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शनिवार, 24 नवंबर 2012

आगाज़ शानदार...अंज़ाम क्या होगा ?


अन्ना के साथ 15 अगस्त 2011 में अरविंद केजरीवाल का भ्रष्टाचार के खिलाफ और लोकपाल के समर्थन में आगाज़ शानदार था...और इसे देशभर में अपार जनसमर्थन भी मिला। 2 अक्टूबर 2012 को अन्ना से राहें अलग हो जाने के बाद भी केजरीवाल ने किसी न किसी बहाने राजनीतिक दलों पर निशाना साधकर खुद को खबरों में जिंदा रखा हुआ है। अब जबकि केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के गठन के साथ राजनीतिक दलों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुद्दे पर नई लड़ाई का आगाज़ राजनीति में ही उतरकर कर दिया है तो ये सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या राजनीति के मैदान में सालों से जमे और पारंगत राजनीतिक दलों के नेताओं से आम आदमी पार्टी कैसे और कितना मुकाबला कर पाएगी। इसमें पहला और बड़ा सवाल ये उठता है कि आम आदमी पार्टी के लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई में खुद का दामन पाक साफ रखते हुए कितने आगे तक चल पाएंगे...? साथ ही क्या जिस सुराज को लाने की वे बात कर रहे हैं उस मकसद में कामयाब हो पाएंगे...? देश के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए तो अरविंद की आम आदमी पार्टी के जरिए ये राह आसान तो बिल्कुल नहीं दिखाई देती। अरविंद के सामने कई चुनौतियां हैं जिसमें सबसे पहली और बड़ी चुनौती लोगों के सामने विकल्प के तौर पर मैदान में उतारने के लिए उन्हें स्वच्छ छवि के उम्मीदवारों को तलाशने की है। अगर अरविंद ये काम कर भी लेते हैं तो दूसरी बड़ी चुनौती अरविंद के साथ ही इन उम्मीदवारों के लिए चुनाव में सालों से राजनीति में सक्रिय राजनीतिक दलों के बाहुबली और पैसे वाले नेताओं से सामना करने का होगा। जनता के भरोसे से अगर आम आदमी पार्टी के लोग चुनाव जीत भी जाते हैं तो भी इनकी संख्या बहुत ज्यादा होने की उम्मीद बहुत कम है...यानि कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी का किंग बनने का रास्ता बेहद कठिन है और अगर ये लोग किंग मेकर बनने की स्थिति में आ जाते हैं तो भी ये किसी किंग (राजनीतिक दल) को चाहकर भी समर्थन नहीं दे पाएंगे...क्योंकि ऐसा करने पर कहीं न कहीं ये उन राजनीतिक दलों की जमात में शामिल हो जाएंगे जो इससे पहले इस वादे के साथ जनता के बीच उतरे थे कि वे भ्रष्टाचार के विरोधी हैं...लेकिन बाद में किंग मेकर बनने की स्थिति में आने पर ये लोग अपना स्वार्थ साधते नजर आए थे...और भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगाने से भी नहीं चूके थे। बहरहाल राजनीति के पुराने मैदान में पुराने और पारंगत राजनीतिक दिग्गजों के साथ इस नई लड़ाई में अरविंद और उनके योद्धा जनता का भरोसा जीतकर मैदान मारने में कितना कामयाब हो पाते हैं इसका फैसला तो देश की जनता ही करेगी...लेकिन मैदान में उतरने से पहले औऱ उसके बाद जिस तरह अरविंद केजरीवाल ने राजनीतिक दिग्गजों के साथ ही उनको पीछे से समर्थन देने वाले कारपोरेट दिग्गजों की नींद हराम की उससे तो यही लगता है कि बाजी कोई भी मारे लेकिन ये लड़ाई न सिर्फ रोचक होगी बल्कि आने वाले 10 सालों में देश की राजनीति की नई दिशा भी जरूर तय करेगी...उम्मीद करते हैं कि एक नेक मकसद के लिए शुरु हुई ये लड़ाई बिना भटकाव, बिना लालच और बिना स्वार्थ के आगे बढ़े और एक नया इतिहास रचे।

