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शनिवार, 8 दिसंबर 2012

अति आत्मविश्वास या अभी बाकी है खुमारी !


मुंबई में 10 विकेट की करारी हार के बाद लगा था कि भारतीय क्रिकेट टीम की अहमदाबाद जीत की खुमारी उतर गई है...लेकिन कोलकाता में भारतीय टीम के एक और तय मानी जा रही हार से तो लगने लगा है कि अहमदाबाद की खुमारी अभी भी बाकी है। शायद यही वजह है कि पहले भारतीय क्रिकेट टीम के गेंदबाज जहां अपनी मन माफिक पिच और शानदार रिकार्ड वाले ईडन गार्डन में पहले तो पानी भरते नजर आए और उसके बाद जब बल्लेबाजों की बारी आई तो वे भी अंग्रेज गेंदबाजों के आगे आत्मसमर्पण करते हुए तू चल मैं आया की तर्ज पर पवेलियन की राह पकड़ते नजर आए। वो तो भला हो आर अश्विन का जिसने कोलकाता में भारत को पारी की हार से बचा लिया और अंग्रेजों की जीत के आगे दीवार बनकर खड़े हो गए। पांचवा दिन अभी बाकी है...अश्विन 83 रन पर तो ओझा 3 रन पर नाबाद हैं...लेकिन चमत्कार की उम्मीद कम है...क्रिकेट में बड़े बड़े चमत्कार होते तो हमने देखे हैं...लेकिन पांचवे दिन जिस स्थिति में कोलकाता टेस्ट में भारत है...वहीं चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी होगा। हां इंद्रदेव की कृपा रही तो अंग्रेजों की जीत की उम्मीद पर जरूर पानी फिर सकता है...लेकिन कोलकाता का मौसम फिलहाल इसकी ईजाजत देता नहीं दिख रहा है। कोलकाता के ईडन गार्डन मैदान के इतिहास पर अगर नजर डालें तो पता चलता है कि अंग्रेज जनवरी 1977 के बाद से इस मैदान में कोई मैच नहीं जीत पाए हैं। यानि कि अगर अंग्रेज इस मैच को जीत जाते हैं तो वे 35 साल बाद ईडन गार्डन में कोई जीत हासिल करेंगे। 1977 में अंग्रेजों ने भारत को ही इस मैदान में 10 विकेट से करारी मात दी थी...और एक बार फिर से ईडन गार्डन में इंग्लैंड 1977 का इतिहास दोहराने की स्थिति में नजर आ रहा है। 1977 के बाद से इंग्लैंड ने भारत के खिलाफ ईडन गार्डन में तीन मैच खेले हैं...जिनमें से दो मैच ड्रा रहे तो एक मैच भारत ने जीता। भारत नें 1993 में इंग्लैंड के खिलाफ इस मैदान में इंग्लैंड के खिलाफ खेले आखिरी मैच में इंग्लैंड को 8 विकेट से मात दी थी। भारत की अगर बात करें तो ईडन गार्डन में भारत का रिकार्ड शानदार रहा है और भारत इस मैदान में फरवरी 1999 के बाद से कोई मैच नहीं हारा है। फरवरी 1999 में पाकिस्तान ने भारत को टेस्ट मैच में 46 रनों से मात दी थी। इस मैच के बाद भारत ने ईडन गार्डन में सात टेस्ट मैच खेले थे जिनमें से भारत ने 5 मैचों में जीत दर्ज की थी तो दो मैच ड्रा रहे हैं। इनमें मार्च 2001 में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बाच खेला गया ऐतिहासिक टेस्ट मैच भी शामिल है...