कैग ने संसद में कोयला आवंटन पर रिपोर्ट क्या पेश की
बवाल मच गया। रिपोर्ट पेश होने के बाद चार दिनों में प्रधानमंत्री के इस्तीफे को
लेकर विपक्ष के हंगामे के चलते संसद 4 मिनट भी नहीं चली और विपक्ष के
हंगामे के चलते सदन की कार्यवाही चार दिन तक लगातार स्थगित होती रही। सबसे बड़ा
सवाल ये है कि क्या सिर्फ हंगामा करने से किसी चीज का समाधन निकल सकता है...जाहिर
है नहीं लेकिन इसके बाद भी भाजपा ने लगातार हंगामा कर सदन को नहीं चलने दिया। ये
बात भाजपा भी अच्छी तरह से जानती है कि पीएम इस मामले पर किसी भी सूरत में इस्तीफा
नहीं देने वाले...क्योंकि प्रधानमंत्री अगर इस्तीफा देते हैं तो ये सीधे तौर पर
सरकार की हार होगी...प्रधानमंत्री की हार होगी...और ये मान लिया जाएगा कि कोयला
घोटाले में सरकारी खजाने को 1 लाख 86 हजार करोड़ रूपये का नुकसान
जानबूझकर पहुंचाया गया...और क्योंकि उस समय कोयला मंत्रालय खुद प्रधानमंत्री के
पास था तो इसके लिए प्रधानमंत्री भी जिम्मेदार हैं...ऐसे में सरकार इस मुद्दे पर
बहस के लिए तैयार होने की बात कर रही है...लेकिन भाजपा इस्तीफे की अपनी मांग पर
अड़ी हुई है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस बहस के लिए इसलिए भी तैयार हो गयी है कि
क्योंकि कांग्रेस चाहती है कि अगर हार हो तो बिना लड़े क्यों हारें...कम से कम
संसद में बहस के बहाने लड़ाई तो लड़ी ही जा सकती है...और विपक्ष के सवालों में
सरकार न उलझी तो जीतने का एक मौका तो रहेगा ही...लेकिन बिना बहस के ही
प्रधानमंत्री इस्तीफा दें दें...तो फिर ये एक तरह से साबित भी हो जाएगा कि कोयले
में दलाली तो हुई ही है। भाजपा भी चाहे तो प्रधानमंत्री के इस्तीफे की जिद छोड़ कर
बहस में हिस्सा लेकर सरकार को घेर सकती है...हो सकता है कि बहस के दौरान इस मामले
की ऐसी कई बारीकियां निकल कर सामने आ जाएं...जो उनके सवालों को और पैना कर दे...और
सरकार घिर जाए...लेकिन यहां पर ऐसा लगता है कि भाजपा अंदरखाने कुछ और ही रणनीति पर
काम कर रही है। इसको इस तरह से भी देख सकते हैं कि बीते कुछ महीने से लगातार जिस
तरह से जंतर मंतर पर लोकपाल को लेकर टीम अन्ना ने आंदोलन किया...उसके बाद 09 अगस्त से दिल्ली के
रामलीला मैदान में रामदेव ने लोकपाल, कालाधन वापस लाने और सीबीआई की
स्वायत्तता को लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला...उसके बाद से ही देशभर में
भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बना हुआ है...औऱ इन दोनों आंदोलनों में जनता की
भागीदारी ने इस बात को पुख्ता भी किया है। लोगों ने खुलकर इन आंदोलनों में हिस्सा
लिया जो कहीं न कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का जनाक्रोश था। भाजपा अध्यक्ष
नितिन गडकरी ने तो रामदेव के मंच पर जाकर आंदोलन का खुलकर समर्थन भी किया था।
भाजपा ने भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल को कहीं न कहीं भांप लिया है और ऐसे वक्त
पर भाजपा के हाथ ये मुद्दा भी लगा है...तो भाजपा शायद यही चाहती है कि मौका देख कर
चौका मार दिया जाए...यानि सरकार को इस मुद्दे पर घेरकर पूरी तरह बैकफुट पर लाया
जाए...और ऐसी स्थिति उत्पन्न की जाए ताकि देश में मध्यावधि चुनाव की नौबत आ
जाए...और लोगों के बीच यूपीए सरकार के घोटालों का ढिंढ़ोरा पीट पीटकर सत्ता की
चाबी हथिया ली जाए। भाजपा को ये लगता है कि अगर ऐसा होता है तो उसके लिए केन्द्र
की सत्ता में लौटना का इससे सुनहरा अवसर दूसरा नहीं हो सकता। इसके अलावा कोई दूसरा
कारण भाजपा की इस बालहठ के पीछे फिलहाल तो नजर नहीं आ रहा है...क्योंकि भाजपा ये
भी अच्छी तरह से जानती है कि संसद में हंगामे के कारण रोजाना करोड़ों रूपये फिजूल
बर्बाद हो रहे हैं। संसद की कार्यवाही के दौरान बात करें तो प्रति मिनट 26 हजार रूपये का खर्च आता
है...जबकि प्रति घंटा ये खर्च 22 लाख रूपये है...और पूरे दिन का खर्च 7.8 करोड़ रूपये है। यानि कि
चार दिनों तक जो संसद की कार्यवाही हंगामे की भेंट चढ़ी उसमें तकरीबन 15 करोड़ रूपये बर्बाद हुए।
सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलती तो जनकल्याण की कई योजनाओं पर चर्चा हो सकती
थी...जन कल्याण से जुड़े कई बिल पास हो सकते थे...लेकिन अफसोस ऐसा नहीं
हुआ...क्योंकि हमारे देश के राजनेताओं को जनता के हितों से शायद कोई सरोकार नहीं
है। सरोकार होता तो शायद कोयला आवंटन में घोटाला ही न होता...इससे पहले के कई
घोटाले ही नहीं होते...और संसद की कार्यवाही हंगामे की भेंट नहीं चढ़ती। उम्मीद
करते हैं हमारे राजनेता अपने राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर जनता के हितों की बात
करेंगे...जनकल्याण के लिए काम करेंगे...ताकि लोगों का विकास हो देश का विकास हो।
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