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गुरुवार, 22 नवंबर 2012

धर्म नहीं देता जीवन लेने का अधिकार


आयरलैंड में कैथोलिक धर्म के नाम पर डॉक्टर ने जो कुछ वो अपने आप में न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण हैं बल्कि कई सारे सवालों को इसने जन्म दिया है। सिर्फ धर्म के नाम अगर किसी को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता है तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा। हैरानी तब होती है जब ये पता चलता है कि ये काम एक डॉक्टर ने किया है जिसे न सिर्फ भगवान का दूसरा रूप माना जाता है बल्कि डॉक्टर के पास लोग इस उम्मीद से पहुंचते हैं कि डॉक्टर उन्हें एक नया जीवन देगा। लेकिन जब ये डॉक्टर ही धर्म की बेड़ियों में जकड़ा हुआ नजर आए तो फिर क्या किया जा सकता है। इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है कि जिसके हाथों में भगवान ने लोगों की जान बचाने की जिम्मेदारी दी है...वही हाथ धर्म के नाम पर किसी व्यक्ति को मौत के मुंह में लेकर जाते हैं। माना की धर्म सर्वोपरी है लेकिन एक डॉक्टर के लिए उसके पेशे से बड़ा धर्म और क्या हो सकता है...? डॉक्टर के लिए अपनी मरीज की जान बचाने से बड़ा धर्म और क्या हो सकता है...? वैसे भी कोई भी धर्म इस बात की ईजाज़त नहीं देता कि धर्म के नाम पर आप किसी की जान ले लें...वो भी अगर एक डॉक्टर ऐसा कर रहा है तो वो तो अपने धर्म के खिलाफ जा रहा है...धर्म का पालन कहां कर रहा है...!!! डॉक्टर के लिए किसी की जान बचाने से बड़ा धर्म और क्या हो सकता है…? इस दुनिया में भिन्न भिन्न तरह के लोग हैं और उनके लिए धर्म ही जीवन का आधार है...और माना इसे न तो नकारा जा सकता है और न ही नजरअंदाज किया जा सकता है...लेकिन मानवता का धर्म कहता है कि किसी की जान बचाने के लिए अगर आपको इस आधार से परे भी जाना पड़े तो आप जाइए क्योंकि किसी की जान बचाने से बड़ा धर्म और कोई नहीं हो सकता...और एक डॉक्टर के लिए तो ये चीजें सबसे पहले लागू होती हैं...क्योंकि उसका पहला धर्म सिर्फ लोगों के प्राणों को बचाने का ही है। जीवन अनमोल है और मनुष्य जीवन बड़ी मुश्किल से प्राप्त होता है (जैसे कहा जाता है) ऐसे में अगर धर्म को मानने वाला किसी की जान बचाने के लिए इसे नकारते हुए और नजरअंदाज करते हुए आगे बढ़ रहा है तो इससे बड़ी बात तो और कोई हो ही नहीं सकती। जहां तक बात है आयरलैंड में हिंदु धर्म की सविता की मौत की तो ये तो कहीं से भी युक्तिसंगत नहीं है कि कैथोलिक धर्म गर्भ में पल रहे बच्चे को गिराने की ईजाज़त नहीं देता तो मां को मरने के लिए छोड़ दिया जाए। यहां न तो धर्म की बात आड़े आने चाहिए और न ही ये कहीं ये युक्तिसंगत है। आयरलैंड के उस डॉक्टर के लिए माना सबसे बड़ा उसका कैथोलिक धर्म है तो डॉक्टर साहब क्या ये बताएंगे कि क्या कैथोलिक धर्म इस बात की ईजाज़त देता है कि आप गर्भ में पल रहे बच्चे को न गिराने का फैसला लेकर मां और बच्चे दोनों की जान ले लो…? डॉक्टर के अबॉर्शन से इंकार करने पर क्या बच्चे की जान बच गई...? डॉक्टर ने एक जान को बचाने के लिए अबॉर्शन से तो इंकार कर दिया लेकिन इसके फेर में तो मां और बच्चे दोनों जान चली गई...न तो आपने बच्चे को ही बचाया और न ही उसको जन्म देने वाली मां को। इस घटना ने न सिर्फ एक बड़ी बहस को जन्म दिया है बल्कि ऐसा सोचने वालों की सोच पर भी ये घटना एक सवालिया निशान लगाती है...खासतौर पर अगर ये सोच एक डॉक्टर की है तो क्योंकि समाज में आमतौर पर कम पढ़े लिखे अंध विश्वास से घिरे लोगों की सोच इस तरह की होती है ऐसा देखने में आता है लेकिन एक डॉक्टर ऐसा सोचता है तो उसे इस पेशे में रहने का कोई हक नहीं है। ये मेरी व्यक्तिगत सोच है...हो सकता है कुछ लोग इससे सहमत हों और कुछ असहमत लेकिन आखिर मैं इतना कहूंगा कि धर्म का आधार बनाकर किसी की जान लेने से बड़ा गुनाह और कई नहीं हो सकता।

