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गुरुवार, 10 जुलाई 2014

बजट, मूर्ति और 200 करोड़

वित्त मंत्री अरुण जेटली के बजट पेश करने के बाद जेटली को मोदी की शाबाशी मिल रही है तो विपक्ष इसे खोदा पहाड़ निकली चुहिया की संज्ञा दे रहा है। आयकर में छूट की उम्मीद लगाए बैठे लोगों को छूट के रूप में अच्छी ख़बर तो मिली लेकिन उनकी उम्मीद से कम। हालांकि अधिकतर अर्थशास्त्रियों की नजर में यह एक संतुलित बजट है, उनके मुताबिक इसमें हर क्षेत्र और वर्ग को सम्मिलित किया गया है। आयकर छूट की सीमा ढ़ाई लाख करने और 80 सी के तहत निवेश की सीमा डेढ़ लाख करने और पीपीएफ में निवेश की अधिकतम सीमा डेढ़ लाख करने से करदाताओं को राहत तो मिली है लेकिन उम्मीद इससे कहीं ज्यादा की थी। 
इसी तरह नमामि गंगा योजना के लिए 2037 करोड़ का प्रावधान किया गया है तो
4 नए एम्स बनाने के लिए 500 करोड़ रुपये, हर राज्य में एक एम्स खोलने का लक्ष्य। 5 नए आईआईटी और 5 नए आईआईएम के लिए 500 करोड़ रुपये समेत कई और योजनाएं शुरु किए जाने की बात कही गई है। ठीक है सारी चीजें समझ में आती हैं, ये बात भी ठीक है कि सबको खुश नहीं किया जा सकता।
लेकिन गुजरात में सरदार बल्लभ भाई पटेल की मूर्ति निर्माण के लिए 200 करोड़ का प्रवधान करना गले नहीं उतरता। मोदी सरकार का ये मूर्ति प्रेम समझ से परे है। सिर्फ मूर्ति प्रेम पर 200 करोड़ रूपए खर्च करना कहां तक तर्कसंगत है। वो भी ऐसे वक्त में जब मोदी सरकार का हर एक कारिंदा ये कहकर सरकार का बचाव कर रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था मरणासन्न अवस्था में है। याद कीजिए जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का मूर्ति प्रेम हिलोरे मार रहा था उस वक्त इसकी आलोचना करने में भाजपा पीछे नहीं थी लेकिन अच्छे दिन का इंतजार कर रही जनता की गाढ़ी कमाई के बड़े हिस्से को अब मूर्ति के लिए खर्च करने का मोदी सरकार के फैसले पर भाजपाई खामोश हैं। जाहिर है एक मूर्ति से जरूरी आमजन से जुड़े कई ऐसे काम हैं, जहां पर पैसे खर्च किए जाने की जरूरत है, लेकिन अफसोस सरकार की प्राथमिकता में मूर्ति है। प्रधानमंत्री का कहना है कि बजट मरणासन्न अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी का काम करेगी और अच्छे दिन आने का मार्ग प्रशस्त होगा। मोदी जी भले ही अच्छे दिन आने का भरोसा दिला रहे हों लेकिन इतना तो तय है कि कम से कम मूर्ति पर 200 करोड़ रूपए खर्च करने जैसे फैसलों से तो आम जनता के अच्छे दिन नहीं आने वाले।

