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शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

क्या लड़की होना उसका कसूर था ?


13 दिनों तक जीवन और मौत से संघर्ष करने के बाद आखिरकार वो चली गई...उसने तो अभी अपने जीवन की ठीक से शुरुआत भी नहीं की थी। उसके सपनों ने तो अभी ठीक तरह से आकार भी नहीं लिया था...लेकिन कुछ दरिंदों के नापाक ईरादों और शैतानी दिमाग ने उसकी जिंदगी को नर्क बना दिया। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी वो फिर भी जीना चाहती थी...उसके जज्बे और ईच्छाशक्ति को देखकर उसका ईलाज करने वाले डॉक्टर भी दंग थे। उसने जिंदगी की जंग जीतने कीमौत को मात देने की पुरजोर कोशिश भी की लेकिन दरिंदों के दिए जख्म आखिरकार जीत गए और वो हमेशा के लिए खामोश हो गई। एक बार फिर जिंदगी हार गई लेकिन जाते जाते कई ऐसे सवाल खड़े कर गई जिनका जवाब शायद भगवान के पास भी नहीं होगा।
कुछ लोगों के ईरादे नापाक थे लेकिन उसका क्या कसूर था ? क्या लड़की के रूप में जन्म लेना उसका कसूर था ? क्या अंधेरा घिरने से पहले घर न लौटना उसका कसूर था ? क्या उसकी ईज्जत को तार-तार करने वालों का विरोध करना उसका कसूर था ?
इस घटना के बाद राजपाथ पर लोगों का गुस्सा खूब उबाल खाया...एक पोस्टर पर लिखी पंक्तियां मुझे याद आता हैं...नजर तेरी बुरी और पर्दा मैं करूं। पहले सवाल का जवाब तो मुझे इन पंक्तियों में ही नजर आता है- वाकई में नजर कुछ दरिंदों की खराब है...नीयत कुछ लोगों की शैतानी है...इरादे कुछ लोगों के नापाक हैं...लेकिन पर्दा लड़कियां करें। क्यों न इन खराब नजर वालों को...शैतानी नीयत वालों को नापाक इरादों वालों को ही सजा मिले...लेकिन इसे देश का दुर्भाग्य कहें या ऐसे लोगों की अच्छी किस्मत...हमारे देश में कई बार हैवानियत का खेल खेलने वालों को सबूत होने के बाद भी कई बार सजा नहीं मिलती या मिलती भी है तो वो अपनी आधी जिंदगी खुली हवा में गुजार चुके होते हैं। कड़ी सजा मिलती भी है तो इससे बचने का ब्रह्मास्त्र(राष्ट्रपति के पास दया याचिका) उनके पास पहले से ही मौजूद है। हमारी पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में रेप के 4 आरोपियों की मौत की सजा माफ कर पहले ही उदाहरण पेश कर चुकी हैं कि ये ब्रह्मास्त्र खाली नहीं जाता।
जहां तक दूसरे सवाल की बात है कि क्या लड़की के रूप में जन्म लेना उसका कसूर था ?
इसका जवाब एक दूसरे पोस्टर में लिखी कुछ पंक्तियां में दिखाई देता है। पंक्तियां कुछ इस प्रकार है- अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ। ये पंक्तियां ऐसी लड़कियों का दर्द बयां करती हैं जो कहीं न कहीं...किसी न किसी रूप में ऐसी ही घटनाओं का शिकार हुई हैं या फिर उत्पीड़न का शिकार हैं। लड़की के रूप में पैदा होने के बाद ऐसी पंक्तियां लिखी तख्ती पकड़े कोई लड़की आवाज़ बुलंद करे तो उसका दर्द समझा जा सकता है।
अंधेरा घिरने से पहले लड़कियां घर नहीं पहुंचती तो परिजनों की बेचैनी बढ़ जाती है...मन में बुरे ख्याल आने लगते हैं...क्या ये बताने के लिए काफी नहीं कि लड़कियां हमारे देश में आज भी सुरक्षित नहीं हैं..?
कुछ दरिंदे किसी लड़की के साथ जबरदस्ती करते हैं और वो अपनी ईज्जत बचाने के लिए इसका विरोध करती है तो दरिंदे पूरी हैवानियत पर उतर आते हैं और न सिर्फ दिल्ली गैंगरेप केस की तरह उसकी बुरी तरह पिटाई कर उसे चलती बस से फेंक देते हैं बल्कि उसके साथ ऐसा कृत्य करते हैं कि सुनने वाले की तक रूह कांप उठे। क्या ये हैवानियत ये बताने के लिए काफी नहीं कि महिलाओं के प्रति उनके मन में क्या भाव हैं..? उनकी सोच कैसी है..? वो महिलाओं को सिर्फ मनोरंजन का साधन समझते हैं और विरोध करने पर हैवानियत पर उतर आते हैं। यानि कि गलत कार्य का विरोध करने पर भी इसे महिलाओं की जुर्रत समझा जाता है और उनकी पिटाई की जाती है। क्या ऐसे लोगों समाज में रहने के हकदार हैं..? क्या गारंटी है कि ऐसे लोग दोबारा किसी के घर की ईज्जत को तार-तार नहीं करेंगे..? क्या गारंटी है कि ऐसे लोग फिर दिल्ली गैंगरेप जैसे घटना तो नहीं दोहराएंगे..? जाहिर है जब तक हमारे समाज में ऐसे लोग जिंदा हैं...तब तक समाज में महिलाएं सुरक्षित कतई नहीं है। जब तक ऐसे लोगों को सरेआम फांसी देकर मौत की नींद नहीं सुलाया जाएगा तब तक ऐसी सोच के...ऐसी मानसिकता के इनके जैसे दूसरे लोग ऐसा अपराध करने से नहीं हिचकिचाएंगे। उम्मीद करते हैं हमारी सरकार ऐसे कड़े फैसले लेने के लिए दिल्ली गैंगरेप जैसे किसी दूसरी घटना का इंतजार नहीं करेगी।

