कुल पेज दृश्य

शनिवार, 20 जुलाई 2013

मैं सीएम हूं...लेकिन मेरा काम क्या है..?

उत्तराखंड में इंद्र देवता कुछ ज्यादा ही मेहरबान हैं, लेकिन इंद्र देवता की ये मेहरबानी उत्तराखंड के खासकर दुर्गम पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए किसी आफत से कम साबित नहीं हो रही है। लगातार हो रही बरसात के चलते लोग एक अनजाने डर के साए में जीने को मजबूर हैं। खासकर रात के वक्त हो रही बारिश के उफनती नदियों के शोर और दरकते पहाड़ों की आवाज़ लोगों की नींद उड़ाने के लिए काफी हैं..!
16-17 जून को केदारनाथ में आई भीषण त्रासदी की याद मात्र ही पूरे बदन में सिहरन पैदा कर देती है कि कहीं फिर ऐसी तबाही की दास्तां उत्तराखंड के किसी हिस्से में न लिख जाए..! दरअसल तबाही की ये दास्तां लिखी तो खुद इंसानों ने ही थी लेकिन ये ऊपर वाले पर उनका अटूट विश्वास ही है कि देवभूमि के वाशिंदे ये सोचकर अपने मन को दिलासा देने की कोशिश कर रहे हैं कि शायद ईश्वर की यही मर्जी थी और नियती को भी यही मंजूर था..! (पढ़ें- ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों..?)
त्रासदी में अपनी आखों के सामने अपनों को खोने के बाद भी, पलभर में जीवनभर की पूंजी तबाह हो जाने के बाद भी ईश्वर पर से भरोसा नहीं डिगा है। मौत के मुंह से बाहर निकल आने पर ऊपरवाले का शुक्रिया अदा कर रहे लोगों को अब जिंदा रहने के लिए शासन प्रशासन से मदद की पूरी उम्मीद थी, लेकिन भीषण विपदा के समय में भी सरकारी उदासीनता ने इनके दर्द को कम करने की बजाए बढ़ाने का ही काम किया..!
आपदा प्रभावित इलाकों में मीडिया के लोग पहुंच गए, स्वंय सेवी संगठन के लोग पहुंच गए लेकिन सैंकडों इलाके ऐसे हैं जहां पर सरकार का कोई नुमाइंदा आज तक नहीं पहुंचा है, मदद और राहत सामग्री पहुंचना तो बहुत दूर की बात है..!
ऐसा नहीं है कि सरकार के पास पैसा नहीं है, संसाधनों की कमी है लेकिन इसके बाद भी प्रभावितों तक न तो मदद पहुंच पा रही है और न ही राहत सामग्री। सरकारी पैसा मीडिया पर नकारात्मक रिपोर्टिंग न करने के लिए खर्च किया जा रहा है (पढ़ें- वाह बहुगुणा ! हजारों मर गए, अब याद आया कर्तव्य..!) तो देश के अलग अलग हिस्सों से प्रभावितों के लिए पहुंच रही राहत सामग्री ट्रकों में और गोदामों में पड़े पड़े सड़ रही है..!
जो राहत सामग्री प्रभावितों तक पहुंच भी रही है तो उसे पाने के लिए ग्रामीणों को कई-कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ रहा है जबकि आपदा प्रभावित क्षेत्रों में कैंप करने के नाम पर जिम्मेदार अधिकारी होटलों में आराम फरमा रहे हैं और उत्तराखंड के वो दिल्ली वाले मुख्यमंत्री..! और उनके कैबिनेट सहयोगी हवाई दौरों की रसम निभा रहे हैं..!
इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं कि शासन प्रशासन ने कुछ नहीं किया लेकिन जिस तेजी से सरकारी मशीनरी को काम करना चाहिए था वो तेजी कहीं भी नहीं दिखाई दी और न ही सरकार के मुखिया प्रभावितों के दुख को बांट पाए..! बहुगुणा तो आपदा प्रभावित एक क्षेत्र का दौरे पर वहां के लोगों से ये कहकर वापस लौट आए कि अगले दो महीने तक आपको अपनी रक्षा खुद करनी है। अरे बहुगुणा साहब माना आसमान से आफत बरस रही है, परिस्थितियां विपरीत हैं लेकिन इतनी विपरीत भी नहीं कि आप प्रभावितों को उनके हाल पर छोड़ दें..!
बहुगुणा साहब आप और आपके मंत्री, विधायक आपदा प्रभावित क्षेत्रों में जाकर बारी बारी से सिर्फ एक एक सप्ताह तक कैंप करते तो प्रशासनिक अमला भी सक्रिय होता और शायद राहत कार्य में भी तेजी आती और आपदा के करीब एक महीने बाद की तस्वीर कुछ और होती लेकिन आप और आपके मंत्री देहरादून का मोह नहीं छोड़ पाए और जिम्मेदार अधिकारी जिला मुख्यालय से बाहर नहीं निकल पाए..! नतीजा सबके सामने है स्थिति आज भी वैसी ही है या कहें कि पहले से भी बदतर है, अपना सब कुछ गंवा चुके लोगों के पास न तो सिर छिपाने के लिए छत का जुगाड़ है और न ही पेट की भूख मिटाने का इंतजाम..! जबकि इन लोगों के नाम पर  सरकार के पास फिलहाल न तो पैसे की कोई कमी है और न ही राहत सामग्री की..!