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बुधवार, 9 जुलाई 2014

राहुल बाबा को सोने दो न प्लीज

हद होती है किसी चीज की भी, अरे भई राहुल बाबा ने एक झपकी ही तो ली न संसद में, हंगामा मचाकर रखा है। कौन सा पहाड़ टूट पड़ा है। वैसे भी 10 साल तक जब सरकार में थे तब तो गिनती के दिन ही संसद में दिखाई दिए थे। कितना काम करते थे उस वक्त। संसद में तक आने की फुर्सत नहीं मिलती थी। कभी किसी दलित की झोपड़ी में खाना खाने पहुंच जाते थे, कभी मजदूरों का दर्द जानने निकल पड़ते थे। कभी दागियों तो बचाने वाले अध्यादेश को किसी हीरो की तरह फाड़ देते थे।
अब जब जनता ने फिलहाल पांच साल तक आराम करने की सलाह दी है, तो क्या संसद में एक झपकी लेना भी गुनाह हो गया। कभी भावनाओं को भी तो समझा करो, क्या राहुल बाबा का मन नहीं करता होगा आराम करने का, आखिर इतना काम करते हैं, तो चैन की नींद तो बनती है न। आम चुनाव में कितनी मेहनत की, एक एक दिन में कई कई चुनावी रैलियां की, कांग्रेस की जीत के लिए जी तोड़ मेहनत की। इस बार तो अमेठी में अपने लिए वोट मांगने तक गए और इसका फल भी मिला और अमेठी से चुनाव जीत भी गए। ठीक है सरकार नहीं बना पाए तो क्या हुआ आम चुनाव में 44 सीटें जीतकर आई है कांग्रेस। मजाक बात है 44 सीटों पर फतह हासिल करना, अब अन्नाद्रमुक को देखो कुल 37 ही सीट जीत पाई, तृणमूल कांग्रेस को देखो कुल 34 सीट ही जीत पाई। जबकि समाजवादी पार्टी तो सिर्फ 5 ही सीट जीत पाई और बसपा का तो खाता भी नहीं खुला। इन सब से कितनी आगे है कांग्रेस। चलो कोई और काम करो, राहुल बाबा के सोने पर अब ज्यादा हल्ला मत मचाओ, अरे नींद से जाग जाएंगे बाबा।   

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मोदी सरकार, अमित शाह और अच्छे दिन


अच्छा है, आम जनता के नहीं तो क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खासम खास अमित शाह के तो अच्छे दिन आ ही गए। अमित शाह आखिरकार भाजपा महासचिव से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जो हो गए हैं। अमित शाह के अध्यक्ष बनने के बाद से लेकर तमाम तरह की बातें हो रही हैं। मसलन सरकार के बाद अब पार्टी पर भी मोदी के करीबी शाह काबिज हो गए हैं, लेकिन जो भी हो 2014 के आम चुनाव में दिल्ली की सत्ता का रास्ता तैयार करने वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में प्रभारी रहते हुए भाजपा को 80 में से 71 सीटें दिलाने में अमित शाह की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, भाजपा के लिए तो ये किसी चमत्कार से कम नहीं था। हालांकि राजस्थान, गुजरात, दिल्ली समेत कई और राज्यों में भाजपा ने क्लीन स्वीप करते हुए शानदार प्रदर्शन किया लेकिन अपने दम पर 282 की संख्या को हासिल करना यूपी में बड़ी जीत के बूते ही संभव था, जो कि अमित शाह ने कर दिखाया। ये वही राज्य था जहां पर भाजपा अपनी जमीन खो चुकी थी, लेकिन मोदी लहर और शाह की चुनावी रणनीतियों ने भाजपा के लिए ये काम एकदम आसान कर दिया। हालांकि यूपी में भाजपा का प्रदर्शन इतना शानदार रहेगा इसकी उम्मीद शायद ही भाजपा और अमित शाह दोनों को रही होगी, लेकिन ये हुआ और भाजपा ने यूपी में 71 सीटों पर विजय पताका फहराई।
अब भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिहं के गृहमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद निकट भविष्य में महाराष्ट्र, हरियाणा समेत दूसरे राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा के सामने राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए वैसे भी अमित शाह से बेहतर विकल्प था भी नहीं। अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचने के लिए शाह की मदद उनके शानदार ट्रैक रिकार्ड ने भी की(सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति एनकाउंटर मामला छोड़कर) जो बताता है कि न सिर्फ शाह खुद अब तक कोई चुनाव हारे हैं बल्कि एक बेहतर रणनीतिकार के तौर पर उन्होंने कई मौकों पर खुद को साबित भी किया है, फिर चाहे आडवाणी और वाजपेयी का चुनावी प्रबंधन हो या फिर आम चुनाव में यूपी में भाजपा का परचम लहराने की बात।
जाहिर है शाह के भाजपा अध्यक्ष बनने से सरकार और संगठन के बीच तालमेल भी बेहतर रहेगा क्योंकि शाह से मोदी की करीबीयां किसी से छिपी नहीं है। ये बात अलग है कि प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष दोनों एक ही राज्य गुजरात से होने से भाजपा में मोदी विरोधियों की बेचैनी जरूर बढ़ गई होगी। बहरहाल देखने वाली बात ये होगी कि अच्छे दिन के वादे के साथ सत्ता में आने वाली मोदी सरकार सरकार गठन के एक माह में ही जिस तरह बढ़ती महंगाई को लेकर विरोधियों के निशाने पर है, और आम जन बेचैन है, उसके बाद भी क्या निकट भविष्य में होने वाले कई राज्यों के विधानसभा चुनाव में मोदी का जादू चल पाएगा और एक बार फिर से अमित शाह की चुनावी रणनीतियों कामयाब हो पाएंगी या फिर बढ़ती महंगाई के बोझ तले दबी जनता चौंकने वाले परिणाम देगी।  

