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शनिवार, 28 सितंबर 2013

क्या अब जनता दिखाएगी दम ?

2014 के आम चुनाव से पहले आम जनता की नजरों में खुद को एक दूसरे से बेहतर साबित करने के लिए राजनीतिक दल सियासी मंच पर किसी भी तरह की नौटंकी करने से बाज नहीं आ रहे हैं। दागियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद से ही शुरु हुआ ये सिलसिला अनवरत जारी है। फिर चाहे इस पर पहले सभी दलों का एक सुर में बात करना हो या फिर सरकार का इस फैसले को पलटने के लिए अध्यादेश लाना और ऐन वक्त पर राहुल गांधी का अध्येदेश को बकवास करार देते हुए इसे फाड़ कर फेंक देने जैसे बात कहना। (जरुर पढ़ें- सियासी ड्रामे के जरिए ही सही, कुछ तो अच्छा हुआ !)
सुप्रीम कोर्ट का ये ऐतिहासिक फैसला रास तो शायद ही किसी राजनीतिक दल को आ रहा है लेकिन इसका खुलकर विरोध करने की हिम्मत शायद किसी में नहीं है। भाजपा ने कोशिश करके पैर पीछे खींच लिए तो कांग्रेस भी भाजपा की देखा देखी राहुल गांधी के गुस्से के बहाने अपने कदम पीछे खींचने की तैयारी कर ली है। ये बात अलग है कि राहुल का ये गुस्सा कुछ ज्यादा ही बाहर आ गया जिसके चलते सरकार असहज स्थिति में दिखाई दे रही है। इतनी असहज की प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सोच तक नहीं पा रहे हैं कि राहुल के इस गुस्से पर प्रतिक्रिया दें या फिर अपना इस्तीफा..!
कुल मिलाकर सभी राजनीतिक दल जनता के सामने अब ये तस्वीर रखने की कोशिश में हैं कि वे सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से नाखुश नहीं है और वे नहीं चाहते कि दागियों को बचाया जाए। दिल में तो सबके चोर है लेकिन दिखाना ये चाहते हैं कि वे जनता के सच्चे हितैषी हैं और चुनाव सुधारों की दिशा में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का वे पूरा सम्मान करते हैं। लेकिन बड़ी संख्या में दागियों को चुनाव में वे क्यों दिल खोलकर टिकट देते हैं इसका सीधा सा जवाब शायद किसी के पास नहीं है।
राजनीतिक दलों की सियासी चालों को न समझने वाले लोगों को लगने लगा है कि भाजपा ने इस अध्यादेश का विरोध कर ठीक किया है और राहुल गांधी ने भी अध्यादेश को बकवास करार देकर एक नेक काम किया है और भविष्य में ये सभी राजनीतिक दल चुनाव में अब दागियों को टिकट देने से परहेज करेंगे लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या ऐसा कभी हो पाएगा..?
जाहिर है दागी मैदान में उतारे जाते रहेंगे और राजनीतिक दल भी इनको पूरा संरक्षण देते रहेंगे लेकिन लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि दागियों से निजात दिलाने के लिए जनता को राजनीतिक दलों के भरोसे नहीं बैठना चाहिए, उन्हें ये याद रखना चाहिए कि इसकी चाबी तो उनके खुद के पास ही है। चुनाव में दागियों को नकार कर ईमानदार उम्मीदवार को जिताकर चाहे वह किसी भी दल का क्यों न हो जनता अपनी ताकत का एहसास इन राजनीतिक दलों के आकाओं को करा सकती है, लेकिन सवाल यहां भी खड़ा है कि क्या हम ऐसा होने की उम्मीद कर सकते हैं..?

deepaktiwari555@gmail.com

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

सियासी ड्रामे के जरिए ही सही, कुछ तो अच्छा हुआ !