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युवा नेताओं की क्या बिसात..!


दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ बीते दिनों राजपथ पर देश का आक्रोश आजादी के बाद का शायद अपने आप में सबसे बड़ा उग्र प्रदर्शन था...लेकिन सही नेतृत्व न होने के चलते ये आंदोलन कहीं न कहीं दिशाहीन होता दिखाई दिया और एक बड़े आंदलन की गर्भावस्था में ही हत्या हो गई। असल मुद्दा कहीं खो गया और इसकी जगह बरसाती मेंढ़कों की तरह उपजे ऐसे मुद्दों ने ले ली जिन पर बहस से कोई सार्थक हल निकलने की कोई उम्मीद नहीं है। जिस वक्त रायसीना को घेरे हजारों युवाओं की टोली पीड़ित के लिए इंसाफ और महिलाओं की सुरक्ष के लिए आवाज बुलंद कर रही थी उस वक्त खुद को युवाओं की पार्टी कहने वाली...युवाओं को नेतृत्व देने की बातें करने वाली कांग्रेस के युवा नेताओं को राजधानी के दिल राजपथ में युवाओं का ये आक्रोश नजर नहीं आया। ऐसे वक्त में देश के राष्ट्रपति ने तक रायसीना हिल्स से बाहर निकलने का साहस नहीं दिखाया तो कांग्रेस के युवा नेताओं की क्या बिसात..! देश के गृहमंत्री को जब ये युवाओं की टोली माओवादी नजर आने लगे तो फिर कांग्रेस के युवा नेताओं की क्या बिसात..! देश के प्रधानमंत्री जब ठीक है बोलने लगे तो फिर कांग्रेस के युवा नेताओं की क्या बिसात..! इन युवा नेताओं के नेता कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब राजपथ पहुंचने का साहस नहीं जुटा सके तो कांग्रेस के इन युवा नेताओं की क्या बिसात..! राजपथ देश की युवा शक्ति के गुस्से से दमक रहा था लेकिन कांग्रेस के किसी युवा नेता को इसका सामना करने की शायद हिम्मत नहीं हुई। एक बेहद दुखद घटना से ही उपजा सही लेकिन ये एक मौका था राजपथ पर आक्रोश से भरी युवा शक्ति को एक मजबूत नेतृत्व प्रदान करने का...पार्टी लाइन से ऊपर उठकर इंसाफ की लड़ाई को उसके मुकाम तक ले जाने का लेकिन शायद कांग्रेस के युवा नेताओं में भी दूसरे कांग्रेसी नेताओं की तरह 10 जनपथ की अवमानना करने का साहस नहीं था। राजपथ पर उमड़ा युवाओं का जनसैलाब इनका इंतजार कर रहा था लेकिन ये शायद दिल्ली की सर्दी में गर्म कमरों का मोह नहीं छोड़ पाए या यूं कहें कि 10 जनपथ के खिलाफ आवाज उठाने की इनमें हिम्मत नहीं थी। लाल बत्ती और सरकारी बंगला पा चुके कुछ युवा नेताओं में शायद लाल बत्ती लगी सरकारी गाड़ी और सरकारी बंगला छोड़ने का साहस नहीं था तो भविष्य में लाल बत्ती की लालसा पाले बैठे कुछ युवा नेताओं की लालसा शायद कुछ ज्यादा ही जोर मार रही थी। ये खुद को युवाओं के नेता कहते हैं और युवा शक्ति के दम पर देश की सूरत बदलने की बात करते हैं लेकिन उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने का साहस शायद इनमें नहीं हैं। ये सच्चाई है इन युवा नेताओं की जो राजनीति की सीढ़ी तो युवाओं के कंधे पर पैर रखकर चढ़ते हैं या फिर अधिकतर को ये विरासत में मिलती है लेकिन राजनीति के गलियारों में प्रवेश करने के बाद इनका खून भी शायद दूसरे नेताओं की तरह पानी हो जाता है। बात सिर्फ केन्द्र की सत्ता में बैठी कांग्रेस के युवा नेताओं की नहीं है बल्कि इस मुद्दे पर विपक्ष में बैठी देश की दूसरी बड़ी पार्टी भाजपा के युवा नेताओं की चुप्पी भी दोनों ही दलों को एक जमात में खड़ा करती है।  


