपराध की सजा काटने नहीं बल्कि किसी फिल्म की शूटिंग के लिए पहुंचे हों। 14 दिन की छुट्टियां पूरी हो जाती हैं तो फिर बड़ी आसानी से एक ही आग्रह पर इस छुट्टी को 14 और दिन के लिए बढ़ा दिया जाता है।
हॉलिडे पैकेज समाप्त होने के बाद सजा पूरी करने के लिए संजय दत्त फिर से जेल पहुंच जाते हैं लेकिन अचानक से बकौल संजय दत्त उनके साथ ही उनकी पत्नी मान्यता और बेटी की तबियत बिगड़ जाती है और संजय दत्त फिर से जेल प्रशासन से एक महीने के हॉलिडे पैकेज की मांग करते हैं। जेल अधीक्षक महोदय भी दिल खोलकर इसे स्वीकार कर लेते हैं और डिवीजलन कमिश्नर से संजय दत्त को 30 दिन का हॉलिडे पैकेज मंजूर करने की सिफारिश कर देते हैं। नतीजा वही होता है, जो संजय दत्त जैसे बड़े बड़े लोगों की अर्जियों के साथ होता है। प्रशासन को संजय दत्त की छुट्टियों के पीछे की दलील इतनी दमदार लगती है और उनका दिल इतना पसीज जाता है कि वे इसे झट से स्वीकार कर लेते हैं। (जरूर पढ़ें- काश मैं भी संजय दत्त होता..!)
फर्ज कीजिए कि अगर एक आम कैदी अगर किसी भी वजह से पैरोल के लिए आवेदन करता है तो उसकी अर्जी का क्या हश्र होता होगा..? आम कैदी को अपनी सजा के दौरान शायद ही कभी इतनी आसानी से पेरोल मिलती हो, चाहे उस कैदी के लिए पेरोल कितनी ही जरूरी क्यों न हो..? चाहे उसके मां या पिता का निधन की क्यों न हो गया हो लेकिन पेरोल की अर्जी मंजूर होने की बजाए कूड़ेदान की शोभा बढ़ा रही होती है लेकिन कैदी को पेरोल नहीं मिलती है..! पेरोल तो बड़ी बात हो गयी, आम कैदी के परिजनों को कैदी से मिलने की अऩुमति ही बड़ी मशक्कत के बाद मिल पाती है, पेरोल मिलना तो बहुत दूर की बात है।
बड़ा आदमी होने के वाकई कई फायदे हैं। अपराध करो तो भी कोई अपराधी मानने को तैयार नहीं होता। अदालत सजा सुना भी देती है तो बड़े बड़े लोग उसके पक्ष में खड़े होकर सजा माफ करने की अपील शुरू कर देते हैं। बड़ा आदमी होने से आपके लिए कानून के मायने बदल जाते हैं और कई बार आप कानून से ऊपर हो जाते हैं। संजय दत्त भी तो बड़ा आदमी होने की, अभिनेता होने की, सेलिब्रेटी होनी की ही खा रहे हैं। आर्मस एक्ट के तहत दोषी ठहराए जाने के बाद भी कभी अपनी बीमारी के नाम पर तो कभी अपनी पत्नी और बेटी की बीमारी के नाम पर पेरोल का नहीं नहीं हॉलिडे पैकेज का जमकर लुत्फ उठा रहे हैं। वैसे उनकी पत्नी कितनी बीमार है इसकी कुछ तस्वीरें एक वेबसाईट के माध्यम से सामने आई हैं जिसमें उनकी पत्नी मान्यता शायद किसी पार्टी में अपनी बीमारी को ठीक कराने के लिए ही पहुंची थी। 
संजय दत्त बड़े आदमी हैं, सेलिब्रेटी हैं तो सोच रहा हूं क्यों न मैं भी संजय दत्त की सजा माफ करने की अपील कर दूं ताकि बार बार संजय दत्त पेरोल के लिए अपील कर कष्ट न उठाना पड़े और बार बार उनकी पेरोल मंजूर होने पर दूसरे कैदी ये सोच कर परेशान न हों कि काश में भी संजय दत्त होता, तो मेरे लिए भी सारे नियम कायदे शिथिल पड़ जाते और मैं भी अपने बीमार मां – बाप की सेवा और अपने पत्नी और बच्चों से मिलने के लिए जेल से कुछ दिनों के लिए बाहर निकल पाता।


