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शुक्रवार, 10 मई 2013

काश, मनमोहन सिंह वास्तव में पीएम होते..!


कोशिश तो पूरी की...टोटके भी आजमा कर देख लिए लेकिन कुर्सी फिर भी नहीं बची..! जी हां बात वर्तमान के सबसे चर्चित दो चेहरे अश्विनी कुमार और पवन बंसल की हो रही है। दोनों ने कारनामे भी तो गजब किए थे..! एक साहब ने कानून मंत्री रहते हुए कोयला घोटाले पर सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट को ही बदल डाला तो दूसरे साहब ने रेल मंत्री रहते हुए अपने भांजे को भ्रष्टाचार की रेल चलाने की खुली छूट दे दी..! (जरुर पढ़ें- भांजा चला रहा मामा की रेल..!, भ्रष्टाचार का लाइसेंस..!)
जब कारनामों का खुलासा हुआ तो नैतिक जिम्मेदारी लेना तो दूर की बात है दोनों महानुभावों ने बेशर्मी की भी सारी हदें पार कर दी..! सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भी न तो कानून मंत्री ने इस्तीफा दिया और न ही भांजे के कारनामे पर रेल मंत्री मामा पवन बंसल को शर्म आयी..! बंसल साहब ने तो इस्तीफा देने की बजाए भांजे से रिश्ता खत्म करना ज्यादा बेहतर समझा..! गलत भी क्या किया..? आखिर कुर्सी बार बार थोड़े न मिलती है..! अश्विनी कुमार की तो सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भी इस्तीफा न देने की वजह समझ में आती है...अरे भई अश्विनी कुमार ने खुद से तो सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में बदलाव किए नहीं...वो तो बस ऊपरी आदेश का पालन कर रहे थे...ऐसे में इस्तीफा सिर्फ अकेले वे ही क्यों दें..? (जरूर पढ़ें- क्यों दें कानून मंत्री इस्तीफा..?)
सरकार और पार्टी ने भी आरोप लगने के बाद पहले दोनों का खूब साथ दिया लेकिन जब लगने लगा कि फजीहत कुछ ज्यादा ही हो गयी तो ले लिया दोनों से इस्तीफा..! आखिर आम चुनाव करीब हैं जनता के सामने भ्रष्टाचार और घोटालों के सवाल पर जवाब देने के लिए कुछ तो पास में होना चाहिए..! अब कम से कम ये तो कहने को रहा कि हमने भ्रष्टाचार, घोटाले और गडबड़ी करने वाले मंत्रियों की कुर्सी छीन ली..!
आपको याद हो तो उत्तर प्रदेश में मायावती ने भी तो विधानसभा चुनाव से पहले कुछ ऐसा ही किया था लेकिन उसके बाद यूपी के विधानसभा चुनाव में क्या हुआ ये सबके सामने है..!
खुद ही सवालों के घेरे में घिरे सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह साहब अश्विनि कुमार और बंसल प्रकरण पर त्वरित फैसला लेते हुए दोनों से तत्काल इस्तीफा ले लेते तो शायद उनकी सरकार की इतनी फजीहत नहीं होती लेकिन मनमोहन सिंह बेचारे भी क्या करते..? काश वे वास्तव में देश के प्रधानमंत्री होते..!

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गुरुवार, 9 मई 2013

सरबजीत को शहीद का दर्जा क्यों..?


पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में भारतीय नागरिक सरबजीत की मौत अपने आप में कई सवाल खड़े कर गयी..? सरबजीत की बहन दलबीर कौर ने अपने भाई की बेगुनाही की लंबी लड़ाई लड़ी और समय - समय पर भारत सरकार ने भी इस मुद्दे को पाकिस्तान सरकार के सामने उठाया। भारत सरकार के साथ ही सरबजीत के परिजनों को सरबजीत की रिहाई के बाद भारत लौटने की पूरी उम्मीद थी लेकिन अचानक पाकिस्तान से आई एक ख़बर ने सरबजीत की रिहाई की उम्मीदों को तोड़ कर रख दिया..! पाक कैदियों के हमले में गंभीर रुप से घायल सरबजीत ने आखिरकार 2 मई की रात डेढ़ बजे लाहौर के जिन्ना अस्पताल में जिंदगी का साथ छोड़कर मौत का दामन थाम लिया।
सरबजीत को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में 1990 में हुए बम विस्फोट में शामिल होने के आरोप में मौत की सजा सुनाई गयी थी...जिसके बाद से ही वो पाक जेल में कैद था। पाकिस्तान का ये भी कहना था कि सरबजीत भारतीय जासूस था...ये बात अलग है कि भारत ने कभी भी सरबजीत को अपना जासूस स्वीकार नहीं किया। वहीं सरबजीत के परिवार के अनुसार उसने गलती से पाक सीमा में प्रवेश कर लिया था और पाकिस्तान सरकार ने उसे झूठे आरोप में फंसाया है...जिसके बाद से ही भारत की तरफ से सरबजीत की रिहाई की मांग उठती रही जो सरबजीत की मौत के साथ ही खामोश हो गयी..! (जरूर पढ़ें- कब तक आंख रोएगी..?)
सरबजीत की मौत पाकिस्तान जेल में बंद एक कैदी की सामान्य मौत तो बिल्कुल भी नहीं थी। भारत ने भी सरबजीत की मौत को हत्या करार देते हुए पाकिस्तान सरकार से मामले की जांच और दोषियों को सजा देने की पुरजोर मांग की। सरबजीत का शव भारत आने पर पंजाब सरकार ने सरबजीत के परिवार को आर्थिक मदद देने के साथ ही सरबजीत को शहीद का दर्जा दे दिया। सरबजीत को शहीद का दर्जा दिए जाने के पंजाब सरकार के फैसले को लेकर लोगों के अलग – अलग मत हैं। कुछ लोग पंजाब सरकार के इस फैसले को सही ठहरा रहे हैं तो कुछ लोगों का कहना है कि सरकार का ये फैसला शहादत की अवधारणा के साथ खिलवाड़ है, ऐसे में सरबजीत को शहीद का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए..! सरबजीत के बारे में जो जानकारी मौजूद है उसको देखते हुए कहीं न कहीं ये लगता है कि सरबजीत को शहीद का दर्जा देने का पंजाब सरकार का फैसला सियासी ज्यादा लगता है..!
