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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

बजट- 3 चेहरे और 2014 पर निशाना..!


वित्त मंत्री पी चिदंबरम के आम बजट पेश करने से पहले लोगों को बजट से बड़ी उम्मीदें थी लेकिन जैसे – जैसे पी चिदंबरम का बजट भाषण आगे बढ़ता गया सारी उम्मीदें धराशायी होती गयी। आयकर में छूट पर मध्य वर्ग और आम आदमी की राहत की उम्मीदों ने दम तोड़ दिया तो महंगाई डायन से राहत दिलाने के लिए चिदंबरम के पिटारे से कुछ खास नहीं निकला।  
चिदंबरम ने महिलाओं, युवाओं और गरीब तबके को  जरूर भारत का चेहरा बताया और इन तीनों के चेहरे पर खुशी लाने के लिए विशेष जोर देने की बात तो कही लेकिन क्या बड़ा सवाल ये है कि क्या बजट में विशेष प्रावधान के बाद भी इन भारत की महिलाओं, देश के युवा वर्ग और गरीब तबके के चेहरे पर खुशी दिखाई देगी..?
क्या इऩ तीन चेहरों पर खुशी लाने की चिदंबरम की कोशिश 2014 में यूपीए की हैट्रिक के साथ ही राहुल गांधी की राह आसान करने की सियासी चाल तो नहीं है..?
भारत में वर्तमान में खुद को सबसे असुरक्षित महसूस कर रही भारत के पहले चेहरे महिलाओं की अगर बात करें तो वित्त मंत्री चिदंबरम ने महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा का हवाला देते हुए महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण की राह खोलते हुए 1,000 करोड़ के निर्भया फंड निधि बनाने का प्रस्ताव दिया है...जिसका संरचना, कार्य क्षेत्र और प्रयोग का खाका तैयार करने का जिम्मा महिला एंव बाल विकास विभाग के पास रहेगा। इस फंड से पीड़ित महिलाओं को तत्काल मदद दी जाएगी। इसके साथ ही बजट में वित्त मंत्री ने महिलाओं के लिए पहला सरकारी महिला बैंक स्थपित करने की घोषणा की है।
लेकिन यहां सवाल ये है कि पीड़ित की क्या सिर्फ आर्थिक मदद से पीड़ित का दर्द कम हो जाएगा..? या फिर देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार आ पाएगा..?
युवा वर्ग जिसे चिदंबरम भारत का दूसरा चेहरा मानते हैं वह आज बेरोजगारी का बड़ा दंश झेल रहा है या फिर अपने काबिलियत से समझौता कर औनी पौनी सैलरी पर काम करने को मजबूर है। हालांकि चिदंबरम ने युवा वर्ग को बेरोजगारी के दंश से बाहर निकालने के लिए कौशल विकास की योजनाओं को गति देने की घोषण की है और इसके तहत 1,000 करोड़ रूपए का फंड रखा है। चिदंबरम की मानें तो इसके तहत गरीब युवाओं की दक्षता को समझ कर उन्हें प्रशिक्षण के बजाए सरकारी या गैर सरकारी कंपनियों में नौकरी दिलाई जाएगी। 2013-14 में इसके लिए 90 लाख युवाओं को दक्ष कर नौकरी दिलाने की सरकार की योजना है।
सवाल यहां भी खड़ा होता है कि क्या सिर्फ गरीब युवाओं को दक्ष बनाकर उन्हें नौकरी दिलाने से बेरोजगारी के दंश से निजात मिल पाएगी..?
क्या सिर्फ 90 लाख युवाओं को प्रशिक्षण के बाद रोजगार उपलब्ध कराकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है..? हालांकि इससे भी युवाओं को ही फायदा होगा लेकिन बेहतर होता सरकार अगर देश के तकरीबन 5 करोड़ बेरोजगारों के विषय में सोचती और युवाओं को प्रशिक्षण के साथ ही रोजगार के नए अवसर सृजन करने की ओर कदम बढ़ाती या बेरोजगार युवाओं को आत्म निर्भर बनाने की दिशा में कोई कदम उठाया जाता।
भारत के तीसरे चेहरे गरीबों की मुस्कान लौटेने के लिए सरकार ने डायरेक्ट कैश ट्रांस्फर स्कीम को पूरे देश में लागू करने की घोषणा की है। इसके तहत हर साल 30 से 40 हजार रूपए सब्सिडी के रूप में गरीबों के खाते में डाल दिया जाएगा। भारत में गरीबों की अगर बात करें तो ये संख्या करीब 42 करोड़ से अधिक है...जिनमें से अधिकतर का बैंकों में खाता नहीं होना और भारत के ग्रामीण इलाकों में बैंकों की शाखाएं न होना भी सरकार की इस महत्वकांक्षी योजना की सफलता पर सवाल खड़े करने के लिए काफी है।  
वित्त मंत्री पी चिदंबरम भले ही बजट से भारत के इन तीनों चेहरों पर मुस्कान लाने की बात कर रहे हैं लेकिन कहीं न कहीं ये चिंता 2014 के आम चुनाव को लेकर ज्यादा दिखाई देती है। देश की तकरीबन 48 करोड़ महिलाओं के साथ ही तकरीबन 5 करोड़ बेरोजगार युवाओं और करीब 42 करोड़ से अधिक गरीबों को साधने की ओर कदम बढ़ाकर चिदंबरम दरअसल 2014 में यूपीए सरकार की हैट्रिक के साथ ही राहुल गांधी की राह आसान करने की एक कोशिश करते दिखाई दे रहे हैं। शायद यही वजह है कि चिदंबरम ने महिलाओं, युवाओं और गरीबों के लिए तो सरकारी खजाना खोलने की ओर कदम बढ़ाएं हैं लेकिन बड़े सुधारों या सुधारवादी उपाय की घोषण से बचने की कोशिश की है ताकि 2014 में किसी तरह के राजनीतिक नुकसान से बचा जा सके..!

