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शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

मध्यावधि चुनाव चाहती है भाजपा !



कैग ने संसद में कोयला आवंटन पर रिपोर्ट क्या पेश की बवाल मच गया। रिपोर्ट पेश होने के बाद चार दिनों में प्रधानमंत्री के इस्तीफे को लेकर विपक्ष के हंगामे के चलते संसद 4 मिनट भी नहीं चली और विपक्ष के हंगामे के चलते सदन की कार्यवाही चार दिन तक लगातार स्थगित होती रही। सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या सिर्फ हंगामा करने से किसी चीज का समाधन निकल सकता है...जाहिर है नहीं लेकिन इसके बाद भी भाजपा ने लगातार हंगामा कर सदन को नहीं चलने दिया। ये बात भाजपा भी अच्छी तरह से जानती है कि पीएम इस मामले पर किसी भी सूरत में इस्तीफा नहीं देने वाले...क्योंकि प्रधानमंत्री अगर इस्तीफा देते हैं तो ये सीधे तौर पर सरकार की हार होगी...प्रधानमंत्री की हार होगी...और ये मान लिया जाएगा कि कोयला घोटाले में सरकारी खजाने को 1 लाख 86 हजार करोड़ रूपये का नुकसान जानबूझकर पहुंचाया गया...और क्योंकि उस समय कोयला मंत्रालय खुद प्रधानमंत्री के पास था तो इसके लिए प्रधानमंत्री भी जिम्मेदार हैं...ऐसे में सरकार इस मुद्दे पर बहस के लिए तैयार होने की बात कर रही है...लेकिन भाजपा इस्तीफे की अपनी मांग पर अड़ी हुई है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस बहस के लिए इसलिए भी तैयार हो गयी है कि क्योंकि कांग्रेस चाहती है कि अगर हार हो तो बिना लड़े क्यों हारें...कम से कम संसद में बहस के बहाने लड़ाई तो लड़ी ही जा सकती है...और विपक्ष के सवालों में सरकार न उलझी तो जीतने का एक मौका तो रहेगा ही...लेकिन बिना बहस के ही प्रधानमंत्री इस्तीफा दें दें...तो फिर ये एक तरह से साबित भी हो जाएगा कि कोयले में दलाली तो हुई ही है। भाजपा भी चाहे तो प्रधानमंत्री के इस्तीफे की जिद छोड़ कर बहस में हिस्सा लेकर सरकार को घेर सकती है...हो सकता है कि बहस के दौरान इस मामले की ऐसी कई बारीकियां निकल कर सामने आ जाएं...जो उनके सवालों को और पैना कर दे...और सरकार घिर जाए...लेकिन यहां पर ऐसा लगता है कि भाजपा अंदरखाने कुछ और ही रणनीति पर काम कर रही है। इसको इस तरह से भी देख सकते हैं कि बीते कुछ महीने से लगातार जिस तरह से जंतर मंतर पर लोकपाल को लेकर टीम अन्ना ने आंदोलन किया...उसके बाद 09 अगस्त से दिल्ली के रामलीला मैदान में रामदेव ने लोकपाल, कालाधन वापस लाने और सीबीआई की स्वायत्तता को लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला...उसके बाद से ही देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बना हुआ है...औऱ इन दोनों आंदोलनों में जनता की भागीदारी ने इस बात को पुख्ता भी किया है। लोगों ने खुलकर इन आंदोलनों में हिस्सा लिया जो कहीं न कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का जनाक्रोश था। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने तो रामदेव के मंच पर जाकर आंदोलन का खुलकर समर्थन भी किया था। भाजपा ने भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल को कहीं न कहीं भांप लिया है और ऐसे वक्त पर भाजपा के हाथ ये मुद्दा भी लगा है...तो भाजपा शायद यही चाहती है कि मौका देख कर चौका मार दिया जाए...यानि सरकार को इस मुद्दे पर घेरकर पूरी तरह बैकफुट पर लाया जाए...और ऐसी स्थिति उत्पन्न की जाए ताकि देश में मध्यावधि चुनाव की नौबत आ जाए...और लोगों के बीच यूपीए सरकार के घोटालों का ढिंढ़ोरा पीट पीटकर सत्ता की चाबी हथिया ली जाए। भाजपा को ये लगता है कि अगर ऐसा होता है तो उसके लिए केन्द्र की सत्ता में लौटना का इससे सुनहरा अवसर दूसरा नहीं हो सकता। इसके अलावा कोई दूसरा कारण भाजपा की इस बालहठ के पीछे फिलहाल तो नजर नहीं आ रहा है...क्योंकि भाजपा ये भी अच्छी तरह से जानती है कि संसद में हंगामे के कारण रोजाना करोड़ों रूपये फिजूल बर्बाद हो रहे हैं। संसद की कार्यवाही के दौरान बात करें तो प्रति मिनट 26 हजार रूपये का खर्च आता है...जबकि प्रति घंटा ये खर्च 22 लाख रूपये है...और पूरे दिन का खर्च 7.8 करोड़ रूपये है। यानि कि चार दिनों तक जो संसद की कार्यवाही हंगामे की भेंट चढ़ी उसमें तकरीबन 15 करोड़ रूपये बर्बाद हुए। सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलती तो जनकल्याण की कई योजनाओं पर चर्चा हो सकती थी...जन कल्याण से जुड़े कई बिल पास हो सकते थे...लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ...क्योंकि हमारे देश के राजनेताओं को जनता के हितों से शायद कोई सरोकार नहीं है। सरोकार होता तो शायद कोयला आवंटन में घोटाला ही न होता...इससे पहले के कई घोटाले ही नहीं होते...और संसद की कार्यवाही हंगामे की भेंट नहीं चढ़ती। उम्मीद करते हैं हमारे राजनेता अपने राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर जनता के हितों की बात करेंगे...जनकल्याण के लिए काम करेंगे...ताकि लोगों का विकास हो देश का विकास हो।  

