कुल पेज दृश्य

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

यूपी के ब्राह्मणों का दम !


मुलाकात हुई क्या बात हुई...देश की सियासत में सबसे अहम स्थान रखने वाले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में यूपी की सियासत के पुराने चावल और वरिष्ठ कांग्रेस नेता एनडी तिवारी से मिलने जब राज्य की सत्तारूढ़ दल के सुप्रीमो मुलायम सिंह पहुंचे तो सियासी गलियारों में कुछ ऐसी ही चर्चाएं आम थी। ये चर्चाएं बेवजह नहीं थी...इस मुलाकात ने न सिर्फ देश की सियासत में गर्मी ला दी है...बल्कि कहीं न कहीं यूपी में अपनी खोई जमीन को वापस पाने की कोशिश में लगी कांग्रेस के माथे पर भी बल ला दिए हैं...और ऊपर से मुलायम से मुलाकात के बाद तिवारी का ये बयान की देश की निगाहें मुलायम सिंह की तरफ देख रही हैं...ये समझने के लिए काफी है कि आने वाले दिनों में ये मुलाकात कोई न कोई सियासी रंग जरूर दिखाएगी। वैसे मुलायम सिंह की अगर बात करें तो मुलायम सिंह का पीएम बनने का सपना किसी से छिपा नहीं है...और मुलायम की जोड़तोड़ ये ईशारा भी कर रही है कि मुलायम इस कुर्सी को पाने के लिए हर तिकड़म आजमा रहे हैं। केन्द्र के साथ रिश्तों पर मुलायम सिंह का पल पल बदलता बयान और केन्द्र सरकार के साथ रहने या न रहने पर असमंजस भी ये जाहिर करता है कि मुलायम की ये ईच्छा खूब हिलोरें मार रही है। वैसे एनडी के साथ मुलायम सिंह की मुलाकात की पीछे एक और सवाल जेहन में आता है कि क्या मुलायम सिंह खुद को एनडी के साथ दिखाकर यूपी के ब्राह्म्ण वोटर्स को साधने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं ? इस बात में दम इसलिए भी है क्योंकि यूपी में एनडी तिवारी से बड़ा कोई नेता नहीं है...और यूपी में ब्राह्मण वोटों की तादाद करीब 21 फीसदी है...जो यूपी में किसी भी पार्टी के साथ हो जाएं तो दूसरी पार्टियों के सियासी समीकरण तो बिगाड़ ही सकते हैं। यूपी का इतिहास भी इस बात का गवाह है कि यूपी में ब्राह्मणों ने खूब राज किया है और यूपी के अब तक के 19 मुख्यमंत्रियों में से सबसे ज्यादा 6 मुख्यमंत्री ब्राह्मण थे...जिनमें एनडी तिवारी का भी नाम है...और इन ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों ने यूपी में 23 साल तक शासन किया। यूपी के राजनीति के सूरमा मुलायम सिंह से बेहतर इस बात को कौन समझ सकता है कि अगर तीसरे मोर्चे की शक्ल में केन्द्र की सत्ता में पहुंचना है तो आगामी आम चुनाव में यूपी में सपा को अपने बूते कम से कम 40 से 50 सीटें तो हासिल करनी ही होंगी...तभी जाकर उनका ये सपना आकार ले सकता है। मुलायम ये भी जानते हैं कि उनके इस सपने को आकार देने में यूपी के ब्राह्म्ण वोटर्स महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं...और इस वक्त यूपी में सबसे बड़ा ब्राह्म्ण नेता एनडी तिवारी के अलावा कोई दूसरा नहीं हैं...और एनडी के सहारे ही ब्राह्म्ण वोटर्स को साधा जा सकता है। सवाल ये भी उठता है कि अगर वाकई में एनडी तिवारी सबसे बड़े ब्राह्म्ण नेता हैं तो क्यों नहीं कांग्रेस ने एनडी के सहारे यूपी में अपनी नैया को पार लगाने की कोशिश की...? क्या कांग्रेस आलाकमान को कई मौके पर अपनी साख खो चुके एनडी तिवारी पर भरोसा नहीं था या फिर कांग्रेस आलाकमान नहीं चाहता कि पीएम की कुर्सी की दौड़ में राहुल गांधी के आगे कोई कद्दावर नेता खड़ा हो ? ये सवाल इसलिए भी क्योंकि अगर एनडी तिवारी का चुनाव में पूरा उपयोग कांग्रेस करती तो कांग्रेस में उनके कद का कोई दूसरा बड़ा नेता नहीं है और तिवारी का अनुभव और वरिष्ठता भी सभी नेताओं पर भारी पड़ती है। ऐसे में फिर तिवारी कहीं न कहीं कांग्रेस के सत्ता में आने की स्थिति में प्रधानमंत्री की कुर्सी की स्वाभाविक दावेदार हो जाते और राहुल गांधी को कुछ और साल इंतजार करना पड़ता। खैर सियासत में जो न हो वो कम है...कांग्रेस ने तिवारी पर भरोसा नहीं किया कहें या फिर तिवारी को राहुल की राह का रोड़ा समझा...लेकिन तीसरे मोर्चे के सहारे पीएम पद की कुर्सी पर काबिज होने का सपना देख रहे मुलायम ने जरूर एनडी तिवारी के सहारे यूपी में ब्राह्मण वोटरों को साधने का खेल शुरु कर दिया है...अब मुलायम के इस खेल के सूत्रधार और कौन कौन नेता बनते हैं..ये तो वक्त ही बताएगा।

