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शनिवार, 27 सितंबर 2014

18 साल- देर आए दुरुस्त आए !

23 साल पहले 1991 में जब जयललिता तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनती हैं, तो ऐलान करती हैं कि वे बतौर मुख्यमंत्री सिर्फ एक रूपया वेतन लेंगी। अमूमन किसी राजनेता के मुंह से ऐसी बात कम ही सुनने को मिलती हैं, लेकिन जब जयललिता ने ये ऐलान किया तो, इस कदम की खूब तारीफ भी हुई थी। इससे जयललिता ने न सिर्फ खुद को ईमानदार राजनेता के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की बल्कि तमिलनाडु की जनता का दिल भी जीतने की कोशिश की। लेकिन किसने सोचा था कि एक रूपए महीने वेतन लेने वाली यही जयललिता 18 साल बाद आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषी करार दी जाएंगी।
1991 में मुख्यमंत्री बनने के बाद जयललिता ने तीन करोड़ की संपत्ति घोषित की थी, लेकिन उनके पांच साल के कार्यकाल में जयललिता के पास 66.65 करोड़ की संपत्ति हो गई। अब एक रूपए महीने के वेतन में 3 करोड़ से किसी की संपत्ति 66.65 करोड़ तो हो नहीं सकती। इसी आरोप में जयललिता के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई और 18 साल पहले दर्ज एफआईआर पर 27 सितंबर 2014 को बेंगलुरू की स्पेशल कोर्ट ने जयललिता को दोषी करार देते हुए 4 साल की सजा सुनाई और 100 करोड़ रूपए का जुर्माना भी लगाया। जयललिता के घर से छापे में छापे में 28 किलो सोना, 800 किलो चांदी, 10 हजार 500 साड़ियां, 91 घड़ियां और 750 जोड़ी जूते मिले थे। साथ ही उनके पास कई मकान, फार्म हाउस और चाय बागान होने की बात भी सामने आई थी।
अब जबकि जयललिता को सजा का ऐलान हो चुका है, तो तीसरी बार तमिलनाडु की सीएम बनी उनकी कुर्सी भी छिन चली गई है। जयललिता और उनके समर्थकों के लिए ये इसलिए दिल दहला देने वाला है, क्योंकि इसी जयललिता की एआईएडीएमके ने न सिर्फ 2011 में तमिलनाडु की 234 विधानसभा सीटों में से 150 सीटों पर जीत हासिल कर तमिलनाडु में सरकार बनाई बल्कि 2014 के आम चुनाव में तमिलनाडु की सभी 37 लोकसभा सीटों पर भी जीत हासिल की है।

आय से अधिक संपत्ति मामले में जेल की हवा खाने वाले जयललिता को खुद के किए की सजा मिलने से दिल को संतुष्टि जरूर मिली है, कि भ्रष्ट राजनेता का कद चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, न्यायपालिका के सामने उसका कोई बिसात नहीं है। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए जयललिता पर बेंगलुरू की स्पेशल कोर्ट का फैसला कम से कम न्यायपालिका पर आम आदमी के विश्वास को मजबूत करने का ही काम करता है। हालांकि एक टीस भी दिल में रह गई कि इस मामले को अंजाम तक पहुंचने में 18 साल का लंबा वक्त लग गया। इन 18 सालों में जयललिता दो बार तमिलनाडु की सीएम की कुर्सी पर विराजमान भी हुई। आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है, कि इस दौरान जयललिता ने सीएम की कुर्सी पर रहते क्या कुछ नहीं किया होगा। हो सकता है, न भी किया हो लेकिन इस पर यकीन कैसे किया जाए, क्योंकि पहली बार का अनुभव आंखे खोलने के लिए काफी है। बहरहाल इतना ही कहा जा सकता है कि 18 साल बाद ही सही, देर आए दुरुस्त आए। साथ ही ये उम्मीद भी करते हैं कि जनता की देश की अदालतों में लंबित केसों के निपटारे में तेजी आएगी और समय रहते दोषियों को उनके किए की सजा मिलेगी। 

