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शनिवार, 15 नवंबर 2014

छत्तीसगढ़िया, सबसे बढ़िया !



छत्तीसगढ़िया, सबसे बढ़िया, छत्तीसगढ़ की रमन सरकार का कुछ ऐसा ही विज्ञापन टीवी पर खूब दिखाई दे रहा है। बताया जा रहा है कि छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया क्यों हैं? रमन सिंह सरकार के विकास कार्यों की झलक के जरिए छत्तीसगढ़ के लोगों की खुशहाली की तस्वीरों को खूब दिखाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ वाले किस हाल में हैं, इसे उनसे बेहतर और कौन समझ सकता है? लेकिन छत्तीसगढ़िया असल में कितने बढ़िया है, छत्तीसगढ़ की रमन सरकार कितना बढ़िया काम कर रही है, इसका ताजा उदाहरण है, बिलासपुर का नसबंदी कांड, जिसने 15 महिलाओं की जान ले ली!
वाकई में रमन सिंह जी छत्तीसगढ़ बहुत बढ़िया है, इतना बढ़िया कि यहां सरकारी दवाओं से मरीजों को जिंदगी नहीं सीधे मौत मिलती है। बिना किसी तकलीफ के सीधे मोक्ष प्राप्त होता है! अब इतनी अच्छी और कारगार दवाएं तो सबसे बढ़िया छत्तीसगढ़िया में ही मिल सकती हैं न! इतना बढ़िया कि मां के दुनिया से विदा हो जाने के बाद उसके दुधमुंहे बच्चे को कोई देखने वाला नहीं है! उसके पास भूख से बिलखने के आलावा कोई चारा नहीं है! उसके पास मां का आंचल नहीं है!
क्या हाल हो रहा होगा उन दुधमुंहे बच्चों का या जो बच्चे अभी अपनी मां की ऊंगली पकडकर बमुश्किल चलना ही सीख पाए थे। सोच कर ही रूह कांप उठती है! लेकिन आपके लिए तो छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया है!
आप इसका बखान करने से भी नहीं चूक रहे हैं, लाखों रूपया इस पर आपने जरूर फूंक ही दिया होगा! इसका आधी रकम भी राज्य के किसी पिछले गांव में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने में खर्च करते, जानलेवा दवाओं की जगह जिंदगी देने वाली दवाओं को खरीदने में खर्च करते तो शायद आज ये दिन नहीं देखना पड़ता!
दुधमुंहे बच्चों के सिर से उनकी मां का आंचल नहीं छिनता! लेकिन आपकी सरकार को तो इसकी शायद आदत सी हो गई है। पहले आंखों की रोशनी लौटाने के नाम आपके होनहार चिकित्सकों ने लोगों की जिंदगी में अंधेरे भर दिया!
याद तो होगा ही शायद आपको, शायद न भी हो, क्योंकि रोशनी आपके किसी अपने की आंखों की नहीं गई थी! गई होती तो शायद एक बार फिर से ऐसी ही लापरवाही का नमूना देखने को नहीं मिलता !
अब इसकी परतें उधड़ रही हैं, तो ऐसी ऐसी सच्चाई सामने आ रही कि पैरों तले जमीन ही खिसक जाए!
शुरआती जांच में दवाओं में चूहा मारने वाले कैमिकल का पाया जाना! दो साल पहले ब्लैकलिस्ट कर दी गई दवा बनाने वाले कंपनी से अब भी दवाएं खरीदना! टारगेट पूरा करने के लिए निर्दोष लोगों की जान से खिलवाड़ करना! और न जाने क्या क्या? अभी तो इस पूरी घटना का पोस्टमार्टम होना बाकी है! और न जाने क्या क्या काला सच सामने आने की पूरी उम्मीद है!
सीएम साहब कार्रवाई करने की बात कर रहे हैं! लेकिन रमन सिंह साहब को कौन समझाए कि कार्रवाई करने से, एक दो डॉक्टरों को सस्पेंड करने से, उनके खिलाफ एफआईआर करने से अपनी मां तो खो चुके बच्चों को उनकी मां वापस नहीं मिल जाएगी! जब आप ही के राज्य में बालौद में लोगों की आंखों की रोशनी चली गई थी, उस वक्त भी आप जाग जाते और ऐसे कैंपों को टारगेट पूरा करने का जरिया न बनने देते और ये कैंप बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं से लैस होते तो शायद कोई बच्चा अपनी मां के इंतजार में सारी रात रो रोकर काटने को मजबूर न होता!
क्या ऐसे ही होता है छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया रमन सिंह जी ? क्या ऐसे ही होता है?
  
deepaktiwari555@gmail.com

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

सत्ता, शरद पवार और झाड़ू !