जिसमें वीवीएस लक्ष्मण की चमत्कारिक 281 और राहुल द्रविड़ के शानदार 180 रनों और हरभजन सिंह के पूरे मैच में लिए गए 13 विकेट की बदौलत बदौलत भारत ने न सिर्फ अपनी शर्मनाक हार को टाला था बल्कि इस मैच में ऑस्ट्रेलिया को 171 रनों से मात भी दी थी। भारत ने आखिरी मैच इस मैदान में नवंबर 2011 में वेस्टइंडीज के खिलाफ खेला था जिसमें भारत ने वेस्टइंडीज को पारी और 15 रनों से हराया था। ईडन गार्डन का ये रिकार्ड भी शायद भारतीय टीम के अति आत्मविश्वास का कारण रहा...और यही अति आत्मविश्वास भारत को कोलकाता में शर्मनाक हार की ओर अग्रसर कर गया। ऐसा नहीं है कि पिच ने बल्लेबाजों को सपोर्ट नहीं किया। बैट पर बॉल खूब आ रही थी...इंग्लैंड कप्तान कुक के शानदार 190 रन, कॉम्पटन के 57 , ट्राट के 87 और पीटरसन के 54 रन के बाद भारतीय पारी में आर अश्विन की चौथे दिन नाबाद 83 रनों की पारी ये बयां करने के लिए काफी है। पिच पर टिक नहीं पाए तो भारत के वो शीर्ष बल्लेबाज जिन्हें कागज पर कोई देख ले तो इन पर आंखें मूंद कर अरबों का दांव लगा दे...लेकिन मुंबई के बाद कोलकाता में भी ये खिलाड़ी नाम के अनुरुप खेल नहीं दिखा पाए। बहरहाल कोलकाता में भी जब टीम का हश्र हूबहु मुंबई टेस्ट की तरह होता दिखाई दे रहा है तो ऐसे में देखना ये होगा कि 13 दिसंबर से नागपुर के विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन मैदान में शुरु हो रहे भारत – इंग्लैंड सीरीज के आखिरी टेस्ट मैच में भारतीय खिलाड़ी क्या गुल खिलाते हैं...हालांकि नागपुर में नवंबर 2010 में न्यूजीलैंड के खिलाफ खेले गए आखिरी मैच में भारत ने न्यूजीलैंड को पारी और 198 रनों से मात देकर बड़ी जीत तो दर्ज की थी...लेकिन बड़ा सवाल ये है कि नागपुर में जीत के सिलसिले को भारत क्या इंग्लैंड के खिलाफ आगे बढ़ा पाएगा या फिर नागपुर में भी मुंबई और कोलकाता की कहानी दोहराई जाएगी। उम्मीद करते हैं निराशा का ये सिलसिला टूटेगा और भारतीय टीम लय में लौटेगी।
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गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