न जाने ऐसे कितने ही सरबजीत हैं जो गलती से पाक सीमा में प्रवेश कर गए और बिना किसी अपराध के पाक जेलों में सजा काट रहे हैं, ऐसे में तो फिर उन सब को भी सरबजीत की श्रेणी में रखा जाए और मरणोपरांत शहीद का दर्जा दिया जाए..!
ये बात अलग है कि सरबजीत के मसले ने पूरे देश को एक मुद्दे पर लामबंद किया लेकिन इसे आधार मानकर सरबजीत को शहीद का दर्जा तो नहीं दिया जा सकता..! किसी भी मसले में सिर्फ एक ही उदाहरण होता है जो देश को जगाता है...सरकार को झकझोरता है और एक सशक्त आंदोलन का निर्माण करता है। जिस तरह रेप और महिला उत्पीड़न के मामले में दिल्ली गैंगरेप केस ने महिला सुरक्षा के मुद्दे पर देश को एकजुट करने के साथ ही सरकार को झकझोरा ठीक उसी तरह सरबजीत प्रकरण ने पाक जेलों में बंद भारतीय कैदियों के मसले को एक आवाज़ दी।   
अगर सरबजीत भारत का जासूस होता और भारत सरकार सीमा ठोक कर इसे स्वाकार करती तो सरबजीत को शहीद का दर्जा देने की बात समझ में भी आती क्योंकि उस स्थिति में हम कह सकते कि सरबजीत देश के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर पाकिस्तान पहुंचा था लेकिन सरकार ने तो कभी इसे स्वीकार ही नहीं किया..! ऐसे में सरबजीत को शहीद का दर्जा दिया जाना सरकार का एक वर्ग विशेष के वोट हासिल करने के लिए अपने सियासी दांवपेंच से ज्यादा और कुछ नहीं है, जो कहीं न कहीं सरकार के सियाही फायदे को दर्शाता है और साथ भी शहादत की अवधारणा के साथ खिलवाड़ भी है..!
सरबजीत की रिहाई को लेकर सरबजीत के परिजनों ने खुद के बूते एक लंबी लड़ाई लड़ी जिसके चलते न सिर्फ सरबजीत भारतीय मीडिया की सुर्खियां बना बल्कि सरकार ने भी सरबजीत के मसले को पाकिस्तान के सामने उठाया। मीडिया के जरिए देशवासी सरबजीत को पहचान चुके थे और जब सरबजीत पर हमले की ख़बर आयी तो इस मुद्दे ने देश को लामबंद किया जबकि पाक जेलों में बंद दूसरे कैदी गुमानी के अंधेरे में ही खोए रहे..!
कुल मिलाकर सरकार से अब इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वह सरबजीत की मौत से सबक लेकर पाक जेलों में बिना किसी अपराध के सालों से कैद भारतीय कैदियों की रिहाई के लिए पाकिस्तान के सामने पुरजोर तरीके से आवाज उठाए ताकि पाक जेल में कोई और भारतीय कैदी सरबजीत की मौत न मरे..!  (जरूर पढ़ें- और कितने सरबजीत..?)