अपने पूरे परिवार के साथ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी प्रमुख शरद पवार ने हाथ में झाड़ू लेकर स्वच्छ भारत अभियान में हिस्सा लिया तो अच्छा लगा कि एक अच्छे मकसद के लिए शुरु की गई इस मुहिम में शरद पवार राजनीति से ऊपर उठकर भागीदार बने। ऑस्ट्रेलिया से प्रधानमंत्री मोदी ने भी शरद पवार के इस कदम की सराहना करते हुए ट्विट कर दिया। लेकिन शरद पवार एंड फैमिली के स्वच्छ भारत अभियान में जुड़ने के पीछे का असल मकसद क्या है ? ये सवाल शरद पवार के हाथ में झाड़ू देखने के बाद से लगातार जेहन में उमड़ घुमड़ रहा है।
शरद पवार की नीयत पर शक शायद नहीं होता, लेकिन शरद पवार एंड फैमिली के स्वच्छता अभियान में जुड़ने की टाईमिंग यह सोचने पर मजबूर करती है ! शरद पवार एंड फैमिली ने हाथ में झाड़ू उस वक्त उठाया, जब भाजपा शिवसेना से बात न बनने के बाद खुशी खुशी एऩसीपी के समर्थन से महाराष्ट्र सदन में विश्वास मत हासिल करने में जरा भी नहीं हिचकिचाई !  
केन्द्र में यूपीए सरकार में भागीदार एनसीपी आम चुनाव में यूपीए की करारी हार के बाद सत्ता सुख खो चुकी थी। बचा था, महाराष्ट्र लेकिन वहां पर भी कांग्रेस से अलग होकर अकेले दम पर सरकार बनाने के सपना देख रही एनसीपी का सपना चकनाचूर हो गया। ऐसे में सत्ता का सुख न भी भोगा जाए तो कैसे सत्ताधारियों के करीब रहा जाए, उनसे दोस्ती बढ़ाई जाए, इसका रास्ता एनसीपी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के पूरे नतीजे आने से पहले ही ढ़ूंढ़ लिया था। भाजपा को स्पष्ट बहुमत तक न पहुंचते देख एनसीपी ने भाजपा को बिना शर्त बाहर से समर्थन का ऐलान कर दिया।
हालांकि भाजपा ने शिवसेना का विकल्प खुला रखा था, लेकिन जब बात नहीं बनी तो आखिर एनसीपी की मदद से ही भाजपा सरकार ने महाराष्ट्र विधानसभा में विश्वास मत हासिल कर लिया।
एनसीपी का ये दांव काम कर गया तो उसका हौसला बढ़ना लाजिमी था, ऐसे में एनसीपी को भी एहसास हो गया कि सत्ताधारियों से नजदीकीयां बढ़ाने का उसका कदम व्यर्थ नहीं जा रहा है। महाराष्ट्र में भाजपा सरकार बनवाने के बाद नजदीकीयां बढ़ाने का इससे अच्छा मौका क्या हो सकता था, कि हाथ में झाड़ू लेकर स्वच्छ भारत अभियान का झंडा बुलंद किया जाए और प्रधानमंत्री की नजरों में आया जाए। हुआ भी ऐसा ही और पीएम मोदी ने ऑस्ट्रेलिया से ही शरद पवार के झाड़ू उठाने के तस्वीरें सामने आने के कुछ ही देर बाद शरद पवार की तारीफ में ट्विट कर डाला।
शरद पवार की सत्ता से नजदीकी बढ़ाने को लेकर उनकी बेचैनी समझी जा सकती है, लेकिन महाराष्ट्र में एनसीपी को पानी पी पी कर कोसने वाली भाजपा का एनसीपी क सहयोग से सरकार बनाना समझ से परे है। रणनीति भाजपा और एनसीपी की जो भी हो, लेकिन अपने – अपने फायदे की राजनीति में जनता से किए वादों को भूल जाना का दस्तूर बदस्तूर जारी है।
फिलहाल तो सबकी नजरें इस पर हैं कि शरद पवार की पावर से महाराष्ट्र में सरकार गठित करने वाली भाजपा का एनसीपी के लिए भविष्य में क्या रूख रहता है और शरद पवार भाजपा को और कैसे कैसे सहयोग और समर्थन देते हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो भाजपा और एनसीपी की नजदीकियां जैसे जैसे बढ़ेंगी वैसे वैसे सवाल की फेरहिस्त भी लंबी होती जाएगी, जिसका जवाब देना भाजपा और एनसीपी दोनों के लिए ही आसान नहीं होगा !