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सही हो तो डर किस बात का...


संसद के शीतकालीन सत्र में एफडीआई पर सरकार के फैसले को लेकर घमासान मचा है। शीतकालीन सत्र के गर्म आगाज़ ने एहसास करा दिया है कि मानसून सत्र की कहानी एक बार फिर से दोहराने की पूरी पटकथा तैयार हो गई है। एफडीआई को लेकर हो हल्ला मचा है। सरकार कहती है कि एफडीआई पर फैसला देशहित में जनता की भलाई के लिए लिया गया है...जबकि विपक्ष कह रहा है कि सरकार ने विदेशी ताकतों के दबाव में इस फैसले को लिया है और इससे खुदरा व्यापारी सड़क पर आ जाएंगे। सरकार के इस फैसले के खिलाफ ममता बनर्जी अविश्वास प्रस्ताव लाती हैं(जो जरूरी सदस्यों के समर्थन न होने पर नामंजूर हो गया) तो मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा नियम 184 के तहत चर्चा और वोटिंग कराने की मांग करती है...लेकिन सरकार धारा 193 के तहत बहस के लिए तैयार है...जिसमें वोटिंग का प्रावधान नहीं है...यानि की सरकार वोटिंग से बचना चाहती है। बड़ा सवाल ये उठता है कि अगर सरकार कह रही है कि एफडीआई पर फैसला देशहित में है तो सरकार क्यों नियम 184 के तहत चर्चा पर राजी नहीं है...? और अगर भाजपा को लगता है कि सरकार के फैसले गलत हैं और उसके आरोपों में दम है तो क्यों भाजपा धारा 193 के तहत बहस से पीछे हट रही है...? ये साफ जाहिर करता है की सत्तापक्ष को जहां सत्ता के जाने का डर सता रहा है तो मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा के नेताओं में भी कहीं न कहीं कॉन्फिडेंस की कमी है। एफडीआई का विरोध कर रहे विपक्ष का एकजुट न होना भी कहीं न कहीं ये सवाल खड़ा करता है कि क्या विपक्ष को वाकई में जनता के हित की देशहित की चिंता है और वे इसलिए एफडीआई पर सरकार के फैसले का विरोध कर रहे हैं...या फिर आने वाले आण चुनाव के लिहाज से अपने अपने राजनीति फायदे देख रहे हैं। ऐसे वक्त में जब समूचा विपक्ष एफडीआई पर सरकार के फैसले के खिलाफ है तो क्या मुख्य विपक्षी पार्टी होने के नाते भारतीय जनता पार्टी की ये जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे इस मुद्दे पर सरकार को घेरने के लिए दूसरे विपक्षी दलों को एकजुट कर सदन में सरकार को घेरने के लिए सामूहिक रणनीति बनाए...लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि भाजपा शायद अपने दम पर सरकार को घेरने की फिराक में लगी है...और शायद ये नहीं चाहती कि इसका क्रेडिट किसी और दल को भी मिले...शायद यही वजह है कि भाजपा ने ममता के अविश्वास प्रस्ताव से किनारा करते हुए नियम 184 के तहत चर्चा और वोटिंग की मांग कर अलग रास्ता चुना। अब भाजपा इसके पीछे भले ही सदन में ऐसे लोगों को बेनकाब करने की बात कह रही हो...जो सरकार के साथ होने का दम तो भरते हैं...लेकिन कहीं न कहीं सरकार के फैसलों पर आंखे तरेरते हैं...लेकिन भाजपा का ये तर्क फिलहाल तो गले नहीं उतरता। बहरहाल शीतकालीन सत्र का पहला दिन जिस तरह विपक्ष के हंगामे की गर्मी में झुलसता हुआ दिखाई दिया...उससे तो यहीं लग रहा है कि शीतकालीन सत्र में आगे की राह सरकार के लिए आसान तो बिल्कुल नहीं है।
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बुधवार, 21 नवंबर 2012