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मंगलवार, 8 जुलाई 2014

एक मुख्यमंत्री का डर !

आम चुनाव से पहले उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन करते हुए कांग्रेस आलाकमान ने उत्तराखंड के दिल्ली वाले मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की जगह हरीश रावत को कमान इस विश्वास के साथ सौंपी थी कि हर मोर्चे पर विफल रहने वाले बहुगुणा के प्रति आम जन की नाराजगी नए मुख्यमंत्री के तौर पर हरीश रावत की ताजपोशी के साथ शायद कुछ कम होगी। कांग्रेस आलाकमान को उम्मीद थी कि आम चुनाव में कांग्रेस उत्तराखंड की सभी पांचों सीटों को बचाने में सफल होगी, लेकिन मोदी लहर में प्रदेश की पांचों सीटों पर कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। मुख्यमंत्री की पत्नी तक हरिद्वार से चुनाव हार गई।
मुख्यमंत्री बने रहने के लिए हरीश रावत को 6 महीने के अंदर विधायक के रूप में निर्वाचित होना है, ऐसे में प्रदेश की दो विधानसभा सीटों डोईवाला और सोमेश्वर सीट रमेश पोखरियाल निशंक और अजय टम्टा के सांसद चुने जाने के कारण रिक्त हो गयी हैं। हरीश रावत को चुनाव लड़ने के लिए किसी सीट को खाली कराने की जरूरत नहीं थी और वे इन दोनों में से किसी एक सीट से चुनाव जीतकर पार्टी की सीटों की संख्या में भी ईजाफा कर अपने दम पर बहुमत के और करीब पहुंच सकती थी लेकिन हरीश रावत ने डोईवाला और सोमेश्वर सीट से चुनाव न लड़ने की बजाए धारचूला सीट को खाली कराया, जो कांग्रेस के पास ही थी। बहुगुणा के सीएम रहने के दौरान उऩके धुर विरोधी रहे और हरीश रावत के खास माने जाने वाले हरीश धामी ने मुख्यमंत्री के लिए अपनी सीट खाली कर दी।
हरीश धामी सीएम रावत के खास माने जाते हैं, ऐसे में उनका रावत के लिए सीट खाली करना समझ में आता है, लेकिन हरीश रावत का दो रिक्त सीटों वो भी जो भाजपा कब्जे में थी, उनकी बजाए अपने विधायक की सीट खाली कराकर चुनाव लड़ने का फैसला कई सवाल खड़े करता है।
जाहिर है हरीश रावत को डोईवाला या सोमेश्वर सीट से चुनाव लड़ने में अपनी हार का डर है, शायद हरीश रावत को लगता है कि अब भी मोदी लहर उनकी जीत में बाधा बन सकती है। 2002 में और 2012 में मुख्यमंत्री बनने से चूक गए हरीश रावत किसी भी सूरत में चुनाव हारकर बड़े जतन से मिली मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवाना नहीं चाहते। 2002 में एनडी तिवारी उनकी राह में रोड़ा बन गए थे तो 2012 में कांग्रेस हाईकमान ने विजय बहुगुणा को सीएम बना दिया था। शायद इसलिए ही हरीश रावत ने सेफ सीट धारचूला को चुनाव लड़ने के लिए चुना, लेकिन ये सीट रावत के लिए कितनी सेफ साबित होगी ये तो चुनावी नतीजे के बाद ही सामने आ पाएगा लेकिन इतना तो तय है कि उत्तराखंड की तीनों सीटों पर हो रहे उपचुनाव में मुकाबला रोचक होगा।


