छुक - छुक गाड़ी में
सफर करना अब जेब पर और भारी पड़ेगा। देशवासियों के अच्छे दिन कब आएंगे, इसका तो
फिलहाल पता नहीं लेकिन महंगे दिन की शुरुआत जरुर हो गई है। याद भी तो यही आ रहा है
कि वादा तो अच्छे दिन लाने का हुआ था, महंगे दिन लाने का नहीं, लेकिन ऐसा क्यों हो
रहा है, इसका संतोषजनक जवाब फिलहाल नहीं मिल रहा है। रेल मंत्री सदानंद गौड़ा साहब
तर्क देते हैं कि ये फैसला तो यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही हुआ था, इसे तो
उन्होंने सिर्फ लागू करने का काम किया है। गौड़ा साहब की दलील तो इसी ओर ईशारा
करती है कि यूपीए सरकार के तमाम और फैसलों से भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होनी
चाहिए फिर ताजा मामलों की ही बात करें तो तकरीबन एक दर्जन राज्यों के राज्यपालों
को पद छोड़ने का दबाव क्यों बनाया जा रहा है ? जाहिर है सरकार रेल
किराया बढ़ाने के फैसले को रिव्यू भी कर सकती थी लेकिन शायद ऐसा हुआ नहीं। वैसे
इसका जवाब प्रधानमंत्री मोदी से पूछा जाए तो शायद जवाब मिल जाए, लेकिन आजकल उनकी
चुप्पी मनमोहन सिंह की याद दिला रही है। इसलिए भी क्योंकि मोदी को इतना चुप देखने
की आदत नहीं है।
हां, ये अगर
प्रधानमंत्री की कुर्सी का असर है तो अलग बात है। क्योंकि दस सालों तक
प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान मनमोहन सिंह अपने मौन के लिए ही ज्यादा जाने
जाते थे। सत्ता हासिल करने के लिए वादे करना और सत्ता में आने के बाद उन वादों को
पूरा करना इतना आसान होता तो शायद यूपीए सरकार सत्ता से बेदखल ही नहीं होती। पीएम
इन वेटिंग से पीएम तक का सफर तो मोदी ने देश की जनता से अच्छे दिन लाने के वादे के
साथ पूरा कर लिया लेकिन मोदी जी पहले से ही महंगाई की मार झेल रहा देश ये सवाल
आपसे पूछ रहा है कि क्या उनके अच्छे दिन आएंगे, जिसका वादा आपने किया था ? हालांकि गोवा में प्रधानमंत्री
मोदी भारत की दम तोड़ती अर्थव्यवस्था में
सुधार के लिए कड़वी दवाई पिलाने की बात खुद कह चुके थे लेकिन कड़वी दवा की पहली ही
डोज इतनी हैवी होगी और इतनी जल्दी इस रूप में होगी ये शायद ही किसी ने सोचा था। जाहिर
है रेल किराए में 14.2 फीसदी और माल भाड़े में 6.5 फीसदी तक की बढ़ोतरी का असर आम
आदमी की जेब पर ही पड़ेगा क्योंकि ये बढ़ोतरी रेलवे में सभी श्रेणियों में की है। इसका
असर सिर्फ रेल यात्रा पर ही पड़ता तो भी ठीक था लेकिन माल भाड़े में बढ़ोतरी से
खाद्य पदार्थों के साथ ही कई अन्य चीजें भी महंगी हो जाएंगी।
अगर कड़वी दवा से
देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आती है और आम जनता को इसका दीर्घकालिक लाभ मिलेगा तो
शायद ही किसी को कड़वी दवा से परहेज होगा क्योंकि बीमारी ठीक करने के लिए कड़वी
दवा पीनी ही पड़ती है, लेकिन सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले राजनीतिक दलों के
राजनेताओं की बातों पर शायद अब इस देश की जनता बहुत ज्यादा भरोसा नहीं है, हालांकि
2014 के आम चुनाव में देश की जनता ने ये भरोसा मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा पर
जताकर उसे सत्ता तक पहुंचाया है, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या नरेन्द्र मोदी इस
भरोसे को कायम रख पाएंगे या फिर अच्छे दिन सिर्फ सपनों में ही रह जाएंगे ?
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