deepaktiwari555@gmail.com

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

मनमोहन पर भारी “M”


एफडीआई पर सरकार भले ही अपनी सुविधानुसार अपने सहयोगियों का नरम रूख देखते हुए दोनों सदनों में बहस के साथ ही वोटिंग के लिए तैयार हो गई हो...लेकिन मनमोहन सिंह पर एक बार फिर से एम फैक्टर भारी पड़ता दिखाई दे रहा है। एम फैक्टर में सरकार से अलग हो चुकी ममता बनर्जी के साथ ही सरकार की बैसाखी बने मुलायम सिंह और मायावती का पल पल बदलता रूख मनमोहन सिंह की बेचैनी बढ़ाने के लिए काफी है। एफडीआई पर गतिरोध समाप्त होने से पहले तक किसी भी नियम के तहत वोटिंग के लिए तैयार होने की बात करने वाली सपा और बसपा का रूख बदलने से सरकार की मुश्किल बढ़ गई है। मुलायम सिंह की सपा ने जहां राज्यसभा में एफडीआई पर नियम 168 के तहत बहस के बाद वोटिंग में जहां सरकार के खिलाफ वोट करने का ऐलान कर दिया है तो लोकसभा में अपना रूख अभी तक स्पष्ट नहीं किया है। ऐसा ही कुछ हाल बसपा का भी है। सरकार से अलग हो चुकी एक और एम यानि ममता बनर्जी एफडीआई का पहले ही खुलकर विरोध कर रही है। ऐसे में सरकार के पास राहत के नाम पर सिर्फ एक ही एम मौजूद है...ये हैं सरकार के सबसे बड़े सहयोगी एम करूणनिधि...जिनके 18 सांसद ही फिलहाल सदन में सरकार की इज्जत बचाने के लिए सामने आते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि क्या सरकार के सहयोगियों के दोहरे चेहरे का दावा करने वाली भाजपा की बात एफडीआई पर वोटिंग के दौरान सामने आ जाएगी या फिर फिलहाल मनमोहन सरकार की मुश्किल बने एम फैक्टर मुलायम और मायावती सरकार के लिए एक बार फिर से संकटमोचक की भूमिका निभाएंगे...हालांकि इसकी उम्मीद कम है...लेकिन अगर ऐसा हो भी जाता है तो बड़ा सवाल ये है कि लोकसभा में तो सरकार की लाज बच जाएगी...लेकिन राज्यसभा में सरकार का क्या होगा ?