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सोमवार, 7 जुलाई 2014

कांग्रेस, नेता प्रतिपक्ष और मोदी सरकार

सपना तो राहुल गांधी को 2014 में प्रधानमंत्री बनाने का था लेकिन सोनिया गांधी को क्या पता था कि लोकसभा में नेता विपक्ष के पद के लिए भी लोकसभा अध्यक्ष का मुंह ताकना पड़ेगा। 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस के खाते में सिर्फ 44 सीटें ही आईं, जो कि लोकसभा में सदस्यों की कुल संख्या का 10 प्रतिशत यानि की 55 सीटें भी नहीं है।, जो कि नेता विपक्ष की कुर्सी के लिए जरूरी हैं। कांग्रेस को डर है कि सरकार के ईशारे पर लोकसभा स्पीकर नेता विपक्ष का पद शायद ही कांग्रेस को दे, ऐसे में अब कांग्रेस लोकसभा अध्यक्ष को चिट्ठी लिखने का मन बना रही है। कांग्रेसी नेता तमाम तरह की दुहाई देकर भले ही नेता विपक्ष का पद हासिल करने के जतन कर रहे हैं लेकिन भाजपा इस मुद्दे पर कांग्रेस की खिल्ली उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन इस पर क्या फैसला लेती हैं, ये जल्द ही सामने आ जाएगा लेकिन नेता विपक्ष के पद को लेकर बेचैन कांग्रेस का ये तर्क कि 1977 के कानून में ये स्पष्ट है कि सत्तारूढ़ दल के बाद सबसे बड़े दल को नेता प्रतिपक्ष का पद दिया जाना चाहिए क्योंकि कई संवैधानिक पदों की नियुक्ति के लिए नेता विपक्ष की जरूरत होती है, इसलिए गले नहीं उतरता क्योंकि कांग्रेस शासन में वर्ष 1980 से लेकर 1989 तक लोकसभा में नेता विपक्ष कोई नहीं था। हालांकि कांग्रेस दावा कर रही है कि उस समय किसी भी दल ने इस पद के लिए दावा नहीं किया था।
अब सवाल ये भी उठता है कि क्या भाजपा भी कांग्रेस की उस राह पर चलेगी, जिस राह पर कांग्रेस 1980 में चली थी या फिर एक स्वच्छ लोकतांत्रिक परिपाटी कायम करते हुए कांग्रेस को सबसे बड़े दल होने के नाते उसे नेता विपक्ष का पद दे देती है। बहरहाल भाजपा की मंशा और नीयत इसके पीछे जो भी हो लेकिन कांग्रेस को नेता विपक्ष का पद न मिलने पर देश की सबसे बड़ी राजनीततिक पार्टी की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। कांग्रेस के पास राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा होने के बाद भी उसकी स्थिति लोकसभा में एक क्षेत्रीय पार्टी की तरह ही हो जाएगी और नेता विपक्ष का पद न मिलना कांग्रेस कार्यकर्ताओं के मनोबल पर भी असर डालेगा। ऐसे में कांग्रेस हर हाल में नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल करना चाहती है और इसके लिए कांग्रेस ने पूरी ताकत भी झोंक दी है। बहरहाल गेंद लोकसभा अध्यक्ष के पाले में हैं और उनका कहना है कि किसी ऩे भी उनसे नेता विपक्ष पद के लिए मांग ही नहीं की है। देखना रोचक होगा कि क्या कांग्रेस को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद मिलेगा या फिर भविष्य में 16वीं लोकसभा एक ऐसी लोकसभा के रूप में जानी जाएगी जिसमें नेता विपक्ष ही नहीं रहा।  


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