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गुरुवार, 13 नवंबर 2014

“Justice Delayed is Justice Denied”

हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भरते हैं, लेकिन एक सच ये भी है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इंसाफ की लड़ाई इससे भी बड़ी औऱ मुश्किल है ! गुजरते वक्त के साथ तस्वीरें यकीनन धुंधली पड़ चुकी थी, लेकिन 39 वर्ष बाद देश के तत्कालीन रेलमंत्री एल एन मिश्रा हत्याकांड पर फैसला आने की ख़बर के साथ धुंधली पड़ चुकी यादों को ताजा करने की कवायद शुरु होती है। साथ ही एक बार फिर से ये सवाल जेहन में उठता है, कि आखिर क्यों इंसाफ की लड़ाई दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इंसाफ की लड़ाई इतनी लंबी हो जाती है, कि अक्सर लोग इंसाफ की इस लड़ाई से लड़ते लड़ते ही हार मान लेते हैं, लेकिन उन्हें इंसाफ नहीं मिलता ! इंसाफ मिलता भी है तो इतनी देर से कि कई बार उसका कोई मतलब ही नहीं रह जाता !  अंग्रेजी की ये कहावत “Justice Delayed is Justice Denied” यहां पर एकदम सटीक बैठती है।
दो जनवरी 1975 को देश के तत्कालीन रेलमंत्री एन एन मिश्रा की बिहार के समस्तीपुर-मुजफ्फरपुर (बिहार) ब्राड गेज रेल लाईन के उदघाटन के मौके पर समस्तीपुर में बम धमाके में हुई मौत के बाद भी नवंबर 2014 तक इश हत्याकांड नें फैसला न आना इसकी ताजा मिसाल है। 39 वर्ष बाद जैसे तैसे फैसले की तारीख करीब आती भी है, तो अदालत ये कहते हुए फैसले की तारीख आगे बढ़ाकर 8 दिसंबर कर देती है कि फैसला अभी तैयार नहीं है !    
इंतजार 8 दिसंबर का है कि आखिर इस हाई प्रोफाईल हत्याकांड में 39 वर्ष बाद ही सही अदालत क्या फैसला सुनाती है ?  39 वर्ष के लंबे इंतजार को देखते हुए तो अब 8 दिसंबर को लेकर भी संशय है कि फैसला 8 दिसंबर को आ ही जाएगा !
कहते हैं देर आए दुरुस्त आए लेकिन इंसाफ अगर इतनी देर से आए, तो इसे दुरुस्त कैसे कहा जा सकता है ? इसको समझने के लिए इस हत्याकांड के मुख्य आरोपी के जीवनकाल को समझना होगा ! रंजन जो जो अन्य लोगों के साथ इस हत्याकांड का आरोपी है, उसकी उम्र इस हत्याकाडं के वक्त जनवरी 1975 को महज 24 वर्ष थी। घटना को 39 वर्ष बीत चुके हैं और रंजन की उम्र अभी करीब 63 वर्ष है। इस हत्याकांड के एक आरोपी की इस दौरान मौत भी हो चुकी है। इसी तरह दूसरे आरोपियों भी उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं। ठीक इसी तरह इंसाफ की आस लगाए बैठे तत्कालीन रेल मंत्री एल एन मिश्रा के परिजन भी लगभग इसी स्थिति में होंगे! हो सकता है कि 39 वर्ष बाद अब 8 दिसंबर को अदालत आरोपियों को दोषी करार देते हुए सजा सुना भी दे। लेकिन सवाल है कि क्या वाकई में इंसाफ की आस लगाए बैठे लोगों को इंसाफ मिल पाया ! बात सिर्फ तत्कालीन रेल मंत्री एल एन मिश्रा हत्याकांड की ही नहीं है, शिक्षक भर्ती घोटाले में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला को भी उस मामले में 13 वर्ष बाद सजा हुई। ऐसे कई मामले हैं, जो देश की विभिन्न अदालतों में सालों से लंबित हैं !
देश की सर्वोच्च अदालत की ही अगर बात करें तो एक आंकड़े के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या 60 हजार के करीब है, तो देशभर के विभिन्न उच्च न्यायालयों में वर्ष 2011 तक लंबित मामलों की संख्या करीब 43 लाख 22 हजार थी अंदाजा लगाया जा सकता है कि देशभर की निचली अदालतों में लंबित मामलों की संख्या कितनी होगी?
हालांकि इसके पीछे की बड़ी वजह विभिन्न अदालतों में बड़ी संख्या में जजों के रिक्त पदों का होना भी है, लेकिन वजह चाहे जो भी इंसाफ देर से मिला तो यही कहा जाएगा- “Justice Delayed is Justice Denied”.