शायद यही इस राज्य का दुर्भाग्य है कि जिन लोगों ने उत्तर प्रदेश से अलग उत्तराखंड राज्य निर्माण की लड़ाई लड़ी, जिनके विकास के नाम पर इस राज्य का गठन हुआ है उन पर आई विपदा के वक्त उनके द्वारा चुनी सरकार के नुमाईंदे ही अपनी जिम्मेदारियों से मुहं मोड़ते दिखाई दे रहे हैं या कहें कि जिस कुर्सी पर वे बैठे हैं शायद उन्हें पता ही नहीं कि इस कुर्सी पर बैठने वाले का क्या काम है..? क्या जिम्मेदारियां हैं..?  (जरुर पढ़ें- एमपी नहीं मुख्यमंत्री कहो...)

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

उसे भूख से डर लगता था..!


अगर किसी के पास खाने के लिए कुछ नहीं है...खाना खरीदने के लिए तक पैसे नहीं हैं तो फिर उसके लिए भूख से बड़ा डर और कोई नहीं हो सकता..! क्योंकि जब भूख आती है तो एक बार तो कोई भी उसे नजरअंदाज कर सकता है लेकिन कब तक..? ये कमबख्त भूख नहीं मानती और लौट लौट कर आ जाती है..! समय रहते अगर भूख को शांत नहीं किया तो ये भूख भूखे को ही खा जाती है..!
इन पंक्तियों से शायद ये बात बेहतर तरीके से समझ आ जाए..!
उसे भूख से डर लगता था
भूख आती थी वह उसे मार देता था
भूख जिंदा हो जाती थी
वह फिर उसे मार देता था
भूख लौट लौट कर आ जाती थी
वह उसे उलट उलट कर मार देता था
एक दिन भूख दबे पांव आई
और उसे...खा गई

