कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 21 जून 2013

त्रासदी - उत्तराखंडियों का क्या होगा..?

उत्तराखंड में आपदा में फंसे यात्रियों को निकालने के लिए राहत एवं बचाव कार्य जारी है...ये बात अलग है कि सुरक्षित स्थानों पर पहुंच रहे यात्रियों का अनुभव राहत एवं बचाव कार्य की चौंकाने वाली हकीकत सामने ला रहा है लेकिन फिर भी उम्मीद करते हैं कि सभी यात्री सकुशल अपने अपने घर पहुंच जाएं। (जरुर पढ़ें- ओ गंगा तुम, ओ गंगा बहती हो क्यों..?)
सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद सरकार गति में आयी है और राहत एवं बचाव कार्य में अपेक्षाकृत तेजी दिखाई दे रही है लेकिन एक सवाल बार बार जेहन में उठ रहा है कि जब उत्तराखंड के उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चमोली जिले के अलग अलग क्षेत्रों में फंसे यात्रियों को सकुशल सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाएगा उसके बाद क्या होगा..?
जो लोग आपदा प्रभावित इलाकों के रहने वाले हैं...जिनकी घर-गृहस्थी पूरी तरह से तबाह हो चुकी है...जिनके पास सिर्फ शरीर के कपड़े छोड़कर और कुछ नहीं बचा है...जिनके घर के कमाने वाले अब उनसे बिछुड चुके हैं उनका क्या होगा..?
ये तो अभी मानसून की दस्तक मात्र थी...असली बरसात तो अभी बाकी है...ऐसे में कहां वे रहेंगे..? कैसे वे रहेंगे..? कैसे वे दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करेंगे..?
ऐसे तमाम सवाल हैं जो दिल को दुखा रहे हैं और लगातार उलझन में डाल रहे हैं...लेकिन शायद इसका जवाब न तो आपदा प्रभावितों के पास है और न ही उस सरकार के पास जिसने हर साल ऐसी ही आपदाओं से दो चार होने वाले इन लोगों की कभी सुध ली..!
जाहिर है सभी फंसे हुए लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के बाद सरकार और प्रशासनिक मशीनरी सुस्त पड़ेगी और फिर से सरकार उसी पुराने ढर्रे पर लौट आएगी..! हालांकि मृतकों और घायलों के परिजनों के साथ ही अपना सबकुछ गंवा चुके लोगों को सरकारी मदद का ऐलान तो कर दिया गया है लेकिन ये मदद इनके लिए उसी तरह है जैसे ऊंट के मुंह में जीरा..!
अपनों को खो चुके लोगों की कमी तो ये राहत राशि कभी नहीं कर पाएगी लेकिन जिंदगी फिर से पटरी पर लौट सके इसका सिर्फ एक ही विकल्प है...सिर पर छत और जेब में पैसा..!