deepaktiwari555@gmail.com

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

शराब पियो मस्त रहो..!


जैसे तैसे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने विजय बहुगुणा भी अपने जैसे तैसे कारनामों को लेकर ही चर्चा में हैं..! चाटुकारिता की हदें पार करने पर पहले ही दिल्ली में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की फटकार खा चुके बहुगुणा को लगता है राज्य की जनता से कोई सरोकार नहीं है..! है। राहुल गांधी की नसीहत का भी लगता है विजय बहुगुणा पर कोई असर नहीं हुआ जिसमें राहुल ने बहुगुणा को अपने काम में ज्यादा ध्यान लगाने को कहा था..!
तभी तो बहुगुणा सरकार एक तरफ रसोई गैस पर दी जा रही 5 प्रतिशत वैट की छूट को वापस लेकर राज्य की जनता पर महंगाई का अतिरिक्त बोझ डालती है लेकिन शराब के दामों पर 20 प्रतिशत की वैट पर छूट दे देती है। बहुगुणा सरकार के इस फैसले से तो ऐसा लगता है जैसे उत्तराखंड की जनता के लिए रसोई गैस से ज्यादा जरूरी शराब है..! रसोई गैस के मुद्दे पर ही मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे साकेत बहुगुणा को टिहरी उपचुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा लेकिन इसके बाद भी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को शायद ये बात समझ में नहीं आई..!
दरअसल बहुगुणा कैबिनेट ने 26 फरवरी 2013 को कैबिनेट की बैठक में नई आबकारी नीति 2013-14 को मंजूरी दे दी। इसके तहत बहुगुणा सरकार ने बीते साल के मुकाबले शराब की बिक्री से 150 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व जुटाने का लक्ष्य रखा है। देखा जाए तो वैट में छूट से सरकार को राजस्व में नुकसान झेलना पड़ेगा लेकिन सरकार के तारणहारों ने शराब को सस्ती कर कम कीमत, ज्यादा बिक्री का फार्मूला अपनाया है। इनका सोचना है की शराब सस्ती होगी तो शराब की ज्यादा बिक्री होगी और सरकार के राजस्व में बढ़ोतरी होगी..!
बहुगुणा सरकार का ये फैसला सीधे तौर पर राज्य की जनता के साथ मजाक नहीं तो और क्या है..?
एक तरफ शराब के श्राप से त्रस्त खासकर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की महिलाएं शराबबंदी के खिलाफ लामबंद होकर आंदोलन करती हैं तो दूसरी तरफ सरकार शराब सस्ती कर इसे बढ़ावा देने का काम कर रही है..! सरकार को महंगाई के बोझ तले दबी जनता की फिक्र नहीं लेकिन शराब माफियाओं और शराबियों की खूब फिक्र है..!
लोगों के घर में रसोई गैस न होने से चूल्हा जले न जले लेकिन सरकार को फिक्र है कि लोगों को सस्ती शराब कैसे उपलब्ध कराई जाए..!
सरकार रसोई गैस में वैट में 5 प्रतिशत की छूट सिर्फ इसलिए वापस ले लेती है कि सरकार को नुकसान उठाना पड़ रहा है लेकिन शराब में वैट में 20 प्रतिशत की छूट देने में सरकार को कोई परेशानी नहीं है।
बहुगुणा साहब को पहाड़ के लोगों की पहाड़ सी दिक्कतें नहीं दिखाई देतीं..! टूटी हुई सड़कें नहीं दिखाई देती..! पेयजल किल्लत नहीं दिखाई देती..! रोजगार की तलाश में वीरान होते गांव के गांव नहीं दिखाई देते लेकिन शराब माफियाओं के हित सरकार को खूब दिखाई देते हैं।