माया-मुलायम के कितने मुंह ?


मायावती और मुलायम सिंह...कुछ भी हो दोनों चीज बड़ी गजब हैं...दोनों लोकसभा में एफडीआई पर सरकार के फैसले का विरोध करते हुए वोटिंग के दौरान सदन से गैरहाजिर रहकर सरकार की राह आसान करते हैं....तो  राज्यसभा में मायावती सरकार के पक्ष में वोट करने का ऐलान करती हैं...आखिर 24 घंटे में ऐसा क्या हो गया कि जो मायावती एक दिन पहले एफडीआई पर सरकार के फैसले का विरोध कर रही थी अचानक से सरकार की हां में हां मिलाते हुए साथ खड़ी दिखाई देती हैं...सीबीआई का डर तो इसे पहले दिन ही कहा जा रहा था और सुषमा के ऐसा कहने पर ही मायावती राज्यसभा में सुषमा स्वराज पर जमकर बरसी और इन आरोपों को निराधार ठहराने लगी। मायावती ने तो उल्टा भाजपा पर आरोप लगा दिया कि 2004 चुनाव से एक साल पहले भाजपा ने ऑफर दिया था कि बसपा उनके साथ मिलकर आम चुनाव लड़े...और ऐसा करने से मना करने पर भाजपा ने सीबीआई का दुरुपयोग उनके खिलाफ किया। हो सकता है माया की बात सच हो...लेकिन यहां पर भी सवाल है कि माया ने आज ये राज क्यों खोला ? 24 घंटे में माया का पलटना सारी कहानी खुद ब खुद बयां कर रहा है कि क्यों लोकसभा में एफडीआई पर सरकार के खिलाफ जहर उगलने वाली बसपा राज्यसभा में सरकार के साथ हो ली...ये सीबीआई का डर नहीं है तो और क्या है ? मुलायम सिंह भी इससे जुदा नहीं हैं...बहस से पहले तो सपा सांसद राज्यसभा में सरकार के खिलाफ वोट करने का दम भर रहे थे...लेकिन अचानक से सपा के सुर बदल गए और सपा वोटिंग के दौरान सदन से गैर हाजिर रहने की बात करने लगी। खास बात ये है कि सपा ने राज्यसभा में अपने स्टैंड पर राज्यसभा में अपने पत्ते उस वक्त तक नहीं खोले जब तक बसपा ने अपना रुख साफ नहीं किया। लेकिन जैसे ही बसपा ने सरकार के पक्ष में मतदान करने का ऐलान किया...सपा ने भी अपना रूख साफ कर दिया। सपा शायद ये जान गई थी कि बसपा के सरकार के साथ होने से सरकार की राह आसान हो गई है...ऐसे में अब सरकार के खिलाफ वोट करना सरकार से दुश्मनी ही मोल लेना होगा...ऐसे में क्यों न वोटिंग में सदन से गैर हाजिर रहा जाए...इससे एफडीआई का विरोध की बात भी सही हो जाएगी...और सरकार से भी दुश्मनी नहीं होगी। सपा लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी सदन से गैर हाजिर रहकर सरकार को फायदा ही पहुंचा रही है तो बसपा ने सरकार के पक्ष में मतदान की बात कहते हुए सरकार के आगे आत्मसमर्पण ही कर दिया। एफडीआई पर भले ही सरकार संख्याबल के आधार पर लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी विजयी होती दिखाई दे रही हो...लेकिन लोकसभा और राज्यसभा में एफडीआई पर बहस में न सिर्फ सरकार की नैतिक हार हुई है बल्कि इसने राजनीतिक दलों(सपा और बसपा) का दोगलापन भी उजागर कर दिया है कि कैसे अपने हितों के लिए राजनीतिक दल किसी भी हद तक जा सकते हैं...साथ ही ये भी कि कैसे सरकार अपने फैसले को सही ठहराने के लिए अपने फैसले के पक्ष में वोटिंग कराने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है...इसके लिए उसे चाहे सीबीआई का सहारा ही क्यों न लेना पड़े।