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बुधवार, 4 दिसंबर 2013

एक्जिट पोल- कहीं खुशी, कहीं गम

पांच राज्यों मिजोरम, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान के बाद दिल्ली के चुनावी नतीजे चाहे कुछ भी हों लेकिन विभिन्न समाचार चैनलों और एजेंसियों के एक्जिट पोल सर्वे ने 2014 में मोदी के सहारे केन्द्र की सत्ता में आने को बैचेन भाजपा को फिलहाल खुश होने का मौका तो दे ही दिया है। अब ये खुशी 8 दिसंबर के बाद भी कायम रह पाएगी या नहीं ये तो पांच राज्यों के चुनावी नतीजों के सामने आने के बाद ही साफ हो पाएगा लेकिन फिलहाल चुनावी थकान उतार रहे भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए ये एक्जिट पोल किसी ऐसी नशीली दवा की तरह हैं, जिसने उनकी सारी थकान पलभर में ही छू मंतर जरूर कर दी होगी।
विभिन्न एक्जिट पोल को देखने के बाद खुश तो मोदी भी बहुत हो रहे होंगे और शायद मोदी पीएम की कुर्सी को अपने और करीब महसूस कर रहे होंगे। लेकिन कांग्रेस युवराज राहुल गांधी का चेहरा भुलाए नहीं भूलता। आखिर राहुल गांधी का क्या हाल हो रहा होगा जो अघोषित तौर पर 2014 में कांग्रेस के घोषित पीएम कैंडिडेट हैं। उन कांग्रेसी नेताओं का क्या हाल हो रहा होगा जिन्हें देश में पीएम की कुर्सी के लिए राहुल गांधी से योग्य कोई और नेता नहीं दिखाई देता। हालांकि ये लोग फिलहाल तो नतीजों से पूर्व एक्जिट पोल पर भरोसा न करने की बात कर रहे हैं लेकिन एक्जिट पोल में अगर स्थिति ठीक इसके उल्ट होती और कांग्रेस जीत के रथ पर सवार दिखाई दे रही होती तो शायद इनके सुर कुछ और ही होते और ये एक्जिट पोल के नतीजों को जनता की आवाज बताते नहीं अघा रहे होते।
एक्जिट पोल सर्वे में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के नतीजे भले ही बहुत ज्यादा चौंकाने वाले न हों लेकिन कुल 70 विधानसभा सीटों वाली देश की राजधानी दिल्ली के नतीजे चौंकाने वाले जरूर हैं। जिस तरह से अधिकतर एक्जिट पोल में कांग्रेस को अर्श से फर्श पर आते और भाजपा को बहुमत के करीब पहुंचते और दिल्ली में सरकार बनाने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी को करीब एक दर्जन से ज्यादा सीटें मिलने की बात कही जा रही है वो अपने आप में जनता का बड़े राजनीतिक दलों को एक बड़ा ईशारा है कि बेहतर विकल्प होने की स्थिति में जनता कांग्रेस और भाजपा को छोड़कर आप जैसे किसी पार्टी का भी हाथ थाम सकते हैं। सिर्फ एक साल पहले 26 नवंबर 2012 को गठित हुई आम आदमी पार्टी का दिल्ली में अगर विभिन्न एक्जिट पोल के अनुसार प्रदर्शन रहता है तो ये भाजपा और कांग्रेस के माथे पर बल लाने के लिए काफी है क्योंकि आम आदमी पार्टी आने वाले वक्त में दिल्ली से बाहर निकलकर भी दोनों बड़े दलों की नींद उड़ा सकती है जिसे कहीं न कहीं भारतीय राजनीति के लिए एक शुभ संकेत कहा जा सकता है बशर्ते आम आदमी पार्टी जनता से किए अपने वादों पर कायम रहे और भ्रष्टाचार की कालिख से खुद को बचाकर रखे।
बहरहाल 2014 के सेमीफाईनल माने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जनता ने तो अपना फैसला सुना दिया है जो 8 दिसंबर को देश के सामने आएगा लेकिन कम से कम तब तक तो विभिन्न समाचार चैनलों और एजेंसियों के इन एक्जिट पोल सर्वे को स्वीकार कर खुश होने और इसे नकार कर अपनी जीत के दावे करने के लिए तो सभी राजनीतिक दल स्वतंत्र हैं ही। फिलहाल तो इंतजार करते हैं 8 दिसंबर का और देखते हैं जनता ने अपने वोट की ताकत से इस बार किस किस की बोलती ईवीएम में बंद कर दी है।


