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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

दिल्ली गैंगरेप- यार ये लड़की ऐसी ही होगी !


बात आज सुबह की ही है...एक तरफ दिल्ली में राजपथ पर गैंगरेप के विरोध में हजारों युवाओं का आक्रोश अपने चरम पर था और पीड़ित को इंसाफ दिलाने के लिए युवा किसी भी हद को पार करने के लिए तैयार थे...दूसरी तरफ एक वाक्या जो मेरे सामने घटित हुआ वो वाकई में सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या इंसाफ की मांग को लेकर...आरोपियों की फांसी की मांग को लेकर जो हजारों युवा किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं...उनका आक्रोश क्या दोबारा ऐसी ही घटनाओं को होने से रोकने के लिए काफी है ? क्या वाकई में ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं होंगी ? एक राष्ट्रीय समाचार चैनल पर राजपाथ पर युवाओं का आक्रोश देखने के बाद कुछ देर के लिए घर के पास ही एक बार्बर की शॉप पर मैं सेविंग करवाने पहुंचा। अपनी बारी का इंतजार कर रहा था इसी बीच वहीं पहुंचे दो युवाओं की बातों ने अंदर तक झकझोर के रख दिया था। दोनों की जुबान पर भी दिल्ली गैंगरेप की चर्चा थी...लेकिन सोच का फर्क साफ दिखाई दिया। घटना को याद करते हुए उनमें से एक युवा दिल्ली गैंगरेप पीड़ित के बारे में अभद्र टिप्पणी करता है। वो अपने साथी से कहता है कि यार वो लड़की ऐसी ही रही होगी...ऐसी लड़कियों के साथ ऐसा ही होना चाहिए। मैंने इस पर आपत्ति जताई और उनसे कहा कि कैसे आप किसी के लिए ऐसा सोच सकते हो वे उल्टा इस पर बहस करने लगे और अपनी बात को सही ठहराने लगे। इस वाक्ये से कई सवाल जेहन में उठते हैं जिनका जवाब ढ़ूंढा जाना बेहद जरूरी है...मसलन क्या सिर्फ कड़े कानून बनाए जाने से और आरोपियों को फांसी देने से देशभर में सड़कों पर आक्रोश जताना इस बात की गारंटी होगी कि आगे कोई और लड़की इस तरह के वहशीपन का शिकार नहीं होगी...या कोई और बलात्कार किसी लड़की के साथ नहीं होगा ? क्या इस सब से इंसानों के बीच में समाज में रह रहे भेड़िए जो मौका मिलते ही इस वहशीपन को अंजाम देते हैं उनकी सोच में उनकी मानसिकता में बदलाव आ पाएगा ? जाहिर है सिर्फ कानून कड़े करने से...आरोपियों को सख्त से सख्त सजा देने से ऐसे अपराध नहीं रूकेंगे और समय समय पर ऐसी घटनाएं जो कि दुर्भाग्यपूर्ण हैं आगे भी घटित होती रहेंगी। जब तक लोगों की सोच में बदलाव नहीं आएगा...उनकी मानसिकता में बदलाव नहीं आएगा ऐसे अपराधों को रोकना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। ये घटिया सोच नहीं तो और क्या है कि जहां एक तरफ दिल्ली में लड़की के साथ हुए वहशीपन के खिलाफ देश सड़कों पर उतरकर अपना आक्रोश जता रहा था तो दूसरी तरफ कुछ ऐसी सोच वाले लोग भी थे जो इस वहशीपन के लिए भी पीड़ित को ही जिम्मेदार ठहरा रहे थे। जब तक ये सोच नहीं बदलेगी हालात नहीं सुधरेंगे और आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर अंदर तक झकझोर देने वाले दिल्ली गैंगरेप जैसे जघन्य कृत्य आगे हमें सुनने को मिलें...क्योंकि हमारे समाज में ऐसे लोग मौजूद हैं जो लड़कियों/महिलाओं को सिर्फ और सिर्फ सेक्स की नजरों से देखते हैं और मनोरंजन का सामान समझते हैं और ये वही लोग हैं जो कभी गुवाहाटी में तो कभी दिल्ली में न सिर्फ महिलाओं की ईज्जत को तार – तार करते हैं बल्कि उनका जीवन नर्क बना देते हैं। ये लोग इतना तक नहीं सोचते कि जिसने इनको जन्म दिया है वो भी एक महिला है औऱ इनके घर में भी मां-बहनें हैं...काश ये चीजें इनको समझ में आती। आखिर मैं कहना चाहूंगा कि दिल्ली गैंगरेप पीड़ित को जल्द से जल्द इंसाफ मिले और इस जघन्य कृत्य को अंजाम देने वाले आरोपियों के लिए फांसी की सजा भी कम होगी क्योंकि फांसी से उन्हें तो एक बार में मौत मिल जाएगी...लेकिन इन आरोपियों ने पीड़ित को जो जख्म दिए हैं वो शायद ही कभी भर पाएंगे।