राहुल गांधी ने पहली बार तो कुछ सही बोला है लेकिन यहां पर भी राहुल गांधी के इस बयान के पीछे की मंशा पर संदेह हो रहा है क्योंकि राहुल गांधी न तो विपक्ष में हैं और न ही यूपीए के किसी घटक दल के नेता कि जो अपनी ही सरकार के फैसले के खिलाफ आवाज उठाएं। वो भी उस यूपीए सरकार के फैसले पर जिसके अघोषित मुखिया वे और उनकी मां व यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ही है। उस यूपीए सरकार के फैसले पर जिसके घोषित मुखिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कुछ बोलें न बोलें लेकिन ये कहने में पीछे नहीं हटते की वे राहुल के लिए कुर्सी खाली करने के लिए हरदम तैयार हैं और राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे योग्य और कांग्रेस में सर्वमान्य नेता हैं।
सवाल ये भी उठता है कि दागियों पर सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले को पलटने के लिए सरकार फैसले के बाद से ही कवायद कर रही थी उस पर राहुल आज तक चुप क्यों रहे..? क्यों राहुल गांधी को इससे पहले यूपीए सरकार की ये कवायद बकवास नहीं लगी और क्यों अचानक से राहुल गांधी को लगा कि इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए..? हैरत तो तब होती है राहुल के इस बयान से कुछ मिनट पहले तक इस यूपीए सरकार के इस अध्यादेश को लाने के फैसले को सरकार में शामिल मंत्री और नेता जस्टिफाई करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे थे। हालांकि केन्द्रीय मंत्री मिलिंद देवड़ा जैसे कुछ गिने चुने कांग्रेसी ऐसे थे जिन्हें सरकार का ये फैसला अखर रहा था लेकिन इनकी बात की भावना को समझने वाले यूपीए में शायद कोई नहीं था।
चापलूसी की हद तो तब हो जाती है जब अध्यादेश पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की नाराजगी के बाद सरकार में शामिल सभी मंत्रियों के साथ ही कांग्रेसी नेताओं के सुर बदल जाते हैं और अध्यादेश पर सरकार के फैसले को जस्टिफाई करने वाले ये कांग्रेसी और मंत्री अब राहुल गांधी की राय को ही पार्टी की राय बताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
ये भी अजब है कि राहुल गांधी की नाराजगी के बाद अब यूपीए सरकार भी दागियों को बचाने वाले अध्यादेश को वापस लेने की तैयारी कर रही है। अब इसका क्या मतलब निकाला जाए कि आखिर सरकार किसके ईशारे पर चल रही है और सरकार जो भी फैसले लेती है या आजतक लेती आई है उसमें राहुल गांधी की कितनी भूमिका है। जाहिर है राहुल गांधी को जो पसंद नहीं होगा वह सरकार नहीं करेगी क्योंकि जनाब सरकार साउथ ब्लॉक, रायसीना हिल्स से नहीं 10 जनपथ से चलती है..!
बहरहाल सियासी ड्रामे के जरिए ही सही, सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक पहल के बाद चुनाव सुधारों की दिशा में कम से कम एक अच्छा काम तो हो रहा है, जो बहुत हद तक राजनीति की गंदगी को साफ करने में एक अहम रोल अदा करेगा।


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गुरुवार, 26 सितंबर 2013

आखिर कब तक सहते रहेंगे हम ?