वैसे भी एक साल के कार्यकाल में राज्य के विकास के लिए..राज्य के लोगों के विकास के लिए कुछ कर पाने में नाकाम रहे बहुगुणा साहब शायद यही चाहते हैं कि शराब पियो और मस्त रहो..! वाह रे बहुगुणा..!

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मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

ऊंची उड़ान- झुलस न जाएं पंख..!


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए...रेल मंत्री पवन बंसल साहब ने इस शेर के जरिए रल बजट में भारतीय रेल की सूरत बदलने की बात तो कही लेकिन बंसल साहब के रेल बजट का दूर दूर तक इस शेर से कोई वास्ता दिखाई नहीं दिया। इतना जरूर हुआ कि बंसल साहब ने बिना रेल किराए में बढ़ोतरी किए रेल सफर जरूर महंगा कर दिया। बंसल साहब ने फ्यूल सरचार्ज के साथ ही तत्काल टिकट और आरक्षण रद्द कराने के शुल्क में भी बढोतरी करते हुए पिछले दरवाजे से जनता की जेब काटने का इंतजाम जरूर कर दिया। रेल की सूरत बदले न बदले लेकिन बंसल साहब का शेर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की संसदीय सीट रायबरेली पर एकदम सटीक बैठता है। रायबरेली में तीन नई ट्रेनें देने के साथ ही रायबरेली में रेल कोच फैक्ट्री के बाद अब पहिए बनाने की फैक्ट्री लगाने का एलान तो कम से कम यही कहानी कह रहा है..!
न बहारों की बात करनी है न सितारों की बात करनी है, तैर पर दरिया पार करना है किनारों की बात करनी है...जाहिर है पवन बंसल इस शेर के जरिए 2014 के आम चुनाव का दरिया पार कर यूपीए सरकार की हैट्रिक लगाने की ओर ईशारा कर रहे थे। इसके लिए बकायदा केन्द्र की सत्ता का रास्ता कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश के साथ ही पंजाब औऱ हरियाणा को भी कई योजनाएं देकर रेल मंत्री ने 2014 के लिए सियासी संतुलन साधने की भी कोशिश भी की। लेकिन चुनावी साल में रेल मुसाफिरों को रेल बजट से पहले जनवरी में यात्री किराये में ईजाफे का झटका देने के बाद रेल बजट में पिछले दरवाजे से जेब काटना और मालभाड़े में 5 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी करना रेल मंत्री के दरिया पार करने के ख्वाब पर कहीं पानी न फेर दे..!
पेड़ पर बैठे परिदों को गिरने का भय नहीं, उसे विश्वास है खुद के पंखों पर...इस शेर के जरिए रेल मंत्री पवन बंसल ने यूपीए सरकार के फैसलों पर रेल बजट को लेकर खुद के फैसलों पर पूरा विश्वास होने की बात कहते हुए ईशारों ईशारों में 2014 की चुनावी वैतरणी बिना किसी भय के पार करने का भी दावा किया लेकिन रेल मंत्री शायद ये भूल गए कि ज्यादा ऊंची उड़ान परिदों के परों को झुलसा भी देती है और ऐसे परिदें फिर कभी उड़ान नहीं भर पाते हैं। वैसे भी यूपीए सरकार तो पहले से ही भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई की ऊंची उड़ान भर रही है ऐसे में रेल बजट में पिछले दरवाजे से महंगाई की एक और बेफ्रिक उड़ान कहीं चुनावी साल में यूपीए सरकार के पंखों को न झुलसा दे..!   

