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शुक्रवार, 17 मार्च 2017

“जनता ने ‘पावरफुल डबल इंजन’ दिया, अब आपकी बारी है मोदी जी”

उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में प्रचार से पहले अपनी चुनाव जनसभाओं में प्रधानममंत्री मोदी ने राज्य की जनता से सरकार के रुप में डबल इंजन मांगा था। जनता ने भी उन्हें निराश नहीं किया और सिर्फ डबल इंजन ही नहीं दिया बल्कि राज्य की 70 विधानभा सीटों में से 57 सीटें देकर एक पावरफुल इंजन दिया है।


मोदी का तर्क था कि 2014 में आपने राज्य से पांचों सांसद दिए थे और केंद्र में भाजपा की सरकार बनी थी, लिहाजा उत्तराखंड के विकास के लिए राज्य में भी बीजेपी की सरकार जरुरी है ताकि राज्य और केंद्र में बेहतर तालमेल रहे और उत्तराखंड विकास की पटरी पर सरपट दौड़ लगाए।
मोदी ने उत्तराखंड की जनता से जो मांगा था वो थो उन्हें मिल गया है, अब बारी पीएम मोदी और बीजेपी की है। केंद्र में भी भाजपा की सरकार है और राज्य में भी बंपर जीत के साथ भाजपा काबिज हो चुकी है।

सरकार से जनता को क्या चाहिए बिजली, पानी औऱ सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं- जो अलग उत्तराखंड राज्य गठन के 17 बरस बाद भी प्रदेश वासियों को खासकर पहाड़ी इलाकों में नहीं मिल पाई है। रोजगार के अवसर न होने के कारण पहाड़ से पलायन हमेशा से बड़ी समस्या रहा है। वादा तो पहाड़ के पानी और जवानी को रोकने का भी मोदी और भाजपा ने किया है।

प्रदेशवासियों की उम्मीदों का पहाड़ पीएम मोदी और भाजपा सरकार के सामने है, ऐसे में उम्मीद तो यही की जानी चाहिए की कम से कम इस बार प्रदेश वासियों के हाथ निराशा नहीं लगेगी। जिन उम्मीदों के सहारे राज्य की जनता ने पीएम मोदी की बातों पर भरोसा करक सिर्फ डबल इंजन ही नहीं बल्कि पावरफुल इंजन भाजपा को दिया है उन उम्मीदों को पंख लगेंगे और उत्ताखंड विकास की पटरी पर सरपट दौड़ लगाएगा।  

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

#JatReservation | मिल भी गया तो क्या करोगे ऐसे आरक्षण का ?

पंपोर में 5 वीर जवानों ने भारत मां के लिए लड़ते हुए शहादत दे दी, इनमें से आर्मी के एक कैप्टन पवन कुमार हरियाणा के जींद से भी थे, वही हरियाणा जो जाट आंदोलन के लिए सुर्खियों में है। हरियाणा के एक सपूत ने अपनों के लिए जान कुर्बान कर दी और एक आरक्षण की मांग कर रहे वो जाट हैं, जो अपनों के खून प्यासे बने हुए हैं। कह रहे हैं आरक्षण हमारा हक है, अच्छी बात है, अपने हक के लिए लड़ना, लेकिन इसके लिए अपनों का ही घर जलाना, ये कैसी हक की लड़ाई है ?
शहीद कैप्टन पवन का आखिरी फेसबुक पोस्ट भी तो पढ़ लेते, वो भी तो आपके हरियाणा का ही है। पवन लिखते हैं- किसी को आरक्षण चाहिए, तो किसी को आजादी भाई। हमें कुछ नहीं चाहिए भाई, बस अपनी रजाई।' कैप्टन पवन तो आपके लिए लड़ते हुए तिरंगा लपेट पर अंतिम यात्रा पर चले गए लेकिन आपने क्या किया भाई ? अपनों के घर, दुकान, गाड़ी फूंक दी। जिस देश के लिए कैप्टन पवन ने जान न्यौछावर कर दी, उस देश का आपने क्या हाल किया, उनके राज्य हरियाणा का आपने क्या हाल किया ? घर, बाजार, गाड़ी, बैंक, स्कूल, पेट्रोल पंप सब जलाकर खाक कर दिया।
कैप्टन पवन जैसे वीर जवान सीमा पर देश के दुश्मनों से अपनों की रक्षा करते रहे लेकिन ठीक उसी वक्त घर के अंदर बैठे लोग घर में आग लगा रहे थे। हरियाणा के रोहतक समेत कई शहरों का नजारा श्माशान की तरह नज़र आ रहा है।
सरकार के निर्देश पर पुलिस भी चुपचाप सब देखती रही, शहर जल रहा था, सब मूकदर्शक बने हुए थे। जिन लोगों को आज तक राजनीति नहीं समझ में आती होगी, अब तो वे लोग भी समझ गए होंगे कि राजनीति क्या होती है ?
क्या सिर्फ आवेश में आकर लोगों के समूह ने इन घटनाओं को अंजाम दिया ? मेरा जवाब ना में है।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इसके पीछे हैं कौन ? क्या वही लोग जिनका सपना हर हाल में सत्ता पाना है ?
क्या वही हरियाणा सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार नहीं है, जिसे ये सब कुछ होने दिया ?
क्या केन्द्र सरकार में बैठे लोग, जो तब तक नहीं चेते, जब तक हरियाणा जलकर खाक नहीं हो गया ? जाहिर है अपनी – अपनी जिम्मेदारी से कोई पल्ला नहीं झाड़ सकता ? लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि हम कर भी क्या सकते हैं ?
मन बेहद खिन्न है, लेकिन अब क्या हो सकता है ? क्या इन पर राजद्रोह का मुकदमा नहीं दर्ज होना चाहिए ? ये राजद्रोह नहीं था तो और क्या था ? हरियाणा के हजारों लोगों की जिंदगी उजाड़ने का इनको किसने अधिकार दिया ? जी हां, वही हजारों लोग जिनका सब कुछ तबाह हो गया है
एक तरफ शहीद कैप्टन पवन कुमार, शहीद कैप्टन तुषाम महाजन और सभी शहीद जवानों के लिए दिल रो रहा है। दूसरी तरफ हरियाण में तबाही के इस मंजर को देखकर गुस्से का ज्वालामुखी मानो अब फट पड़ेगा, हरियाणा को जलाने वालों के लिए लिखने के लिए शब्द नहीं मिल रहे हैं।