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बुधवार, 12 नवंबर 2014

भाजपा सरकार और नैचुरली करप्ट पार्टी !

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के साथ साझा रूप से सरकार चला रही एनसीपी को नैचुरली करप्ट पार्टी का तमगा देकर जमकर निशाना साधा और लोगों से वोट की अपील की थी। प्रधानमंत्री मोदी ने तो अपने चुनावी भाषण में एनसीपी के चुनाव चिन्ह को लेकर भी जमकर तंज भी कसे थे कि कैसे एनसीपी की घड़ी की सुई पहले दिन से सिर्फ 10 बजकर 10 मिनट पर ही अटकी हुई है। 19 अक्टूबर को जब चनाव के नतीजे आए तो महाराष्ट्र में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने वाली भाजपा के पास खुश होने की वाजिब वजह थी लेकिन एक मुश्किल ये थी कि भाजपा बहुमत के जादुई आंकड़े से कुछ कदम दूर ही रह गई।
शिव सेना के साथ आने के लिए विकल्प खुले थे, लेकिन भाजपा और शिवसेना दोनों की तरफ से शर्तों का पहाड़ सामने खड़ा था। बयानों के लंबे दौर के बीच विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने की तारीख आ गई, लेकिन भाजपा और शिव सेना में बात नहीं बन पाई। आखिरकार विश्वास मत से कुछ घंटे पहले शिव सेना ने लंबी जद्दोजहद के बाद ऐलान कर दिया कि वह विपक्ष में बैठेगी।
भाजपा के लिए ये चिंता की बात इसलिए भी नहीं थी, क्योंकि एनसीपी चुनावी नतीजे के दिन ही भाजपा को बाहर से समर्थन देने का ऐलान कर चुकी थी। शायद यही वजह थी कि भाजपा ने शिवसेना की नाराजगी को सिर्फ नाराजगी के तौर पर ही लिया।
भाजपा ने भले ही जैसे तैसे विश्वास मत हासिल कर तो लिया लेकिन राह भाजपी की अब भी आसान नहीं है। एनसीपी भले ही सरकार में शामिल न हो रही हो, लेकिन एनसीपी के समर्थन से भाजपा के विश्वास मत हासिल करने से सवाल भाजपा पर भी खड़े होने लगे हैं !
सवाल उठने लाजिमी भी हैं, जाहिर है जिस पार्टी के कुशासन और भ्रष्टाचार की कहानियां सुनाकर, सुशसान के सपने दिखाकर, भाजपा ने जनता से वोट मांगे, उस पार्टी के सहयोग से सरकार बनाना कितना सही है !
सवाल ये भी है कि क्या सिर्फ सत्ता सुख भोगने के लिए अपनी पुरानी सहयोगी के साथ न होने के बावजूद भाजपा एनसीपी का सहारा ले रही है, जो हमेशा से उसके निशाने पर रही है ?
एनसीपी के सहारे से विश्वास मत हासिल करके सिर्फ सवाल ही नहीं उठे हैं, बल्कि सरकार के भविष्य पर भी हमेशा संकट के बाद मंडराते रहेंगे। जो एनसीपी बिना किसी शर्त अपनी कट्टर राजनीतिक दुश्मन पार्टी को सरकार बनाने के लिए समर्थन दे सकती है, क्या गारंटी है कि वह सरकार से किसी भी वक्त समर्थन वापस नहीं लेगी ?
क्या गारंटी है कि इसके बदले में वह भाजपा सरकार को पर्दे के पीछे ब्लैकमेल नहीं करेगी ?
सवालों की फेरहिस्त काफी लंबी है, लेकिन जवाब शायद भाजपा के पास नहीं है। जो जवाब है, कि हमने किसी से समर्थन नहीं मांगा है, वो गले नहीं उतर रहा !
बहरहाल जवाब तो भाजपा को आज नहीं तो कल देना ही पड़ेगा, लेकिन फिलहाल तो शिवसेना और कांग्रेस दोनों मिलकर फडनवीस सरकार के विश्वास मत पर ही अविश्वास जताकर उसे घेरने की तैयारी में जुट गए हैं, ऐसे में देखना ये होगा कि सदन के भीतर अपनी पुरानी सहयोगी के हमले से भाजपा किस तरह अपना बचाव करती है, और भाजपा के लिए फिलहाल संजीवनी साबित हो रही एनसीपी से कब तक फडनवीस सरकार को ऑक्सीजन मिलती है।  


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सोमवार, 10 नवंबर 2014

पहले सीना चौड़ा था, अब कैसे झुकाएं सिर ?