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सोमवार, 2 दिसंबर 2013

गैस त्रासदी – स्कूल किताब से हकीकत तक

भोपाल गैस त्रासदीएक ऐसा सच जिसका सामना करने की हिम्मत शायद किसी में नहीं है, न इस त्रासदी का शिकार हुए लोगों में और न ही मध्य प्रदेश और न ही केन्द्र सरकार में। वजह बिल्कुल साफ है, त्रासदी को 29 बरस पूरे हो गए हैं लेकिन न तो इस त्रासदी के जिम्मेदार वॉरेन एंडरसन को सजा हुई और न ही पीड़ितों को इंसाफ मिल पाया। मुआवजे के नाम पर करोड़ों रूपए रेवड़ियों की तरह बांटे गए लेकिन वास्तविक रूप में इसके असल हकदारों की फेरहिस्त लंबी हैं जिन्हें मुआवजे तक नहीं मिल पाया। जबकि इसके उल्ट तस्वीर का एक और पहलू ये है कि मुआवजे के नाम पर कुछ लोगों ने जमकर चांदी काटी और गैस पीड़ित का तमग लगाकर ये लोग लखपति बन बैठे।
गैस पीड़ितों के हक में आवाज़ उठाने वाले करीब एक दर्जन से ज्यादा गैस पीड़ित संगठन दावा तो गैस पीड़ितों के हिमायती होने का करते हैं। गैस पीड़ितों के नाम पर धरना प्रदर्शन कर खूब सुर्खियां बटोरते हैं लेकिन गैस पीड़ितों के नाम पर बटोरे गए देश विदेश से करोड़ों की चंदे की रकम को कितना ये लोग पीड़ितों के कल्याण पर खर्च करते हैं इसका अंदाजा गैस पीड़ित संगठनों के आकाओं के आलीशान घर और रहन सहन को देखकर लगाया जा सकता है(गैस पीड़ितों के लिए कार्य कर रहे सभी संगठन इसमें शामिल नहीं)।
2008 से लेकर 2010 तक भोपाल में पत्रकारिता के दौरान इन चीजों को मैंने खुद महसूस भी किया। बचपन में किताबों में जब भोपाल गैस त्रासदी के बारे में पढ़ाई करते हुए हाथ में बच्चे को पकड़े एक महिला की मूर्ति देखते वक्त ये कभी नहीं सोचा था कि एक वक्त ऐसा भी आएगा जब मैं खुद भोपाल में इनके बीच कार्य कर रहा हूंगा। सोचा तो ये भी नहीं था कि इस दौरान ऐसी कड़वी हकीकतों से भी रूबरू होना पड़ेगा जिसके बारे में कभी कल्पना तक नहीं की थी।
त्रासदी के ठीक बाद से ही केन्द्र औऱ राज्य सरकार ने पूरी ईमानदारी के साथ अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई और गैस पीड़ितों की बजाए इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों की मदद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी..! मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर तो इस त्रासदी के मुख्य आरोपी वॉरेन एंडरसन को भोपाल से पहले दिल्ली और फिर दिल्ली से विदेश भगाने तक के गंभीर आरोप लगे..! हालांकि कांग्रेस ने हमेशा ही इसका खंडन किया लेकिन वॉरेन एंडरसन को भोपाल के जिलाधिकारी की सरकारी गाड़ी