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बुधवार, 8 मई 2013

जब हरे हो गए हरीश रावत के जख़्म..!


कर्नाटक चुनाव नतीजों पर एक राष्ट्रीय समाचार चैनल पर चर्चा जारी थ। पैनल में कांग्रेस की तरफ से केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत थे तो दूसरी ओर थे भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी। कर्नाटक में रुझान कांग्रेस के पक्ष में जाते दिखाई दे रहे थे। ऐसे में हरीश रावत का इतराना लाजिमी था। आखिर केन्द्र सरकार के एक के बाद एक कभी न खत्म होने वाले घोटालों की फेरहिस्त से कांग्रेस की हो रही फजीहत के बाद कर्नाटक चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए राहत की खबर लेकर आ रहे थे।
कांग्रेस की सरकार बनने की स्थिति में कर्नाटक में मुख्यमंत्री कौन बनेगा इस पर जब एंकर ने हरीश रावत से सवाल किया तो रावत साहब के जख्म एक बार फिर से हरे हो गए..! ये वही जख्म थे जो उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी न मिलने पर हरीश रावत को मिले थे..! हालांकि हरीश रावत ने इसको अपने चेहरे पर जाहिर नहीं होने दिया और रावत साहब ने बड़ी ही  सहजता से जवाब दिया कि मुख्यमंत्री को लेकर फैसला शीर्ष नेतृत्व करेगा और जिसके नेता के नाम पर कांग्रेस आलाकमान हरी झंडी दिखा देगा वही कर्नाटक का  मुख्यमंत्री बनेगा।
हरीश रावत साहब ने इस सवाल का जवाब तो दे दिया लेकिन इस जवाब को देने में रावत साहब को दर्द भी खूब हुआ होगा क्योंकि इसी सवाल के केन्द्र में उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद वे खुद थे। जब उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी के हरीश रावत प्रबल दावेदार थे लेकिन कुर्सी मिल गयी थी दूर दूर तक दौड़ में शामिल न रहने वाले तत्कालीन टिहरी सांसद विजय बहुगुणा को..!
आज हरीश रावत कर्नाटक के संबंध में सीना ठोक कर कह रहे हैं कि आलाकमान का फैसला आखिरी होगा और उसे सबको मंजूर करना होगा लेकिन उत्तराखंड में जब हरीश रावत को दरकिनार कर विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान कांग्रेस आलाकमान ने किया तो हरीश रावत के साथ ही उनके समर्थक विधायकों के बगावती तेवर तो आपको याद ही होंगे..!
अगर नहीं तो चलिए एक बार फिर से आपकी याददाश्त ताजा कर देते हैं। जैसे ही विजय बहुगुणा के नाम का ऐलान उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रुप में हुआ तो हरीश रावत के पैरों के नीचे से मानो जमनी खिसक गयी थी। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से लेकर दिल्ली में हरीश रावत के निवास पर हरीश गुट के विधायकों ने जमकर बवाल मचाया था। कई दिनों तक बवाल मचा लेकिन आखिर में हरीश रावत को मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिली।
ऐसा भी नहीं है कि इसके बदले में हरीश रावत को कुछ नहीं मिला। हरीश समर्थित महेन्द्र सिंह माहरा को राज्यसभा भेजा गया तो खुद हरीश रावत को केन्द्र में राज्यमंत्री से कैबिनेट मंत्री बनाकर कांग्रेस आलाकमान ने रावत की नाराजगी को दूर करने की कोशिश की..!
समाचार चैनल पर चर्चा जारी थी...अब इसी सवाल पर जब एंकर ने भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी से उनका पक्ष लेना चाहा तो पहले तो मुख्तार अब्बास नकवी ने इसे कांग्रेस का मसला बताकर टिप्पणी करने से इंकार कर दिया लेकिन जाते जाते नकवी हरीश रावत के जख्मों पर नमक छिड़कना नहीं भूले..!
नकवी साहब बोले कि ये कांग्रेस का मसला है और वैसे भी जब उत्तराखंड विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद सबसे योग्य व्यक्ति होने के बाद भी कांग्रेस आलाकमान ने जब हरीश रावत को मुख्यमंत्री नहीं बनाया तो अब वे कर्नाटक के संबंध में क्या कह सकते हैं..!
भाजपा नेता मुख्तार अब्बस नकवी के इस टिप्पणी पर हरीश रावत का चेहरा देखने लायक था जबकि मुख्तार अब्बास नकवी के साथ ही टीवी एंकर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे..!