शिवसेना को महाराष्ट्र की सत्ता में आने का भरोसा तो पूरा था, लेकिन जब जनादेश नहीं मिला तो शिवसेना कर भी क्या सकती थी। हालांकि पुरानी साथी भाजपा से हाथ मिलाने का रास्ता अभी भी खुला है। भाजपा को कुछ शर्तों के साथ ही सही इस पर कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन शिवसेना असमंजस में है कि आखिर करे तो क्या करे ?
राजनीति में सत्ता की चाहत तो हर किसी को होती है। शिवसेना के साथ भी कुछ ऐसा ही है, लेकिन जनादेश शिवसेना के पक्ष में नहीं आया तो भी उसके पास अपने पुराने सहयोगी के साथ हाथ मिलाकर सत्ता सुख भोगने का पूरा मौका है। लेकिन असमंजस में डूबी शिवसेना को नहीं सूझ रहा कि किस राह चला जाए। सत्ता के लिए भाजपा की शर्तों को मानते हुए फिर से हाथ मिला लिया जाए या फिर मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाते हुए अगले चुनाव का इंतजार करे ?
रास्ते दो ही हैं, लेकिन फिर भी फैसला लेने में शिवसेना हिचकिचा रही है, ये जाहिर करता है कि वो सत्ता में सहयोगी रहने का मौका नहीं गंवाना चाहती, वैसे भी  क्या गारंटी है कि पांच साल इंतजार करने के बाद सत्ता मिलेगी ही ?
ऐसे में कभी सामना संपादकीय के जरिए तो कभी अपने नेताओं के बयानों के जरिए भाजपा को विपक्ष में बैठने का भय दिखाकर अपनी शर्तें मनवाने की पूरी कोशिश भी शिवसेना कर रही है। लेकिन महाराष्ट्र में छोटे भाई से बड़ा भाई बनने का मौका पाने वाली भाजपा चाहती है कि शिवसेना साथ आए, उसे कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन बड़े भाई के तौर पर नहीं छोटे भाई की भूमिका में। भाजपा का स्टैंड कुछ हद तक साफ दिखाई देता है, लेकिन शिवसेना का रूख समझ से परे है, या कहें कि सत्ता में भागीदारी निभाना तो शिवसेना चाहती है। लेकिन सीना चौड़ा करके साथ छोड़ने वाली शिवसेना के सामने मुश्किल है कि आखिर सिर झुकाएं तो कैसे ?
शायद इसलिए ही शिवसेना कभी 48 घंटे का तो कभी 24 घंटे का अल्टीमेटम देकर दिखाना चाह रही है, कि वे सत्ता में भागीदार बनना चाहते हैं, लेकिन भाजपा उनकी कुछ शर्तों को तो माने ! शिवसना ने भले ही विधानसभा सचिव को चिट्ठी लिखकर नेता विपक्ष के पद के लिए दावेदारी पेश करके न झुकने के संकेत दिए हैं, लेकिब जब इसके साथ ही भाजपा के साथ बातचीत का विकल्प भी खुला रखा, जो ईशारा करता है कि सत्ता की चाहत दिल से दूर जाती नहीं दिख रही है !
भाजपा और शिवसेना की तकरार और शिवसेना का न करना इंकार, एक बार फिर साबित करता है कि राजनीति में सत्ता पाने का मौका कोई नहीं छोड़ना चाहता फिर चाहे वह शिवसेना हो या फिर कोई और पार्टी।
बहरहाल शिवसेना का 48 घंटे का ताजा अल्टीमेटम भी जल्द ही समाप्त हो जाएगा, ऐसे में देखना रोचक होगा कि इसके बाद शिवसेना कोई फैसला ले पाती है, या फिर से भाजपा को किसी ऐसे ही अल्टीमेटम के जरिए अपनी बात मनवाने की एक और कोशिश करेगी।  
हां, एक बात तो साफ झलक रही है, कि भाजपा फिलहाल शिवसेना के आगे न झुकने का मानस बना चुकी है !