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बुधवार, 5 दिसंबर 2012

CBI का डर या राजनीति का दोगलापन


लोकसभा में एफडीआई पर जरूरी संख्याबल मिलने पर सरकार फूली नहीं समा रही है...और इसे आर्थिक सुधारों की जीत बता रही है...लेकिन एफडीआई पर दो दिनों तक बहस में सामने आए एफडीआई के सच और झूठ के बाद वोटिंग से ऐन पहले बसपा और सपा सांसदों का सदन से वॉक आउट करना अपने आप में पूरी कहानी कह गया कि इसकी पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी। भाजपा और उसके घटक दल, लेफ्ट और टीएमसी का विरोध बहस के बाद भी वोटिंग में दिखा भी लेकिन मुलायम सिंह और बसपा सांसद दारा सिंह संसद में तो एफडीआई पर सरकार को कोसते हुए इसके खिलाफ खूब आग उगलते दिखाई दिए...लेकिन वोटिंग के वक्त सदन से गैर हाजिर रहकर सपा और बसपा का दोहरा चरित्र सामने आ गया। ये उजागर करता है कि एफडीआई का विरोध करते हुए किसानों और व्यापारियों का हिमायती होने के दावे करने वाली सपा और बसपा के दावों में कितना दम है। अब वोटिंग से गैर हाजिर रहने का फैसला सीबीआई का डर था या कुछ और इसे तो मुलायम और मायावती ही बेहतर बता सकते थे...लेकिन समझने वाले समझ गए कि माया और मुलायम हैं क्या चीज। एफडीआई को तो हर हाल में लागू करने की तो सरकार बहस औऱ वोटिंग से पहले ही ठान चुकी थी...लेकिन एफडीआई पर लोकसभा में बहस का इतना फायदा जरूर हुआ कि दो दिनों तक देश की जनता ने हर राजनीतिक दल का असली चेहरा देखा...और इसको उजागर करने वाले ये लोग खुद ही थे। सरकार के तर्कों को झुठलाते हुए जहां समूचे विपक्ष सहित सरकार के ही कुछ कथित सहयोगियों ने सरकार की पोल खोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी तो एफडीआई के फैसले को सही ठहराने में सरकार और उसके परम सहयोगी दलों ने कोई कसर नहीं छोड़ी और एफडीआई पर दोहरी नीति अपनाने का आरोप लगाते हुए विपक्ष की नीयत पर ही सवाल खड़े कर दिए। सपा और बसपा ने रही सही कसर पूरी कर दी और देश की जनता को बता दिया कि दोगलापन क्या होता है। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि लोकसभा में एफडीआई पर जीत की खुशी क्या सरकार के चेहरे पर राज्यसभा में भी रह पाएगी ? ये सवाल इसलिए भी खड़ा होता है क्योंकि राज्यसभा का गणित फिलहाल सरकार के पक्ष में नहीं दिखाई दे रहा और न ही राज्यसभा में मुलायम और माया की कृपा अगर सरकार पर बरस गई तो भी सरकार को तार पाएगी। वैसे इसके जवाब के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा...क्योंकि अब बारी राज्यसभा में एफडीई पर बहस और वोटिंग की है।  