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मंगलवार, 7 मई 2013

क्यों बेबस है भारत..?


21 दिनों तक भारत के सीने पर मूंग दलने के बाद भले ही चीनी सेना वापस लौट गयी हो लेकिन ये 21 दिन ऐसा लगा भारत के लिए किसी गुलामी से कम नहीं थे..! गुलामी शब्द का इस्तेमाल शायद बहुत से लोगों को रास नहीं आ रहा होगा लेकिन भारतीय सीमा में घुसपैठ कर 21 दिनों तक भारत को हेकड़ी दिखाने वाले चीन ने जिस तरह से उस इलाके में बैनर लगाकर उसे अपना क्षेत्र घोषित कर दिया और जिस तरह भारत सरकार मूकदर्शक बनी रही उससे क्या ये जाहिर नहीं होता..? 
ये भारत की बेबसी नहीं तो और क्या थी..? हमारी सरकार चीन को तो अपनी सीमा से बाहर खदेड़ नहीं सकी..! चीन जब खुद वापस गया भी अपनी शर्तों पर और जाते जाते भारत को उसी के क्षेत्र में पीछे हटने पर मजबूर कर गया..!
भारत पर शुरु से ही नज़रें गढ़ाए बैठे चीन ने 21 दिनों तक लद्दाक के दौलत बेग ओल्डी में पूरी तरह राज किया..! भारत का दुर्भाग्य ये रहा कि भारत सरकार ने अपनी क्षेत्र में घुसी पड़ोसी देश की सेना को बाहर खदेड़ने के लिए कोई कड़े कदम नहीं उठाए और भारत सरकार चीन से पीछे हटने के लिए सिर्फ विनती ही करती रही..! (जरूर पढ़ें- और कितने थप्पड़ खाओगे..?)
खबरें तो यहां तक है कि चीनी सेना के कहने पर भारत सामरिक दृष्टि से अहम माने जाने वाली चुमार पोस्ट से पीछे हटने पर राजी हो गया है..!   
आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि भारत को अपने ही इलाके से अपने सैनिक पीछे हटाने पड़े..?  भारत चुमार पोस्ट से पीछे हटने पर सहमत हो गया..?
आखिर अपने ही घर में हम क्यों दब्बू बने बैठे रहे और चीन हमारे घर में घुसकर हम पर हेकड़ी जमाता रहा..?
शायद यही फर्क है चीन में और भारत में कि चीन को एलएसी के पास भारत की किसी गतिविधि पर अगर आपत्ति थी तो उसने बातचीत का रास्ता नहीं अपनाया और सीधे भारत में घुसपैठ कर अपने आक्रमक इरादे जाहिर कर दिए और अपनी बात मनवा के ही भारतीय इलाका छोड़ा जबकि हम हमारे घर में घुसे पड़ोसी को भगाने के लिए आक्रमक रुख अपनाने की बजाए बातचीत से हल निकालने की बात ही करते रह गए..!
भारत सरकार को क्या लगता है कि 21 दिनों तक चीनी सेना सिर्फ अपने तंबूओं में आराम करती रही होगी..? क्या चीन ने 20 किलोमीटर भारतीय सीमा के अंदर के एक एक स्थान का जायजा नहीं लिया होगा..? जिसका फायदा वो भविष्य में कभी भी भारत के खिलाफ उठा सकता है..! चीन भले ही वापस लौट गया लेकिन वो अपने मकसद में तो कामयाब ही रहा..!
भारत सरकार भले ही चीनी सेना के पीछे हटने को इसे अपनी कूटनीतिक जीत बताते हुए इतरा रही हो लेकिन सरकार में शामिल लोग इस बात को नहीं नकार सकते कि 21 दिनों तक वे चीन के आगे बेबस रहे..!
सवाल ये उठता है कि आखिर क्यों भारत बेबस बना रहा और चीन को अपनी सीमा से बाहर करने में विफल रहा..? क्या भारत चीन के 40 सैनिकों से घबरा गया था..?  (जरूर पढ़ें- सिर्फ 40 चीनी सैनिक ही तो हैं..!)
इसका जवाब सरकार की तरफ से गोल मोल ही मिल रहा है लेकिन चीन के आगे भारत की इस बेबसी ने विश्व बिरादरी में न सिर्फ भारत की कमजोर छवि को पेश किया है बल्कि ये भी दर्शा दिया कि भारत अपनी सीमाओं तक की रक्षा करने में सक्षम नहीं है..!
वजह चाहे जो भी हो लेकिन चीनी घुसपैठ पर भारत सरकार के लापरवाह और लचर रवैये ने चीन का हौसला ही बढ़ाया है..! आज चीन ने भारतीय सीमा में घुसपैठ कर अपनी बात मनवा ली तो क्या गारंटी है कि कल फिर वो ऐसी हरकत नही करेगा..? जाहिर है चीन की फितरत नहीं बदलेगी और वह फिर से ऐसी हरकत करेगा...ऐसे में भारत ने वक्त रहते अपनी पिछली गलतियों से सबक नहीं लिया तो आने वाला वक्त में चीन भारत के लिए बड़ा खतरा बन सकता है..! (जरूर पढ़ें- वर्ना बदल जाएगा भारत का नक्शा..!)

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सोमवार, 6 मई 2013

यूपीए के पास है भ्रष्टाचार का लाइसेंस..!