मेरा हरियाणा से कोई ताल्लुक नहीं है, लेकिन इतना जरूर कहना चाहूंगा कि आरक्षण के लिए हरियाणा को श्मसान में तब्दील करने वालों, एक बार हरियाणा के जींद के ही शहीद कैप्टन पवन कुमार के परिजनों का हाल जान लेना, एक बार उनकी हालत पर गौर कर लेना जिनका सब कुछ इस आरक्षण की आग की भेंट चढ़ गया। अपने घर को उजाड़कर आपको आरक्षण मिल भी जाएगा तो क्या करेंगे उस आरक्षण का ?

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

बिहार विस चुनाव : 100+100+40+3= 243

बिहार का चुनाव में इस बार जो ना हो वो कम है, 2014 के आम चुनाव में मोदी की आंधी में बिहार से सूपड़ा साफ होने की कगार पर पहुंचने के बाद नीतीश कुमार की जदयू और लालू प्रसाद यादव की राजद के साथ ही कांग्रेस भी एक मंच पर आ चुकी है। बिहार की 243 विधानसभा सीटों पर तीनों ही पार्टियों के बीच सीटों का बंटवारा भी हो चुका है। जदयू और राजद 100-100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी तो कांग्रेस सिर्फ 40 सीटों पर ही मैदान में उतरेगी। चुनाव पूर्व गठबंधन में सीटों का बंटवारा कोई नई बात नहीं है लेकिन जिस तरह बिहार में हो रहा है, वो बिहार की राजनीति के लिए नया जरूर है।
अब इसे हार का डर कहें या फिर खुद पर विश्वास की कमी, बिहार की सबसे लोकप्रिय राजनीतिक दल राजद और जदयू का सिर्फ 100-100 सीटों पर चुनाव लड़ना हैरान जरूर करता है।
इतना ही नहीं देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का 243 सीटों में से सिर्फ 40 सीटों पर अपने उम्मीदवार मैदान में उतारना साफ करता है कि कांग्रेस 2014 के हार के सदमे से अभी तक उबर नहीं पाई है।
ये तीनों वो पार्टियां हैं, जो बिहार पर लंबे समय तक राज कर चुकी हैं। बिहार की जनता का भरोसा पहले भी जीत चुकी हैं, लेकिन 2014 के आम चुनाव के बाद से कथित तौर पर सांप्रदायिक ताकतों को राकने का नारा बुलंद करके अब इन तीनों ही दलों ने हाथ मिलाने में देर नहीं की।
जाहिर है अपने दम पर बिहार का फतह करना का भरोसा इन पार्टी के नेताओं के पास नहीं रहा, ऐसे में अपने धुर विरोधियों से हाथ मिलाकर लड़ने में ही इन्होंने अपनी भलाई समझी, ताकि 2014 जैसी स्थिति से बचा जा सके।
वहीं बिहार में 2014 लोकसभा चुनाव की तस्वीर फिर दोहराने का सपना देख रही भाजपा के लिए भी बिहार फतह करना आसान नहीं होगा, वो भी ऐसे वक्त पर जब एक साल पूरा कर चुकी भाजपी नीत एनडीए सरकार से धीरे-धीरे लोगों का मोह भंग होने लगा है।
राजद, जदयू और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से निश्चित तौर पर भाजपा के सामने बिहार में चुनौती कठिन हो गई है। जाहिर है तीनों ही पार्टियां अपने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में ही फोकस कर मिलकर चुनाव लड़ेंगी तो उनको इसका फायदा ही मिलेगा। लेकिन ये फायदा किस हद तक मिलेगा और कितनी सीटों पर मिलेगा ये तो चुनाव परिणाम ही तय करेंगे।
वैसे भी वक्त अब बदल चुका है, जनता सोच समझ कर अपने मताधिकार का प्रयोग करती है। ऐसे में जदयू, राजद और कांग्रेस की ये दोस्ती जनता को कितना लुभा पाएगी और मोदी का जादू कितना सिर चढ़कर बोलेगा या नहीं बोलेगा, ये कहना अभी जल्दबाजी होगी।
फिलहाल तो बिहार में डीएनए की चर्चा और पार्टियों के नामकरण का दौर शुरु हो चुका है। मतदान तक न जाने किस किस की किस किस चीज की चर्चा अभी और होगी, ये तो सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने वाले सियासतदान ही बता सकते हैं। फिर जल्दी क्या है मजा लिजिए बिहार की सियासी जंग का !

deepaktiwari555@gmail.com

रविवार, 9 अगस्त 2015

बिहार चुनाव- सत्ता के लिए कुछ भी करेंगे !