deepaktiwari555@gmail.com

सुनो सचिन...ये आलोचक नहीं प्रशंसक हैं


इसमें कोई शक नहीं कि ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान रिकी पॉन्टिंग एक बेहतरीन खिलाड़ी हैं। पॉन्टिंग के वन डे क्रिकेट के बाद अब टेस्ट क्रिकेट से भी संन्यास की घोषणा के बाद ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट के एक सुनहर युग का अंत हो गया है। 1999 में स्टीव वॉ की कप्तानी में विश्व कप जीतने के बाद पॉन्टिंग की कप्तानी में ही ऑस्ट्रेलिया ने 2003 और 2007 का विश्व कप खिताब अपनी झोली में डालकर विश्व कप खिताब जीतने की हैट्रिक पूरी की थी। लेकिन रिकी पॉन्टिंग के संन्यास को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट खिलाड़ी भारत के सचिन तेंदुलकर के संन्यास से जोडना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं लगता। ये बात सही है कि सचिन का बल्ला जिसने अनगिनत रिकार्ड उगले हैं...बीते कुछ समय से शांत है...ऐसे में इसका ये मतलब तो नहीं कि सचिन अब वो सचिन नहीं रहे...जिसके आगे गेंदबाजी करने में बड़े से बड़ा गेंदबाज भी कांपता था। सचिन ने हर बार अपने आलोचकों को अपने बल्ले से कड़ा जवाब दिया है...और पूरी उम्मीद है कि एक बार सचिन फिर से अपने बल्ले से करारा जवाब अपने आलोचकों को देंगे। वैसे आलोचक चाहें किसी के भी हों...लेकिन असल में आलोचक ही वे लोग होते हैं जो आपको आगे बढ़ने के लिए अच्छा करने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं....वे आपको याद दिलाते रहते हैं कि आप का लक्ष्य क्या है...यानि कि वे आपके आलोचक होते हुए भी आपके सबसे बड़े शुभचिंतक और प्रशंसक हैं। सिर्फ इसलिए सचिन के संन्यास पर हो हल्ला मचा है क्योंकि ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी पॉन्टिंग ने क्रिकेट को अलविदा कह दिया है तो ये गलत है। रिकी पॉन्टिंग खुद इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि वे बल्ले से अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन टीम के लिए नहीं कर पा रहे हैं...और इसलिए वे क्रिकेट को अलविदा कह रहे है...यानि की पॉन्टिंग ये मान चुके हैं कि वे उनके अंदर अब और ज्यादा क्रिकेट नहीं बचा है। सचिन की अगर बात करें तो माना सचिन का बल्ला बीते कुछ समय से शांत रहा है लेकिन मैदान पर आज भी सचिन का आत्मविश्वास गजब का रहता है और सचिन की मौजूदगी टीम के बाकी सदस्यों के लिए ऊर्जा का काम करती है तो विपक्षी कप्तान और गेंदबाजों की मुश्किल। वैसे में सचिन कई मौके पर संन्यास की बात को नकारते हुए अभी और क्रिकेट खेलने की ईच्छा जाहिर कर चुके हैं और तो और हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के सर्वश्रेष्ठ सम्मान ऑर्डर ऑफ ऑस्ट्रेलिया सम्मान से सम्मानित होने के दौरान सचिन ने फिर से ऑस्ट्रेलिया दौरे पर जाने की इच्छा जतायी थी...यानि कि सचिन को पता है कि अभी उनके अंदर क्रिकेट बची है और वे शारीरिक रूप से फिट और मानसिक रूप से इसके लिए तैयार भी हैं। क्या लगता है सचिन जैसा खिलाड़ी जिसे क्रिकेट के खेल में भगवान का दर्जा दिया जाता है...वो खुद कभी चाहेगा कि क्रिकेट से उसकी विदाई निराशाजनक हो...शायद नहीं न...फिर चिंता किस बात कि खेलने दीजिए सचिन को और खेलते हुए देखिए सचिन को...सचिन का बल्ला बोलेगा और अपने बल्ले से सचिन एक बार फिर अपने आलोचकों को माफ करना प्रशंसकों को करारा जवाब देंगे।

deepaktiwari555@gmail.com



अफसोस...फिर हंगामे की भेंट चढ़ेंगे करोड़ों !