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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

बेटा बोला लेकिन राष्ट्रपति “पिता” खामोश !


दिल्ली गैंगरेप मामले के खिलाफ देशभर में गुस्से की आग भड़की और ये गुस्सा रायसीना हिल्स तक भी पहुंचा। दो दिनों तक रायसीना हिल्स पर गैंगरेप के आरोपियों को फांसी की मांग को लेकर प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली सरकार के साथ ही पुलिस की नींद उड़ा दी लेकिन रायसीना हिल्स से राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी बाहर नहीं निकले और न ही उन्होंने इस घटना पर दुख जताना जरूरी समझा। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी न बोले न सही लेकिन पश्चिम बंगाल की जंगीपुर सीट से उनके सांसद बेटे अभिजीत मुखर्जी ने पिता की इस कमी को पूरी करने में देर नहीं की। कांग्रेस सांसद अभिजीत कहते हैं कि महिलाएं सज-धज कर प्रदर्शन करने आती हैं और कैंडिल मार्च निकालने के बाद डिस्को में जाती है। मुखर्जी साहब यहीं नहीं रूक वे कहते हैं कि कैंडिल मार्च निकालना फैशन हो गया है। बयान पर बवाल मचने के बाद भले ही मुखर्जी ने अपने शब्द वापस ले लिए हों लेकिन फिर भी वे ये कहने से नहीं चूके कि उन्होंने कुछ गलत कहा था। पिता की सीट पर बमुश्किल 2500 वोटों से उपचुनाव जीतकर संसद में पहुंचने वाले अभिजीत मुखर्जी को लगता है सुर्खियों में आने की कुछ ज्यादा ही जल्दी है। शायद यही वजह है कि एक ऐसे मुद्दे पर वे अपना मुंह खोलते हैं जिसको लेकर पहले ही जमकर बवाल मच चुका है। एक संवेदनशील मुद्दे पर राष्ट्रपति मुंह नहीं खोलते लेकिन राष्ट्रपति का सांसद बेटा अगर ऐसा बोलता है तो वाकई में इससे बड़ा दुर्भाग्य इस देश का और क्या हो सकता है। होना तो ये चाहिए था कि राष्ट्रपति को खुद रायसीना हिल्स में बाहर निकलकर लोगों से शांति की अपील करते हुए मामले में दखल देना चाहिए था और सरकार को इस संवेदनशील मुद्दे पर जल्द से जल्द आवश्यक कदम उठाने के निर्देश देने चाहिए थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ और रही सही कसर राष्ट्रपति के सांसद बेटे ने पूरी कर दी। आभिजीत मुखर्जी ने तो प्रदर्शनकारियों पर ही सवाल खड़ा कर दिया कि ये प्रदर्शन तो सिर्फ एक दिखावा था। मुखर्जी साहब कभी एसी कमरों से बाहर निकल कर दिल्ली की सर्दी में एक रात छोड़िए एक घंटा बिताकर दिखा दीजिए आंदोलन और फैशन का फर्क आपको शायद समझ में आ जाएगा..! मुखर्जी साहब जिसे आप फैशन बोल रहे हैं ये न सिर्फ एक पीड़ित को इंसाफ दिलाने की लड़ाई है बल्कि महिलाओं के लिए सुरक्षित वातावरण तैयार करने की ओर महिलाओं की तरफ से बढ़ाया हुआ कदम था लेकिन अफसोस है कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए शुरू हुई इस लड़ाई को न तो आपके पिताश्री समझ पाए जबकि वे तो इन प्रदर्शनकारियों से चंद कदम दूर थे और न ही आप। अरे साहब किसी पीड़ित का दर्द नहीं समझ सकते न सही कम से कम उनके जख्मों पर नमक तो मत छिड़किए। आप पीड़ित का दर्द कम नहीं कर सकते तो उसके जख्मों को कुरदने का भी आपको कोई अधिकार नहीं है। कटाक्ष करने के बाद आपने भले ही माफी मांग ली हो लेकिन जुबान से निकला हुई तीर वापस तो नहीं होता न...बोलने से पहले सोच तो लिया करो महाराज कि क्या बोलने जा रहे हैं...अपना न सही अपने पिताजी के पद और गरिमा का तो कम से कम ख्याल रखिए। आपके पिताजी ने तो चुप रहना ही बेहतर समझा लेकिन आपने तो पिताजी की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।