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले राजद और जदयू के हाथ मिलाने की कहानी ये बताने के लिए काफी थी कि लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार के सामने अगामी विधानसभा चुनाव में अपना राजनीतिक वजूद बचाए रखने का संकट नजर आने लगा है। लेकिन इस बीच तस्वीर बदली मोदी लहर का असर हवा होता नजर आया। लिहाजा बिहार की जिस चुनावी जंग में कुछ महीने पहले भाजपा का पलड़ा भारी दिखाई दे रहा था, वहां अब मुकाबला लगभग बराबरी पर आकर अटक गया गया है।
राजद और जदयू के सामने एक और संकट था कि हाथ मिलाने के बाद किस चेहरे पर दांव खेला जाए। नीतीश कुमार का नाम मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में घोषित हुआ तो ना चाहते हुए भी लालू के मुंह से निकल पड़ा कि मोदी रथ रोकने के लिए वे जहर का प्याला तक पीने को तैयार हैं। जाहिर है ईशारा अपने धुर विरोधी नीतिश कुमार की तरफ था। लेकिन सवाल राजनीतिक वजूद को बचाए रखने का था, लिहाजा दोनों न चाहते हुए भी साथ- साथ हैं।
अब जबकि बिहार में अघोषित तौर पर चुनावी बिगुल बज चुका है तो आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरुआत से ही अपने चरम पर है। नीतीश कुमार के डीएनए पर सवाल उठाकर मोदी इसकी शुरुआत कर चुके थे। ऐसे में तिलमिलाए नीतीश कुमार एंड कंपनी इसे बिहारियों का अपमान बताकर अब इसे मुद्दा बनाकर मोदी को घेरने की तैयारी में लगे हुए हैं।
गया में तो नरेन्द्र मोदी के मुंह से निकला एक  एक शब्द नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के दिल में तीर की तरह चुभा होगा।
जदयू और राजद के नामकरण की बात हो या जहर के प्याले की बात ! बिहार में जंगलराज की बात हो या फिर लालू की जेल यात्रा का जिक्र ! बिहार को बीमारू राज्य कहने की बात हो या फिर जंगलराज पार्ट टू की बात। मोदी ने गया में भाजपा के लिए माहौल तैयार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
ट्विटर वार से चुनावी रैली तक कोई भी एक दूसरे को घेरने का एक भी मौका जाया नहीं होने दे रहा है। नीतीश कमार मोदी सरकार को ट्विर सरकार का तमगा दे रहे हैं तो कभी अपराधियों को टिकट न देने का चैलेंज। मोदी ने जदयू का जनता का दमन और उत्पीड़न का तमगा दिया तो नीतीश बीजेपी को "बड़का झुट्ठा पार्टी" कहने से पीछे नहीं हटे। तिलमिलाए लालू ने तो अजीबोगरीब सवाल पूछ लिया कि कभी पीएम मोदी ने अपने पूर्वजों का पिंडदान किया है ? लालू यहीं नहीं रूके, लालू ने तो पीएम मोदी के मानसिक स्थिति पर ही सवाल उठा दिया!  
मकसद सबका सिर्फ एक ही है, कैसे भी जनमत को अपने पक्ष में किया जाए। हालांकि बिहार चुनाव की तारीखों का ऐलान अभी नहीं हुआ है लेकिन उससे पहले ही बिहार की चुनावी जंग रोचक हो चली है।
वैसे भी अब चुनौती लालू और नीतीश के सामने ही नहीं है बल्कि भाजपा के सामने भी है। गया में मोदी के चुनावी शंखनाद के बाद ये साफ भी हो चुका है कि भाजपा बिहार में किसी भी  सूरत में भगवा लहराकर अपने विरोधियों को ये संदेश देना चाहती है कि केन्द्र की मोदी सरकार से जनता का अभी मोहभंग नहीं हुआ है। लेकिन मोदी इस बात को बेहतर समझते होंगे कि राजनीति की हवा का रुख बदलते देर नहीं लगती।
बहरहाल बिहार की जनता किसे चुनेगी ये तो चुनाव परिणाम के बाद ही सामने आएगा लेकिन इतना तो तय है कि बिहार की चुनावी जंग इस बार पहले से कहीं ज्यादा रोचक होने वाली है।

बुधवार, 5 अगस्त 2015

एक और मेहमान- कासिम खान !

26-11 को मुंबई दहलाने वाले आतंकी कसाब की कहानी शायद ही कोई भला होगा। भारत की आर्थिक राजधानी को हिलाने वाले आतंकी हमले में अपनों को खोने वालों के जेहन में इसका दर्द आज भी ताजा होगा। कसाब को फांसी जरूर हो गई लेकिन उसके बाद भी आतंकियों के सहारे भारत को दहलाने की पाकिस्तान की नापाक कोशिशें लगातार जारी है।
उधमपुर के सिमरोली में मुठभेड़ के बाद बीएसएफ के हाथ लगे एक और जिंदा पाकस्तानी आतंकी कासिम खान की गिरफ्तारी के बाद ये साफ हो गया है कि पाक अपनी नापाक हरकतों से बाज आने वाला नहीं है। गिरफ्तारी के बाद सामने आए वीडियो में कासिम खान के पाकिस्तानी होने के कबूलनामे के बाद तो शक की गुंजाईश भी समाप्त हो जाती है।
कसाब की गिरफ्तारी के बाद कसाब की फांसी तक के वक्त को देखते हुए जेहन में फिर से ये सवाल उठता है कि क्या अबकी बार भी यही होगा ?
कसाब के कबूलनामे के बाद हम पाकिस्तान के खिलाफ क्या कर पाए ? लेकिन इस दौरान पाक जरूर बहुत कुछ करता रहा। भारत को दहलाने की आतंकी साजिशें बढ़ती गई। हम सिर्फ अनुरोध करते देखे गए। हम उन्हें बातचीत के लिए ही आमंत्रित करते रह गए लेकिन वे आपने मिशन में जुटे रहे। सीज फायर उल्लंघन के लगातार बढ़ते मामले तो कम से कम इसी ओर ईशारा करते हैं।  
चलिए माना तब यूपीए की सरकार थी, लेकिन बातें तो तब के पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी ने भी बहुत बड़ी – बड़ी की थी। अब तो सरकार भी बदल की है। इन वेटिंग का तमगा भी हट चुका है तो क्या कर लिया नरेन्द्र मोदी साहब ने। यही न की पाकिस्तान की फायरिंग का जवाबी फायरिंग से जवाब दे दिया। इसे मुंहतोड़ जवाब का नाम दे दिया गया। लेकिन इस सब में भी तो हमारे कई जवान अपनी जान गंवाते रहे। कई औरतें बेवा होती रही, कई बच्चे अनाथ होते रहे। ये सब छोड़िए इस सब के बाद भी तो हम उन्हें बातचीत के लिए आमंत्रित ही तो कर रहे हैं।
ये सही है कि आप अपने दोस्त तो अपनी मर्जी से चुन सकते हैं, लेकिन अपने पड़ोसी नहीं। दुष्ट भी नहीं धूर्त पड़ोसी पाकिस्तान को तो हम बदल नहीं सकते लेकिन इस तरह उसकी गोलियों से अपने जवानों को शहीद होते हुए भी तो नहीं देख सकते ना प्रधानमंत्री जी।
कासिम खान और उसके मारे गए साथी आतंकी ने हमारे दो जवानों को मौत के घाट उतारा है लेकिन फिर भी हम उसकी सुनवाई करेंगे। उसे बेगुनाह साबित होने के लिए पूरे मौके देंगे। उसकी सुरक्षा में करोड़ों रूपए खर्च किए जाएंगे। लेकिन उसकी सुरक्षा का क्या मोदी जी जो सीमावर्ती गांवों में रहने वाले लोग ऐसे आतंकियों की गोली का शिकार हो रहे हैं। जो जवान देश के लए कुर्बान हो रहे हैं। जो निर्दोष लोग बम धमकों में मारे जाते हैं।
तरीके आप बेहतर जानते हैं पाकिस्तान को सबक सिखाने के, लेकिन देश जानना चाहता है कि आखिर कब ? आप से ये सवाल शायद हम नहीं पूछते लेकिन चुनाव से पहले किए गए आपके वादे, जनता से की गई आपकी बातें खामोश भी तो नहीं रहने देती !