वो मारेंगे हम सहेंगे, वो खून बहाएंगे हम फूलमाला लेकर उनका स्वागत करेंगे, वो उल्टा हमें आंख दिखाएंगे और हम उन्हें बातचीत करने का न्यौता देंगे आखिर कब तक..? एक बार फिर वही तो हुआ लेकिन फिर भी सरकार के सरदार कह रहे हैं कि हम बातचीत का रास्ता खुला रखेंगे। तीन आतंकवादी एक लेफ्टिनेंट कर्नल सहित 12 लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं लेकिन हमारे प्रधानमंत्री सिर्फ ये कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि इस घटना की निंदा करने के लिए उनके पास शब्द नहीं है। शब्दकोष तो मनमोहन सिंह का पहले ही खाली है, ऐसे में ये बात तो समझ में आती है कि या तो वे घटना की कड़ी शब्दों में निंदा करेंगे या फिर कुछ बोलेंगे ही नहीं। (जरुर पढ़ें- फिर से- पाकिस्तान की तो..!)
यहां तक तो ठीक था लेकिन आतंकी हमले के दो दिन बाद वे अपने इस धूर्त पड़ोसी देश के वजीरे आजम से अपनी मुलाकात को नहीं टाल सकते। वो और उनकी सरकार में शामिल लोग कहते हैं कि बातचीत ही एकमात्र रास्ता है लेकिन हर महीने ऐसे दो तीन आतंकी हमलों में अपनी जान गंवाने वाले सेना के जवान और निर्दोष नागरिकों का आखिर क्या कसूर था इसका जवाब शायद उनके पास नहीं है। ये समझते हैं कि शहीदों के परिवार के प्रति अपनी संवेदनाएं प्रकट करके, शहीदों के घरवालों को मुआवजा राशि देकर शायद उनका दर्द कम हो जाएगा लेकिन अफसोस इस दर्द को ये कभी नहीं समझ पाएंगे क्योंकि इस दर्द को वही समझ सकता है जिसने किसी अपने को खोया हो। (जरुर पढ़ें- पाक को भारत का करारा जवाब !)
धूर्त पडोसी की ये धूर्तता एक, दो या तीन बार होती तो हमारी सरकार का ये रवैया समझ में आता कि आपसी बातचीत से वे पड़ोसी देश के हुक्मरानों को समझा लेंगे लेकिन पाकिस्तान की ये कायराना हरकत और बार बार पीठ में छुरा घोंपना क्या पाकिस्तान का भारत को सीधा जवाब नहीं है कि आप चाहे कुछ कर लो लेकिन हम नहीं सुधरेंगे।
भारत का एक अहम अंग होने के साथ ही जम्मू कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी हुई सरकार होने के बावजूद पाकिस्तान का बार बार कश्मीर को विवादित क्षेत्र बताना और ये कहना कि कश्मीर के लोग अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं और अपनी सेना की मदद से कश्मीर में आतंकवाद को प्रायोजित करना क्या ये नहीं दर्शाता कि पाकिस्तान कभी नहीं चाहता कि जम्मू कश्मीर में शांति रहे। लेकिन अफसोस ये सब बातें जानने के बाद भी हमारी सरकार नासमझ बने रहना चाहती है। (जरुर पढ़ें- मनमोहन को जगाओ, देश बचाओ !)
आए दिन आतंकी हमलों में हमारे जवान शहीद हो रहे हैं, निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं, लोग जर के साए में जीने को मजबूर हैं लेकिन हमारी सरकार अहिंसा की पुजारी बने रहना चाहती है। जो सरकार अपने नागरिकों की रक्षा न कर सके, सेनैकों का मनोबल तोड़ने का काम करे उससे और क्या उम्मीद की जा सकती है, आखिर अपने नागरिकों की सुरक्षा से बड़ी चीज किसी देश की सरकार के लिए और क्या हो सकती है। कम से कम अमेरिका से ही कुछ सीख लो जो अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकता है और अपनी तरफ आंख उठाने वाले को उसके घर में घुसकर मारकर ही दम लेता है। ओसामा बिन लादेन से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है लेकिन हम पाकिस्तान के आगे गिड़गिड़ाते ही रहते हैं कि मुंबई हमले के मास्टर माइंड हाफिज सईद को हमें सौंप दो, हमारे देश पर आतंकी हमले मत करो लेकिन होता क्या है छोटे से अंतराल के बाद भारत पर आतंकी हमले और शहीद होते हमारे जवान। (जरुर पढ़ें- लातों के भूत बातों से नहीं मानते)
जहां जरुरत है वहां बातचीत करो लेकिन कहते हैं न कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते, इसलिए पकिस्तान को समझाना है तो बातों से काम नहीं चलेगा मनमोहन सिंह जी, बातों से काम नहीं चलेगा। आप तो देश के प्रधानमंत्री हैं, बेहतर समझते होंगे कि अटैक इज द बेस्ट डिफेंस। उम्मीद है कि आपकी सरकार कुछ ऐसे कदम उठाएगी कि पाकिस्तान भारत की तरफ आंख उठाने से पहले हजार बार सोचे।