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बुधवार, 26 दिसंबर 2012

एक कुली ईमानदार है लेकिन प्रधानमंत्री नहीं !


ये उस देश की कहानी है...जो बताती है कि उस देश में रेलवे स्टेशन में यात्रियों का सामान उठाकर दो वक्त की रोजी का जुगाड़ करने वाला एक कुली तो ईमानदार है लेकिन देश का प्रधानमंत्री ईमानदार नहीं है..! सुनने में ये अजीब जरूर लग रहा होगा लेकिन ये सौ फीसदी सच है और दुर्भाग्य से ये कहानी हमारे हिंदुस्तान की है। इस बात को कहने के पीछे एक बड़ा वाक्या है जो मेरे साथ घटित हुआ। बात ज्यादा पुरानी नहीं है- दिल्ली के पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से मुझे काठगोदाम के लिए रवाना होना था। आमतौर पर स्टेशन पर मैं कुली की सेवाएं नहीं लेता हूं...लेकिन भाई की शादी के लिए घर लौट रहा था...ऐसे में मेरे पास कुछ ज्यादा ही सामान था। ऐसे में मैंने एक कुली को आवाज दी। कुली मेरा सामान लेकर आगे आगे चल रहा था। कुछ ही आगे बढ़ा था कि मुझे प्लेटफार्म पर इत्तेफाक से मेरा एक मित्र टकरा गया...मैंने कुछ देर रुककर उससे बातचीत करने लगा। लेकिन इस बीच कुली जो मेरा सामान लेकर आगे आगे चल रहा था उसे शायद मेरे रुकने का आभास नहीं हुआ और वह आगे निकल गया। करीब 5 मिनट के बाद मुझे ध्यान आया कि कुली के पास मेरा सामान है। मैंने चारों तरफ देखा मुझे कुली नहीं दिखाई दिया। मुझे लगा कि मेरी लापरवाही का फायदा कुली ने उठा लिया और वो मेरा सामान लेकर चंपत हो गया। मैंने कुली का बिल्ला नंबर भी नहीं देखा था...ऐसे में कुली को ढूंढ़ना मुझे मुश्किल लगने लगा। करीब 15 मनट हो गए लेकिन काफी तलाश करने के बाद भी मुझे कुली नहीं मिला। ट्रेन छूटने में अभी वक्त था ऐसे में मैं कुली को तलाश करते-करते जीआरपी थाने में कुली की शिकायत दर्ज कराने पहुंचा। वहां का नजारा न सिर्फ हैरान करने वाला था बल्कि मेरी चेहरे की सारी शिकन वहां पहुंचकर गायब हो गई। थाने के बाहर वो कुली मेरे सामान के साथ पहले ही मौजूद था। मुझे वहां देखते ही वो मुझ से बोला- साहब मैं सामान लेकर ट्रेन के पास पहुंच गया था...लेकिन पीछे देखा तो आप दिखाई नहीं दिए। फिर मैंने कुछ देर तक तलाशा और फिर में ये सोचकर यहां पर सामान लेकर आ गया कि आप यहां जरूर आएंगे। जिस कुली के लिए मैं पलभर पहले ही पता नहीं क्या क्या सोच रहा था। मन ही मन उस कुली के साथ सभी कुलियों को गालियां दे रहा था...