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सोमवार, 3 अगस्त 2015

मानसून सत्र हंगामा- जनहित नहीं सियासी फायदे पर नज़र !

 
जब हर चीज सियासी चश्मे से देखी जाए तो फिर जनता कि किसे पड़ी है। संसद के मानसून सत्र पर छाए संकट के बादलों पर भी इसकी झलक साफ देखी जा सकती है। भाजपा नीत एनडीए सरकार की वरिष्ठ मंत्रियों में से एक विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पर कथित तौर पर ललित मोदी की मदद का आरोप है, लिहाजा विपक्ष सुषमा स्वराज के इस्तीफे की मांग पर अड़ा है।
सरकार चर्चा को तैयार है लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस चर्चा से पहले ही सुषमा के इस्तीफे की मांग पर अडिग है। मानसून सत्र के 12 दिन हंगामे की भेंट चढ़ चुके हैं, लेकिन विपक्ष अपनी मांग से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है। जाहिर है कांग्रेस किसी भी हाल में इस मुद्दे को हाथ से निकलने नहीं देना चाहती है।
सिर्फ सियासी चश्मे से देखें तो इस हंगामे का मकसद सिर्फ सियासी फायदा है। कांग्रेस चाहती है कि सुषमा स्वराज का इस्तीफा हो जाए तो वे इसके बहाने बाकी के बचे चार साल एनडीए सरकार पर जब चाहे तब ऊंगली उठा सके। साथ ही इस दौरान बिहार सहित कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी इस मुद्दे के सहारे ज्यादा से ज्यादा वोट बटोर सके। लेकिन इस चश्मे को उतार फेंके तो तस्वीर साफ होती है कि संसद की कार्यवाही में खर्च होने वाला लाखों रूपए हर रोज हंगामे की भेंट चढ़ रहे हैं। जाहिर है पैसा जनता की गाढ़ी कमाई का है तो ऐसे में हंगामा करने वालों को क्यों इसका दर्द होगा ?
संसद सत्र के एक मिनट का खर्च करीब ढ़ाई लाख रूपए आता है, ऐसे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि सियासी फायदे के लिए संसद की कार्यवाही ठप होने पर कितना बड़ा नुकसान होता है। न सिर्फ पैसे पानी में जा रहे हैं, बल्कि लंबित बिलों की संख्या में भी ईजाफा हो रहा है। जनता ने सांसदों को इसलिए चुनकर संसद में भेजा ताकि वे जनहित के मुद्दों पर सरकार का ध्यान आकर्षित करें। इसलिए नहीं कि वे उनके हितों की अनदेखी करते हुए अपने सियासी फायदे के लिए संसद में हंगामा करें।
जनता के भरोसा का खून रोज संसद में हो रहा है, लेकिन हैरत उस वक्त होती है, जब सांसद इसके पीछे भी जनहित की दुहाई देते हैं। वे कहते हैं कि जनता के लिए ही तो वे ये सब कर रहे हैं। लेकिन किसी भी मुद्दे पर चर्चा से वे क्यों बचना चाह रहे हैं, इसका सीधा सरल जवाब किसी के पास नहीं है।
चर्चा से ही हल निकलता है, परतें खुलती हैं, लेकिन हमारे कुछ सांसदों को शायद ये समझ नहीं आ रहा है। ये उनकी इगो का सवाल बन चुका है, वैसे भी खुद को राजनीतिक तौर पर जिंदा रखना है तो ये सब तो करना ही पड़ेगा।
विपक्ष अपनी मांग पर अडिग है तो सरकार भी अपनी जिद पर कायम है कि उनका कोई मंत्री किसी भी सूरत में इस्तीफा नहीं देगा। जाहिर है इस्तीफे का सीधा मतलब एक तरह से आरोप को स्वीकार कर लेना, ऐसे में सरकार क्यों विपक्ष को खुद पर ऊंगली उठाने का मौका देने वाली।
सरकार और विपक्ष दोनों के जिद पर अड़े रहने से मानसून सत्र पर हंगामे के बादल जमकर बरस रहे हैं, जिसके फिलहाल थमने के कोई आसार भी नज़र नहीं आ रहे हैं। मतलब साफ है हंगामे की इस बाढ़ में सरकार और विपक्ष का तो कुछ होने वाला नहीं लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई जरूर लुट रही है। उम्मीद तो यही करेंगे कि संसद में जारी गतिरोध टूटे और संसद सुचारु रूप से चले। बाकी हमारे सांसदों की मर्जी !

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बुधवार, 29 जुलाई 2015

याकूब को फांसी- हमदर्दी मुझे भी होती अगर...