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बुधवार, 25 सितंबर 2013

हिंदी ब्लॉगिंग से मिलेगा मान ! Contest

विदेशी भाषा के आगे अपना सम्मान खोती हिंदी के लिए हिंदी ब्लॉगिंग उसे उसका खोया मान दिलाने में निश्चित तौर पर सार्थक हो सकती है बशर्ते तेजी से लोकप्रिय हो रही हिंदी ब्लॉगिंग के साथ ही हिंदी लोगों की पसंदीदा भाषा भी बने। बीते कुछ समय से ये देखा जा रहा है कि हिंदी ब्लॉगिंग के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा है और लोग हिंदी ब्लॉगिंग के माध्यम से खुलकर अपनी बात शासन-प्रशासन के साथ ही समाज के सामने रख रहे हैं। इसमें वो बातें और आमजन से जुड़ी वो समस्याएं हैं जो न तो अखबारों की सुर्खियां बन पाती हैं और न ही टीआरपी के लिए किसी भी हद तक जाने वाले समाचार चैनल इन्हें दिखाने में अपनी रुचि दिखाते हैं।
बड़ी संख्या में आम लोग समय निकालकर न सिर्फ ब्लॉगिंग कर रहे हैं बल्कि ये अपनी बात कहने का एक बड़ा ही सशक्त माध्यम बन चुकी है। ब्लॉगिंग के लिए हिंदी लिखने से परहेज करने वाले शख्स तक न सिर्फ हिंदी टाईपिंग सीख रहे हैं बल्कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का एक सशक्त और आसान माध्यम लगता है।
सोशल नेटवर्किंग साईट्स और ब्लॉग्स में हिंदी में मेरे द्वारा हिंदी में स्टेटस अपडेट करने और ब्लॉग्स लिखने पर मेरे कई मित्रों ने मुझ से कई बार ये सवाल पूछा है कि यार तुम हिंदी में कैसे लिखते हो, जरा हमें भी बताओ ताकि हम भी हिंदी में टाईप कर सकें। इसमें बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो अंग्रेजी की बजाए हिंदी भाषा में अपने मन की बात को बेहतर तरीके से ज्यादा से ज्यादा लोगों को समझा सकते हैं और चाहते हैं कि वे भी सोशल नेटवर्किंग साईट्स में हिंदी में लिखे और हिंदी में ब्लॉगिंग शुरु करें।
आज अंग्रेजी भले ही हिंदी से आगे निकल गयी हो लेकिन इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि आज भी हिंदुस्तान में अंग्रेजी बोलने और लिखने वालों की संख्या हिंदी बोलने और लिखने वालों की अपेक्षा काफी कम है। हां, ये एक कड़वा सच जरुर है कि लोग अंग्रेजी बोलना और लिखना सीखने के आतुर जरुर दिखाई दे रहे हैं।
हिंदी ब्लॉगिंग एक ऐसा माध्यम बन रहा है, जो लोगों की इस आतुरता को हिंदी भाषा की तरफ मोड़ सकता है, बस जरुरत है कि लोगों को इसके लिए प्रोत्साहित किया जाए। अंग्रेजी न बोल पाने या न लिख पाने पर उन्हें उनके साथी हतोत्साहित न करें बल्कि हिंदी में अपनी बात कहने के लिए प्रोत्साहित करें।
इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं कि अंग्रेजी का पूर्णतया बहिष्कार कर दें और अंग्रेजी के खिलाफ बैनर-पोस्टर लेकर सड़कों पर उतर कर आंदोलन शुरु कर दें। अंग्रेजी भी सीखें और जहां अंग्रेजी के बिना काम ही नहीं चल सकता वहां पर अंग्रेजी का इस्तेमाल भी करें लेकिन इसके लिए अपनी मातृभाषा हिंदा का अपमान न करें वर्ना हमारी मातृभाषा सिर्फ बाजार का एक हिस्सा बनकर रह जाएगी और 1947 से पहले जिस तरह अंग्रेजों ने हम पर शासन किया ठीक उसी तरह अंग्रेजी भी एक दिन पूर्ण रुप से हिंदी पर अपना आधिपत्य जमा लेगी।

deepaktiwari555@gmail.com


मंगलवार, 24 सितंबर 2013

!dea बेवकूफ बनाने का !