उस कुली को अपने सामान के साथ सामने देखकर कुली के लिए मेरा नजरिया बदल गया। खैर कुली फिर मेरे साथ चल दिया और उसने मेरा सामान ट्रेन में रखा। मैंने कुली को शुक्रिया बोलते हुए उसे तय रूपए के अलावा कुछ पैसे अलग से देने चाहे लेकिन कुली ने तय पैसे से अधिक पैसे मेरे कई बार आग्रह करने के बाद भी नहीं लिए। मैंने एक बार फिर से कुली का शुक्रिया बोला और वो कुली अपने रास्ते चल दिया और कुछ ही मिनटों में ट्रेन भी चल दी। ये सिर्फ एक घटना थी जो हो सकता है कई और लोगों के साथ भी घटित हुई हो लेकिन ये एक घटना अपने आप में कई बातें कह गई। कुली चाहता तो वो सामान लेकर चंपत भी हो सकता था...हालांकि उसमें बहुत कीमती सामान कुछ नहीं था...लेकिन कुली को तो ये बात नहीं पता था कि सामान क्या है..? लेकिन कुली ने ऐसा कुछ नहीं किया। हमारे देश में जहां आज चारों तरफ सिर्फ भ्रष्टाचार की ही गूंज है और पैसे के लिए व्यक्ति कुछ भी कर गुजरने को तैयार है। भाई – भाई का दुश्मन है...बेटा-बाप का दुश्मन है। ऐसे में एक कुली जो दूसरों का बोझा ढो कर अपना और अपने परिवार का पेट पालता है उसकी ये ईमानदारी ऐसे लोगों के मुंह में एक करारा तमाचा है। मैं ये इसलिए भी कह रहा हैं क्योंकि जिस देश का प्रधानमंत्री ईमानदार न हो तो प्रधानमंत्री के सहयोगी मंत्रियों के साथ ही सरकार में शामिल दूसरे लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है। सरकार के मुखिया और सरकार में शामिल तमाम लोगों पर भ्रष्टाचार और घोटाले के आरोप इस बात को सही भी साबित करते हैं कि भारत का प्रधानमंत्री ईमानदार नहीं है लेकिन स्टेशन में सामान उठाने वाला कुली ईमानदार है। एक तरफ ये कुली और उसके जैसे तमाम लोग हैं...जिनका ईमान अभावों में जीवन बसर करने के बाद भी पैसों के आगे कभी नहीं डोलता और दूसरी तरफ हैं हमारे देश के नेता जो सरकारी दामाद की तरह सारी सुख सुविधाओं का उपभोग तो करते ही हैं साथ ही जनता के खून पसीने की कमाई को घोटालों और भ्रष्टाचार के रूप में उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। सलाम है ऐसे कुली की तरह ईमानदारी की मिसाल पेश करने वाले उन सभी लोगों को।  

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सोमवार, 24 दिसंबर 2012

दिल्ली गैंगरेप- “ठीक है” लोग इसे भी भूल जाएंगे !