कोशिश तो बहुत हुई याकूब मेमन को फांसी के फंदे से बचाने की लेकिन ये कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई। सुप्रीम कोर्ट से लेकर महाराष्ट्र के राज्यपाल और राष्ट्रपति के दरवाजे तक याकूब की जिंदगी बख्शने की तमाम कोशिश बेकार साबित हुई। हैरानी होती है ये देखकर की सैंकड़ों लोगों की मौत के गुनहगार को आखिरी वक्त तक फांसी के फंदे से बचाने के लिए आधी रात को वकीलों की टोली मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू के घर पहुंच गयी और न सिर्फ आधी रात को सुप्रीम कोर्ट खुला बल्कि याकूब मामले की सुनवाई तक हुई। ये अलग बात है कि वकीलों की दलीलें सुप्रीम कोर्ट के गले नहीं उतरी। लिहाजा 30 जुलाई की सुबह 6 बजकर 25 मिनट पर तयशुदा कार्यक्रम के तहत याकून मेमन को फांसी पर लटका दिया गया।
मुबंई धमाकों के पीड़ितों का दर्द कम तो नहीं हो सकता लेकिन इस फैसले से देश की न्यायपालिका पर उनका भरोसा जरूर मजबूत हुआ होगा। साथ ही उन लोगों के मन में खौफ पैदा होगा जो अपने नापाक मंसूबे लेकर भारत को दहलाने की साजिश रचने में मशगूल रहते हैं।
लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो गमज़दा होंगे, शायद वही जिन्होंने याकूब मेमन को फांसी के फंदे से बचाने के लिए हर संभव कोशिश की थी।
हिंदुस्तान की जेलों में हजारों लोग सड़ रहे हैं। लेकिन उनकी आवाज़ उठाने के लिए इनमें से कभी कोई सामने नहीं आया। उनके लिए कभी किसी ने दरियादिली नहीं दिखाई लेकिन सैंकड़ों निर्दोष लोगों की मौत के गुनहगार को फांसी के फंदे से बचाने के लिए ये राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर दया याचिका स्वीकार करने की अपील भी करते हैं और आधी रात को सर्वोच्च न्यायाधीश के दर पर गुहार लगाने तक पहुंच जाते हैं।
ये हमारे देश में ही सकता है, जहां पर एक आतंकी को बचाने के लिए नेता से लेकर अभिनेता, सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर वकील और कुछ पत्रकार तक सामने आ जाते हैं। शायद यही वजह है कि आतंकी बेखौफ होकर वारदातों को अंजाम देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि पकड़े जाने पर भी मौत की सजा का कानूनी रास्ता तो लंबा है ही। साथ ही मौत की सजा होने पर भी मौत के मुंह से बचाने वालों की लंबी फौज़ खड़ी है। इसे समझने के लिए याकूब मेमन केस से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है ?
याकूब को भी अपनी जिंदगी से प्यार होगा, वो भी और जीना चाहता होगा, अपनी बीवी बच्चों से प्यार करता होगा लेकिन याकूब ने कभी ये सोचा होता कि मुबंई धमाकों में मारे गए लोगों के भी सपने थे, उनका भी परिवार था तो शायद आज याकूब की जिंदगी में भी ये दिन नहीं आता। हमदर्दी मुझे भी होती लेकिन अगर किसी निर्दोष को फांसी पर लटकाया जा रहा होता तब।

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बुधवार, 22 जुलाई 2015

जीते कोई, हार तो जनता की ही होगी !

सवालों में मोदी सरकार के मंत्री हैं, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री है, ऐसे में संसद के मानसून सत्र पर हंगामे के बादल तो गहराने ही थे। लेकिन ये बादल अब जमकर बरसने भी लगे हैं। लोकसभा और राज्यसभा हंगामे की बाढ़ में सरकार की नाव भी अब डगमगाने लगी है। सरकार चर्चा के लिए तैयार है लेकिन विपक्ष पहले विवादित मंत्रियों के इस्तीफे की मांग पर अड़ा हुआ है।
सत्र न चलने देने के लिए सरकार विपक्ष के सिर ठीकरा फोड़ रही है लेकिन सत्ता पक्ष ये भूल रहा है कि ये रवायत तो पुरानी है, जिसे विपक्ष में रहते वे भी बखूबी निभाते आए हैं। ऐसे में अब खुद पर बन आई है, तो सरकार का विपक्ष के सिर ठीकरा फोड़ कर खुद को बेबस दिखाना गले नहीं उतरता। विपक्ष भी क्या करे, सरकार के खिलाफ हाथ आए इन मुद्दों को कैसे आसानी से अपने हाथ से निकल जाने दे। लिहाजा संसद में गतिरोध जारी है। फिलहाल इसके आसानी से टूटने के आसार भी नहीं दिखाई दे रहे हैं।
इसकी भेंट चढ़ रही है तो आम जनता की गाढ़ी कमाई, आखिर संसद की एक दिन की कार्यवाही पर खर्च होने वाले लाखों रूपए टैक्स के रूप में जनता की जेब से ही निकलते हैं। हमारे सांसदों के खाने पर पहले ही सब्सिडी के रूप में साल का लाखों रूपए खर्च हो रहे हैं। वो पैसे भी तो आखिर जनता की जेब से टैक्स के रूप में निकाला जाता है।  
सवाल वहीं खड़ा है कि आखिर कौन सही है और कौन गलत ? जाहिर है सदन में हंगामे से किसी को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। ना सत्ता पक्ष को और ना ही विपक्ष को। चर्चा से ही हल निकलता है और चीजें स्पष्ट होती हैं, चर्चा से ही बारीक से बारीक चीजें भी सामने निकल कर आती हैं। मतलब साफ है कि हंगामा नहीं चर्चा ही इसका एकमात्र हल है। लेकिन चर्चा विपक्ष कभी नहीं चाहता, चर्चा करने से आसान है, शायद हंगामा करना, फिर चाहे वो कांग्रेस हो भाजपा हो या फिर कोई और राजनीतिक दल।
वैसे भाजपा और कांग्रेस की ये लड़ाई अब थोड़ी और रोचक होती दिख रही है। यूपीए सरकार में कोयला राज्य मंत्री रहे संतोष बागडोरिया के पास्पोर्ट को लेकर सुषमा स्वराज के एक ट्वीट और उत्तराखंड के सीएम हरीश रावत के निज सचिव मो. शाहिद के खिलाफ सामने आए एक कथित स्टिंग के बाद रक्षात्मक दिखाई दे रही भाजपा आक्रमक हो गयी है। वहीं सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल कर बैठी कांग्रेस बैकफुट पर आती दिखाई दे रही है। भाजपा को भले ही खुश होने का एक मौका मिल गया है, लेकिन आरोप-प्रत्यारोप के इस पलड़े पर अभी भी कांग्रेस की तरफ झुका नजर आ रहा है। किसके आरोपों में कितना दम है, ये तो जांच के बाद ही सामने आ पाएगा। बहरहाल मानसून सत्र पर हंगामे की बाढ़ ने संसद के दो दिनों को लील लिया है, लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही आरोप-प्रत्यारोप के साहारे एक दूसरे का चीर हरण करने में पूरी शिद्दत से जुटे हुए हैं। इस लड़ाई में जीत चाहे किसी की भी हो लेकिन हार तो हर हाल में जनता की ही होनी है।