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गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

मोदी पीएम बनें न बनें राहुल गांधी जरूर बनेंगे


2014 का सेमिफाइनल माने जा रहे गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों ने जहां गुजरात में भाजपा को मुस्कुराने की वजह दे दी है तो हिमाचल में कांग्रेसियों के चेहरे चमक रहे हैं। ये चुनाव अपने आप मे काफी अहम थे और नतीजे आने से पहले नरेन्द्र मोदी की हैट्रिक की बातें तो की ही जा रही थी...लेकिन मोदी के साथ ही एक और चेहरा इस चुनाव के नतीजों के बाद से चर्चा में है...जिसने गुजरात चुनाव में मोदी के साथ ही एक अनोखी हैट्रिक पूरी की है। ये शख़्स और कोई नहीं बल्कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी हैं...जिन्होंने बिहार और उत्तर प्रदेश के बाद गुजरात में भी हैट्रिक पूरी की लेकिन ये हैट्रिक जीत की नहीं बल्की हार की है। बिहार और यूपी के बाद गुजरात में भी राहुल गांधी का जादू नहीं चला और मोदी के कद के आगे राहुल गांधी बौने नजर आए। मोदी और राहुल दोनों की हैट्रिक के साथ ही दोनों में एक बात और खास है कि गुजरात में जीत की हैट्रिक लगाने वाले मोदी भी 2014 में प्रधानमंत्री की कुर्सी के प्रबल दावेदार हैं और गुजरात चुनाव के नतीजों के बाद हार की हैट्रिक लगाने वाले कांग्रेस युवराज राहुल गांधी भी इस कुर्सी के प्रबल क्या कांग्रेस में एकमात्र दावेदार हैं। यहां पर राजनीति का गणित देखिए जीत के हैट्रिक लगाने वाले मोदी की राहें...हार की हैट्रिक लगाने वाले राहुल गांधी से कहीं ज्यादा कठिन है। 2014 में पीएम की कुर्सी के लिए अपने दम पर गुजरात में भाजपा को सत्ता में लाने वाले मोदी के नाम पर जहां उनकी पार्टी के नेताओं में ही आम राय नहीं हैं तो वहीं राहुल गांधी के तमाम राजनीति के टेस्ट में फेल होने के बाद भी कांग्रेस में हर कोई नेता राहुल गांधी के गुणगान करते नहीं थकता और राहुल को ही कांग्रेस में पीएम की कुर्सी का सर्वश्रेष्ठ दावेदार बताता है...अब इसके पीछे क्या वजह है ये तो आप अच्छे से समझते ही होंगे। कुल मिलाकर देखा जाए तो एक बात तो तय है कि नरेन्द्र मोदी जीत की हैट्रिक लगाने के बाद भी कभी प्रधानमंत्री बनें या न बनें...लेकिन कांग्रेस युवराज जरूर एक दिन प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जरूर विराजेंगे...चाहे आगे भी कितने ही टेस्ट में राहुल फेल क्यों न हो जाएं।
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मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