बेहतर कस्टमर सर्विस का दावा करने वाला एक कंपनी सेल्यूलर का नया विज्ञापन तो आपने देखा ही होगा लेकिन सवाल ये है कि क्या वाकई में जो विज्ञापन में दिखाया जाता है वैसी ही सेवाएं कंपनी अपने ग्राहकों को देती है या फिर ये कंपनी का अपने ग्राहकों को बेवकूफ बनाने का सिर्फ एक तरीका है। मेरे साथ जयपुर में जो वाक्या हुआ उसके बाद से मेरी राय तो कम से कम कंपनी के लिए ऐसी ही हो गयी है।
फर्ज कीजिए कि अप किसी अंजान शहर में हों और आपका मोबाईल चोरी हो जाए या खो जाए या फिर आपका सिम किसी वजह से खराब हो जाए। ऐसे में क्या कीजिएगा..? जाहिर है आप जिस कंपनी का सिम इस्तेमाल कर रहे थे उस कंपनी के कस्टमर केयर को जानकारी देंगे और नया सिम पाने के लिए कंपनी के दफ्तर की ओर रुख करेंगे। लेकिन सोचिए कि जैसे ही आप एक नए शहर में बड़ी मशक्कत के बाद जैसे तैसे कंपनी के दफ्तर को खोजते हुए अंदर दाखिल होकर ग्राहक सेवा के लिए सामने बैठे शख्स को अपनी समस्या बताते हैं और वह बड़ी ही बेरुखी से आपकी समस्या का समाधान करने से ये कहते हुए इंकार कर देता है कि ऐसा कोई नियम नहीं है तब आप को कैसे महसूस होगा..?
वो भी तब जब आपको कस्टमर केयर सेंटर में बैठा एक्जीक्यूटिव ये कहकर कंपनी के आउटलेट में जाने के लिए कहता है कि आपकी समस्या का समाधान कंपनी आउटलेट पर हो जाएगा। जाहिर है ऐसी स्थिति में गुस्सा तो बहुत आएगा।
गुस्सा तो मुझे भी बहुत आया और साथ ही बार बार याद आ रहा था वो विज्ञापन जिसमें बताया जा रहा है कि आपको सभी सेवाएं सिर्फ तीन अंक का एक नंबर डायल करने पर घर बैठे मिल जाएंगी लेकिन यहां तो कंपनी के आउटलेट पर जाने पर भी कंपनी प्रतिनिधी ने सेवा न होने की बात कहकर अपना पल्ला झाड लिया। जब्कि कंपनी के कस्टमर केयर सेंटर पर बैठे कंपनी के ही एक दूसरे प्रतिनिधि ने आउटलेट पर जाने पर समस्या के समाधान का वादा किया था।
जयपुर में रोमिंग के दौरान मेरा आईडिया का सिम खराब हो जाने पर जब मैंने उसी नंबर की डुप्लीकेट सिम हासिल करने का तरीका जानने के लिए 9887012345 नंबर डायल कर आईडिया के कस्टमर केयर सेंटर पर फोन किया। सिम मेरा ही इसकी पूरी तफ्तीश करने के बाद कंपनी प्रतिनिधि ने मुझे बताया कि आईडी, एड्रेस प्रूफ और एक फोटोग्राफ के साथ आईडिया आउटलेट जाकर 25 रूपए में आपको डुप्लीकेट सिम मिल जाएगा जो 24 घंटे में एक्टिवेट हो जाएगी। नया शहर था, तो जैसे तैसे आईडिया आउटलेट को खोजते खोजते मैं जब वहां पहुंचा तो वहां बैठे प्रतिनिधि जिनका नाम पुनीत शर्मा था ने ये कहकर सिम देने से इंकार कर दिया कि आपको डुप्लीकेट सिम सिर्फ आपके होम सर्किल (यूपी वेस्ट) से ही मिलेगा।
एक ही कंपनी के दो प्रतिनिधि की अलग अलग बातें सुन मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन मैं कर भी क्या सकता था।
आईडिया कंपनी प्रतिनधि पुनीत शर्मा ने मुझे जो बताया उसके मुताबिक अगर आप अपने होम सर्किल से बाहर हों यानि कि रोमिंग में हो चाहे किसी भी शहर में क्यों न हो और आपको किसी कारणवश फोन खो जाने, चोरी हो जाने या सिम खराब हो जाने पर डुप्लीकेट सिम चाहिए तो आपको उसके लिए अपने होम सर्किल में स्थित कंपनी के आउटलेट पर जाना पडेगा। ग्राहक परेशान हो तो हो लेकिन कम से कम आईडिया वाले आपको डुप्लीकेट सिम नहीं देंगे।
आज के समय में जब सारी चीजें सिर्फ एक क्लिक की दूरी पर हैं, तब अगर कोई कंपनी आपको अंजान शहर में अपना सिम उपलब्ध नहीं करा सकती तो इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है। ऐसा कई लोगों के साथ हुआ होगा, लेकिन हैरानी की बात ये है कि कंपनी आज तक इसका कोई समाझान नहीं खोज पाई है और न ही कंपनी ने ग्राहकों को रोमिंग के दौरान दूसरे सर्किल में होने पर डुप्लीकेट सिम उपलब्ध कराने के लिए कोई कदम ही उठाया है। जब अंजान शर में ये कंपनियां अपने ग्राहकों की समस्या समाधान नही कर सकती फिर क्या फायदा ऐसी कंपनियों की सेवाएं इस्तेमाल करने का..?
हैरत की बात है कि ये वही कंपनी है जो टीवी पर विज्ञापन के जरिए ये प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ती की उन्हें अपने ग्राहकों की कितनी चिंता है, जो ये दिखाने की कोशिश करती हैं कि उनके लिए ग्राहक सेवा से बढ़कर और कुछ नहीं है, जो ये कहती हैं कि सिर्फ 121 डायल करके आपको सभी सेवाएं मिल जाएंगी, कस्टमर केयर सेंटर पर फोन करने पर उनके प्रतिनिधि झूठ बोलते हैं कि आपकी समस्या का समाधान हो जाएगा लेकिन असल में ऐसा कुछ नहीं होता। होता है तो ग्राहक का समय और पैसा दोनों बर्बाद।
आईडिया कंपनी का कोई अधिकारी इसे पढ़ रहा हो तो जनाब आपसे अनुरोध है कि ग्राहकों को बेवकूफ मत बनाईए, ग्राहकों से झूठ मत बोलिए। सर्विस नहीं दे सकते तो सीधे मना कीजिए और मेहरबानी करके ग्राहकों को बेवकूफ बनाने वाले ऐसे विज्ञापन मत दिखाईए।