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शनिवार, 18 जुलाई 2015

क्यों मनमोहन सिंह बनने लगे हैं मोदी ?

हमारे देश के अब तक के प्रधानमंत्रियों में मौनी बाबा नाम का पेटेंट तो मनमोहन सिंह के पास ही था लेकिन कुछ मामलों में अब मनमोहन सिंह के पेटेंट पर खतरा मंडराने लगा है। इस अनचाहे पेटेंट से तो मनमोहन सिंह क्या कोई भी बचना चाहेगा, ऐसे में इस पेटेंट को चुनौती मिलती देख खुश तो मनमोहन सिंह भी बहुत होंगे। आखिर कोई तो मिला जो इस मामले में उनकी बराबरी पर खड़ा दिखाई देने लगा है।
बात मनमोहन सिंह के बाद देश की पीएम कि कुर्सी पर विराजमान नरेन्द्र दामोदर दास मोदी की हो रही है। एक साल में मोदी सरकार ने जनता से किए कितने वादे पूरे किए ये तो बाद की बात है। सवाल अब कुछ मामलों में मोदी की रहस्यमयी चुप्पी पर उठने लगे हैं। ऐसे नहीं है कि दहाड़ मारने वाले नरेन्द्र मोदी अब मनमोहन सिंह हो गए हैं। लेकिन जब सवाल उनके मंत्रिमंडल सहयोगी, पार्टी के विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री या पार्टी नेताओं पर उठते हैं तो उन पर पीएम मोदी की चुप्पी खलती है।
बात ललित मोदी से रिश्तों को लेकर घिरी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की हो, फर्जी डिग्री विवाद में घिरी मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की हो, ललित मोदी से ही रिश्तों को लेकर सुर्खियों में आई राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे हो या फिर खूनी घोटाले के नाम से विख्यात हो चुके व्यापंम घोटाले में घिरे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कथित चावल घोटाले में सवालों में आए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह की हों। पीएम मोदी इन मामलो में मौन ही रहे।
इन मामलों में मोदी की मौनी इमेज सोचने पर मजबूर करते हैं कि आखिर क्यों विपक्ष पर निशाना साधने का कोई मौका नहीं छोड़ने वाले मोदी, जनता से मन की बातकरने वाले पीएम मोदी इन पर क्यों मौन हो जाते हैं।  
ऐसा नहीं है कि पीएम बनने के बाद मोदी ने चुप्पी साध ली है। पीएम मोदी खूब दहाड़ रहे हैं, देश से लेकर विदेश में उनकी गूंज सुनाई दे रही है। लेकिन अहम ओहदे पर बैठी सुषमा, स्मृति, वसुंधरा, शिवराज और रमन सिंह के मामलों में पीएम चुप्पी साधे हुए हैं।
पीएम मोदी को हो सकता है अपने सहयोगियों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा हो, विपक्ष के आरोप राजनीति से प्रेरित लगते हों, लेकिन सवाल यही कि फिर वे इन पर खामोश क्यों हैं ? प्रधानमंत्री होने के नाते इन सब पर उनकी सोच सार्वजनिक होना तो बनता ही है।
इन मुद्दों पर मोदी क्यों खामोश हैं, ये तो वे ही बेहतर जानते होंगे लेकिन मोदी की ये खामोशी अब चुभने लगी है, कुछ मामलों में मोदी को मनमोहन सिंह बनाने में लगी है।

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मंगलवार, 14 जुलाई 2015

सूप तो सूप, छलनी भी बोले जिसमें 72 छेद !