देर से ही सही आखिर संसद में एफडीआई पर बना गतिरोध समाप्त हो ही गया। लोकसभा में जहां नियम 184 के तहत एफडीआई पर विपक्ष की मांग को स्पीकर ने स्वीकार कर लिया है तो वहीं राज्यसभा में बहस के साथ ही वोटिंग के प्रावधान वाले नियम 168 के तहत एफडीआई पर चर्चा के लिए सरकार ने सहमति जता दी है। एफडीआई पर गतिरोध समाप्त होने के बाद भी सदन के दोनों सदनों में कार्यवाही सुचारु रूप से चल पाएगी इस पर संशय बरकरार है। हालांकि भाजपा ने सदन को सुचारु रूप से चलने देने का भरोसा तो दिलाया है...लेकिन सरकार के खार खाए बैठी तृणमूल कांग्रेस क्या सदन में चुप बैठेगी ये बड़ा सवाल है...जो आज गुरुवार को देखने को भी मिला जब लोकसभा में नियम 184 के तहत चर्चा के स्पीकर के निर्देश क बाद भी टीएमसी ने जमकर हंगामा किया और सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी। ठीक इसी तरह यूपी में कानून व्यवस्था की स्थिति को लेकर बसपा का हंगामा तो गैस सिलेंडर पर सपा का हंगामा एफडीआई के मुद्दे से अलग सामने आ चुका है...ऐसे में शीतकालीन सत्र आगे भी सुचारु रूप से चल पाएगा इस पर सवाल बने हुए हैं। वैसे नियम लोकसभा में नियम 184 के तहत और राज्यसभा में नियम 168 के तहत एफडीआई पर बहस और वोटिंग के बाद की स्थिति पर भी काफी कुछ सदन की कार्यवाही निर्भर करेगी। अगर वोटिंग में सरकार को पर्याप्त समर्थन मिलता है...जैसी कि उम्मीद है तो क्या उसके बाद विपक्षी दलों की बौखलाहट बाहर निकल कर नहीं आएगी...?  ऐसे में क्या वे सदन में एफडीआई पर फिर हंगामा नहीं करेंगे इसकी क्या गारंटी है…? यानि की विपक्ष की मांग भले ही स्वीकार कर ली गई हो...लेकिन इसके बाद भी शीतकालीन सत्र के आगे सुचारु रूप से चलने के आसार बहुत ज्यादा नजर नहीं आ रहे हैं। एफडीआई के अलावा कई और ऐसे बड़े मुद्दे हैं जिनको लेकर सरकार को घेरने की तैयारी में विपक्ष हैं तो सरकार लोकपाल बिल, भूमि अधिग्रहण बिल, खाद्य सुरक्षा कानून और बीमा और पेंशन सुधार बिल समेत कई अहम बिल सरकार इस सत्र में पास कराना चाहती है...लेकिन सरकार की ये हसरत तभी पूरी होगी जब सदन में हंगामा न हो और सरकार पहली और सबसे बड़ी बाधा एफडीआई से संसद में पार पा ले। बीते मानसून सत्र हंगामे का एक दौर सदन में हम देख चुके हैं...ऐसे में शीतकालीन सत्र में एफडीआई पर गतिरोध समाप्त होने के बाद भी सत्र के सुचारु रूप से चलने की उम्मीद बहुत कम ही है...जिससे एक बार फिर से सदन की कार्यवाही पर खर्च होने वाले करोड़ों रूपए की बर्बादी साफ नजर आ रही है...लेकिन अफसोस न तो सरकार और न ही विपक्ष को इसकी कोई चिंता है।   

deepaktiwari555@gmail.com

बुधवार, 28 नवंबर 2012

मौत पर जश्न सही या गलत ???


कसाब को फांसी से ज्यादा ये जानना जरूरी है कि कसाब को फांसी क्यों दी गई? 26 नवंबर 2008 के पाकिस्तान से समुद्र के रास्ते सवार होकर मुंबई पहुंचे जिन 10 आतंकियों ने हिंदुस्तान को जो जख़्म दिया उसमें से एकमात्र जिंदा बचा आतंकी कसाब ही था। 166 लोगों की मौत के दोषी इस नरसंहार में जीवित पकड़े गए आतंकी ने पकड़े जाने के बाद ये कहने में कोई संकोच नहीं किया कि अगर उसके पास और गोला बारूद होता तो वह और कत्लेआम मचाता और ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान ले लेता। अब अगर ऐसे क्रूर हत्यारे की मौत पर अगर इस हमले से पीड़ित और इस हमले में अपनो को खो चुके लोग जश्न मना रहे हैं तो ये इंसानियत पर आघात कैसे हो गया। बड़ा सवाल ये है कि क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने के योग्य है…? अगर ये मनुष्य होता तो ऐसा अमानवीय काम कभी नहीं करता और सिर्फ अपने आकाओं के एक ऐसे मकसद के लिए कत्लेआम न मचाता...जिस मकसद का रास्ता निर्दोष इंसानों की लाशों से होकर गुजरता है। और ये बात कहां तक जायज है कि निर्दोष लोगों को मारकर मानवता के ये क्रूर दुश्मन तो जमकर जश्न मनाते हैं...लेकिन जब इनकी मौत पर जश्न होता है तो इसे इंसानियत पर आघात कैसे कहा जा सकता है !!! ऐसा तो नहीं था कि कसाब को गिरफ्त में लेने के बाद सीधे मौत की सजा सुना दी गई। कसाब को तो हिंदुस्तान के कानून के मुताबिक अपने बचाव का पूरा मौका दिया गया...इसके बाद दोषी पाए जाने पर ही उसे फांसी पर लटकाया गया। ऐसे दुर्दांत अपराधी की मौत पर गम करना उन पीडितों के साथ निश्चित तौर पर अन्याय कहलाएगा...जिन्होंने इस आतंकी हमले में अपनों को खोया है...किसी ने अपने माता- पिता को खोया तो किसी ने अपने भाई- बहिन को...जिसकी कमी शायद ही कभी पूरी हो पाएगी...असमय ही किसी अपने को खोने का गम क्या होता है ये तो वही बता सकता है जिस पर बीतती है। जहां तक इंसानियत के नाम पर व्यक्तिगत भावनाओं को दरकिनार करने की बात है...तो पहली चीज तो ये है कि इंसानियत से बड़ा धर्म कोई नहीं है....जो व्यक्ति दूसरों के सुख दुख को न समझे...और बेवजह एक ऐसे मकसद के लिए कत्लेआम कर जो अमानवीय हो और निर्दोष लोगों की लाशों से होकर गुजरता है तो ऐसे व्यक्ति की भावनाएं व्यक्तिगत नहीं होती बल्कि ये भावनाएं एक अविकसित दिमाग से होकर उपजती हैं...और ये भावनाएं जब किसी के आंगन का सुख चैन छीनने में आमादा हो तो इंसानियत के नाम पर इन्हें दरकिनार करना ही समस्या का समाधान है। लेकिन अगर ये व्यक्तिगत भावनाएं मुंबई हमले जैसे किसी पीड़ित परिवार के सदस्य या राष्ट्र की हैं...जो कसाब जैसे गुनहगारों की फांसी की वकालत करते हैं तो और उसकी फांसी पर जश्न मनाते हैं तो इसे इंसिनायत पर न तो आघात कहा जएगा औऱ न ही इंसानियत के  खिलाफ क्योंकि कसाब जैसे लोगों को इंसान कहलाने का कोई हक नहीं है...और जिसे इंसान कहलाने का कोई हक नहीं है उसकी व्यक्तिगत भावनाएं को दरकिनार करना ही समझदारी है क्योंकि ये भावनाएं किसी का अहित ही करेंगी।