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मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

हमाम में सब नंगे !


एफडीआई पर आखिर बहस शुरु हो ही गयी...बहस में पक्ष और विपक्ष के तर्कों के बाद ये सामने आने लगा है कि वास्तव में हर कोई राजनीतिक दल सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे को ही देख रहा है। भाजपा ने जहां एनडीए सरकार में मनमोहन सिंह के राज्यसभा के नेता के तौर पर एफडीआई का विरोध करने की बात कहते हुए मनमोहन सिंह पर सवाल उठाए तो कांग्रेस जवाब देती है कि 2004 में एफडीआई का भाजपा समर्थन कर रही थी और अब भाजपा पलट गयी है। सरकार का पक्ष रख रहे कपिल सिब्बल एफडीआई पर बहस के औचित्य पर ही सवाल उठा देते हैं तो भाजपा सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा करते हुए कहती है कि कांग्रेस के ही प्रियरंजन दास मुंशी ने इसे देश के खिलाफ बताया था। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के तो भाषण में भी पीएम की कुर्सी को पाने की चाहत साफ दिखाई दी...मुलायम सिंह सोनिया गांधी से ये निवेदन करते हुए साल-दो साल के लिए फैसला वापस लेने की बात करते हैं कि इस फैसले का फायदा 2014 के चुनाव में उठा ले जाएगी...और आप(कांग्रेस) और हम(सपा) हाथ मलते रह जाएंगे। मुलायम ये भी कहना नहीं भूले कि मौका मिला तो हम(सपा) फिर आपको(कांग्रेस) समर्थन दे देंगे...वर्ना आप हमें समर्थन दे देना। मुलायम सांप्रदायिक ताकतों(भाजपा) को रोकने के लिए किसी भी हद तक जाने की बात करते हैं...क्योंकि मुलायम को तो लगता है कि भाजपा से तो उसका गठजोड़ हो नहीं सकता। बसपा के दारा सिंह भी कुछ ऐसी ही दलील देते हुए नजर आते हैं...वे वोटिंग के वक्त फैसला लेने की बात तो करते हैं लेकिन बसपा का क्या फैसला होगा ये सबको पता है क्योंकि मायावती को अपनी गर्दन सीबीआई के हाथों में नहीं देनी है। कल तक सरकार से कंधा से कंधा मिलाने वाली टीएमसी को अब सरकार ही उसकी सबसे बड़ी दुश्मन लगती है और टीएमसी मनमोहन सिंह पर अंडर अचीवर का खिताब धोने के लिए औऱ अमेरिका के दबाव में एफडीआई पर फैसला लेने की बात करती है...लेकिन ये वही टीएमसी है जो कुछ दिनों पहले तक सरकार के हर फैसले पर उसके साथ थी। बड़ी विडंबना है राजनीतिक दलों को हर तरफ मैनेज करके चलना पड़ता है सत्ता में रहो तो बैशाखी के सहारे खड़ी सरकार को बचाने की चिंता और विपक्ष में रहो तो अगले चुनाव में सत्ता पाने की चाहत...अब इसके लिए अपनी बात से पलटना पड़े या फिर किसी दूसरे को सत्ता में आने से रोकने के लिए दुश्मन का भी हाथ क्यों न थामने पड़े...राजनीतिक दल इससे गुरेज नहीं करते...आखिर राजनीति में आए ही सत्ता पाने थे...सत्ता का स्वाद न चख पाए तो फिर बेकार है राजनीति करना।