ऐसा नहीं है कि सरकार सिर्फ आर्थिक मदद देकर पल्ला झाड़ लेगी...बेघर हो चुके लोगों को पुनर्वासित करने के लिए भी सरकार काम करेगी लेकिन प्रभावितों का पुनर्वास कब तक हो पाएगा..?
उत्तराखंड में 2010 में आयी आपदा अगर आपको याद हो तो बताना चाहूंगा कि उस वक्त भी प्रदेश के अलग अलग जिलों में कुछ इस तरह का ही मंजर था। फर्क सिर्फ इतना था कि उस वक्त चार धाम यात्रा पर कुदरत का कहर इतना नहीं टूटा था और मौत का आंकड़ा भी इतना नहीं था लेकिन सैंकड़ों लोगों की घर-गृहस्थी आपदा भी भेंट चढ़ गयी थी। सरकार ने उस वक्त भी सभी प्रभावितों के राहत और पुनर्वास पर काम करते हुए सभी के पुनर्वास का दावा किया था लेकिन जमीनी हकीकत इससे इतर है...बीते दिनों एक टीवी चैनल पर आई एक रिपोर्ट ने इस सच्चाई पर से पर्द हटाते हुए दिखाया था कि आज भी कई परिवार ऐसे हैं जिन्हें राहत के नाम पर चंद सिक्के तो मिले लेकिन सिर पर छत आज तक नसीब नहीं हो पायी है...ये लोग आज भी टेंटों में जीवन बसर कर रहे हैं..!
वैसे भी राहत और पुनर्वास के नाम पर जारी कितना पैसा वास्तव में प्रभावितों तक पहुंच पाता है इस हकीकत से सभी वाकिफ हैं..!
ये ख़्याल तक मन में एक डर पैदा कर रहा है कि आपदा प्रभावित कैसे अपने आगे का जीवन बसर करेंगे..? क्योंकि सुस्ती के बाद सरकार की ये चुस्ती तभी तक है जब तक देशभर के यात्री उत्तराखंड में फंसे हैं..! जैसे ही सारे यात्रियों को सुरक्षित निकाल लिया जाएगा उसके बाद उत्तराखंड के आपदा प्रभावितों को दर्द साझा करने वाला कोई नहीं होगा..! (जरुर पढ़ें- उत्तराखंड के वो दिल्ली वाले मुख्यमंत्री..!)
वैसे भी उत्तराखंड सरकार के लिए तो पहाड़ के लोगों की दिक्कतें आम हैं...फिर चाहे सरकार भाजपा की रही हो या फिर कांग्रेस की उन्हें लगता है कि इन्हें तो हर साल बरसात में इस दर्द को बर्दाश्त करने की आदत है शायद इसलिए सब कुछ जानते हुए भी कि पहाड़ में मानसून का आगमन एक बड़ी विपदा का आगमन है सरकारें इससे निपटने के लिए न तो कोई प्रभावी कार्ययोजना तैयार की जाती है और न ही आपदा प्रबंधन के पर्याप्त इंतजामात किए जाते हैं..! नतीजा हर साल आसमानी आफत सैंकड़ों लोगों की जिंदगियां लील जाती है तो हजारों लोगों के सपनों को पानी में मिला देती है..! एक बार फिर वही स्थिति हैलोग आपदा का दर्द झेल रहे हैं लेकिन सवाल वहीं खड़ा है कि क्या इस बार टूटेगी सरकार की नींद..!