24 घंटे में 66 बलात्कार


भूख के कई रूप हैं...एक है पेट की भूख...जो इंसान को कुछ भी करने को मजबूर कर देती है...कुछ लोग इस भूख को नजरअंदाज करने की कोशिश करते हैं लेकिन बार बार लौट पर आने वाली भूख कई बार इंसान पर भारी पड़ती है और आखिर में इंसान को ही खा जाती है...भारत में हर रोज भूख से होने वाली होने वाली करीब 5 हजार मौतें ये बताने के लिए काफी है। भूख का एक और रूप है जो इंसान की जान तो नहीं लेता लेकिन जिस पर ये भूख टूटती है वो एक जिंदा लाश बनकर रह जाती है। उसे अपना जीवन खुद पर बोझ लगने लगता है...और कई बार हमने देखा है कि इस भूख की शिकार महिलाएं, युवतियां इस बोझ को नहीं ढ़ो पाती और खुद मौत को गले लगा लेती हैं। भूख के इस दूसरे रूप को हवसके नाम से भी जाना जाता है। दिल्ली रविवार रात चलती बस में जो हुआ वो भूख का ही दूसरा रूप था या कहें कि एक वहशीपन था जिसे कोई शैतान ही अंजाम दे सकता है। पुलिस ने भले ही 6 में से 4 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया हो...और माना इनको सजा भी हो जाएगी...क्योकि इन्होंने जघन्य अपराध किया है...लेकिन जिस लड़की के साथ ये घटित हुई या होती आयी है...उसे तो दोषियों से भी बड़ी सजा मिलती है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर कब तक इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी और आखिर क्यों हर बार पुलिस और सरकार इन घटनाओं के होने के बाद ही हरकत में आती हैं और इन घटनाओं को रोकने के लिए इस पर मंथन होता है ? देश में पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं लेकिन सवाल वहीं का वहीं है कि उसके बाद की जाने वाली बड़ी बड़ी बातें सिर्फ बातों तक ही सीमित रह जाती हैं और उन पर अमल नहीं होता और इसका नतीजा ये होता है कि कुछ अंतराल के बाद ऐसी ही घटनाओं की गूंज तन बदन को झकझोर कर रख देती है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के सिर्फ 2011 के आंकड़ों पर ही नजर डाल लें तो तस्वीर काफी हद तक साफ हो जाती है कि आखिर महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं। महिलाओं के साथ बलात्कार, शारीरिक उत्पीड़न और छेड़छाड़ के साथ ही महिलाओं के अपहरण और घर में पति या रिश्तेदारों के उत्पीड़न के मामलों की लिस्ट काफी लंबी है। साल 2011 में हर रोज 66 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुई। एनसीआरबी के अऩुसार 2011 में बलात्कार के 24 हजार 206 मामले दर्ज हुए जिनमें से सजा सिर्फ 26.4 फीसदी लोगों को ही हुई जबकि महिलाओं के साथ बलात्कार के अलावा उनके शारीरिक उत्पीड़न, छेड़छाड़ के साथ ही उनके उत्पीड़न के 2 लाख 28 हजार 650 मामले दर्ज किए गए जिसमें से सजा सिर्फ 26.9 फीसदी लोगों को ही हुई। ये वो आंकड़ें हैं जिनमें की हिम्मत करके पीड़ित ने दोषियों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई...इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि असल में ऐसी कितनी घटनाएं घटित हुई होंगी क्योंकि आधे से ज्यादा मामलों में पीड़ित समाज में लोक लाज या फिर दबंगों के डर से पुलिस में शिकायत ही नहीं करती या उन्हें पुलिस स्टेशन तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है। सबसे बड़ी बात ये है कि आंकड़ें इस पर से पर्दा हटाते हैं कि इन मामलों में कार्रवाई का प्रतिशत सिर्फ 25 है...यानि कि 75 फीसदी मामले में या तो आरोपी बच निकले या फिर ये मामले सालों तक कोर्ट में लंबित पड़े रहते हैं और आरोपी जमानत पर खुली हवा में सांस ले रहा होता है। शायद यही वजह है कि इंसान के रूप में समाज में घूम रहे ऐसे वहशी दरिंदे कानून की इन खामियों का फायदा उठाते हैं और सरेआम ऐसे जघन्य अपराध करने से भी नहीं चूकते क्योंकि वे उन्हें लगता है कि आसानी से कानून की इन खामियों का फायदा उठाकर वे बच निकलेंगे। मैंने अपने आसपास कुछ महिलाओं और लड़कियों से ऐसे अपराधियों को सजा देने पर उनकी राय जाननी चाही तो उनके चेहरा जवाब देते वक्त गुस्से से लाल था और उनके मन से जो आवाज निकली वो थी कि ऐसे अपराधियों का जिंदा रहना समाज के हित में नहीं है और इन्हें मौत की सजा की सबने वकालत की। कोई चौराहे पर फांसी देने की बात कह रही थी तो कोई सरेआम गोलियों से भून देने की बात कर रही थी। संसद में दिल्ली गैंगरेप के बाद ऐसे आरोपियों को फांसी की सजा देने की बात उठी और गृहमंत्री ने भी सख्त से सख्त कार्रवाई का भरोसा तो दिलाया है...लेकिन इसके बाद भी सच ये है कि महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही हैं। जरूरत इस बात कि है कि दिल्ली की इस घटना के बाद जो बड़ी बड़ी बातें की जा रही हैं...सरकार के साथ ही पुलिस भी उन पर अमल करे और इन घटनाओं को रोकने के साथ ही महिलाओं की सुरक्षा के लिए सरकार गंभीर कदम उठाने पर तत्काल फैसला ले। इसके साथ ही बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा देने के प्रावधान पर सरकार पूरी गंभीरता से विचार करे...एक ऐसी सजा जिसके बारे में सोचने पर ही अपराध करने से पहले अपराधी हजार बार सोचे।