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रविवार, 9 नवंबर 2014

कैबिनेट विस्तार और राजनीति के रंग !



राजनीति के रंग भी निराले होते हैं, मोदी सरकार के पहले कैबिनेट विस्तार के कैनवास में उभरती राजनीतिक तस्वीरों में भी कुछ ऐसे ही रंग दिखाई दिए। एक रंग था, भाजपा और शिवसेना की अहं की लड़ाई का। प्रधानमंत्री मोदी चाहते थे कि कैबिनेट विस्तार के कैनवास में शिवसेना के रंगों की चमक भी दिखाई दे, लेकिन आखिरी वक्त तक हां, न...हां, न की ख़बरों के बीच आखिर शिवसेना वाली तस्वीर ब्लैक एंड व्हाईट ही रह गई। उद्धव ठाकरे ने मुंबई से फ्लाईट पकड़कर दिल्ली पहुंचे अनिल देसाई को एयरपोर्ट से ही वापस बुला लिया। लेकिन शिवसेना नेता सुरेश प्रभु के कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ लेने से शिवसेना की तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा रंगीन होता दिखाई दिया, लेकिन सुरेश प्रभु के भाजपा की सदस्य़ता ले लेने से शिवसेना की बजाए भाजपा के हिस्से की एक और तस्वीर भगवा रंग में रंग गई। शिवसेना के लिए भाजपा की राजनीतिक शर्तों का तो पता नहीं, लेकिन महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना की स्थिति के बाद भी शिवसेना को बहुत कुछ हासिल था और सहज हासिल था, लेकिन शायद ये शिवसेना के मराठी मन को नहीं भाया !
एक और तस्वीर थी, जो 2014 के आम चुनाव के साथ भगवा रंग में रंगने लगी था, ये तस्वीर थी, बिहार के पाटलीपुत्र से भाजपा सांसद रामकृपाल सिंह की, जो बिहार में लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती को धूल चटाकर दिल्ली तक पहुंचे थे। कभी राजद में रहते हुए लालू प्रसाद यादव के सबसे करीबी नेता रहे रामकृपाल ने भी कहां सोचा था कि 2014 में केन्द्र सरकार में वह मंत्री बनेंगे, लेकिन राजद का दामन छोड़ भाजपा का कमल थामने वाले रामकृपाल ने न सिर्फ कमल पर सवार होकर जीत दर्ज की बल्कि मोदी सरकार के पहले ही विस्तार में रामकृपाल मंत्री की कुर्सी भी पा गए।
एक तस्वीर और नजर आई, कभी हरियाणा कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे चौधरी बिरेन्द्र सिंह की। हरियाणा में विधानसभा चुनाव से पहले अपनी ही पार्टी कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के खिलाफ बगावत का झंड़ा बुलंद कर भाजपा का दामन थामने वाले चौधरी बिरेन्द्र सिंह की किस्मत भी चमकती दिखाई दी। कांग्रेस में थे, तो कोई पूछने वाला नहीं बचा था, लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा में आने वाले चौधरी का फैसला बिरेन्द्र सिंह की चौधराहट कायम रखने वाला रहा। चौधराहट भी मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री की, जो भाजपा के कई दिग्गजों को नसीब नहीं हुई।
बहरहाल राजनीति के कैनवास में रंगीन तस्वीरों का सपना तो हर राजनेता का होता है, लेकिन किस्मत शायद हर किसी पर मेहरबान नहीं होती, या कहें कि सही वक्त पर सही फैसला लेने में अक्सर राजनेता चूक कर जाते हैं। अब रामकृपाल सिंह राजद की टिमटिमाती लालटेन न छोड़ते और चौधरी बिरेन्द्र सिंह कांग्रेस का पंजा न छोड़ते तो दोनों आज कहां होते, इसे समझना जरा भी मुश्किल नहीं है।
बात करें शिवसेना की तो वक्त की नज़ाकत के हिसाब से सब कुछ सहज और सुलभ होने के बाद भी शिवसेना का ये फैसला शिवसेना के भविष्य के हिसाब से कितना सही साबित होगा इसे भी समझना मुश्किल नहीं है। लेकिन अपने फायदे की राजनीति के समय में शिवसेना क्या इसको समझ पाएगी, ये तो वक्त ही बताएगा !

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