deepaktiwari555@gmail.com

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

जब मनमोहन सिंह बने शोले के गब्बर सिंह !


राजनीति में नेताओं का चरित्र इतनी तेजी से बदलता है...जितनी तेजी से शायद गिरगिट भी रंग न बदल पाती हो। संसद के शीतकालीन सत्र का ही उदाहरण सामने है...विपक्ष लगातार नियम 184 के तहत एफडीआई पर चर्चा की मांग कर रहा था तो वोटिंग से घबराई सरकार नियम 193 पर बहस के लिए तैयार थी...जिसमें वोटिंग का प्रावधान नहीं है। तब शायद सरकार को इस बात का डर था कि अपने पत्ते बंद करके बैठे उनके सहयोगी 184 के तहत चर्चा के बाद वोटिंग में अपना पाला न बदल लें...इसलिए ही सरकार नियम 184 से बचना चाह रही थी...लेकिन जैसे ही सरकार की सबसे बड़ी सहयोगी द्रमुक ने एफडीआई पर सरकार के साथ आने की बात कही और सपा- बसपा ने भी वोटिंग की बजाए सिर्फ चर्चा पर जोर दिया तो सरकार को मानो ऑक्सीजन मिल गई और बदल गई सरकार के मंत्रियों की जुबान। कहने लगे सरकार एफडीआई पर किसी भी नियम के तहत चर्चा के लिए तैयार है। और तो और खामोश रहने वाले हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी शोले फिल्म के गब्बर सिंह की तरह दहाड़ते नजर आए- हमारे पास नंबर है अब ये नंबर एक दिन पहले तक होने के बावजूद सरकार के पास नहीं था...या यूं कहें कि सरकार को खुद के साथ ही अपने सहयोगियों पर भरोसा नहीं था...तो नियम 193 पर ही एफडीआई पर संसद में सरकार बहस के लिए तैयार थी...लेकिन जैसे ही सहयोगी दलों के रूख में एफडीआई पर नरमी हुआ सरकार की जुबान के साथ ही बॉडी लेंग्वेज में गर्मी आ गयी...और सरकार पूरे विश्वास के साथ किसी भी नियम के तहत चर्चा के लिए राजी हो गई। सहयोगियों की नरमी से सरकार भले ही किसी भी नियम के तहत चर्चा के लिए तैयार हो गई हो...लेकिन एफडीआई पर सहयोगियों की नाराजगी अभी भी बनी हुई है। सरकार को बाहर से समर्थन दे रही सपा जहां एफडीआई पर कड़ा रूख अख़्तियार किए हुए है तो सरकार की सबसे बड़ी सहयोगी द्रमुक सिर्फ इसलिए इस मुद्दे पर सरकार के साथ आई है ताकि भाजपा की ताकत न बढ़े...यानि कि सपा और द्रमुक सदन में वोटिंग की स्थिति में कभी भी अपना पाला बदल सकती हैं...हालांकि इसकी संभावना काफी कम है लेकिन ये राजनीति है...यहां अपने सियासी फायदे के लिए कब कौन किसका दोस्त बन जाए....कब कौन किसका दुश्मन बन जाए...कुछ नहीं कहा जा सकता। अब टीएमसी से बड़ा उदाहरण और क्या होगा...कुछ दिन पहले तक सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली टीएमसी को आज इससे ज्यादा खराब सरकार नजर ही नहीं आती।
deepaktiwari555@gmail.com

जेठमलानी ने क्या गलत कहा ?