deepaktiwari555@gmail.com

बुधवार, 19 जून 2013

ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों..?

उत्तराखंड में कुदरत के इस कहर से हर कोई हैरान है...शासन-प्रशासन बेबस है...हर किसी के जुबान पर यही सवाल है कि आखिर ये तबाही क्यों..? तबाही का ये मंजर दर्दनाक और दिल को दहला देने वाला जरुर है लेकिन आज नहीं तो कल ये होना ही था..! कुदरत अपना हिसाब खुद बराबर करती है...उसे न तो जेसीबी मशीन की जरुरत है न ही किसी विस्फोटक की..! उसने तो एक झटके में सब तहस नहस कर दिया..!
आसमान से बादलों की गर्जना शुरु हुई तो जीवनदायनि ने रौद्र रुप धारण कर लिया...पहाड़ों का सीना दरकने लगा और जीवन देने वाली मौत देने पर अमादा हो गयी..! रास्ते में जो मिला सब बहा कर ले गयीक्या घर, क्या सड़कें, क्या पुल, क्या गाड़ियां, क्या पेड़, क्या इंसान, क्या जानवर! भागीरथी मानो सब कुछ बहा ले जाना चाहती थी..!
चारों तरफ हाहाकार मचा था...हर कोई ये जानना चाहता था कि आखिर कुदरत क्यों इतना रूठ गयी है कि सब कुछ तबाह कर देना चाहती है..! इसका जवाब को लेकर एक बड़ी बहस शुरु हो सकती है लेकिन इसका जवाब तबाही के इस मंजर में ही छिपा हुआ है। याद कीजिए उत्तराखंड राज्य निर्माण से पहले का वो समय जब गंगा अविरल बहती थी...उसे अतिक्रमण की दीवारों में कैद करके नहीं रखा गया था..! 200-200 फिट चौड़ी गंगा को 20-20 फिट की नहरों मे तब्दील नहीं किया गया था। गंगा अपने तट पर बसने वाले करोड़ों लोगों को जीवन देते हुए बिना रुके बहती थी..!
इंसान हो, वनस्पतियां हों या फिर जानवर गंगा सबके लिए जीवनदायिनि थी लेकिन बीते कुछ सालों में गंगा का स्वरुप बदलता चला गया। गंगा को कभी बांधों ने बांधा तो कभी गंगा किनारे अवैध अतिक्रमण के नाम पर बने होटल, रेस्टोरेंट और अवैध बस्तियों ने गंगा की पहचान को ही खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी..! अतिक्रमण से भी मन नहीं भरा तो होटल, रेस्टोरेंट और अवैध बस्तियों का मल मूत्र भी गंगा में ही डाला जाने लगा..! गंगा धीरे-धीरे एक गंदे नाले में तब्दील होने लगी..!
निर्मल पावन गंगा की जगह भ्रष्टाचार की मैली गंगा बहने लगी और हर कोई भ्रष्टाचार की इस गंगा में डुबकी लगाकर अपने ऐशो आराम की हर वस्तु पा लेना चाहता था..!
गंगा घुट- घुट कर बहने पर मजबूर होने लगी तो पेड़ों की अवैध कटाई से हरे भरे वनों से आच्छादित खूबसूरत पहाड़ियां भी कंक्रीट के जंगलों में तेजी से तब्दील होने लगी..! गंगा अतिक्रमण की बेड़ियों से मुक्त होकर अविरल करोड़ो लोगों को जीवन देते हुए बहना चाहती थी लेकिन गंगा के इस दर्द को किसी ने नहीं समझा..! ऐसे में भागीरथी क्या करती..?
कई बार छोटी मोटी आपदाओं के जरिए कुदरत ने अपने निजि स्वार्थों के लिए प्रकृति से खिलवाड़ कर रहे लोगों को संदेश देने की कोशिश भी की लेकिन कुदरत के ये इशारे समझने में इंसान नाकाम रहा या यूं कहें कि किसी ने समझने की कोशिश ही नहीं की..!
नासमझ लोगों को समझाने के लिए कुदरत के पास शायद आखिर में यही एक रास्ता था देवभूमि को विकृत होने से रोकने का...देवभूमि को वापस उसके स्वरूप में लाने का...तो कुदरत ने अपना रास्ता खुद बना लिया..!
इसका ये मतलब कतई नहीं है कि पहाड़ों में विकास कार्य न किए जाएं...वहां के लोग बिजली, पानी और सड़क से महरूम रहें लेकिन प्रकृति से छेड़छाड किए बिना भी तो ये सब संभव है। प्रभावी कार्ययोजना के साथ...निजि स्वार्थों को त्याग कर भी तो पहाड़ों में विकास की गंगा बहायी जा सकती है। इस तरह पहाड़ की खूबसूरती भी बरकरार रहेगी और भागीरथी के प्रवाह को रोकने की भी जरुरत नहीं पड़ेगी लेकिन अफसोस ऐसा होता नहीं है..!
तबाही के इस भयावह मंजर के बाद भी शासन-प्रशसान के साथ ही स्थानीय लोग सबक लें तो भी भविष्य में ऐसी आपदाओं को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन इससे होने वाले जान माल के नुकसान को कम जरुर किया जा सकता है। लेकिन सवाल फिर खड़ा होता है कि क्या ऐसा कभी हो पाएगा..?
आखिर में गंगा की हालत और तबाही के इस मंजर पर गंगा पर लिखी गयी ये पंक्तियां याद आ रही हैं।

विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों
नैतिकता नष्ट हुयी, मानवता भ्रष्ट हुयी
निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यों
इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्र गामी बनाती नहीं हो क्यों
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों


deepaktiwari555@gmail.com

मंगलवार, 18 जून 2013

उत्तराखंड के वो दिल्ली वाले मुख्यमंत्री..!