कसाब की मौत का सच


मुंबई हमले के आतंकी कसाब की फांसी को लेकर तमाम सवाल उठ रहे हैं। खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर कसाब को फांसी की खबरें खूब तैर रही हैं...भारतवासी खुशी का ईजहार कर रहे हैं तो कई ऐसे कमेंट भी इन साइट्स में तैरते हुए नजर आए जो कसाब की फांसी पर सवालिया निशान लगाते दिखे। खासकर क्या कसाब की मौत डेंगू से हुई है...? जैसे पोस्ट ने कहीं न कहीं लोगों को ये सोचने पर जरूर मजबूर कर दिया है कि आखिर कसाब की मौत का सच क्या है...? क्या सरकार ने डेंगू से कसाब की मौत होने के बाद उसे फांसी का रूप देने की कोशिश की गई और शायद इसलिए ही फांसी को पूरी तरह से गुपचुप रखा गया। ये सवाल इसलिए भी उठता है क्योंकि कहीं न कहीं कसाब और उसके जैसे कई लोगों को फांसी की सजा मुकर्रर होने के बाद भी लंबे समय तक उन्हें फांसी पर नहीं लटकाया गया। खैर ऐसे कई सवाल और भी हैं मसलन संसद पर हमले के आरोपी अफज़ल गुरु का क्या होगा...? उसे कब कसाब की तरह फांसी देकर उसके अंजाम तक पहुंचाया जाएगा। देर सबरे कसाब को गुपचुप दी गई फांसी और अफजल गुरु को कब फांसी पर लटकाया जाएगा इसका जवाब भी सामने आ ही जाएगा। कसाब की फांसी को दूसरे पहलू से देखें तो एक और सवाल उठता है कि अगर वाकई में कसाब की मौत डेंगू से नहीं बल्कि उसे फांसी दी गई है तो फिर सरकार ने कसाब को फांसी देने के लिए शीतकालीन सत्र से ठीक पहले का वक्त क्यों चुना...? इस वक्त को सिर्फ शीतकालीन सत्र से पहले के वक्त के तौर पर न देखा जाए...क्योंकि ये वक्त 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले का भी वक्त है। क्या यूपीए सरकार ने 2014 के आम चुनाव में कसाब की फांसी के बहाने देश की जनता की सहानुभूति बटोरने की कोशिश करते हुए वोटों को साधने की कवायद तो नहीं की है...? इन सारे पहलुओं को जोड़ा जाए तो सामने आता है कि वर्तमान में यूपीए सरकार अपने कुछ फैसलों को लेकर खासी मुश्किलें में घिरी हुई है और जिसमें भ्रष्टाचार, घोटाले, एफडीआई और महंगाई खास हैं। 22 नवंबर से शुरु हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में जहां विपक्षी दलों ने सरकार को एफडीआई के मुद्दे पर घेरने की पूरी तैयारी कर ली है वहीं अविश्वास प्रस्ताव की तलवार भी सरकार के सिर पर लटक रही है। ऐसे में क्या शीतकालीन सत्र से ठीक पहले मुंबई हमले के दोषी आतंकी कसाब को फांसी देने का सरकार का फैसला क्या इन मुद्दों से विपक्ष और जनता का ध्यान हटाने की कवायद तो नहीं है...?
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मंगलवार, 20 नवंबर 2012