deepaktiwari555@gmail.com

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

महाराष्ट्र - दोस्त, दोस्त न रहा

दुश्मन का दुश्मन, दोस्त की कहावत को आपने सुनी ही होगी, महाराष्ट्र में 25 साल से भाजपा और शिवसेना तो 15 साल से कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन इस कहावत को चरितार्थ कर भी रहे थे। लेकिन महाराष्ट्र के आगामी विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा-शिवसेना और कांग्रेस-एनसीपी के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर चली आ रही तकरार एक ही दिन में एक ही घंटे के अंतराल में नतीजे तक पहुंच गई। नतीजा भी ऐसा कि 25 सालों से चली आ रही भाजपा-शिवसेना की राहें जुदा हो गईं तो 15 सालों का कांग्रेस और एनसीपी का साथ भी छूट गया। महाराष्ट्र की राजनीति में अच्छा खासा दखल रखने वाली चारों पार्टियों का अब कोई दोस्त नहीं है। सामने हैं तो सिर्फ चंद घंटे पहले साथ रहने वाले दोस्त से बने राजनीतिक दुश्मन, जिन्हें मात देकर ही वे महाराष्ट्र की सियासत का सरताज बन सकते हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र की सत्ता को अकेले दम पर हासिल करने का अति विश्वास शायद भाजपा, शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस चारों को ही है। शायद इसलिए ही चारों ने सियासी दोस्ती से बढ़कर सीटों को अहमियत दी और मनमाफिक सीट न मिलने पर एकला चलो की नीति अपनाने में जरा भी देर नहीं की।
चारों ही दलों को अपने सहयोगी से ज्यादा खुद पर भरोसा है, कि वे ज्यादा सीटों पर चुनाव जीत सकते हैं, शायद इसलिए ही वे ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते थे। लेकिन सवाल ये उठता है कि जो महाराष्ट्र की राजनीति में अब तक नहीं हुआ क्या अब संभव हो पाएगा..?
क्या जो पार्टी, चाहे वो भाजपा हो, शिवसना हो, कांग्रेस हो या फिर एनसीपी अपने कोटे की सीटों में से भी आधिकतर सीटों पर जीत हासिल न कर पाई हों, वह सभी सीटों पर चुनाव लड़ते हुए अकेले दम पर सरकार बनाने की स्थिति में आ सकती हैं…? (पढ़ें- चरम पर तकरार लेकिन सपना महाराष्ट्र में सरकार !)
क्या जो जनता पहले गठबंधन के नाम पर सहयोगी पार्टी को वोट देने में पीछे नहीं हटती थी, वो एकला चलो की राह पर निकली इन पार्टी के उम्मीदवारों पर इतना भरोसा कर पाएंगी कि वे विधानसभा पहुंच जाएं..?
क्या गठबंधन के नाम पर एकजुट होने वाला वोटबैंक, एकला चलने पर सिर्फ एक ही तरफ झुकेगा, जैसे होता आया है या फिर नहीं..?
जीत के भरोसे पर याराना खत्म करना शायद आसान काम है, लेकिन उस भरोसे का भरोसा जनता को दिलाना और अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में आना इतना आसान काम नहीं है, लेकिन चारों ही प्रमुख दलों को लगता है कि वे जनता का भरोसा जीतने में कामयाब हो जाएंगे।
अकेले सभी 288 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए भले ही ज्यादा सीटें जीतने की उम्मीदें पाल बैठे हैं, लेकिन चारों ही पार्टियां ये भूल रही हैं कि उऩ्होंने अपनी जीत की राह में एक और बीज को खुद ही बोया है, जो उनका महाराष्ट्र की सत्ता में काबिज होने के ख्वाब को चकनाचूर कर सकता है, जिसकी बहुत ज्यादा संभावना भी साफ दिखाई दे रही है।
बहरहाल महाराष्ट्र की राजनीति क्या करवट लेगी ये तो 19 अक्टूबर को महाराष्ट्र के चुनावी नतीजे आने के साथ ही साफ हो जाएगा लेकिन इस सब के आधार पर इतना अनुमान लगाना कठिन तो नहीं है, कि अगर महाराष्ट्र की जनता ने भावनाओं में बहकर अपने मताधिकार का प्रयोग किया तो उन्हें बहुत जल्द एक और चुनाव उनके स्वागत में तैयार बैठा मिलेगा, जिसके खर्च का बोझ भी जनता की ही जेब से निकलेगा। फिलहाल तो हम सभी दलों को शुभकामनाएं दे सकते हैं और महाराष्ट्र की जनता से ये उम्मीद कर सकते हैं कि वे बेहतर प्रत्याशियों को चुनेंगे और महाराष्ट्र में एक स्थिर सरकार के लिए वोट करेंगे।