सुना है...उत्तराखंड के दिल्ली वाले मुख्यमंत्री आजकल भारी टेंशन में हैं..! विजय बहुगुणा को जैसे तैसे मुख्यमंत्री की कुर्सी तो मिल गयी लेकिन करना क्या है..? ये कौन बताए..? ऐसे में देहरादून में हैलीपेड पर सीएम साहब का सरकारी चौपर फर्राटे भरने के लिए हरदम तैयार रहता है। क्या पता..? कब क्या पूछने दिल्ली जाना पड़ जाए..? अब हर फैसले खुद से तो ले नहीं सकते न..! साहब को दस जनपथ में ताल भी तो ठोंकनी होती है ताकि 10 जनपथ के चक्कर लगा लगाकर बड़ी मुश्किल से हाथ आई कुर्सी कहीं सरक न जाए..!
दरअसल ख़बर है कि लंबे चौड़े कद वाले सीएम साहब को छोटे प्रदेश की बड़ी कुर्सी संभालने में पसीने छूट रहे हैं..! जब कुर्सी मिली थी तो अपनी ही पार्टी के नेताओं ने विरोध में मोर्चा खोल दिया था...जैसे तैसे मामला ठंडा पड़ा तो बीते साल आपदा ने उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों का नक्शा ही बदल कर रख दिया..!
सरकार पर सवाल उठने लगे तो नए नवेले मुख्यमंत्री बने बहुगुणा ने आपदा प्रबंधन के पर्याप्त इंतजामात न होने पर इसका ठीकरा सूबे की पिछली भाजपा सरकार पर फोड़ दिया। यहां तक तो ठीक था लेकिन इसके बाद आपदा प्रभावितों के राहत और पुनर्वास पर जोर देने की बजाए सीएम साहब ने प्रभावितों को भजन कीर्तन करने की तक सलाह दे डाली थी..!  
एक बार फिर से उत्तराखंड आपदा की चपेट में हैं...बीते साल भाजपा सरकार पर आपदा प्रबंधन की तैयारी न होने का ठीकरा फोड़ने वाले सीएम साहब पशोपेश में हैं कि करें तो क्या..?
अपनी ही पार्टी के नेताओं और विधायकों की आपदा से पहले ही घिरे बहुगुणा के लिए दैवीय आपदा दोहरी मुसीबत लेकर आयी है..! अब तो बीते साल वाला बहाना भी नहीं चलेगा वरना ठीकरा पिछली भाजपा सरकार पर फोड़कर अपना पल्ला झाड़ लेते..!
भारी टेंशन में घिरे सीएम साहब की मुश्किल अब कैसे आसान हों..? एक सुपुत्र से बड़ी उम्मीद थी लेकिन उसने भी टिहरी उपचुनाव में कहीं का नहीं छोड़ा..! लेकिन सुना है कई विधाओं में माहिर सुपुत्र खूब खेल कर रहे हैं..! सुना तो यहां तक है कि साहब ने तो प्रदेश में कई जगह जमीन पर रहते हुए ही करोड़ों का खेल कर दिया..! राजनीति चले न चले जीवन की गाड़ी पूरे ठाठ से बिना रुके चले इसका पूरा इंतजाम तो कर ही लिया है..!  
दिल्ली की दौड़ लगाने को हरदम तैयार बैठे रहने वाले बहुगुणा अब दिल्ली जाने में भी घबरा रहे हैं..! दरअसल हरियाणा के हथिनी कुंड बैराज से पानी यमुना के रास्ते दिल्ली पहुंच गया है। यमुना खतरे के निशान से ऊपर बह रही है ऐसे में बाढ़ के मुहाने में बैठी दिल्ली में कोई क्यों आना चाहेगा भला..? हिमाचल प्रदेश में मंडी उपचुनाव के लिए प्रचार करने किन्नौर पहुंचे मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ये गलती कर ही चुके हैं और सांगला घाटी में फंसे हुए हैं..!
सुना है बहुगुणा बड़े चतुर हैं..! वे वीरभद्र सिंह जैसी गलती नहीं करेंगे..! सीएम हाउस में बैठकर दिल्ली आने जाने में हुई डेढ़ साल की थकान उतारेंगे और फिर जब इंद्र देव की कृपा कम होगी और गंगा- यमुना शांत हो जाएंगी तो फिर से दिल्ली चले जाएंगे..! लेकिन सीएम साहब दिल्ली यूं ही नहीं जाएंगे बकायदा उत्तराखंड के आपदा प्रभावितों के राहत और पुनर्वास के नाम पर करोड़ों का पैकेज मागेंगे और फिर मीडिया में बघारेंगे कि उन्हें आपदा प्रभावितों की बड़ी फिक्र है...इसके लिए पांच साल में पांच हजार बार भी दिल्ली के चक्कर लगाना पड़े तो खुशी से लगाउंगा..! जय उत्तराखंड।।



deepaktiwari555@gmail.com

रविवार, 16 जून 2013

गठबंधन - दोस्त बन गए दुश्मन..!