दिल्ली गैंगरेप में मनमोहन सिंह की चुप्पी टूटती है...लेकिन जिस अंदाज में मनमोहन सिंह ने अपनी चुप्पी तोड़ी और उसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पता नही किससे पूछते हैं ठीक है इससे लगता है कि वे मौन ही बने रहते तो ज्यादा अच्छा था। क्या मनमोहन सिंह के सामने कैमरामैन के बाजू में खड़ी सोनिया गांधी से पूछते हैं..?  या फिर जिस किसी ने भी ये स्क्रिप्ट लिखी थी उससे..? जो भी हो लेकिन एक बार फिर इतने संवोदनशील मुद्दे पर प्रधानमंत्री का ऐसा रवैया अपने आप में कई सवाल खड़े करता है..!  एक तरफ मनमोहन सिंह गैंगरेप पर दुख जताते हुए खुद की भी तीन बेटियां होनी की दुहाई देते हैं और आखिर में कहते हैं ठीक है। प्रधानमंत्री जी आपने तो खुद को दी जाने वाले तमाम उपाधियों को आज की घटना के बाद सही ठहरा दिया। यूं ही लोग मनमोहन सिंह को रोबोट नहीं कहते..! यूं ही मनमोहन सिंह को लोग सोनिया के ईशारे पर फैसले लेना वाला नहीं कहते..! यूं ही सोनिया ने पीएम की कुर्सी छोड़कर कई दिग्गज कांग्रेस नेताओं को दरकिनार कर मनमोहन सिंह को दो-दो बार पीएम पद की कुर्सी नहीं सौंपी..! यूं ही बाबा रामदेव आपको मौनी बाबा नहीं कहते..!  यूं ही टाईम मैगजीन के कवर पेज पर दि अंडर अचीवरके टैग के साथ मनमोहन सिंह का फोटो नहीं छपता..! खैर इनके जवाब या तो मनमोहन सिंह खुद दे सकते हैं या फिर सोनिया गांधी। लेकिन दिल्ली गैंगरेप जैसे संवेदनशील मुद्दे पर देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की असंवेदनहीनता ने देशवासियों को एक बार फिर से निराश ही किया है। देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे इस मुद्दे को लेकर कितने संवेदनहीन है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे इंडिया गेट पर गैंगरेप के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों की तुलना माओवादियों से कर देते हैं...वे कहते हैं कल माओवादी प्रदर्शन करें तो वे क्या माओवादियों से भी मिलने जाएं..?  आपको याद दिला दूं कि ये वही शिंदे हैं जो कोयला घोटाले पर कहते हैं कि लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है और लोग बफोर्स घोटाले की तरह कोयला घोटाले को भी जल्द भूल जाएंगे। इसका मतलब क्या शिंदे फिर से ये सोच रहे हैं कि दिल्ली गैंगरेप को भी लोग जल्द भूल जाएंगे..? गजब करते हैं शिंदे साहब एक तरफ आप कहते हैं कि आप की भी तीन-तीन बेटियां हैं और आप इस घटना का दर्द समझते हैं और महिलाओं की सुरक्षा के प्रति चिंतित हैं...लेकिन एक तरफ आपका ये असंवेदनहीन बयान..! बढ़िया है शिंदे साहब आप भी अपने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के नक्शेकदम पर चल रहे हैं..! वैसे बात चारों तरफ गैंगरेप के आरोपियों को मौत की सजा देने की हो रही है लेकिन हम इस बात को नहीं नकार सकते कि मौत की सजा पाने वाले लोगों के पास इस सजा से बचने की काट भी मौजूद है...और वो काट है राष्ट्रपति भवन। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की ही बात कर लें तो उन्होंने अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में 35 कैदियों की मौत की सजा माफ कर दरियादिली दिखाई थी...और खास बात ये है कि इनमें से 5 बलात्कार के बाद पीड़ित की नृशंस हत्या के जुर्म में मौत की सजा पाए हुए थे। मजे की बात तो ये है कि राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने यूपीए सरकार की सलाह पर ही मौत की सजा माफ करने के फैसले लिए थे। अब हम ये कैसे उम्मीद कर लें कि दिल्ली गैंगरेप या ऐसी हैवानियत करने वालों को अगर कानून में संशोधन के बाद मौत की सजा मिल भी जाती है तो वे लोग इसके अंजाम तक भी पहुंचाए जाएंगे। साथ ही ये मत भूलिए कि ये भारत है और इस देश की संसद पर हमला करने वाले आरोपी अफजल गुरु को घटना के 12 साल बाद भी फांसी नहीं दी जाती जबकि सर्वोच्च न्यायालय अफजल को फांसी की सजा सुना चुका है जबकि इसके विपरीत अमेरिका को देखिए चाहे आप अमेरिका की कितनी आलोचना कर लो लेकिन उसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला करने वाले को उसके घर में घुसकर मारा और भारत में संसद के हमले के आरोपी की सरकार जेल में खातिरदारी कर रही है। 

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रविवार, 23 दिसंबर 2012

दिल्ली गैंगरेप- जय हो मौनी बाबा की...