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सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

सेक्स एजुकेशन- कितनी कारगर..?


देश की राजधानी में गैंगरेप के बाद जस्टिस जे एस वर्मा समिति ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है कि स्कूली पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा को शामिल किया जाए ताकि बच्चों को सही गलत जैसे व्यवहार और आपसी संबंधों के बारे में जानकारी हो।
सिफारिशों पर गौर करते हुए केन्द्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री एम एल पल्लम राजू ने इन सिफारिशों पर सभी राज्यों से बातचीत के बाद इसे अमल में लाने के संकेत भी दिए हैं लेकिन स्कूली पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा को शामिल करने को लेकर सवालों की फेरहिस्त काफी लंबी है। मसलन यौन अपराधों पर लगाम कसने के लिए सेक्स एजुकेशन कहां तक सही है...?
सेक्स भारत जैसे देश के लिहाज से आज भी एक तरह से सामान्य बातचीत में न होते हुए भी एक वर्जित शब्द की तरह है और लोग इस पर बात करने से चर्चा करने में संकोच करते हैं..! आज भी देश की बड़ी आबादी ऐसी है जिन्हें इस विषय पर बात करना किसी अपराध करने की तरह लगता है शायद यही वजह है कि स्कूली पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा को शामिल करने को लेकर इसके विरोधियों की तादाद अधिक है जबकि शहरीकरण की जद में आए खुले विचारों के लोग या कहें कि बुद्धिजीवी वर्ग इसके पक्ष में दिखाई देते हैं।
जहां तक बात है कि क्या वाकई में सेक्स एजुकेशन से यौन अपराधों में नकेल कस पाएगी तो ये थोड़ा मुश्किल सवाल लगता है क्योंकि जब तक अपराध करने वाले की सोच में मानसिकता में बदलाव नहीं आएगा इस पर रोक लग पाना संभव नहीं लगता।(पढ़ें-दिल्ली गैंगरेप- यार ये लड़की ऐसी ही होगी !)।
हां, इसका इतना फायदा जरूर हो सकता है कि जानकारी के अभाव में जो मामले अब तक सामने नहीं आ पाते थे उन पर से पर्दा हटने में इससे मदद मिलेगी। जो शायद एक वजह बन सकती है कि अपराधी अगर बेनकाब होगा तो वो दोबारा किसी के साथ ऐसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचेगा क्योंकि यौन अपराध के पीड़ित की चुप्पी कहीं न कहीं अपराधी का हौसला बढ़ाती हैं। जानकारी होने के बाद जब ज्यादा से ज्यादा मामलों पर से पर्दा हटेगा तो शुरुआत में ऐसा दिखाई देगा कि यौन अपराध के मामले बढ़े हैं। कुल मिलाकर दूरदर्शी परिणाम सकारात्मक होंगे और कुछ हद तक इस पर लगाम कसी जा सकेगी हालांकि सोच और मानसिकता का पैमाना यहां पर भी लागू होता है।
जहां तक सवाल है कि क्या सेक्स एजुकेशन के जरिए भटकते युवा सही मार्ग पर आ सकते हैं तो मुझे नहीं लगता कि सिर्फ सेक्स एजुकेशन से युवाओं का भटकाव कम होगा या खत्म हो जाएगा क्योंकि सेक्स एजुकेशन के साथ ही युवा किस माहौल में...किस परिवेश में रह रहे हैं ये फेक्टर भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। (पढ़ें- बलात्कार- 1971 से 2012 तक !)
तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में यौन शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम से ज्यादा दिन तक दूर रखना आसान नहीं है...देर सबरे इसे स्कूली पाठ्यक्रम में शमिल करना ही पड़ेगा लेकिन सरकार सिर्फ सेक्स एजुकेशन के लॉलीपाप से महिलाओं को दी जाने वाली सुरक्षा से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती। इसके साथ भी सरकार को महिलाओं की सुरक्षा को लेकर संजीदगी से कदम उठाने ही होंगे।  
ऐसे नहीं है कि महिलाओं के प्रति अपराधों  की रोकथाम के लिए सेक्स एजुकेशन ही एकमात्र रास्ता है क्योंकि अपराधों की रोकथाम के सबसे पहली चीज किसी पीड़ित के अंदर ये विश्वास जगाना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि अगर वो अपना दर्द लेकर पुलिस के पास पहुंचती है तो वहां पर उसे अपमानजनक स्थिति का सामना नहीं करना पड़ेगा। उसका मजाक नहीं बनाया जाएगा बल्कि प्राथमिक्ता के आधार पर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का न सिर्फ भरोसा मिलेगा बल्कि दोषियों के खिलाफ कार्रवाई भी होगी।