भाजपा के राम यानि राम जेठमलानी के तेवर फिलहाल ढीले पड़ते नहीं दिखाई दे रहे हैं। भाजपा की तरफ से कारण बताओ नोटिस जारी होने के बाद जेठमलानी के तेवर और उग्र हो गए हैं और अब जेठमलानी ने ये कहकर खुद की भाजपा से विदाई पर मुहर लगा दी है कि वे नोटिस का...अगर उन्हें वाजिब लगेगा तो जवाब देंगे नहीं तो नोटिस को कूड़ेदान में फेंक देंगे। वहीं भाजपा ने गडकरी को लिखे जेठमलानी के पत्र को भी जवाब न देने लायक कहते हुए इससे पल्ला झाड़ने की कोशिश की है। गौरतलब है कि जेठमलानी ने कहा था कि उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी को एक पत्र लिखा है...और गडकरी चाहें तो खत का मजमून सार्वजनिक करें...जेठमलानी ने खत में क्या लिखा था इसका खुलासा उन्होंने नहीं किया। खैर जेठमलानी के तेवरों में कोई बदलाव न होने के बाद अब ये लगभग तय माना जा रहा है कि नोटिस की अवधि समाप्त होने के बाद भाजपा जेठमलानी को पार्टी से बर्खास्त कर देगी। वैसे देखा जाए तो राम जेठमलानी ने वही बातें कही जो आरोपों से घिरे किसी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से कही जानी चाहिए...लेकिन जब खुद की ही पार्टी के अध्यक्ष इन आरोपों के घेरे में हों तो राजनीति और पार्टी का अनुशासन कहता है कि आप अपने नेता का बचाव करो और उन पर लगे आरोपों को झूठा साबित कर दो, भले ही वे आरोप कितने ही गंभीर क्यों न हों...बस जेठमलानी यही नहीं कर पाए...वर्ना दम तो जेठमलानी की बातों में था। इसका मतलब कहीं न कहीं जेठमलानी को सच बोलने का साहस करने की ही सजा मिली...और ये सच इसलिए भी ज्यादा अहम हो जाता है क्योंकि ये सच जेठमलानी ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ बोल दिया...औऱ अमूमन सच बोलने का साहस नेता नहीं जुटा पाते हैं...वो भी अपनी ही पार्ट के खिलाफ। सच बोलने के बाद जिस तरह जेठमलानी ने भाजपा की चेतावनी और कार्रवाई की धमकी के बाद भी अपने तेवरों में कोई बदलाव नहीं किया उससे ये जाहिर होता है कि जेठमलानी भी कहीं न कहीं जान गए हैं कि वे अब बहुत आगे निकल गए हैं और अब इस राह पर वापस लौटना उनके बस से बाहर है। वैसे भी जेठमलानी के तेवरों को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि अगर भाजपा जेठमलानी की बातों को तूल देगी तो कहीं न कहीं फजीहत भाजपा की ही होगी...शायद भाजपा भी अब नोटिस अवधि समाप्त होने का इंतजार कर रही है ताकि जेठमलानी की पार्टी से बर्खास्तगी की कार्रवाई को पूरा किया जा सके। बहरहाल अब देखना ये होगा कि जेठमलानी नोटिस अवधि के दौरान यू टर्न लेते हैं या फिर भाजपा वर्सेस राम जेठमलानी का चैप्टर जेठमलानी की बर्खास्तगी के साथ क्लोज हो जाएगा।
deepaktiwari555@gmail.com