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सोमवार, 23 सितंबर 2013

इन्हें शर्म नहीं आती !

ऐसा लगता है कि एक रेस सी चल रही है, जिसमें एक दूसरे से आगे निकड़ने की जबरदस्त होड़ जारी है। नेताओं से लेकर संत का चोला ओढ़ कर लोगों को बेवकूफ बनाने वाले शर्मे हया का पर्दा उतारकर बस दौड़े चले जा रहे हैं। रेस भी ऐसी की शर्म भी शर्म से पानी पानी हो जाए। भोपाल में राघव जी को बुढ़ापे में जोश आ गया तो संत का चोला डाल लोगों को सीख देने वाले आसाराम की काली करतूत भी सबके सामने आ ही गयी। (जरुर पढ़ें- अब बोलो आसाराम, ताली कितने हाथ से बजी ?)
बुजुर्गों की इस रेस में आसाराम तो राघवजी से आगे निकल गए लेकिन ये रेस उस वक्त और रोचक हो गयी जब राजस्थान की गहलोत सरकार में डेयरी मंत्री बाबू लाल नागर भी इसमें शामिल हो गए। (जरुर पढ़ें- लोकार्पण करने वाले खुद पहुंच गए हवालात) राघव जी और आसाराम की तरह नागर को फिलहाल तक जेल तो नहीं जाना पड़ा है लेकिन मंत्री की कुर्सी से नागर को हाथ धोना पड़ा। नागर की देखा देखी राजस्थान के ही निम्बाहेड़ी से कांग्रेस विधायक उदयलाल आंजना भी इस दौड़ में शामिल हो गए। उम्मीद है इस रेस में शामिल नागर और आंजना की दौड़ भी हवालात में जाकर ही थमेगी।
ये रेस चल ही रही थी कि लखनऊ में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एनडी तिवारी की एक ख़बर देखकर लगा कि एनडी तिवारी को शायद अपनी जवानी याद आ गयी। कदम कदम बढ़ाए जा गीत के बोल के साथ कदम बढ़ाते एनडी तिवारी ने स्टेज पर कार्यक्रम का संचालन कर रही महिला को पकड़ लिया और करने लगे डांस। लंबे समय से ख़बरों से बाहर एऩडी तिवारी को शायद लगा होगा कि वे रेस में पिछड़ रहे हैं, तो क्यों न कुछ अलग किया जाए।
अब बिना सहारे के भले ही एनडी तिवारी अपनी जगह से हिल भी न पाते हों लेकिन डांस करने के लिए एनडी की ऊर्जा देखने लायक थी। उम्र की इस दहलीज पर बिना सहारे के कब तक थिरकते, ऐसे में सहारा तो चाहिए ही था, तो थाम लिया मंच पर मौजूद महिला का हाथ। वैसे भी ये एनडी तिवारी का पुराना स्टाईल है। लगे रहिए एनडी साहब, लगे रहिए, वैसे भी अभी उम्र(90 वर्ष) ही क्या है आपकी। ये गाना भी शायद आप जैसों के लिए ही बना है- अभी तो मैं जवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं।
क्या राघव जी, क्या आसारम, क्या एनडी तिवारी...पैर कब्र में लटक रहे हैं लेकिन इनके कारनामे देखिए। देखने-सुनने वाले को शर्म आ जाएगी लेकिन इन्हें नहीं आती, दुनिया से छोड़िए पता नहीं ये लोग अपने घरवालों से कैसे नजरें मिलाते होंगे..?


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