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कृप्या यहां ज्ञान न बांटे...यहां सब ज्ञानी हैं..!


अपने कार्यकाल के दौरान दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भले ही जनता के लिए कुछ न कर पायी हों लेकिन चुनावी साल में शीला दीक्षित ने जनता के लिए सरकारी खजाना तो नहीं खोला लेकिन अपने ज्ञान का पिटारा जरूर खोल दिया है। शीला जी आजकल जहां जा रही हैं बस ज्ञान बांटती फिर रही हैं। दिल्ली में भूख से हो रही मौतों को रोकने में नाकाम रही शीला दीक्षित पहले अपना ज्ञान बघारते हुए कहती हैं कि 600 रूपए महीने में 5 लोगों के परिवार का पेट बड़ी आसानी से भर जाता है यानि कि बकौल शीला एक व्यक्ति 4 रूपए में भरपेट भोजन कर सकता है। लेकिन इसका जवाब उनके पास नहीं होता कि दिल्ली में भूख से हर हफ्ते एक व्यक्ति क्यों दम तोड़ देता है..? (पढ़ें- शीला जी दिल्ली में भूख से क्यों होती है मौत ?)
अब दिल्ली वालों को सस्ती बिजली उपलब्ध कराने में नाकाम शीला जी दिल्ली वालों से कह रही हैं कि ज्यादा बिजली का बिल नहीं भर सकते तो खपत कम करो...शीला जी यहीं नहीं रूकती वे ये भी कहती हैं कि बिल नहीं भर सकते तो कूलर क्यों चलाते हो...कूलर की जगह पंखे चलाओ..!
बिजली दिल्ली वालों को एक के बाद एक झटके दे रहे हैं लेकिन शीला जी के पास इसका कोई ईलाज नहीं है। लेकिन चुनावी साल है ईलाज नहीं कर सकते तो क्या सलाह तो दे ही सकते हैं...शीला दीक्षित ने भी ऐसा ही किया और दिल्लीवालों को खपत कम करके बिजली का बिल कम करने की सलाह दे डाली। अब शीला दीक्षित भले ही उनके बयान का गलत मतलब निकालने के लिए मीडिया के सिर इसका ठीकरा फोड़ कर सफाई देती फिर रही हों लेकिन कहते हैं न दिल की बात तो जुबां पर आ ही जाती है...शीला जी के जुबां पर भी आ गई तो इसमें उनका क्या दोष..?
गनीमत तो ये रही कि प्याज के आसमान चढ़ते दामों पर शीला दीक्षित ने कृषि मंत्री शरद पवार को सिर्फ पत्र लिखकर कीमतों पर नियंत्रण के लिए प्याज का निर्यात कम करने का अऩुरोध किया। दिल्ली वालों से ये नहीं कहा कि प्याज खरीदने की औकात नहीं है तो प्याज खाना छोड़ दो। (पढ़ें- एक प्याज की ताकत)।
शीला जी आप दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं...सरकार चला रही हैं, निश्चित तौर पर आप ज्ञानी होंगी लेकिन आपके लिए एक बिन मांगी सलाह है जो आपका सामान्य ज्ञान भी बढ़ा देगी..! बात ये है कि ये जो जनता है न ये भी बड़ी ज्ञानी है...वो भी दिल्ली की जनता सोचो कितनी ज्ञानी होगी...आपसे अनुरोध है कि आप सरकार की मुखिया होते हुए भूख से हो रही मौत नहीं रोक सकती..! दिल्ली वालों को सस्ती बिजली नहीं उपलब्ध करा सकती तो कृप्या करके अपना ज्ञान भी अपने पास ही रखें। कहीं ऐसा न हो कि चुनावी साल में जनता का अपने सामान्य ज्ञान से आपकी सरकार का गणित और भूगोल सब बिगाड़ दे। 