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सोमवार, 3 दिसंबर 2012

गैस त्रासदी- स्कूल किताब से हकीकत तक


भोपाल गैस त्रासदी...एक ऐसा सच जिसका सामना करने की हिम्मत शायद किसी में नहीं है...न इस त्रासदी का शिकार हुए लोगों में(क्योंकि ये काला सच आज भी रोंगटे खड़े कर देता है) और न ही मध्य प्रदेश और न ही केन्द्र सरकार में (त्रासदी के वक्त 1984 से लेकर अब तक की)। वजह बिल्कुल साफ है...त्रासदी को 28 बरस पूरे हो गए हैं...लेकिन न तो इस त्रासदी के जिम्मेदार वॉरेन एंडरसन को सजा हुई और न ही पीड़ितों को इंसाफ मिल पाया। मुआवजे के नाम पर करोड़ों रूपए रेवड़ियों की तरह बांटे गए लेकिन वास्तविक रूप में ऐसे लोगों को संख्या भी कम नहीं जिन्हें मुआवजा तक नहीं मिल पाया..इसके उल्ट ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं जिन्होंने मुआवजे के नाम पर खूब चांदी काटी और गैस पीड़ित का तमगा लगाए ये लोग लखपति बन बैठे। गैस पीड़ितों के हक में आवाज़ उठाने वाले करीब एक दर्जन से ज्यादा गैस पीड़ित संगठन दावा तो गैस पीड़ितों के हिमायती होने का करते हैं और मौका लगने पर धरना प्रदर्शन कर खूब सुर्खियां बटोरते हैं...लेकिन गैस पीड़ितों के नाम पर बटोरे गए देश विदेश से करोड़ों की चंदे की रकम को कितना इनके कल्याण पर खर्च करते हैं...इसका अंदाजा गैस पीड़ितों की हालत और गैस पीड़ित संगठनों के आकाओं के आलीशान घर और रहन सहन को देखकर लगाया जा सकता है(सभी गैस संगठन इसमें शामिल नहीं)। जून 2008 से लेकर 2010 तक भोपाल में पत्रकारिता के दौरान इन चीजों को मैंने खुद महसूस भी किया। बचपन में किताबों में जब भोपाल गैस त्रासदी के बारे में पढ़ाई करते हुए हाथ में बच्चे को पकड़े एक महिला की मूर्ति देखते वक्त ये कभी नहीं सोचा था कि एक वक्त ऐसा भी आएगा जब मुझे गैस पीड़ितों पर काम करने का मौका मिलेगा। सोचा ये भी नहीं था कि इस दौरान ऐसी हकीकत से भी रूबरू होना पड़ेगा जिसके बारे में कल्पना तक नहीं की थी। त्रासदी के ठीक बाद से ही केन्द्र औऱ राज्य सरकार ने पूरी ईमानदारी के साथ अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर तो इस त्रासदी के मुख्य आरोपी वॉरेन एंडरसन को विदेश भगाने तक का आरोप लगा। हालांकि कांग्रेस इसका हमेशा खंडन करती रही है...लेकिन वॉरेन एंडरसन को भोपाल के जिलाधिकारी की सरकारी गाड़ी में एयरपोर्ट पहुंचाना और वहां से सरकारी विमान से दिल्ली पहुंचाना ये सवाल खड़े करता है कि अर्जुन सिंह और राजीव गांधी की भूमिका इस मामले में संदिग्ध थी। भोपाल में चीजें आज भी नहीं बदली हैं...यूनियान कार्बाइड फैक्ट्री आज भी लोगों को मौत बांट रही है। 2-3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात ये मौत मिथाईल आइसोसायनाइट के रूप में हवा में घुलकर लोगों को तड़पा तड़पा कर मार रही थी...तो आज फैक्ट्री में मौजूद करीब 18 हजार मीट्रिक कचरा जहरीला रसायनिक कचरा भोपाल की हवा, पानी में घुलकर लोगों को बीमारियों की सौगात दे रहा है। आश्चर्य उस वक्त होता है जब मौत बांट रहे इस रसायनिक कचरे के निष्पादन की बजाए इस पर राजनीति होती है। इससे भी बड़ा आश्चर्य ये जानकर होता है कि ये राजनीति करने वाले राजनीतिक दल नहीं बल्कि वो गैस पीड़ित संगठन हैं जो नहीं चाहते कि ये रसायनिक कचरा फैक्ट्री परिसर से निकाल कर इसे नष्ट किया जाए। अगर ऐसा नहीं होता तो जबरलपुर हाईकोर्ट के इस कचरे को गुजरात के अंकलेश्वर में नष्ट करने के आदेश के बाद ये कचरा कब का नष्ट किया जा चुका होता। लेकिन ये कहा जाता है कि भोपाल के गैस पीड़ित संगठनों ने गुजरात के कुछ एनजीओ के साथ मिलकर गुजरात में इसका विरोध करवाना शुरु कर दिया...जिसके बाद गुजरात सरकार ने अंकलेश्वर में कचरा नष्ट किए जाने से इंकार कर दिया। इसके बाद इंदौर के निकट पीथमपुर में जब इस कचरे को नष्ट किया जाने लगा तो एक बार फिर से इसका विरोध शुरु हो गया। कुछ गैस पीड़ित संगठन दलील देते है कि इस कचरे को डाउ कैमिकल अपने देश लेकर जाए और वहीं इसे नष्ट किया जाए। इसके खिलाफ तो वे विरोध प्रदर्शन करते हैं लेकिन इससे भोपाल की हवा और पानी में हो रहे प्रदूषण से बीमार हो रहे लोगों की इनको चिंता नहीं है। देखा जाए तो सिर्फ गैस पीड़ित संगठन ही इसके लिए जिम्मेदार नहीं है बल्कि कहीं न कहीं सरकार का गैर जिम्मेदार रवैया भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। राजनीति से ऊपर उठकर सरकार ने राजनीतिक ईच्छाशक्ति दिखाई होती तो शायद 28 साल बाद भी कम से कम भोपाल की फिज़ा में ये जहर नहीं घुल रहा होता। उम्मीद करते हैं अगले साल जब ये त्रासदी 29 साल पूरे कर चुकी होगी तो कम से कम फैक्ट्री परिसर में बिखरे पड़े हजारों टन जहरीले रसायनिक कचरे का निष्पादन हो चुका होगा।