“अविश्वास” का नफ़ा नुकसान


संसद के शीतकालीन सत्र से पहले अविश्वास प्रस्ताव को लेकर हंगामा मचा है। कभी सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने मानो सरकार को गिराने की ठान ली है। एफडीआई के मुद्दे पर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की बात कहते हुए ममता ने इसके लिए कवायद तो तेज कर दी है...लेकिन विपक्षी दलों में आपस में ही अविश्वास के चलते ममता की कवायद फिलहाल रंग लाती नहीं दिखाई दे रही है। मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा के साथ ही तमाम राजनीतिक दल अविश्वास प्रस्ताव में अपने नफे नुकसान का आंकलन कर रहे हैं...शायद यही वजह है कि अविश्वास प्रस्ताव पर किसी ने भी खुलकर अपने पत्ते नहीं खोले हैं। एनडीए ने एफडीआई के विरोध में मत विभाजन का प्रस्ताव लाने की बात कहते हुए अविश्वास प्रस्ताव पर भी अपने विकल्प खुले रखे हैं...यानि कि अविश्वास प्रस्ताव को लेकर एनडीए के पत्ते अभी पूरी तरह खुले नहीं हैं। कुछ ऐसा ही हाल सरकार को बाहर से समर्थन दे रही सपा और बसपा का भी है और दोनों ने अभी तक अविश्वास प्रस्ताव पर चुप्पी साध रखी है तो डीएमके ने भी इस पर सस्पेंस बरकरार रखा है। लेफ्ट की अगर बात करें तो लेफ्ट भी अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में फिलहाल नहीं दिखाई दे रहा है। एनडीए की अगर बात करें तो जाहिर सी बात है कि अगर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर एनडीए ममता के साथ जाता है और अविश्वास प्रस्ताव सदन में गिर जाता है तो इससे न सिर्फ ममता के साथ ही एनडीए की किरकिरी होगी बल्कि सरकार भी मजबूत होगी और ऐसे समय में एनडीए कतई ये नहीं चाहेगा कि सरकार फिलहाल किसी मुश्किल से बाहर निकले और मजबूत हो। वहीं लेफ्ट अपने नफ़े नुकसान का आंकलन कर रहा है...लेफ्ट शायद अभी चुनाव के लिए तैयार नहीं है क्योंकि लेफ्ट नेता इतनी जल्दी पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव को नहीं भूले होंगे और जानते हैं कि ममता की हवा पश्चिम बंगाल में मध्यावधि चुनाव होने की स्थिति में उसका गणित बिगाड़ सकते हैं। जबकि ममता इसलिए अविश्वास प्रस्ताव के लिए जोर भर रही हैं ताकि पश्चिम बंगाल में टीएमसी के पक्ष में बनी हवा को भुनाया जा सके और ज्यादा से ज्यादा सीटों पर विजय पताका फहराई जा सके। लेफ्ट की जैसी स्थिति में उत्तर प्रदेश में बसपा की दिख रही है तो पश्चिम बंगाल की तरह टीएमसी की स्थिति में सपा उत्तर प्रदेश में नजर आ रही है और दोनों ही दल यहां भी अपने अपने नफा नुकसान के गणित में उलझे नजर आ रहे हैं। सपा जहां टीएमसी की तरह विधानसभा चुनाव की हवा के साथ आम चुनाव की नैया पार कराने की फिराक में है तो बसपा इस हवा का प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं है। कुल मिलाकर विपक्षी दलों के अविश्वास औऱ नफा नुकसान की गणित में फिलहाल कांग्रेस को कुछ हद तक राहत मिलती दिखाई दे रही है...लेकिन ये राहत कब आफत में बदल जाए कहा नहीं जा सकता क्योंकि राजनीति में सब कुछ संभव है और हर मिनट में न सिर्फ राजनीतिक दलों के नेताओं के बयान बदलते हैं बल्कि उनका चरित्र भी बदलते हमने देखा है...ऐसे में तो फिलहाल यही कहा जा सकता है कि एफडीआई के मसले पर मुश्किल का सामना कर रही सरकार के लिए संसद का शीतकालीन सत्र हंगामे की गर्माहट से भरपूर होगा।

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भारत में बैन हों सभी सोशल नेटवर्किंग साइट्स


सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने बीते कुछ समय में बहुत तेजी से लोकप्रिय हुई हैं...और इनका इस्तेमाल करने वाले लोगों को संख्या में भी तेजी से ईजाफा हुआ है...लेकिन बाल ठाकरे के निधन के बाद मुंबई बंद पर फेसबुक पर एक लड़की की टिप्पणी पर मुंबई की ठाणे पुलिस ने जिस तेजी से लड़की और उस कमेंट को लाइक करने वाली उसकी सहेली को गिरफ्तार किया उससे तो कम से कम यही जाहिर होता है कि ये बहुत बड़ा अपराध था...इसे मैं बहुत बड़ा अपराध इसलिए कह रहा हूं क्योंकि कई संगीन वारदातें होने के बाद तमाम तरह की बयान बाजियों के बाद भी कभी पुलिस इतनी सक्रिय नहीं दिखाई दी...जितनी सक्रियता पुलिस ने इस मामले में दिखाई उससे तो यही प्रतीत होता है। पुलिस की इस कार्यप्रणाली पर तमाम तरह के मतलब निकालते हैं...पहला तो ये कि लड़की को गिरफ्तार करने वाले पुलिसकर्मी शिवसैनिकों की तरह बाल ठाकरे के अंधभक्त थे...और बाल ठाकरे के खिलाफ ये टिप्पणी बर्दाश्त नहीं कर सके...! दूसरा ये कि शिवसैनिकों के खौफ के आगे पुलिस ने घुटने टेकते हुए ये कार्रवाई की है…! खैर ठाणे पुलिस की इस कार्रवाई का अर्थ समझने वाले समझ ही गए...लेकिन इससे अलग हटकर बात करें तो इससे भी आपत्तिजनक पोस्ट राजनेताओं की सामने आती हैं जिसमें वे अपने पद और गरिमा की मर्यादा का ख्याल न करते हुए अपने विरोधियों को निशाने पर लेते हैं लेकिन तब पुलिस ने इतनी सक्रियता कभी नहीं दिखाई और किसी राजनेता को गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं जुटाई। इस घटना ने तमाम और सवाल खड़े किए हैं कि क्या आम आदमी को सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी बात को अभिव्यक्त करना गलत और गैरकानूनी है...? अगर इसका जवाब हां है तो सरकार को पहले तो सभी सोशल नेटवर्किंग साइट्स को भारत में तत्काल बैन कर देना चाहिए और साथ सही इनका इस्तेमाल कर रहे लोगों में से 90 फीसदी लोगों को भी तत्काल गिरफ्तार कर लेना चाहिए क्योंकि सोशल नेटवर्किंग साईट्स में 90 फीसदी लोगों की पोस्ट कुछ इसी तरह की या कहें कि इससे भी ज्यादा आपत्तिजनक होती है और देश के तमाम राजनीतिक हस्तियों के साथ ही अन्य लोगों के खिलाफ अपना गुस्सा वे इस तरह जाहिर करते हैं। हम लोकतंत्र की बात करते हैं और लोकतंत्र में सबको समान अधिकार होने के साथ ही अपनी बात को अभिव्यक्त करने की आजाद हर किसी के पास हैऐसे में पुलिस की इस कार्रवाई को वाजिब को बिल्कुल भी नहीं ठहराया जा सकता।

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रविवार, 18 नवंबर 2012

हारे हुए घोड़े पर कांग्रेस का दांव !