में एयरपोर्ट पहुंचाना और वहां से सरकारी विमान से दिल्ली पहुंचाना ये सवाल खड़े करता है कि अर्जुन सिंह और राजीव गांधी की भूमिका इस मामले में संदिग्ध थी..! अफसोस और ज्यादा होता है क्योंकि मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में चीजें आज भी नहीं बदली हैं। हजारों लोगों को मौत की नींद सुलाने वाली यूनियान कार्बाइड फैक्ट्री आज भी लोगों को मौत बांट रही है। 2-3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात ये मौत मिथाईल आइसोसायनाइट के रूप में हवा में घुलकर लोगों को तड़पा तड़पा कर मार रही थी तो आज फैक्ट्री परिसर में मौजूद हजारों टन जहरीला रसायनिक कचरा भोपाल की हवा, पानी में घुलकर लोगों को बीमारियों की सौगात दे रहा है। आश्चर्य उस वक्त होता है जब मौत बांट रहे इस रसायनिक कचरे के निष्पादन की बजाए इस पर राजनीति होती है। इससे भी बड़ा आश्चर्य ये जानकर होता है कि ये राजनीति करने वाले राजनीतिक दल नहीं बल्कि वो गैस पीड़ित संगठन हैं जो नहीं चाहते कि ये रसायनिक कचरा फैक्ट्री परिसर से निकाल कर इसे नष्ट किया जाए। अगर ऐसा नहीं होता तो जबलपुर हाईकोर्ट के इस कचरे को गुजरात के अंकलेश्वर में नष्ट करने के आदेश के बाद ये कचरा कब का नष्ट किया जा चुका होता। लेकिन ख़बरें तो यहां तक थी कि भोपाल के गैस पीड़ित संगठनों ने गुजरात के कुछ एनजीओ के साथ मिलकर गुजरात में इसका विरोध करवाना शुरु कर दिय। जिसके बाद गुजरात सरकार ने अंकलेश्वर में कचरा नष्ट किए जाने से इंकार कर दिया। इसके बाद इंदौर के निकट पीथमपुर में जब इस कचरे को नष्ट किया जाने लगा तो एक बार फिर से इसका विरोध शुरु हो गया। कुछ गैस पीड़ित संगठन दलील देते है कि इस कचरे को डाउ कैमिकल अपने देश लेकर जाए और वहीं इसे नष्ट किया जाए। इसके खिलाफ तो वे विरोध प्रदर्शन करते हैं लेकिन इससे भोपाल की हवा और पानी में हो रहे प्रदूषण से बीमार हो रहे लोगों की इनको चिंता नहीं है। देखा जाए तो सिर्फ गैस पीड़ित संगठन ही इसके लिए जिम्मेदार नहीं है बल्कि कहीं न कहीं सरकार का गैर जिम्मेदार रवैया भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। राजनीति से ऊपर उठकर सरकार ने राजनीतिक ईच्छाशक्ति दिखाई होती तो शायद 29 साल बाद भी कम से कम भोपाल की फिज़ा में ये जहर नहीं घुल रहा होता। उम्मीद करते हैं अगले साल जब ये त्रासदी अपने 30 साल पूरे कर चुकी होगी तो कम से कम फैक्ट्री परिसर में बिखरे पड़े हजारों टन जहरीले रसायनिक कचरे का निष्पादन हो चुका होगा।


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