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रविवार, 2 दिसंबर 2012

पीएम इन वेटिंग...बड़ी आत्म संतुष्टि


आत्म संतुष्टि बड़ी चीज है...हमारे देश में कोई प्रधानमंत्री बने या न बने...लेकिन पीएम इन वेटिंग बनकर राजनेता संतुष्ट हो जाया करते हैं...अब देखिए 2014 के आम चुनाव में करीब 16 महीने का वक्त है...सत्ता में कौन आएगा इसका पता नहीं ! नेता चुनाव जीत पाएंगे या नहीं इस पर प्रश्न चिन्ह बरकरार है ??? लेकिन पीएम की कुर्सी के लिए दावेदारी में कोई कसर बाकी नहीं है। कुछ खुद दावेदारी कर रहे हैं तो कुछ को आगे किया जा रहा है...भाजपाई गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम को हवा दे रहे हैं तो कांग्रेस में राहुल गांधी से बड़ा नेता नहीं है (जो कांग्रेसी कहते हैं)...लेकिन द इकोनॉमिस्ट ने ये कहकर कांग्रेस में हड़कंप मचा दिया है कि पी चिदंबरम 2014 में पीएम की कुर्सी के लिए राहुल गांधी से बड़े दावेदार हैं। इस फेरहिस्त में एक और नाम जुड़ गया है मुलायम सिंह यादव का...खास बात ये है कि मुलायम के नाम को आगे बढ़ाया है दिग्गज कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी ने। अब कांग्रेस में तिवारी की पूछ हो न हो...लेकिन मुलायम का तिवारी प्रेम खूब हिलोरें मार रहा है...और तिवारी ने भी अपने समाजवादी प्रेम को ये कहकर जाहिर कर दिया कि वे पुराने समाजवादी हैं। खैर बात पीएम इन वेटिंग की हो रही है...और तीन – तीन राजनीतिक दलों के नेता भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्णा आडवाणी की तरह पीएम इन वेटिंग का खिताब हासिल करने इस ओर बढ़ रहे हैं या कहें कि हासिल कर चुके हैं। सवाल ये है कि इन तीनों दलों की सरकार बनने की स्थिति में (अगर ये स्थिति आती है) क्या वे वेटिंग से उनकी पीएम की कुर्सी की लिए सीट कन्फर्म हो पाएगी या फिर कोई दूसरा नेता इस बाजी को मार ले जाएगा। पहले भाजपा की बात करें तो अगर एनडीए सत्ता में आता है तो मोदी फिलहाल भाजपा में वेटिंग में सबसे आगे खड़े हैं...और प्रबल दावेदार भी हैं...लेकिन मोदी के नाम पर एनडीए में एकराय न होना और खासकर एनडीए की अहम सहयोगी जद यू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से उनकी तल्खियां उनकी राह का रोड़ा बन सकती है...ऐसे में एनडीए का सबसे बड़ा दल होने के नाते किसी और भाजपा नेता के मोदी की रेखा को पार कर इस कुर्सी पर काबिज होने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। यानि की आडवाणी के बाद 2014 के बाद अगले आम चुनाव तक ही सही लेकिन मोदी ऐसा दूसरा नाम हो सकते हैं जो इस खिताब को हासिल कर सकते हैं। अब बात कांग्रेस की करें तो पीएम की कुर्सी का ख्वाब तो कई दिग्गज कांग्रेसी नेताओं के मन में है...लेकिन आलाकमान के आगे मुंह खोलने की हिम्मत शायद कांग्रेसी नहीं रखते...इसलिए ही पीएम के दावेदार के लिए जब भी मुंह खोलते हैं तो कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के आलावा दूसरा कोई नाम किसी नेता की जुबान से नहीं सुनाई देता। इसकी बानगी फिर देखने को मिली जब मशहूर पत्रिका द इकोनॉमिस्ट ने पी चिदंबरम का नाम राहुल गांधी से आगे बताया तो कांग्रेसी इसको बकवास करार देते नजर आए। राहुल का ये सपना 100 प्रतिशत साकार हो सकता है लेकिन शर्त है कि 2014 में यूपीए की हैट्रिक हो...लेकिन यूपीए 2 के कर्म और राजनीतिक हालात तो जनता को इसकी ईज़ाज़त देते नहीं दिखाई दे रहे हैं। पीएम इन वेटिंग में लंबे वक्त से खड़े एक और शख्स सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह की अगर बात करें तो इस दौड़ में लंबे समय से शामिल मुलायम का ये सपना 2014 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा के प्रदर्शन और तीसरे मोर्चे के गठन पर निर्भर करता है...जिसके लिए मुलायम कोशिश तो भरसक कर रहे हैं...हर सियासी चाल चल रहे हैं...लेकिन इसके बाद भी मुलायम के इस सपने के साकार होने के आसार बहुत कम हैं...यानि कि आडवाणी की तरह पीएम इन वेटिंग का खिताब आजीवन मुलायम के पास रहने के प्रबल आसार हैं। खैर आम चुनाव में अभी वक्त है और पीएम की कुर्सी का ख्वाब संजोए कई नेता भी इसी उम्मीद में जिए जा रहे हैं कि 2014 में न सही...कभी तो नंबर आएगा।

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