सोमवार, 26 नवंबर 2012

मुद्दा नियम नहीं...मुद्दा है कि बहस हो


संसद के शीतकालीन सत्र में एफडीआई पर विपक्ष के हंगामे की बर्फ पिघलने का नाम नहीं ले रही है। एफडीआई पर नियम 184 के तहत चर्चा और वोटिंग कराने की मांग पर अड़ी मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा अपने स्टैंड से पीछे हटने को तैयार नहीं हैऐसे में सवाल ये उठने लगा है कि क्या शीतकालीन सत्र का हाल भी मानसून सत्र की तरह ही होगा या फिर एफडीआई पर बना गतिरोध दूर होगा। खैर गतिरोध को दूर करने की कवायद जारी हैदेखते हैं ये कवायद क्या रंग लाती है। जिस एफडीआई को लेकर हो हल्ला मचा है उसकी ही बात करें तो सरकार इसे आर्थिक सुधारों के तहत लिया गया फैसला बता रही रही तो इसका विरोध कर रहे समूचे विपक्ष के साथ ही सरकार के कुछ सहयोगियों को एफडीआई पर सरकार का ये फैसला रास नहीं आ रहा है। किसी भी चीज के दो पक्ष होते हैंएक सकारात्मक पक्ष और दूसरा नकारात्मक पक्षबस जरूरत इस बात की है कि आप उसे किस नजर से देख रहे हैं। ठीक इसी तरह हर चीज की तरह एफडीआई के भी दो पक्ष हैंएक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। सरकार को एफडीआई का सकारात्मक पक्ष दिखाई दे रहा हैजो बताता है कि एफडीआई देश के आर्थिक सुधारों की दिशा में एक बड़ा फैसला हैसाथ ही एफडीआई से रोजगार के अवसर बढ़ेंगेबिचौलियों की भूमिका खत्म होने से सीधे किसानों को उनकी उपज का उचित दाम मिलेगाउत्पादों के भंडारण में मदद मिलने से उत्पाद जल्द खराब नहीं होंगे। विदेशी कंपनियों को कम से कम 30 फीसदी सामान भारतीय बाजार से ही लेना होगाइससे देश में नई तकनीक आएगीऔर लोगों की आय बढ़ेगी। उत्पाद सस्ते होने से उपभोक्ताओं को इसका सीधा फायद मिलेगा। वहीं विपक्ष को एफडीआई का नकारात्मक पक्ष दिखाई दे रहा है जो बताता है किएफडीआई के आने से छोटे और मझले व्यापारी खत्म हो जाएंगेविदेशी कंपनियां सस्ते दामों पर सामान बेचेंगे, जिससे छोटे और मझले व्यापारी इनसे मुकाबला नहीं कर पाएंगे और उनके लिए रोजी रोटी का संकट खड़ा हो जाएगाइसके साथ विदेशी कंपनियां अपने बाजार से सामान खरीदेंगीऐसे में घरेलू बाजार से नौकरियां छिनने का खतरा पैदा हो जाएगाविदेशी कंपनियां बाजार का विस्तार करने की बजाए मौजूदा बाजार पर काबिज हो जाएंगी, जिससे खुदरा बाजार से जुड़े 4 करोड़ लोगों पर इसका असर पड़ेगा। ऐसे और तमाम कारक हैं जिसकी वजह से एफडीआई को लेकर बहस छिड़ी है कि ये हिंदुस्तान के लिए फायदेमंद है या नुकसानदायक। बड़ा सवाल ये है कि अगर हर चीज के नकारात्मक पक्ष को देखा जाए तो फिर तो कोई नई चीज भले ही उसके अच्छे फायदे भी हों वो आकार ले ही नहीं सकतीफिर एफडीआई क्या चीज है। दुर्भाग्य ये है कि एफडीआई के सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों को जानने की बजाएउस पर बहस होने की बजाएहमारी सरकार और विपक्ष इस बात को लेकर लड़ रहे हैं कि बहस किस नियम के तहत होइन सबको शायद बहस से ज्यादा चिंता अपने राजनीतिक फायदे की है। विपक्ष 184 के तहत वोटिंग वाले प्रावधान पर बहस पर ये सोचकर अड़ा है कि शायद ये तीर निशाने पर लग जाए और सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की जाएजबकि सरकार 193 पर बहस के लिए तैयार दिखाई देती है क्योंकि उसमें वोटिंग का प्रावधान नहीं हैयानि सरकार सिर्फ बहस कराकर ही बचना चाह रही है और वोटिंग का सामना करने के लिए तैयार नहीं है। अगर संसद में एफडीआई पर बहस होती है तो एफडीआई के कई ऐसे पहलू निकल कर सामने आ सकते हैं कि जिससे शायद देश की जनता अब तक अंजान होयानि कि बहस होना पहली शर्त है न कि ये कि बहस किस नियम के तहत हो।