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बुधवार, 24 सितंबर 2014

मंगलयान- अभी तो ये शुरुआत है

दिन बुधवार का था और मन में अमंगल का डर था, लेकिन उससे भी ज्यादा बलवती थी, मंगल की उम्मीद। ये उम्मीद रंग भी लाई और बुधवार को सुबह आठ बजे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) का मार्स आर्बिटर मिशन यानि मंगलयान जैसे ही मंगल की कक्षा में दाखिल हुआ सब मंगल ही मंगल हो गया। अमंगल का डर पीछे छूट चुका था, और भारतीय वैज्ञानिकों की मेहनत ने भारत को दुनिया का सरताज बना दिया। पहले ही प्रयास में मंगल की कक्षा में मंगलयान का प्रवेश करने पर भारत विश्व बिरादरी के सामने क्यों न इतराता।
इतराए भी क्यों न, जिस मिशन को विश्व महाशक्ति अमेरीका और रूस जैसे देश तक अपने पहले प्रयास में नहीं साध पाए, उसे भारतीय वैज्ञानिकों ने साकार कर दिखाया। अमेरिका इस उपलब्धि को सात प्रयास में हासिल कर पाया तो एशिया के शक्तिशाली देश चीन और जापान के लिए इस उपलब्धि को हासिल करना अभी भी किसी सपने की तरह है। भारत की ये कामयाबी इसलिए भी अहम हो जाती है, क्योंकि मंगल के 51 मिशनों में से अब तक सिर्फ 21 ही कामयाब हो पाए हैं औऱ भारत से पहले इस कामयाबी को सिर्फ अमेरिका, रूस और यूरोप ही हासिल कर सके हैं। खास बात ये है कि भारत ने इस काम के लिए कुल 450 करोड़ रूपए खर्च किए जो कि अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के मंगलयान मावेन की लागत का करीब दसवां हिस्सा है।
भारत के वैज्ञानिकों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि उनका कोई सानी नहीं है और वे चाहें तो असंभव को भी संभव कर सकते हैं। मार्स आर्बिट मिशन इसकी एक ताजा मिसाल है। भारतीय वैज्ञनिकों के इस कमाल के साथ ही 24 सितंबर 2014 की तारीख सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो चुकी है। पहले ही प्रयास में सफलता मिलने से न सिर्फ अंतरिक्ष में भारत का रूतबा बढ़ा है,  बल्कि इसने अंतरिक्ष में भारत की नई उम्मीदों को भी पंख लगाए हैं। जाहिर है, इस मिशन की सफलता से इसरो से भारतीयों की उम्मीदें और भी बढ़ गयी हैं। उम्मीद करते हैं कि पहले ही प्रयास में मंगलयान को मंगल की कक्षा में स्थापित करने में सफलता हासिल कर विश्व बिरादरी में अपना लोहा मनवाने वाले भारतीय वैज्ञानिक भविष्य में भी भारतवासियों को गर्व करने का मौका देंगे और सफलता की नई कहानियां लिखेंगे। मंगलयान मिशन के लिए इसरो की टीम को बधाई और भविष्य की चुनौतियों को पार करने के लिए ढ़ेरों शुभकामनाएं।

deepaktiwari555@gmail.com 

सोमवार, 22 सितंबर 2014

चरम पर तकरार लेकिन सपना महाराष्ट्र में सरकार !