उत्तर प्रदेश में आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर के लिए मुलायम का दिल कठोर हो गया। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह आईपीएस अधिकारी को कथित तौर पर धमकाते हैं, सुधर जाने की हिदायत देते हैं लेकिन मुलायम पुत्र और सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इस कथित धमकी को नेता दी की सलाह समझकर भूल जाने की हिदायत देते हैं। कहते हैं नेता जी हमें भी तो सलाह देते हैं, इसमें क्या गलत है।
अखिलेश जी नेता जी का आपको सलाह देने समझ में भी आता है। खुद सीएम की कुर्सी पर बैठने की बजाए पुत्र को सीएम बनाने के बाद सरकार कैसे चलानी है, इसकी सलाह तो अब पिता और चाचा लोग ही देंगे ना। सो वे कर रहे हैं, लेकिन एक आईपीएस अधिकारी को फोन पर धमकाना कहां तक जायज है ?
आखिर पिता के बोल हैं तो फिर कैसे पुत्र इसे गलत ठहरा दे, सो अखिलेश का ये कहना कहीं से भी हैरानी भरा नहीं लगता। लेकिन राजनीति के जिस पड़ाव में मुलायम सिंह यादव पहुंच चुके हैं, वहां पर मुलायम का एक अधिकारी के लिए इस तरह कठोर होना सोचने पर मजबूर करता है।
हैरानी इसलिए भी होती है कि मुलायम सिंह अमिताभ ठाकुर को 2006 में घटित फिरोजाबाद के जसराना की एक घटना की याद दिलाते हुए ठाकुर का उससे भी बुरा हश्र करने की बात कहते हैं। कथित ऑडियो टेप में मुलायम कहते हैं कि उन्होंने ही अमिताभ ठाकुर को सपा कार्यकर्ताओं से बचाया था।
दरअसल ये घटना 2006 की है, तब अमिताभ ठाकुर फिरोजाबाद में एसपी थे और सूबे की कमान मुलायम सिंह यादव के हाथ में थी। उसी दौरान एसपी विधायक और मुलायम सिंह यादव के समधी रामवीर सिंह ने शिवपाल सिंह यादव को जसराना के एक कार्यक्रम में बुलाया था। कार्यक्रम स्थल पर एसपी कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच बदइंतजामी को लेकर विवाद हुआ और पुलिसकर्मियों को पीटा गया। एसपी अमिताभ ठाकुर मौके पर पहुंचे तो उनके साथ भी हाथापाई हुई और कार्यकर्ता उन्हें स्कूल परिसर में खींच ले गए। इसकी जानकारी मिलते ही तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने समर्थकों को समझा-बुझा कर एसपी अमिताभ ठाकुर को छुड़वाया और उनसे मामले की रिपोर्ट न दर्ज करने की हिदायत दी।
ये घटना ये भी बताती है कि सपा राज में मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए कैसे सपा कार्यकर्ताओं में इतनी हिम्मत थी कि वे पुलिसकर्मियों की पिटाई करने के साथ ही एक आईपीएस अधिकारी पर भी हमला करने से नहीं हिचकिचाए।
मतलब साफ है कि सपा राज में सपा नेताओं में कानून का कोई खौफ नहीं है। होता तो शायद जसराना में अमिताभ ठाकुर के साथ ये सब घटित न होता और न मुलायम उसकी मिसाल दे रहे होते।
वैसे भी ये वही मुलायम सिंह हैं जो रेप की घटनाओं पर कहते सुनाई देते हैं कि लड़कों से गलती हो जाती है।
ये वही मुलायम सिंह हैं, जो यूपी में पुलिस अधिकारी जिया उल हक समेत तीन लोगों की मौत पर विपक्षी पार्टी बसपा के यूपी में जंगलराज और गुंडाराज होने की बात पर जवाब देते हैं कि- “सूप बोले तो बोले, छलनी भी बोले जिसमें बहत्तर छेद। मायावती की सरकार के कई मंत्री और विधायक रेप, भ्रष्टाचार जैसे मामलों में जेल की सजा काट रहे हैं, ऐसे में उन्हें सपा सरकार के बारे में बोलने का कोई हक नहीं है (पढ़ें- छलनी भी बोले जिसमें 72 छेद..!)
अब अमिताभ ठाकुर जब मुलायम सिंह के खिलाफ लखनऊ के हजरतगंज थाने में शिकायत दर्ज कराते हैं तो अगले ही दिन ठाकुर के खिलाफ रेप की एफआईआर दर्ज हो जाती है। साथ ही यूपी सरकार ठाकुर को अनुशासनहीनता के आरोप में सस्पेंड कर देती है। लेकिन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मुलायम के कठोर दिल की कहानी को सलाह समझकर भूल जाने की हिदायत देते नजर आते हैं।
सत्ता हाथ में है तो सब जायज है, वही यूपी में हो रहा है, लेकिन मुलायम और अखिलेश समेत सपाईयों को ये नहीं भूलना चाहिए कि जनता सब देख रही है और 2017 के विधानसभा चुनाव में भी अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है।  

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रविवार, 12 जुलाई 2015

“खूनी व्यापम”- कैसे हो सीबीआई पर भरोसा ?

मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाले से खूनी व्यापम बनने की इस रहस्यमयी कहानी की परतें खंगालने का जिम्मा मध्य प्रदेश एसआईटी के पास था। एक तरफ एसआईटी जांच कर रही थी दूसरी तरफ व्यापम से जुड़े लोगों की रहस्यमयी मौतों का सिलसिला अनवरत जारी था। ऐसे में मध्य प्रदेश एसआईटी पर संदेह के बादल गहराने लाजिमी थे।
मध्य प्रदेश में भी अपना राजनीतिक वजूद तलाशने में लगी कांग्रेस को शिवराज सरकार पर वार करने का सुनहरा अवसर हाथ आया तो कांग्रेस कैसे इसे छोड़ती। वैसे भी राजनीति में लाशों पर सियासत की पुरानी रीत रही है। ये रीत किसी खास राजनीतिक दल की नहीं बल्कि ये निर्भर करती है कि सत्ता में कौन है और विपक्ष में कौन ?
महाघोटाले का तमगा हासिल कर चुके व्यापम में किस की शह पर धड़ल्ले से फर्जीवाड़ा हुआ ये तो जांच का विषय है। लेकिन सियासत, जांच रिपोर्ट का कहां इंतजार करती है। लिहाजा शिवराज सिंह चौहान के इस्तीफे के साथ ही इस महाघोटाले की सीबीआई जांच की मांग उठने लगी। आरोप ये कि एसआईटी पर किसी को भरोसा नहीं है और एसआईटी राज्य सरकार के इशारे पर काम कर रही है।
देर से जागे शिवराज सिंह चौहान के पास विपक्ष के हमलों से बचने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था लिहाजा मामले की जांच हाईकोर्ट औऱ सुप्रीम कोर्ट के रास्ते सीबीआई के पास पहुंच चुकी है। सीबीआई ने मामले की जांच शुरु तो कर दी है, लेकिन सवाल ये उठता है कि सुप्रीम कोर्ट से तोते की संज्ञा पा चुकी सीबीआई की जांच पर भरोसा किया जा सकता है ?
ये सवाल उठना इसलिए भी लाजिमी है क्योंकि सीबीआई पर केन्द्र सरकार के दबाव में काम करने के आरोप आज के नहीं बरसों पुराने हैं। ये आरोप कितने सही हैं, कहा नहीं जा सकता लेकिन इन आरोपों के चलते सीबीआई की विश्वसनीयता हमेशा सवालों के घेरे में रही है।
केन्द्र में यूपीए सरकार थी तो विपक्षी दल सरकार पर सीबीआई को अपने सियासी फायदे के लिए इस्तेमाल करने का आरोप लगाते रहे हैं। अब एनडीए सरकार है तो सत्ता से विपक्ष में आई पार्टियां भी इस सुर में बात करने लगी हैं।
अगर दो साल, पांच साल, दस साल में सीबीआई व्यापम घोटाले की जांच पूरी कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचती है तो क्या गारंटी है कि सीबीआई पर फिर सवाल नहीं उठाए जाएंगे ? जाहिर है मामले की सीबीआई जांच की मांग करने वाले लोग ही उस वक्त उनके मन माफिक जांच रिपोर्ट न आने पर सीबीआई की विश्वसनीयता पर फिर से सवाल खड़े करेंगे।
ये होता आया है और पूरी उम्मीद भी है कि ये फिर से होगा, लेकिन इसके बाद भी किसी भी मामले की निष्पक्ष जांच के लिए नाम सिर्फ सीबीआई का ही लिया जाता है। साथ ही सीबीआई पर केन्द्र सरकार के ईशारे पर काम करने का भी आरोप भी लगाया जाता है। राजनीतिक दलों की ये दोगुली भाषा अपनी समझ से तो बाहर है।
बहरहाल हम तो यही उम्मीद करते हैं कि विश्वसनीयता के संकट से जूझ रही सीबीआई व्यापम घोटालों की एक-एक परत को पूरी निष्पक्षता से खोलेगी और इससे जुड़े लोगों की मौत के राज पर से पर्दा उठेगा। ताकि खूनी व्यापम से सने हाथों के पीछे के असली चेहरे बेनकाब हों।