केन्द्र सरकार ने इसी भूख के डर के बहाने गरीब बच्चों को स्कूल से जोडने की पहल की और मिड डे मील योजना की शुरुआत की। सरकार की योजना थी कि एक वक्त की भूख मिटाने के लिए ही सही कम से कम इसी बहाने गरीब परिवार अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल तो भेजेंगे लेकिन बिहार के छपरा में मिड डे मील खाने से मौत के मुंह मे समाए बच्चों के परिजन शायद अब ये सोच रहे होंगे कि उनके जिगर का टुकड़ा स्कूल न जाता न सही लेकिन कम से कम आज उनके पास तो होता..! खुद एक रोटी कम खाकर अपने बच्चों का पेट भर देते लेकिन कम से कम वो उन्हें हमेशा के लिए छोड़कर तो नहीं जाता..!
सरकारी लापरवाही एक बार फिर से मासूमों की जान पर भारी पड़ गयी और करीब दो दर्जन बच्चों को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी..! बात सिर्फ बिहार के छपरा तक ही सीमित होती तो ठीक था लेकिन देशभर के अलग अलग राज्यों में कई स्कूलों में आए दिन मिड मील खाकर बच्चों का बीमार पड़ना, मिड डे मील में मरी हुई छिपकली, कॉकरोच, चूहे का मिलना साबित करता है कि जिम्मेदार लोग अपने काम को लेकर कितने संजीदा हैं और कितनी ईमानदारी से अपने काम को अंजाम दे रहे हैं।
हर बार इस तरह की घटनाओं पर केन्द्र व राज्य सरकारें ये कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं कि वे दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे और कोशिश करेंगे कि भविष्य में ऐसे हादसे फिर कभी न हों लेकिन इसके बाद भी एक महीने, दो महीने, तीन महीने, छह महीने तो सालभर के बाद किसी ऐसे ही हादसे की ख़बर आती है..!
शायद यही सरकारी योजनाओं को सच है जिसकी कीमत आए दिन उस गरीब को ही चुकानी पड़ती है जिनके नाम पर ये योजनाएं शुरु की जाती हैं..! जरुरतमंदों को इन योजनाओं को कितना लाभ मिलता है इसकी हकीकत आए दिन टीवी चैनलों और समाचार पत्रों की सुर्खियों में दिखाई देती हैं..! रही सह कसर समय समय पर कैग की उन रिपोर्ट में पूरी हो जाती है जो इस सच को उजागर करती है कि योजनाओं का कितना लाभ जरुरतमंदों को मिला और कितना लाभ नेताओं के साथ ही सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को..?
इन्हीं योजनाओं को बड़े बड़े पोस्टरों – बैनरों में उकेर कर चुनाव के वक्त जनता से वोट मांगे जाते हैं..! जनता से जनता के लिए ही चुनाव जीतने पर ऐसी ही भारी भरकम बजट वाली योजनाएं शुरु करने का वादा किया जाता है लेकिन इन योजनाओं के नाम पर कितनों के वारे न्यारे होते हैं शायद ये बताने की जरुरत नहीं है..!
बिहार के छपरा में दिल दहला देने वाले हादसे के बाद भी केन्द्र और राज्य सरकारें जागेंगी या फिर भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों-कर्मचारियों की नींद टूटेगी और सरकारी लापरवाही फिर किसी पर भारी नहीं पड़ेगी इसकी उम्मीद कम ही है..!
केन्द्र और राज्य सरकार की नजरों में शायद यही सुशासन है...शायद यही असली भारत निर्माण है..?


deepaktiwari555@gmail.com

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

लो जी, दिग्विजय सिंह बन गए हिंदू !

कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के ताजा ब्लॉग को लेकर कोई कुछ कहे लेकिन दिग्विजय सिंह के इस ब्लॉग से कम से कम देश की जनता का सामान्य ज्ञान तो बढ़ ही गया कि दिग्विजय सिंह भी वास्तव में हिंदू हैं..! यहां तक तो ठीक था लेकिन ये समझ में नहीं आया कि आखिर दिग्विजय सिंह को ये बताने की जरुरत क्यों पड़ी कि वे हिंदू है..! उन्होंने द्वारका के शंकराचार्य से दीक्षा ली है..!  वे एकादशी का व्रत रखते हैं..! मध्य प्रदेश के राघौगढ़ स्थित उनके घर  में नौ मंदिर हैं और वे रोज आधा घंटा पूजा करते हैं..!
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दिग्विजय सिंह अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों के सबसे बड़े पैरोकार माने जाते हैं और संघ और भाजपा के बहाने हिंदुओं को गाली बकते नहीं अघाते फिर भी आखिर क्यों उस दिग्विजय सिंह को सामने आकर आज ये कहने की जरुरत पड़ रही है कि वे भी एक हिंदू हैं..?
इसको लेकर अलग-अलग लोगों को अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन इसको अगर राजनीतिक चश्मे से देखें तो समझ में आता है कि दिग्विजय सिंह ने ऐसे ही टाईम पास करने के लिए ये ब्लॉग नहीं लिखा बल्कि इसके पीछे भी 22014 के आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए एक बड़ी राजनीतिक वजह है। दिग्विजय सिंह वैसे तो कांग्रेस के महासचिव हैं लेकिन इसके बाद भी वे काम कांग्रेस प्रवक्ता का करते हैं और करते कुछ इस तरह से हैं कि उनकी बात कांग्रेस का आधिकारिक बयान भी नहीं बनता और कांग्रेस जो कहना चाहती है वो दिग्विजय के माध्यम से लोगों के बीच पहुंचा देती है। फिर भले ही कांग्रेस के अधिकृत प्रवक्ता दिग्गी के बयान को उनकी निजि राय क्यों न ठहरा दें..?
भाजपा ने अपने वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी को किनारे करके गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी को चुनाव अभियान समिति का चेयरमैन बनाकर एक तरह से ये संदेश दे दिया है कि 2014 के चुनाव में मोदी के चेहरे पर ही भाजपा चुनाव लड़ेगी। इससे ये भी साफ होता है कि भाजपा हिंदुत्व के एजेंडे पर ही 2014 में केन्द्र की सत्ता हासिल करने का ख्वाब देख रही है। भाजपा के यूपी प्रभारी अमित शाह का अयोध्या पहुंचकर राम मंदिर निर्माण पर बयान, राजनाथ सिंह का इस बात को दोहराना, मोदी का खुद को राष्ट्रवादी हिंदू बताना ये सब भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे पर आगे बढ़ने की ख़बरों पर मुहर लगाते हैं..!
दिग्विजय सिंह का खुद को हिंदू साबित करने की कोशिश करना क्या दिग्विजय सिंह की इस चिंता को जाहिर नहीं करता कि दिग्विजय सिंह अब खुद की हिंदू विरोधी नेता की छवि से बाहर निकलना चाहते हैं..!
क्या दिग्गी की ये कोशिश इस बात को पुख्ता नहीं करती कि मोदी और राम मंदिर के नाम पर हिंदुत्व के एजेंडे पर जोर शोर से आगे बढ़ रही भाजपा की ओर बड़ी संख्या में हिंदू वोटरों का ध्रुवीकरण हो सकता है और कांग्रेस को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है..!  
शायद इसलिए ही दिग्गी ने हिंदुओं के साथ भावनात्मक रुप से जुड़ने के लिए ये बताने की कोशिश की कि वे खुद एक कर्मकांडी हिंदू हैं और हिंदू विरोधी तो बिल्कुल भी नहीं..! जिस तरह से दिग्विजय सिंह ने संघ और भाजपा पर हिंदुओं को गुमराह करने का आरोप लगाया उससे क्या ये जाहिर नहीं होता कि वे मोदी और राम मंदिर के नाम पर भाजपा की ओर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण को रोकना चाहते हैं..!
दिग्विजय सिंह कांग्रेस में वो शख्स हैं जो पार्टी की उस बात को, राय को भी बड़ी आसानी से जनता के बीच पहुंचाकर विरोधियों की मुश्किल बढ़ा देते हैं, जिसे जनता के बीच कहने की हिम्मत शायद पार्टी के किसी नेता में नहीं है और पार्टी सार्वजनिक तौर पर आधिकारिक रुप से ऐसा कहना भी नहीं चाहती..! तो फिर क्यों न दिग्विजय का खुद को हिंदू साबित करने की कोशिश करने को यूपीए की हैट्रिक का ख्वाब देख रही कांग्रेस से जोड़कर देखा जाए..? जिसे शायद मन ही मन ये डर सता रहा है कि कहीं हिंदुत्व के झंडे को थामकर भाजपा यूपीए की हैट्रिक के ख्वाब पर ग्रहण न लगा दे..!
ये सियासत हैं, यहां तो नेताओं के हर एक शब्द के पीछे भी एक सियासी चाल छिपी होती है, जो न सिर्फ जनता को खुद से जोड़ने की एक कोशिश होती है बल्कि अपने विरोधियों को चित्त करने का सटीक जरिया भी ऐसे में 2014 के चुनाव के करीब आने के साथ ही चाहे वो मोदी हो या फिर दिग्विजय सिंह या राहुल गांधी हर किसी का एक एक बोल अपने विरोधियों को चित्त करने और जनता के दिल में जगह बनाने वाला ही होगा।
बहरहाल फैसला तो जनता को ही करना है लेकिन इसके लिए आमजन को नेताओं की इस बोली को समझना होगा कि कौन अपनी मीठी बोली से उनको बहका रहा है और कौन वास्तव में उनकी चिंता करने वाला है..? हालांकि इन नेताओं से बहुत ज्यादा उम्मीदें तो नहीं हैं लेकिन फिर भी बेहतर विकल्प को चुनने की जिम्मेदारी को जनता के कंधे पर ही है..!

deepaktiwari555@gmail.com