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में भाजपा-शिवसेना और कांग्रेस-एनसीपी में सियासी गठजोड़ में सीटों के बंटवारे को लेकर रार थमने का नाम नहीं ले रही है। हैरत की बात है कि महाराष्ट्र में 288 विधानसभा सीटों के लिए मतदान 15 अक्टूबर को होना है और किस्मत का फैसला 19 अक्टूबर को होगा, लेकिन भाजपा-शिवसेना और सत्तधारी कांग्रेस-एनसीपी गंठबंधन के नेताओं की जिद और आचरण से तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो जनादेश उनके पक्ष में आ चुका है। ये जीत का अति विश्वास है या फिर कुछ और ये तो भाजपा-शिवसेना और एनसीपी-कांग्रेस के नेता ही जानें, लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर किसी भी हद तक जाने को तैयार इन सियासी सूरमाओं को नहीं भूलना चाहिए कि महाराष्ट्र की जनता इस सियासी नौटंकी को बखूबी देख और समझ भी रही है। (जरूर पढ़ें - महाराष्ट्र - कायम रहेगा याराना !)
सीटों पर समझौता न होने की स्थिति में अकेले सभी 288 विधानसभा सीटों पर लड़ने और अपनी-अपनी जीत के प्रति आश्वस्त दिखाई दे रहे ये नेता दावा कर रहे हैं कि आगामी चुनाव में जीत का सेहरा उनके ही सिर बंधेगा लेकिन महाराष्ट्र का सियासी सफरनामा बताना है कि कौन कितने पानी में है। इस सब के लिए ज्यादा पीछे जाने की भी जरूरत नहीं है। सिर्फ 2009 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो समझ में आता है कि इनके दावों में कितना दम है।
2009 में साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर भाजपा-शिवसेना गठबंधन में भाजपा ने 119 सीटों पर ताल ठोकी तो शिवसेना ने 160 सीटों पर अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे। लेकिन भाजपा 119 में से महज 46 सीटों पर ही फतह हासिल कर पाई तो शिवसेना तो 160 सीटों में से सिर्फ 44 पर ही जीत दर्ज कर पाई। ये वो आईना है जो 2009 में जनता ने भाजपा और शिवसेना को दिखाया था। अब जरा नजर जीत की शेखी बघार रहे कांग्रेस और एनसीपी पर भी डाल लेते हैं। 2009 में कांग्रेस और एनसीपी ने मिलकर सरकार जरूर बनाई लेकिन चुनाव लड़ने वाली सीटों की संख्या की तुलना में जीतने वाली सीटों की संख्या का अंतर अच्छा खासा था। 170 सीटों पर लड़ते हुए कांग्रेस 82 सीटें जीत पाई तो 113 सीटों पर लड़ने वाली एनसीपी 62 सीटों पर। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव लड़ने वाला कोई भी राजनीतिक दल सभी सीटों पर जीत दर्ज कर पाए लेकिन लड़ने और जीतने वाली सीटों में अंतर की संख्या जब ज्यादा हो तो समझ लेना चाहिए कि स्थितियां बहुत ज्यादा उनके पक्ष में नहीं रहीं। रहीं होती तो शायद ये अंतर अपेक्षाकृत कम होता। महज 10 से 15 सीटों के लिए ऐसे वक्त पर लड़ना, जब चुनाव की तारीखें सिर पर हों, तो इसे कहीं से समझदारी नहीं कहा जा सकता, फिर चाहे वो भाजपा-शिवसेना हों या फिर कांग्रेस-एनसीपी। 10-15 सीटों का झमेला छोड़ आपसी समझ से शायद ये अपने चुनावी कैंपेन पर ध्यान लगाते तो शायद जीतने वाली सीटों की संख्या बढ़ाने में कामयाब हो सकते थे, लेकिन चंद सीटों के लिए इस तरह लड़ना कहीं न कहीं अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारने सरीखा है। जाहिर है मतभेद और मनभेद के बाद अलग – अलग चुनाव लड़ना न तो भाजपा-शिवसेना के लिए फायदेमंद हैं और न ही कांग्रेस – एनसीपी के लिए। वो भी ऐसे राज्य में जहां पर ये चारों ही राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं के लिए नई नहीं हैं और अच्छी खासी पैठ भी रखती हैं। (जरूर पढ़ें - भाजपा - खुमारी अभी बाकी है !)
निश्चित तौर पर दोनों ही गठबंधनों का टूटना इन सियासी दलों के साथ ही महाराष्ट्र की जनता के लिए भी शुभ संकेत नहीं है। मतलब साफ है कि 288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में अलग – अलग लड़ने की स्थिति में पूर्ण बहुत पाना किसी भी दल के लिए लगभग नामुमकिन होगा। नतीजा त्रिशंकु विधानसभा होगी महाराष्ट्र की जनता को एक और चुनाव का सामना करना पड़ेगा, जिसका मतलब करोड़ों रूपए का बोझ किसी न किसी कर के रूप में जनता के सिर ही थोपा जाएगा।
दरअसल इस चुनाव में असल परीक्षा महाराष्ट्र की जनता की भी है कि वे किसी एक दल को चुनकर स्थाई सरकार का निर्माण करने की ओर कदम बढ़ाते हैं, या फिर अपने निजी हितों को साधने के लिए आपस में ही भिड़ने वाले इन सियासी दलों के नेताओं पर भरोसा करते हुए जाति और संप्रदाय के आधार पर वोट करते हुए महाराष्ट्र को एक और चुनाव की ओर धकेलती है। बहरहाल सीटों के बंटवारे को लेकर नूरा कुश्ती जारी है, देखना ये होगा कि ये नूरा कुश्ती कहां पर जाकर थमती है।


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