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सोमवार, 17 दिसंबर 2012

दो गेंदबाजों ने लगाई टीम इंडिया की वॉट


भारत और इंग्लैंड के बीच टेस्ट सीरीज शुरु होने से पहले इसे बदले की सीरीज कहा जा रहा था क्योंकि 2011 में इंग्लैंड के दौरे पर गई टीम इंडिया को अंग्रेजों ने टेस्ट सीरीज में 4-0 से करारी मात दी थी। भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को उम्मीद थी कि भारत अंग्रेजों को 4-0 से मात देकर 2011 की हार का बदला ले लेगा। सीरीज शुरु हुई तो अहमदाबाद टेस्ट में भारत की 9 विकेट से जीत के बाद ये लगने भी लगा था। लेकिन मुंबई में लय में लौटे अंग्रेजों ने भारत को 10 विकेट से करारी मात देकर न सिर्फ सीरीज में जोरदार वापसी की बल्कि भारतीय खिलाड़ियों की अहमदाबाद जीत की खुमारी भी उतार दी। कोलकाता में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला और अंग्रेजों ने भारत को 7 विकेट से हराकर सीरीज में 2-1 की बढ़त बना ली जो निर्णायक भी साबित हुई। पुजारा पहले और दूसरे टेस्ट मैच में तो दीवार बने लेकिन बाद के दो टेस्ट मैच में अंग्रेजों ने पुजारा का भी तोड़ ढ़ूंढ लिया। नागपुर टेस्ट में कोहली और धोनी का बल्ले की खामोशी तो टूटी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और अंग्रेज भारत के सीरीज जीतने के सपने को चकनाचूर कर चुके थे। भारतीय गेंदबाज स्पिन खेलने में परांगत कहे जाते हैं लेकिन पूरी सीरीज में यही भारतीय बल्लेबाज अपने घर में ही अंग्रेज स्पिनरों के आगे घुटने टेकते नजर आए। पूरी सीरीज में सिर्फ दो अंग्रेज स्पिनरों ने भारतीय बल्लेबाजों पर कैसे नकेल कसी इसका अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि पनेसर और स्वान ने मिलकर सीरीज के 4 टेस्ट मैचों में 37 विकेट झटके जिसमें से स्वान ने 4 मैचों में 20 तो पनेसर ने 3 मैच में 17 विकेट झटके। यानि कि स्पिन गेंदबाजों को खेलने में महारत हासिल रखने वाले भारतीय बल्लेबाज स्वान और पनेसर की फिरकी में ऐसे उलझे की एक के बाद एक पवेलियन लौटते चले गए। सिर्फ दो स्पिन गेंदबाजों ने ही भारतीय टीम की वॉट लगा के रख दी। बाउंस होती विदेशी पिचों पर भारतीय बल्लेबाज सीमर्स को नहीं खेल पाते ये तो समझ में आता था लेकिन अपने ही देश में घरेलु परिस्थितियों में फिरकी में उलझ जाना ये समझ से परे है। स्वान और पनेसर के अलावा तेज गेंदबाज एंडरसन के आगे भी भारतीय बल्लेबाज संघर्ष करते नजर आए। हालांकि एंडरसन 4 टेस्ट मैच में सिर्फ 12 ही विकेट ले सके लेकिन अंग्रेजों की जीत में एंडरसन की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। स्वान, पनेसर और एंडरसन ने पूरी सीरीज में 49 विकेट लेकर 28 साल बाद भारत में अपनी टीम की सीरीज जीत की पटकथा लिख दी थी। जबकि भारत के 5 फिरकी गेंदबाज ओझा, अश्विन, हरभजन, चावला और जडेजा पूरी सीरीज में अंग्रेजों के सिर्फ 43 विकेट ही ले सके। भारतीय बल्लेबाज जिस पिच पर ताश के पत्तों की तरह ढ़हते नजर आए उसी पिच पर अंग्रेज बल्लेबाजों ने जिस तरह बल्लेबाजी कि उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। खासकर अंग्रेज कप्तान कुक ने पूरी सीरीज में जो बल्लेबाजी की वो वाकई में दर्शनीय थी। हालांकि पीटरसन, ट्राट, कॉम्पटन और बेल ने भी जरूरत के वक्त अपने बल्ले की चमक बिखेरी और इंग्लैड का भारत में 28 साल बाद सीरीज जीतने के सपने को पूरा किया। कुल मिलाकर देखा जाए तो अंग्रेज खिलाड़ियों ने एक संगठित टीम की तरह खेल दिखाया औऱ सभी खिलाड़ियों ने हर मैच में अपना पूरा योगदान दिया...और नतीजा सबके सामने हैं...जबकि भारतीय टीम में ये कमी साफ तौर पर नजर आई। भारत की हार के बाद आलोचनाओं का बाजार गर्म है और टीम के पोस्टमार्टम के साथ ही धोनी की कप्तानी पर भी सवाल उठने लगे हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि चयनकर्ताओं को अपने चयन पर सोचने के साथ ही कुछ कड़े फैसले लेने का साहस जुटाना चाहिए ताकि ये मिथक टूटे की भारतीय चयनकर्ता खिलाड़ी के प्रदर्शन नहीं बल्कि खिलाड़ी के कद को देखकर टीम का चयन करते हैं। साथ ही हर खिलाड़ी को अपने प्रदर्शन का आत्म अवलोकन करना चाहिए कि क्या वाकई में उसने अपने नाम के अनुरुप प्रदर्शन किया है ?

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शीला जी दिल्ली में भूख से क्यों होती है मौत ?


दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित कहती हैं कि 5 लोगों का परिवार 600 रूपए महीने में पेट आसानी से भर जाता है...यानि की शीला जी के अनुसार सिर्फ 4 रूपए में एक व्यक्ति का पेट भर जाता है। ये बयान उस शीला दीक्षित का है जिनके राज में दिल्ली में हर हफ्ते एक व्यक्ति भूख की वजह से दम तोड़ देता है। दिल्ली में कांग्रेस सरकार के 14 साल के कार्यकाल में 737 लोगों की मौत की वजह भूख और गरीबी रही। ये जानकारी एक आरटीआई के जवाब में दिल्ली पुलिस मुख्यालय ने ही दी है। लेकिन शीला जी कहती हैं कि 4 रूपए में एक आदमी आसानी से दाल रोटी खा सकता है...अगर शीला जी ऐसा होता तो आपकी दिल्ली में कम से कम भूख से तो कोई मौत नहीं होनी चाहिए। आपकी दिल्ली में ही क्यों भारत में भूख से कोई मौत नहीं होनी चाहिए जहां विश्व के करीब 95 करोड़ भूखे लोगों में से करीब 45 करोड़ भारत में ही हैं। क्योंकि 4 रूपए का जुगाड़ तो आदमी मेहनत, मजदूरी करके या फिर भीख मांग कर भी कर लेता है...लेकिन इसके बाद भी भारत में रोज हजारों लोगों की मौत की वजह सिर्फ भूख है। अब शीला दीक्षित ने ये गणित कैसे बैठाया ये तो वही जानें लेकिन शीला के इस बयान ने एक बार फिर से जाहिर कर दिया है कि वाकई में गरीबों के हित की बात करने वाले राजनेताओं की सोच में कितना फर्क है। ये वही राजनेता हैं जो विधानसभा और संसद में उन्हें मिल रहे वेतन भत्ते को बढ़ाने को नाकाफी बताते हुए उसे समय समय पर बढ़ाने की मांग को लेकर खूब हो हल्ला मचाते हैं लेकिन एक 5 लोगों के गरीब परिवार की एक महीने की रोजी रोटी के लिए इन्हें 600 रूपए काफी लगते हैं। ये राजनेता जिन गाड़ियों में चलते हैं उसका एवरेज प्रति किलोमीटर लगभग 5 से 6 का होता है...यानि कि एक किलोमीटर चलने में ये लोग 40 से 50 रूपए खर्च कर देते हैं...दिन के और महीने के इनके और इनके परिवार के खाने का खर्चा की तो बात ही क्या। ये हिंदुस्तान है यहां कुछ भी हो सकता है यहां योजना आयोग भोजन पर शहर में 32 रूपए रोज और गावों में 26 रूपए रोज खर्च करने वालों को गरीब नहीं मानता लेकिन योजना आयोग के दफ्तर में 35 लाख रूपए टॉयलेट बनाने पर खर्च कर देता है...अब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने 600 रूपए महीने अगर 5 लोगों के परिवार की महीने भर की दाल रोटी के लिए पर्याप्त बता दिया तो कल कोई और अपने अनोखे बयान से गरीबों को उपहास उड़ाएगा...क्या फर्क पड़ता है ? फर्क तो उस दिन पड़ेगा जिस दिन ये गरीब अपने वोट की ताकत को पहचानेंगे और अपने वोट से ऐसे नेताओं को सबक सिखाएंगे।

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रविवार, 16 दिसंबर 2012

प्रमोशन में आरक्षण ने बना दिया दुश्मन !