मामा रेल के सर्वेसर्वा थे तो मामा कैसे अपने प्यारे भांजे को रेल की चाबी देने से इंकार कर सकते थे..! ऐसे भांजे की काबलियत पर मामा भी कैसे शक कर सकते थे जिसने कुछ ही सालों में करोड़ों का साम्राज्य खड़ा कर खुद को साबित भी किया था..! सब कुछ ठीक ठाक चल भी रहा था लेकिन भ्रष्टाचार की रेल चला रहे ड्राईवर भांजे की रफ्तार कुछ ज्यादा ही तेज थी लिहाजा भ्रष्टाचार की रेल हो गयी डी रेल और भांजे के साथ ही रेल चलाने का ग्रीन सिग्नल देने वाले मामा की मुश्किलें भी बढ़ गयीं। (जरूर पढ़ें- भांजा चला रहा मामा की रेल..!)
भांजे के साथ खुद को सीबीआई के लपेटे में आने से बचाने के लिए मामा ने रेल डीरेल होने की जिम्मेदारी से ये कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि उन्होंने किसी को भ्रष्टाचार की रेल चलाने का ग्रीन सिग्नल कभी नहीं दिया..! लेकिन रेलमंत्री बंसल मामा की बात पर कौन यकीन करता लिहाजा विपक्ष ने कुर्सी छोड़ने की मांग को लेकर घेराबंदी शुरु कर दी। घूसकांड में मामा पर इस्तीफे का दवाब था ऐसे में इस्तीफे की आफत के बीच मामा के लिए राहत भरी खबर ये आयी कि उनकी पार्टी खुलकर उनके बचाव में आ गयी।
मामला संगीन था और भांजे को सीबीआई ने रंगे हाथों पकड़ा था ऐसे में नैतिक रुप से मामा का इस्तीफा तो बनता था लेकिन पार्टी के पीछे खड़े होने से मामा की कुर्सी बच गयी..!
अब सवाल ये खड़ा होता है कि संगीन आरोपों के बाद भी कांग्रेस रेलमंत्री के पक्ष में क्यों खड़ी हो गयी..? जाहिर है अगर रेलमंत्री से इस्तीफा लिया जाता तो ये सरकार की ही हार होती और विपक्ष इसको खूब जोर शोर से भुनाता..! अब कांग्रेस क्यों चाहेगी कि उनका एक मंत्री शहीद भी हो और विपक्ष को इसका फायदा मिले...ऐसे में पहले से ही भ्रष्टाचार की कश्ती पर सवार कांग्रेस ने एक और मंत्री को कश्ती से धकेलने की बजाए साथ में बैठाना बेहतर समझा..!
मनमोहन सरकार इससे पहले भी भ्रष्टाचार में डूबे अपने मंत्रियों का पूरा साथ देते आयी है..! सलमान खुर्शीद पर लगे आरोप तो आपको याद ही होंगे लेकिन खुर्शीद साहब का इस्तीफा तो दूर उन्हें प्रमोट कर विदेश मंत्री बना दिया गया..! कानून मंत्री अश्विनी कुमार के मामले में भी मनमोहन सरकार अश्विनी कुमार के साथ खड़ी है और अब ऐसा ही कुछ बंसल के मामले में भी हो रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग को तो कांग्रेस पहले ही नकार चुकी है..! (जरूर पढ़ें- क्यों दें कानून मंत्री इस्तीफा..?)
ये छोड़िए भ्रष्टाचार के आरोप पर विपक्ष की घेराबंदी कांग्रेस को इतनी परेशान करने लगी है कि कुछ न सूझने पर अब कांग्रेस कह रही है कि भाजपा यूपीए सरकार पर ऊंगली उठाने से पहले एनडीए सरकार में हुए घोटालों को याद करें..! कांग्रेस की इस कथनी का तो ये मतलब निकलता है कि एनडीए सरकार के कार्यकाल में हुए घोटाले यूपीए सरकार के लिए भ्रष्टाचार और घोटाले करने का लाइसेंस है..!
ये तो वही बात हुई कि जब आपने भ्रष्टाचार और घोटालों की गंगा बहाई है तो हम उसमें डुबकी लगा रहे हैं तो क्या गलत है..? वाह..! क्या तरीका है कांग्रेस का यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और घोटालों को जस्टिफई करने का..?
भ्रष्टाचार तो भ्रष्टाचार है चाहे वह किसी भी सरकार के कार्यकाल में किसी ने भी क्यों न किया हो..? दूसरे के गुनाहों की दुहाई देकर खुद को सही साबित करना कहां तक सही है..? भ्रष्टाचारी किसी भी सरकार में शामिल रहा हो या किसी भी दल से हो उसे बख्शा तो नहीं जा सकता न..! एनडीए ने जनता को छला तो जनता ने उसे सबक सिखाया और अब यूपीए सरकार में शामिल लोग जनता की गाढ़ी कमाई से अपनी जेबें भर रहे हैं तो जनता क्या उन्हें छोड़ेगी..? ये हमेशा याद रखिए कि आप कुछ दिनों तक तो जनता को बेवकूफ बना सकते हैं लेकिन लंबे वक्त तक नहीं..! फिर चाहे वो एनडीए हो या फिर यूपीए हो या फिर कोई और..!

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