कांग्रेस ने राहुल गांधी को चुनाव समन्वय समिति का अध्यक्ष बनाकर राहुल गांधी को 2014 के लिए कांग्रेस का चेहरा प्रोजेक्ट करने की कोशिश की है...और जिस तरह राहुल को चुनाव समन्वय समिति का अध्यक्ष बनाने के बाद जिस तरह एक बार फिर से कांग्रेस नेता चाटुकारिता की हदें पार कर रहे हैं उससे तो कम से कम यही जाहिर होता है कि 2014 में कांग्रेस की कमान राहुल गांधी के हाथों में ही रहेगी और मनमोहन सिंह के रिटायरमेंट के बाद पीएम की कुर्सी राहुल गांधी ही संभालेंगे (अगर कांग्रेस महंगाई और भ्रष्टाचार पर जनता के कोप से बच गई तो)। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आखिर सोनिया गांधी ने बिहार और उत्तर प्रदेश में राहुल के नेतृत्व में करारी शिकस्त के बाद एक बार फिर से क्यों हारे हुए खिलाड़ी (कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी) पर दांव खेला है। कहीं कांग्रेस ये तो नहीं सोच रही कि राहुल गांधी के ऊर्जावान और युवा (जो कांग्रेसी कहते हैं) चेहरे के पीछे यूपीए सरकार पर लगे काले धब्बे (भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई आदि) छिप जाएंगे और राहुल के बहाने युवा वोटरों को साधकर यूपीए सरकार अपनी हैट्रिक पूरी कर लेगी। खैर इसका जवाब को अगले आम चुनाव (2014 में प्रस्तावित) में देश की जनता ही देगी...लेकिन देश के वर्तमान हालात और महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का गुस्सा देखकर तो यह अंदाजा लग रहा है कि यूपीए सरकार अपनी हैट्रिक पूरी करे न करे...लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश में राहुल के नेतृत्व में करारी शिकस्त के बाद राहुल गांधी भरी जवानी में सत्ता का स्वाद चखे बिना (अन ऑफिशियली सत्ता को राहुल और सोनिया के हाथ में ही है) राहुल अपने नेतृत्व में करारी शिकस्त का रिकार्ड जरूर बना देंगे। राहुल के इस नए रिकार्ड को बनाने में सोनिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी है और कांग्रेस के बयानवीर दिग्विजय सिंह को भी राहुल के साथ लगा दिया है (सोनिया ने तो कुछ और ही सोचा होगा)। कुछ भी हो लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी कि सोनिया गांधी के लाल राहुल गांधी में दम तो है...राहुल भले ही राजनीति के नवजात हों...लेकिन दशकों से राजनीति कर रहे कांग्रेस के दिग्गज से दिग्गज नेता भी राहुल की प्रशंसा करते नहीं अघाते...लगता है इन दिग्गजों की तेज आंखों को पूत(राहुल गांधी) के पांव पालने में ही दिखाई दे गए हैं...साथ ही इन कांग्रेसी दिग्गजों की गांधी खानदान की इस चाटुकारिता को अपने बुढ़ापे को संवारने की कवायद के रूप में भी देखा जा सकता है...क्योंकि कांग्रेस में चाटुकारों को गांधी परिवार की सेवा औऱ भक्ती का ईनाम जरूर मिलता है...अब देश की पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल(इनके बारे में मैंने कहीं पढ़ा था कि ये सोनिया गांधी की सास और भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए खाना बनाती थी) या फिर हाल में उत्तराखंड के राज्यपाल बने अज़ीज़ कुरैशी साहब का ही उदाहरण देख लेते हैं (उत्तराकंड का राज्यपाल बनते ही इन्होंने खुद कहा था कि गांधी खानदान की वफादारी का ईनाम उन्हें मिला है) या फिर सबसे ताजा उदाहरण केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद साहब का ही ले लेते हैं...जिन्हें सोनिया भक्ति पर सोनिया गांधी ने ईनाम देते हुए भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगने के बाद भी प्रमोट कर विदेश मंत्री बना दिया। बहरहाल राजनीति में ये कोई नई बात नहीं है...मुद्दा वही है कि क्या राहुल गांधी यूपीए सरकार की हैट्रिक लगवा पाएंगे या फिर बिहार और उत्तर प्रदेश के बाद जाने अनजाने खुद की हैट्रिक लगा लेंगे। कई लोगों को मेरे विचार पढ़ने के बाद शायद लग रहा होगा कि ये साहब तो कांग्रेस से खार खाए बैठे हैं...इसलिए जमकर कांग्रेस के खिलाफ कलम घिस रहे हैं (ऐसा है नहीं)...अगर ऐसा सोच रहे हैं तो एक सवाल आप से भी क्या यूपीए सरकार की तमाम उपलब्धियां (भ्रष्टाचार, महंगाई, घोटाले और भी जाने क्या क्या) ये सब बयां नहीं कर रही जो मैंने लिखने की कोशिश की है। मन में कुछ हो तो विनम्र आग्रह है कि अपने विचार (कमेंट बॉक्स) में प्रकट करने से चूकिएगा मत।

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