17 साल तक मजबूती से बंधी भाजपा और जद यू बंधन की गांठ आखिर खुल ही गयी। दोनों के रास्ते भले ही अलग अलग हो गए हों लेकिन दोनों की मंजिल एक ही है...किसी भी तरह से सत्ता को हासिल करना..! 17 साल पहले भी जब ये गांठ बंधी थी तब भी दोनों सत्ता पाने के लक्ष्य को लेकर साथ हो चले थे और आज जब ये गांठ खुल गयी है तो भी दोनों की निगाहें सत्ता पर ही हैं..!
वैसे भी राजनीति की यही रीत है...यहां न तो कोई स्थायी दुश्मन होता है और न ही स्थाई दोस्त..! जब..जहां...जो उपयोगी लगता है...वो दोस्त बन जाता है और जब इसी दोस्त से अपना नुकसान लगने लगता है तो दोस्ती को तोड़ने में देर नहीं की जाती...फिर भले ही ये दोस्ती 17 साल पुरानी क्यों न हो..?
भाजपा और जद यू की दोस्ती की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। सत्ता हासिल करने के लक्ष्य को लेकर 17 साल पहले दोनों ने हाथ मिलाया था। दोनों एक दूसरे के काम भी आए और समय समय पर आपसी समझौते के आधार पर दोनों ने सत्ता सुख भी भोगा...फिर चाहे वो केन्द्र का मामला हो या फिर बिहार का..!
दोस्ती में उतार चढ़ाव आते रहते हैं लेकिन खासकर मुसीबत में सच्चे दोस्त कभी साथ नहीं छोड़ते लेकिन अगर ये दोस्ती राजनीतिक हो और सत्ता सुख भोगने के लिए की गयी हो तो फिर इस दोस्ती को दुश्मनी में बदलने में देर नहीं लगती..!
जद यू और भाजपा की दोस्ती भी राजनीतिक थी ऐसे में देर सबेर इस दोस्ती को टूटना ही था। लंबे समय से केन्द्र की सत्ता से दूर भाजपा हर हाल में सत्ता पाने को आतुर है ऐसे में भाजपा को मोदी की बढ़ती लोकप्रियता इसका रास्ता दिखाई देने लगी तो भाजपा ने तमाम विरोधों के बाद भी मोदी की ताजपोशी 2014 की चुनाव अभियान समिति के चेयरमैन की कुर्सी पर कर दी।
मोदी को सांप्रदायिक मानने वाली जद यू को भाजपा का ये फैसला बिहार में उसके लिए नुकसान की चाबी लगा..! ऐसे में जद यू को भाजपा के साथ दोस्ती में एक खास वर्ग के वोटरों का उससे खिसक जाने का भय लगने लगा तो जद यू ने भाजपा से 17 साल पुरानी दोस्ती तोड़ दी..!
भाजपा और जद  दोनों में से किसी ने भी 17 साल पुरानी इस दोस्ती को कायम रखने की कोशिश नहीं की और दोनों ही अपनी – अपनी जिद पर अड़े रहे। मजे की बात तो ये है कि बंधन की गांठ खुलने पर दोनों अब एक दूसरे को दोषी ठहरा रहे हैं..!
राजनीति के इस रुप को भी समझिए जो नेता अब तक साथ मिलकर बिहार की जनता के हक की बात करते हुए अलग अलग मुद्दों पर एक स्वर में फैसले लेते थे अब उन्हीं नेताओं में एक-एक मुद्दे पर तकरार सुनाई देगी..! शुरुआत भाजपा ने नीतीश कुमार का इस्तीफा मांग कर और 18 जून को बिहार बंद के एलान के साथ कर ही दी है..!
बहरहाल अपने अपने राजनीतिक फायदे के लिए वोटबैंक की राजनीति के रास्ते पर दोनों दल भले ही चल दिए हों लेकिन इन्हें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि जो जनता इन्हें सत्ता तक पहुंचा सकती है...वही जनता इन्हें सत्ता से बेदखल भी कर सकती है..!


deepaktiwari555@gmail.com