गुवाहाटी हाईकोर्ट
ने सीबीआई को असंवैधानिक क्या करार दिया सीबीआई की जांच के घेरे में आए नेताओं को
तो मानो मुंह मांगी मुराद मिल गयी। बीते दिनों सर्वोच्च न्यायालय के नेताओं के
राजनीतिक भविष्य पर विराम लगाने संबंधी फैसले से दहशत में आए जो नेता कल तक न्यायालय
को पानी पी पीकर कोस रहे थे। वही नेता अब गुवाहाटी हाईकोर्ट के एक फैसले से फूले
नहीं समा रहे हैं। आखिर इस फैसले ने उनके लिए सीबीआई के शिकंजे से बाहर निकलने का
एक रास्ता जो तैयार कर दिया है।
हाईकोर्ट ने कहा कि सीबीआई
का गठन कुछ वक्त के लिए गृह मंत्रालय के प्रस्ताव के जरिए किया गया था। 1 अप्रैल 1963 का वो प्रस्ताव न तो
केंद्रीय कैबिनेट का फैसला था और न ही उसे राष्ट्रपति की मंज़ूरी थी। लिहाजा वो
विभागीय आदेश के अलावा कुछ भी नहीं है। ऐसे में DSPE एक्ट,
1946 के
तहत सीबीआई पुलिस फोर्स की तरह बर्ताव नहीं कर सकती। हाईकोर्ट ने कहा है कि
सीबीआई पुलिस फोर्स नहीं है, लिहाजा न तो वह जांच कर सकती है और न ही चार्जशीट दाखिल
कर सकती है।
2जी मामले में आरोपी
पूर्व संचार मंत्री ए राजा समेत कई आरोपियों ने तो इस आदेश के हवाला देते हुए उनके
खिलाफ अदालती कार्यवाही रोकने की तक मांग कर डाली। कांग्रेस नेता सज्जन कुमार ने
भी 84 दंगों में अपने खिलाफ दाखिल सीबीआई की चार्जशीट और जांच को गैरकानूनी करार
देने की मांग की है। चारा घोटाले में जेल की हवा खा रहे लालू प्रसाद यादव की पत्नी
राबड़ी देवी भी गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले का स्वागत करती दिखाई दे रही हैं।
जाहिर है सीबीआई की
जांच के घेरे में मौजूद सभी लोगों के लिए गुवाहाटी हाईकोर्ट का फैसला संजीवनी की
तरह आया और इसे भुनाने की कवायद भी इन लोगों ने शुरु कर दी थी लेकिन इनकी ये खुशी
ज्यादा देर तक नहीं रह सकी और केन्द्र की अर्जी पर सर्वोच्च न्यायालय ने गुवाहाटी
हाईकोर्ट के फैसले पर 6 दिसंबर तक रोक लगा दी। गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले ने
केन्द्र सरकार की नींद उड़ा दी थी ऐसे में इस फैसले के खिलाफ आनन फानन में केन्द्र
ने इस फैसले पर रोक के लिए सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल कर दी ताकि कई अहम
मामलों में सीबीआई जांच में कोई रुकावट न आए।
करीब 2500 जांच
अधिकारियों समेत करीब 6000 कर्मचारियों वाली सीबीआई हर साल करीब 1000 केसों की
जांच करती है, जिनमें से 66 प्रतिशत केस सिर्फ भ्रष्टाचार के ही होते हैं। गुवाहाटी
हाईकोर्ट का फैसला निश्चित तौर पर इन केसों को प्रभावित करता और भ्रष्टाचारियों को
कुछ हद तक राहत मिलती और उनके हौसले बुलंद होते ऐसे में सरकार का सुप्रीम कोर्ट जाना तो लाजिमी ही
था। सीबीआई
को सर्वोच्च न्यायालय से फिलहाल संजीवनी तो मिल गयी है लेकिन गुवाहाटी हाईकोर्ट के
फैसले ने सीबीआई के अस्तित्व पर सवाल तो खड़े कर ही दिए हैं। हैरत की बात तो ये
है
कि सीबीआई जिसे देश की सबसे बड़ी व विश्वसनीय जांच एजेंसी का
तमगा प्राप्त है, वह कभी इस विश्वास को कायम ही नहीं रख पाई। सीबीआई
पर सियासी दबाव में काम करने के आरोप लगते रहे तो राजनीतिक दलों पर भी अपने सियासी
फायदे के लिए सीबीआई का इस्तेमाल करने के आरोप लगे। केन्द्र सरकारें भले ही इसे नकारते रहे हों
लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का सीबीआई को पिंजरे में बंद तोते की उपाधि से नवाजना और खुद सीबीआई
निदेशक का एजेंसी पर सरकार के दवाब को स्वीकार करना सीबीआई की विश्वसनीयता पर सवाल
खड़े करता रहा है, लेकिन इस बार तो सीबीआई के अस्तित्व पर ही हाईकोर्ट ने
सवाल खड़े कर दिए हैं।
सीबीआई
की जांच की धीमी रफ्तार कहें या फिर जांच में बाहरी दखल का असर पिछले पांच सालों
में सीबीआई ने 300 से ज्यादा केसों की जांच को इसलिए रोक दिया क्योंकि उनकी तय
डेडलाइन पूरी हो चुकी थी। इसके अलावा ऐसे केसों की फेरहिस्त भी लंबी है जिनमें
सालों से सिर्फ जांच ही चल रही है। हालांकि सीबीआई ने केसों की जांच रफ्तार को तेज
करने के लिए इसकी तय समय सीमा को दो से घटाकर एक साल कर दिया लेकिन इसके बाद भी
सीबीआई के पास लंबित केसों की लंबी फेरहिस्त मौजूद है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि
सीबीआई कितने दबाव में काम करती है और कितनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता से कार्य कर
रही है। इसके पीछे एक वजह जांच अधिकारियों और अन्य स्टॉफ की कमी भी हो सकती है
लेकिन सिर्फ यही एक वजह का होना समझ में तो बिल्कुल नहीं आता।
बहरहाल आड़े मौके पर सीबीआई
को ढाल बनाकर खुद को बचाने वाली सरकार अब सीबीआई को कैसे बचाती है ये तो 6 दिसंबर को ही सामने आएगा जब
सरकार सर्वोच्च न्यायालय में सीबीआई को संवैधानिक ठहराने के लिए अपनी दलीलें पेश
करेगी।
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