deepaktiwari555@gmail.com

आरक्षण - सड़क से संसद तक



प्रमोशन में आरक्षण को लेकर घमासान जारी है...सड़क से लेकर संसद तक हर तरफ आरक्षण को लेकर बवाल मचा है। मायावती को इससे कुछ ज्यादा ही प्यार है...हो भी क्यों न भई आखिर माया की राजनीति भी तो आज तक इसी के सहारे परवान चढ़ती आयी है। अब 2007 की ही बात कर लेते हैं...उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के नतीजे आये तो शायद ही मायावती ने सोचा होगा कि उनका हाथी विधानसभा की दो तिहाई सीटों पर कब्जा कर लेगा। अब भला क्यों माया आरक्षण को लेकर हो हल्ला न मचाए...अभी तो बहुत साल राजनीति करनी है इन्हें। ये हाल सिर्फ मायावती का नहीं बल्कि देश के तमाम राजनीतिक दलों के नेताओँ को भी यही हाल है...वे भी अपनी अपनी सहूलियत के हिसाब से अपने अपने वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण की बात करते आये हैं। चलिए ये तो थी माया औऱ दूसरे राजनेताओं की बात जो अपनी राजनीति चमकाने के लिए आरक्षण के जिन्न को समय समय पर बोतल से बाहर निकालने से गुरेज नहीं करते। आप ही सोचिए क्या वाकई में सरकारी नौकरी में आरक्षण के बाद प्रमोशन में भी किसी वर्ग विशेष के लिए आरक्षण जायज है। क्यों नहीं योग्यता का पैमाना ही यहां पर उपयोग किया जाए। लेकिन अफसोस ऐसा है नहीं...जाति धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले सरकार चला रहे हमारे राजनेताओं को तो अपने वोट बैंक को साधना है...ऐसे में वे ये कैसे होने देते...नौकरी में प्रमोशन के लिए सत्ता पर बैठे इन लोगों ने आरक्षण लागू कर दिया। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अनुचित ठहराते हुए इस पर रोक तो लगा दी...लेकिन इसके बाद भी हमारे नेतागण हर इस जुगत में लगे हैं कि प्रमोशन में आरक्षण बहाल करने के लिए संविधन संशोधन विधेयक पास हो जाए। हालांकि कांग्रेस पहले ही इसके पक्ष में दिखाई दी जब 9 अगस्त 2012 को सरकार ने सदन में जोरदार हंगामे के बाद इस विधेयक को सदन में पेश करने की बात कही। हालांकि विधेयक रखे जाने से पहले प्रधानमंत्री ने अपने निवास पर 21 अगस्त 2012 को इस पर आम सहमति के लिए सर्वदलीय बैठ भी बुलाई...लेकिन ये बैठक भी बेनतीजा ही समाप्त हुई। सपा नेताओं के संविधान संशोधन विधेयक का पुरजोर विरोध करने के बाद सरकार ने 22 अगस्त को सदन में संविधान संशोधन विधेयक पेश करने की योजना टाल दी। हालांकि सरकार ने अपनी मंशा तो जाहिर कर ही दी है कि वो देर सबेर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संविधान संशोधन विधेयक लेकर आएगी...यानि की प्रमोशन में आरक्षण सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ फिर से लागू हो जाएगा। अगर ऐसा होता है तो इस मुद्दे को लेकर दो गुटों  में बंटे सरकारी कर्मचारी कैसे एक दफ्तर में एक छत के नीचे साथ काम कर पाएंगे...वो भी उस स्थिति में जब एक कर्मचारी का जूनियर उसका सीनियर हो चुका होगा...या हो जाएगा...जाहिर है इससे कर्मचारियों में कुंठा आएगी...औऱ वो अपना सौ प्रतिशत नहीं दे पाएंगे...जो वैसे भी ज्यादातर सरकारी कर्मचारी नहीं देते हैं। खैर ये तो प्रमोशन में आरक्षण लागू होने के बाद की बात है...लेकिन इसको लागू करवाने में सरकार के सामने भी मुश्किलें बहुत हैं। मनमोहन सरकार कभी नहीं चाहेगी कि सपा की नाराजगी दूर किए बगैर वो संविधान संशोधन विधेयक सदन में पेश करे...औऱ सरकार की पूरी कोशिश विधेयक को पेश करने से पहले सपा को मनाने की भी होगी। साथ ही सरकार के सामने सबसे बड़ी और मुश्किल चुनौती सरकारी कर्मचारियों का वो बड़ा गुट है जो लगातार प्रमोशन में आरक्षण का विरोध कर रहा है। इस गुट ने साफ भी कर दिया है कि अगर प्रमोशन में आरक्षण लागू होता है तो वो बिना सूचना के अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले जाएंगे। अब सरकार अगर प्रमोशन में आऱक्षण लागू करने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश करती है तो सरकार को सरकारी कर्मचारियों के इस गुट की नाराजगी झेलनी पड़ेगी जो सरकार को 2014 के आम चुनाव में भारी पड़ सकती है। ऐसे में सरकार भले ही बिल को लेकर अपनी मंशा जाहिर कर चुकी हो...लेकिन अंदरखाने इसको लेकर चिंतन जरूर चल रहा है कि आखिर वो करे तो क्या करे। बहरहाल सड़क से लेकर संसद तक जारी इस लड़ाई में किसके चेहरे पर खुशी झलकेगी और किसके चेहरे पर नाराजगी ये तो वक्त ही बताएगा...फिलहाल प्रमोशन में आरक्षण के जिन्न ने सबकी नींद जरूर उड़ाकर रखी है।

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