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रविवार, 24 फ़रवरी 2013

इंसाफ- मौत के बाद..!


हैदराबाद बम धमाकों की गूंज के बीच एक ख़बर ऐसी भी थी जो न तो मीडिया की सुर्खियां बन पाई और न ही इस पर बहुत ज्यादा चर्चा हुई लेकिन ये ख़बर देश की निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालतों में वर्षों से लंबित लाखों मामलों से संबंधित करोड़ों लोगों के साथ ही पश्चिम बंगाल के पार्थ सारथी सेन रॉय के परिजनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। हालांकि पार्थ सारथी सेन रॉय इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पार्थ सारथी सेन रॉय की 32 साल पहले 27 फरवरी 1981 को बामर लॉरी एंड कंपनी लिमिटेड से बर्खास्तगी को गलत ठहराते हुए रॉय के हक में फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कंपनी को रॉय की बर्खास्तगी से लेकर सेवानिवृति तक के वेतन का 60 फीसदी रॉय के वारिस को देना का आदेश दिया है। (पढ़ें- मौत के बाद मिला सुप्रीम कोर्ट से इंसाफ)
दरअसल पार्थ सारथी सेन रॉय मई 1975 में बामर लॉरी एंड कंपनी लिमिटेड में भर्ती हुए थे लेकिन कंपनी ने 27 फरवरी 1981 को रॉय को कंपनी से बर्खास्त कर दिया। रॉय ने अपनी बर्खास्तगी को कलकत्ता हाईकोर्ट में चुनौती दी लेकिन कंपनी ने हाईकोर्ट में दलील दी कि वह सरकारी कंपनी नहीं है और हाईकोर्ट को इस मामले में सुनवाई का अधिकार नहीं है। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में केस आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पाया का हाईकोर्ट ने इस मामले का मेरिट के आधार पर फैसला नहीं किया और कंपनी को सार्वजनिक उपक्रम मानते हुए रॉय के पक्ष में फैसला दिया।
लंबी कानूनी जंग के बीच रॉय ने दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन मौत के बाद ही सही रॉय को इंसाफ जरूर मिला। रॉय इंसाफ की इस लड़ाई को अधूरा जरूर छोड़कर चले गए लेकिन रॉय का केस अपने आप में भारतीय न्याय व्यवस्था को लेकर कई सवाल खड़े करता है। जिसमें सबसे पहला सवाल सालों लंबी अदालती लड़ाई को लेकर है जो आम आदमी में न्याय व्यवस्था के प्रति एक अविश्वास पैदा करता है..!
हिंदुस्तान में आजादी के 65 साल बाद भी लोग सही होने के बाद भी कानूनी लड़ाई लड़ने से परहेज करते हैं। वजह साफ है- कानूनी लड़ाई का लंबा इतिहास। एक आम आदमी जो सुबह उठने के साथ ही अपनी दो वक्त की रोजी रोटी के जुगाड़ में जुट जाता है अगर किसी कारणवश ऐसी स्थिति में फंसता है कि उसे अदालत तक जाना पड़ सकता है तो वह अपने कदम पीछे खींच लेता है।