deepaktiwari555@gmail.com

रविवार, 25 नवंबर 2012

ये पब्लिक है...सब जानती है


राम के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा ने आखिर राम को ही राम राम बोल दिया। भाजपा ने जिस राम को बाय बाय बोला वो राम पार्टी की नैया पार लगाने की बजाए पार्टी की नैया डुबाने में लगे हुए थे...ऐसे में मिशन 2014 की तैयारी में लगी भाजपा ने नैया डुबाने वाले राम(जेठमलानी) को बाय बाय बोलने में ही भलाई समझी। भाजपा के लिए अपने बयानों से कांग्रेस नेताओं ने उतनी मुश्किल खड़ी नहीं कि उनकी पार्टी के ही वरिष्ठ नेता राम जेठमलानी ने। राम जेठमलानी ने भाजपा के किसी नेता पर नहीं बल्कि सीधे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर ही ऊंगली उठाते हुए इस्तीफे का मांग कर डाली। गडकरी के बचाव में एक तरफ संघ के साथ पूरी भाजपा खड़ी थी तो दूसरी तरफ गडकरी का इस्तीफा मांगकर जेठमलानी ने पार्टी की जमकर किरकिरी कराई। जेठमलानी यहीं नहीं रूके...उन्होंने सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा की नियुक्ति का विरोध कर रही भाजपा के खिलाफ जाकर सिन्हा की नियुक्ति को सही ठहराते हुए पार्टी नेताओं की ही आलोचना शुरु कर दी। यहां तक तो पार्टी ने बर्दाश्त कर लिया लेकिन जेठमलानी कुछ ज्यादा ही ताव में आ गए और उन्होंने पार्टी को उनके खिलाफ कार्रवाई करने की चुनौती देते हुए कह डाला कि- भाजपा के किसी नेता में उनके खिलाफ कार्रवाई करने का साहस ही नहीं है...अब पानी सिर के ऊपर से निकल गया तो भाजपा ने जेठमलानी को राम राम करने में ही भलाई समझी। भाजपा ने भले ही अनुशासन तोड़ने...पार्टी लाइन के खिलाफ बयान देने के साथ ही पार्टी के अध्यक्ष गडकरी पर ऊंगली उठाने पर जेठमलानी को राम राम बोला हो...लेकिन इसके साथ ही कई और सवालों ने जन्म ले लिया है कि क्या भाजपा जेठमलानी के खिलाफ ही कार्रवाई करेगी या फिर यशवंत सिन्हा और शत्रुघन सिन्हा सरीखे नेताओं के खिलाफ भी कोई एक्शन लेगी...जिन्होंने जेठमलानी के सुर में सुर मिलाए थे...? वैसे लगता नहीं कि भाजपा इतना साहस जुटा पाएगी कि जेठमलानी के साथ यशवंत सिन्हा और शत्रुघन सिन्हा जैसे पार्टी के दिग्गज नेताओं पर कार्रवाई करे...वो भी ऐसे वक्त पर जब पार्टी की निगाहें मिशन 2014 पर हैं। लेकिन अनुशासित पार्टी होने का दम भरने वाली भाजपा अगर ऐसा कदम उठाती है और अध्यक्ष के खिलाफ बोलने वालों को पार्टी से बाय बाय बोलती है तो सवाल ये भी उठता है की भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की कीमत पर पार्टी आखिर कितने नेताओं की बलि लेगी...वो भी सिर्फ इसलिए कि गडकरी पर संघ का आशीर्वाद जमकर बरस रहा है। खैर ये सब पार्टी के खिलाफ, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ बोलने वाले उन नेताओं पर भी निर्भर करता है कि क्या वे जेठमलानी चैप्टर से सबक लेते हैं या नहीं। जेठमलानी की विदाई के साथ ही एक और प्रश्न खड़ा होता है कि राजनीति में खुद पर लगे आरोपों पर तो आप पर्दा डालते हैं...जबकि विपक्षियों पर ऐसे ही आरोप लगने पर आप बवंडर खड़ा कर देते हैं…? जेठमलानी के भाजपा से निष्कासन के बाद तो कम से कम ऐसा ही लगता है। भाजपा अध्यक्ष पर लगे आरोपों पर पार्टी का ही कोई नेता सवाल उठाता है तो आपको ये बर्दाश्त नहीं होता...और आप उसको निष्कासित कर देते हैं...लेकिन आपके विपक्षी पर ये आरोप लगते हैं तो आप जमकर हो हल्ला मचाते हैं...ऐसे में आप में और सामने वाले में फर्क ही क्या रह गया…? खैर ये राजनीति है इसे जितना समझने की कोशिश करेंगे उतना उलझते जाएंगे क्योंकि राजनीति में नेताओं की चाल औऱ चरित्र हर पल बदलते रहते है...बस इन्हें आपना फायदा नजर आना चाहिएलेकिन नेता जी ये मत भूलिए ये पब्लिक है...ये सब जानती है...आज नहीं तो क्या वक्त आने पर चुनाव में आपको सब समझा देगी।

deepaktiwari555@gmail.com