प्रमोशन में आरक्षण बिल को लेकर महाभारत थमने का नाम नहीं ले रहा है। राजनीतिक दल इस बिल के सहारे एक बार फिर से अपनी अपनी रोटियां सेंकने में जुट गए हैं। बिल को लेकर विरोध की चिंगारी इतनी तेज हो गई है जो कभी भी बड़ी आग का रूप ले सकती है...लेकिन सरकार ने संविधान संशोधन बिल पारित करने की पूरी तैयारी कर ली है। राजनीतिक दलों की नजर 2014 के आम चुनाव पर है और वोटों के लिए ये लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखाई दे रहे हैं। ये वही राजनीतिक दल और राजनेता हैं जो अपने भाषणों में तो सभी के हिमायती होने का दावा करते हैं....देश से जात-पात के अंतर को खत्म करने की बात करते हैं....लेकिन प्रमोशन में आरक्षण बिल ये बताने के लिए काफी है कि इनकी कथनी और करनी में कितना फर्क है। बिल ने एक ही छत के नीचे साथ साथ बैठकर काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों को एक दूसरे का दुश्मन बना दिया है। एक वर्ग बिल के विरोध में सड़कों पर उतर कर आंदोलन कर रहा है तो दूसरा वर्ग बिल के समर्थन में अपनी निर्धारित 8 घंटे की ड्यूटी से भी ज्यादा काम करने को तैयार हैं। बिल को लेकर अलग अलग लोगों की व्यक्तिगत राय अलग अलग हो सकती है लेकिन मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि प्रमोशन में आरक्षण बिल दो वर्गों के बीच एक गहरी खाई पैदा करने का ही कार्य करेगा जो कि बिल्कुल भी सही नहीं है। किसी को सिर्फ जाति के आधार पर उसे उसके सहकर्मी से ऊपर प्रमोट कर दिया जाना कहां तक सही है  ? अगर ऐसा किया जाता है तो क्या दूसरी जाति के कर्मचारी के मन में हीन भावना उतपन्न नहीं होगी ? वह कैसे अपने कार्य को पूरे मन से कर पाएगा...क्योंकि उसके सहकर्मी को तो प्रमोशन दे दिया जाएगा...लेकिन वह सालों तक उसी जगह पर कार्य करता रह जाएगा। क्या इससे उसके कार्यक्षमता पर फर्क नहीं पड़ेगा ? इसका नुकसान किसे होगा...जाहिर है वह अपने साथ ही दूसरों का भी नुकसान करेगा। इससे बेहतर क्या ये नहीं कि प्रमोशन के लिए कर्मचारी की कार्यकुशलता और उसके प्रदर्शन के साथ ही उसके व्यवहार को पैमाना बनाया जाए ? अगर ऐसा किया जाता है तो जाहिर है प्रमोशन पाने के लिए कर्मचारी पूरे मन से काम करेगा और काम में लापरवाही नहीं बरतेगा। उसके काम का आउटपुट बढ़ेगा और इसका फायदा न सिर्फ संबंधित विभाग को होगा बल्कि उस कर्मचारी को प्रमोशन भी मिलेगा। जिस कर्मचारी को प्रमोशन नहीं मिल पाएगा क्या वो प्रमोशन के लिए और अधिक मेहनत से कार्य नहीं करेगा ? जाहिर है तरक्की हर किसी को अच्छी लगती है और तरक्की के लिए कर्मचारी अच्छा कार्य करेगा। इसके साथ ही जिस पद पर प्रमोशन होना है क्यों न उस पद के लिए उसकी योग्यता मापने के लिए विभागीय परीक्षा आयोजित की जाए ? सभी कर्मचारी उस विभागीय परीक्षा में शामिल हों और अपनी योग्यता के आधार पर प्रमोशन पाएं। किसी को उसकी कार्यकुशलता और पद की  योग्यता के बाद भी सिर्फ उसकी जाति के आधार पर प्रमोशन न मिलना या देर से मिलना क्या उस मेहनती कर्मचारी के साथ अन्याय नहीं होगा ?  इसका ये मतलब न निकाला जाए कि दूसरी जाति के कर्मचारी काबिल नहीं है। साथ ही किसी को कार्यकुशल न होने के बाद भी सिर्फ जाति के आधार पर प्रमोशन दिया जाना भी तर्कसंगत तो कहीं से नहीं है। प्रमोशन हर किसी कर्मचारी का हक भी है और उसे मिलना भी चाहिए...लेकिन इसे जल्दी पाने के लिए किसी कर्मचारी के जाति विशेष के होने की दीवार खड़ी करना कहीं से भी सही नहीं होगा। सोचिए जब एक ही छत के नीचे साथ बैठकर काम करने वाले कर्मचारी इस बिल की आहट मात्र से एक दूसरे के खिलाफ तलवार खींच कर बैठ गए हों...तो इसके लागू होने के बाद सरकारी दफ्तरों के अंदर का नजारा क्या होगा ? राजनीतिक दलों को भी इस संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति से परे हटकर सोचना होगा ताकि पहले से ही आम जनता को परेशान करने के लिए बदनाम सरकारी दफ्तरों में बेहतर काम का माहौल बनाया जा सके...और इस माहौल का लाभ आम आदमी के साथ ही देश को मिल सके।

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