वो सालों तक चलने वाली कानूनी लड़ाई के लिए न तो मानसिक रूप से तैयार होता है और न ही आर्थिक रूप से। साथ ही अदालत के चक्कर काटने पर रोजी रोटी का जुगाड़ वो कैसे करेगा ये सवाल भी मुंह बांए उसके सामने हर वक्त खड़ा रहता है।
बात ये नहीं है कि अदालतों से न्याय नहीं मिलता...पार्थ सारथी सेन रॉय का ताजा केस सामने है...रॉय को इंसाफ मिला...रॉय के हक में फैसला हुआ लेकिन एक बहुत लंबी थका देना वाली कानूनी लड़ाई के बाद...ये लड़ाई इतनी लंबी थी कि रॉय ने इस बीच दुनिया को ही अलविदा कह दिया।
एक और ऐसे ही केस का जिक्र करना चाहूंगा...मुंबई के एम यू किणी का जिन्हें 24 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद इंसाफ मिला जब सीबीआई की विशेष अदालत ने यूनियन बैंक ऑफ इंडिया में अधिकारी किणी पर लगाए सभी आरोपों को समाप्त कर उन्हें बरी कर दिया। किणी कहते हैं कि 24 साल की लंबी कानूनी लड़ाई न सिर्फ थकाऊ थी बल्कि ये 24 साल उनके लिए किसी सजा से कम नहीं थे। (पढ़ें- 24 साल बाद  एक बैंक अधिकारी को मिला इंसाफ)
निचली अदालतों को छोड़कर अगर देश के सर्वोच्च अदालत की ही अगर बात करें तो एक आंकड़े के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या करीब 60 हजार के करीब है तो देशभर के विभिन्न उच्च न्यायालयों में वर्ष 2011 तक लंबित मामलों की संख्या करीब 43 लाख 22 हजार है यानि लगभग आधा करोड़। इससे देशभर की विभिन्न अदालतों में लंबित मामलों की संख्या का अंदाजा भी आसानी से लगाया जा सकता है। वहीं सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के 31 पदों में से 6 रिक्त हैं तो देशभर के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 895 में से 281 पद खाली पड़े हैं जो कि न्यायालयों में लंबित मामलों की एक वजह है। (पढ़ें- चौटाला केस- भ्रष्टाचारियों के लिए सबक)
अपने हक के लिए लड़ रहे एक आम आदमी को सालों तक चलने वाली लंबी कानूनी लड़ाई न सिर्फ अंदर से तोड़ देती है बल्कि न्याय व्यवस्था पर लोगों के भरोसे को भी डिगाती है। उसे न्याय मिलता तो है लेकिन कई बार देर से मिला न्याय सजा के समान होता है या फिर इसे पाने के लिए वे अपना सब कुछ गंवा चुके होते हैं...और अधिकतर की स्थिति पार्थ सारथी सेन रॉय और एम यू किणी जैसी ही होती है...जो इस बात पर बार-बार सोचने पर मजबूर करती हैं कि ऐसा न्याय आखिर किस काम का..!

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