दिल्ली गैंगरेप पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के देश के नाम संबोधन की खबर आई तो लगा कि अपने पेटेंट दो दिन 15 अगस्त और 26 जनवरी को बोलने वाले मनमोहन सिंह गैंगरेप के विरोध में गुस्से में उबल रहे देश के सामने कोई ऐसी बात करेंगे जिससे शायद लोगो को गुस्सा कम हो...लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ। जैसी की उम्मीद थी मनमोहन सिंह हिंदी की बजाए अंग्रेजी में ही बोले- मनमोहन सिंह की अंग्रेजी इंडिया गेट पर प्रदर्शन करने वाले और महानगरों में रहने वाले तो शायद समझ गए होंगे...लेकिन मनमोहन सिंह उन करोड़ो लोगों तक अपनी बात नहीं पहुंचा पाए जिनके लिए अंग्रेजी बोलने वाले आज भी किसी अंग्रेज से कम नहीं है और कौतहुल का विषय बने रहते हैं। जाहिर है ऐसे लोगों का तादाद लाखों में हैं जो देश में हर रोज बलात्कार के शिकार तो होते हैं लेकिन जब वे अपनी शिकायत लेकर पुलिस थाने में जाते हैं तो उन्हें दुत्कार दिया जाता है। वैसे अच्छा हुआ मनमोहन सिंह देश की भाषा हिंदी की बजाए अंग्रेजी में ही बोले क्योंकि जो कुछ भी मनमोहन सिंह बोले उससे ज्यादा कि उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती। मनमोहन सिंह को शायद इस घटना के बाद से देश में आया गुस्से का उबाल नहीं दिखाई दिया वर्ना मनमोहन सिंह अपने संबोधन में जिस इंसाफ की मांग देश कर रहा है उस इंसाफ की ओर कुछ कदम बढ़ाते जरूर दिखाते लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ और मनमोहन सिंह गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की तरह खुद भी बेटियों का बाप होने का हवाला देते हुए घटना पर सिर्फ दुख ही जताते दिखे। इसमें मनमोहन सिंह साहब का भी दोष नहीं है क्योंकि उनके बारे में कहा जाता है कि वे उतना ही बोलते हैं जितना बोलने का उन्हें कहा जाता है...आप सोच रहे होंगे कि आखिर देश के प्रधानमंत्री भी क्या किसी के कहने पर ही बोलते या चुप रहते हैं ! लेकिन चौंकिए मत यहां ऐसा भी होता है...सोचिए अगर ऐसा नहीं होता तो क्या मनमोहन सिंह अपने पेटेंट दो दिनों 15 अगस्त औऱ 26 जनवरी के अलावा किसी और मौके पर आपको बोलते हुए नहीं दिखाई देते। प्रधानमंत्री जी आपको नहीं बोलना है मत बोलिए...लेकिन बिना बोले ही कुछ ऐसा कर जाईये...एक ऐसी नजीर पेश कर दीजिए पीएम साहब कि दिल्ली में क्या देश में दिल्ली जैसी घटना की पुनरावृत्ति फिर न हो...हाथ जोड़कर निवेदन है आपसे।

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दिल्ली गैंगरेप- ओबामा रोते हैं...हम क्यों सोते हैं !



दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ शनिवार और रविवार तो इंडिया गेट से लेकर रायसीना हिल्स तक जो हुआ वो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। सरकार और पुलिस के खिलाफ गुस्से का ऐसा ज्वार शायद ही इससे पहले कभी फूटा होगा। गैंगरेप की शिकार पीड़ित के लिए इंसाफ की मांग कर रहे युवा मानो किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। लेकिन एक बार फिर से एक जनांदोलन का दमन करने की कोशिश दिल्ली पुलिस और सरकार ने की...लेकिन दमन की कोशिश ने गुस्से की आग को और ज्यादा भड़का दिया है। अमेरिका में एक स्कूल में एक सिरफिरे की अंधाधुंध फायरिंग 20 बच्चों समेत 28 लोगों की दुखद मौत हो जाती है तो अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा घटना पर दुख जताते हैं...लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के राजा भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी साहब को न तो राष्ट्रपति भवन के बाहर गैंगरेप के खिलाफ हजारों लोगों का जनाक्रोश दिखा और न ही राष्ट्रपति ने इस जघन्य कृत्य की निंदा में दो शब्द ही कहे। मौनी बाबा की उपाधि पा चुके हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एफडीआई के मुद्दे पर तो देश को संबोधित करते हैं लेकिन एक जघन्य अपराध के बाद उसकी निंदा करने का वक्त उनके पास नहीं है। अमेरिका को ऐसे ही दुनिया का सरताज नहीं कहा जाता...9/11 के आरोपियों को अमेरिका उसके घर में घुसकर मारता है तो 26/11 के आरोपी कसाब की सुरक्षा पर भारत करोड़ों रुपए खर्च करता है (फांसी को काफी दवाब के बाद और काफी देर से दी गई) और 26/11 के मास्टरमाइंड अफजल गुरु को हमारे देश के गृहमंत्री श्रीअफजल गुरु कहकर संबोधित करते हैं...शायद यही फर्क है भारत और अमेरिका में। दिल्ली गैंगरेप पीड़ित का ईलाज कर रहे डॉक्टरों का बयान साफ बयां करता है कि चलती बस में लड़की के साथ जो दरिंदगी हुई है वो कम से कम कोई इंसान तो नहीं कर सकते...ये काम सिर्फ शैतान ही कर सकते हैं और ऐसे शैतान कानून के मुताबिक सजा होने के बाद भी समाज के लिए खतरा ही बने रहेंगे...जाहिर है ऐसे हैवानियत करने वालों के लिए मौत की सजा भी कम है। लेकिन अफसोस है कि हमारे देश की सरकार देश की राजधानी दिल्ली की सड़कों पर एक मासूम के साथ दरिंदगी का खेल खेलने वाले अपराधियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाने की बात करने से घबराती हुई नजर आ रही है और दुर्भाग्य देखिए देश का...पहले तो इंसाफ की मांग करने वालों को इंडिया गेट तक पहुंचने से रोकने के लिए मेट्रो स्टेशन के साथ ही इंडिया गेट को जाने वाले सभी रास्ते बंद कर दिए जाते हैं...और इसके बाद भी प्रदर्शनकारी इंडिया गेट पर पहुंच जाते हैं तो उन पर आंसू गैस के गोले छोड़े जाते हैं और लाठियां बरसाई जाती हैं। एक लड़की के साथ हैवानियत का खेल खेला जाता है और उसके लिए इंसाफ की मांग करने वाली लड़कियों पर लोगों की रक्षा करने का बीड़ा उठाने वाली हमारी बहादुर पुलिस लाठियां बरसाती हैं...हालांकि ये बात सभी जानते हैं कि पुलिसवाले भी सरकार के इशारे पर ही ये काम कर रहे थे। इसके बाद भी विडंबना देखिए दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे और कांग्रेस सांसद संदीप दीक्षित जब इंडिया गेट पर पुलिसिया कार्रवाई के लिए दिल्ली पुलिस कमिश्नर को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें हटाने की मांग करते हैं तो उनकी माता जी उनके सुर में सुर मिलाती हैं...और कमिश्नर के सिर सारा ठीकरा फोड़ देती हैं...और कमिश्नर को हटाने की बात कहती हैं...क्या ऐसा संभव है कि दिल्ली के सबसे सुरक्षित माने जाने वाले और कड़ी सुरक्षा वाले इलाके में जहां एक तरफ राष्ट्रपति भवन है तो दूसरी तरफ संसद वहां पर हजारों लोग प्रदर्शन करते हैं और उन पर लाठियां बरसती हैं और ये बिना दिल्ली की मुख्यमंत्री की जानकारी के हुआ हो ? लेकिन इसके खिलाफ जब जनाक्रोश भड़कता है तो माननीय मुख्यमंत्री साहिबा इसके लिए दिल्ली पुलिस कमिश्नर को दोषी ठहराती हैं। जाहिर है शीला दीक्षित जानती हैं कि ये जनाक्रोश कहीं 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में उनकी कुर्सी न हिला दे शायद इसलिए पहले शीला दीक्षित के कांग्रेस सांसद बेटे संदीप दीक्षित दिल्ली पुलिस कमिश्नर को हटाने की बात कहते हैं और इसके बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित उनके सुर में सुर मिलाती हैं...लेकिन षीला जी ये भूल गई कि ये पब्लिक है...ये सब जानती है। उम्मीद करते हैं ये आंदोलन अपने अंजाम तक पहुंचे...पीड़ित को इंसाफ मिले और दोषियों को मौत की सजा।

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