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शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

दोगुनी सैलरी, लग्जरी बस और शौचालय !

सांसद वेतन में सौ फीसदी का ईजाफा चाहते हैं। दिल्ली के आम विधायकों को खर्च के लिए 84 हजार रूपए मासिक की पगार कम पड़ जाती है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव आम जनता की तरह सरकारी बस में सफर करना चाहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि ये तीन कहानियां अलग अलग है, लेकिन इनके किरदार एक ही हैं, राजनेता !
वही लोग, जो जनता के बीच वोट मांगते वक्त ये कहते आए हैं कि वे जनता की सेवा के लिए राजनीति में आए हैं। उन्हें सत्ता की कोई लालसा नहीं है। लेकिन जनता के इन जनप्रतिनिधियों को अब जनता की सेवा के लिए अपनी जेब की चिंता भी सताने लगी है। वे जनता की सेवा का हवाला देते हुए मोटी पगार के साथ ही सरकारी सुख सुविधाओं से भी पूरी तरह लैस हो जाना चाहते हैं।
खाना भी बाजार से दस गुना दाम पर सरकारी सब्सिडी का खाने वाले हमारे सांसदों को पगार में सौ फीसदी का ईजाफा चाहिए। (पढ़ें-क्यों न बढ़े ? आखिर सवाल सांसदों की पगार का है !)
समाज सेवी अन्ना हजारे के आंदोलन से जन्मी आम आदमी की राजनीति करने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी पर दिल्ली की जनता ने भरोसा जताया कि शायद इनकी कथनी और करनी में फर्क नहीं होगा। लेकिन अब दिल्ली के आम विधायकों भी अपनी जेब की चिंता सताने लगी है। जनता की सेवा के लिए विधायकों को 84 हजार रूपए मासिक वेतन कम पड़ने लगा है।
जनसेवा करने वाले नेताओं की ये कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती। तेलंगाना राज्य के लिए लंबी लड़ाई का हिस्सा रहे टीआरएस के केसीआर इन सब से दो कदम आगे हैं। तेलंगाना के पिछड़ेपन की कहानियों सुनाने वाले केसीआर आंध्र प्रदेश से अलग होने के बाद तेलंगाना राज्य के मुख्यमंत्री बने तो तेलंगाना के लोगों को उम्मीद जगी थी कि शायद अब तेलंगाना का विकास होगा। लेकिन पांच करोड़ की लग्जरी बस खरीद की कहानी तो कुछ और ही बयां कर रही है। विकास तेलंगाना का हो रहा है या केसीआर का ? दिन तेलंगाना के बहुर रहे हैं या फिर केसीआर के, ये इस घटना से साफ हो जाता है।
मजेदार बात तो ये है कि पांच करोड़ की इस लग्जरी बस की खरीद पर सीएम ऑफिस के प्रवक्ता ने बताया, ''सीएम भी राज्य के अन्य नागरिकों की तरह सरकारी बस से सफर करना चाहते हैं। यह कोई लग्जरी बस नहीं है
समझ गए ना आप कि केसीआर आम जनता की तरह सरकारी बस में सफर करना चाहते हैं, इसलिए पांच करोड़ की इस बस को खरीदा गया है।
याद रखिए ये सब उस देश में हो रहा है, जहां एक लड़की इसलिए खुदकुशी कर लेती है क्योंकि उसे शौच के लिए खुले में बाहर जाना पड़ता है। वो अपने माता-पिता से घर में शौचालय निर्माण की मांग करती है लेकिन उसके माता-पिता पैसे की तंगी के चलते घर में शौचालय का निर्माण नहीं करवा पाते। झारखंड के दुमका की ये कहानी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है।
दुमका की ये कहानी सुर्खियां जरूर बटोर रही हैं लेकिन सवाल फिर खड़ा होता है कि आखिर कितने दिन? क्या हमारे सासंदों को, विधायकों को लग्जरी बस खरीदने वाले मुख्यमंत्री के साथ ही स्वच्छ भारत और हर घर शौचालय का नारा देने वाले हमारे प्रधानमंत्री को ये ख़बर झकझोर पाएगी ? अगर इसका जवाब हां में है, तो क्या उम्मीद करें कि अब ये तस्वीर बदलेगी ?


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