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गुरुवार, 7 मार्च 2013

विजय बहुगुणा- कैसा गैरसैंण…कैसा स्वाभिमान..?



जैसे तैसे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने विजय बहुगुणा का एक साल भी जैसे तैसे पूरा हो ही गया..! ऐसे में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के 6 मार्च के हिंदुस्तान अखबार में छपे साक्षात्कार पर नजर पड़ी। साक्षात्कार ऐसा था कि अगर कोई पढ़ ले तो बहुगुणा साहब के बारे में पढ़ने वाले की सोच ही बदल जाए कि वास्तव में बहुगुणा साहब उत्तराखंड की कितनी चिंता करते हैं..?
उत्तराखंड की स्थाई राजधानी के सवाल पर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं कि पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में खासकर गैरसैंण को बनाना विवादित विषय है। बकौल बहुगुणा वे गैरसैंण में राजधानी बनाने के विरोधी नहीं हैं लेकिन इस मुद्दे पर वे फिलहाल किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते।
मेरी समझ से अगर गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी बनाया जाता है तो शायद ये उत्तराखंड में किसी भी सरकार का ऐसा फैसला होगा जिस पर कम से कम विरोध के स्वर नहीं उठेंगे...कोई भी पार्टी चाहे वो खुद कांग्रेस हो, भाजपा हो या क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति पार्टी हो गैरसैंण पर तो चाहकर भी विरोध के स्वर नहीं उठ पाएंगे...अगर उन्हें उत्तराखंड में राजनीति करनी है तो..! हां बसपा जिसका थोड़ा बहुत जनाधार कुछेक मैदानी इलाकों में है और सपा जिसका तो नामो निशां तक उत्तराखंड में नहीं बचा...वो जरूर विरोध कर सकते हैं लेकिन इनका विरोध करना...न करना एक बराबर है।
फिर भी बहुगुणा साहब का ये कहना कि वे विवाद में नहीं पड़ना चाहते इस ओर जरूर ईशारा करता है कि पहाड़ी राज्य का, पहाड़ के लोगों का अगर कोई सबसे बड़ा विरोधी है तो वो खुद राज्य के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा हैं...जिसे जबरदस्ती उत्तराखंड कांग्रेस पर और इस राज्य पर थोपा गया है..! जो अकसर खुद कांग्रेसी दबी जुबान से कहते हुए सुनाई भी दे जाते हैं..!
अपने साक्षातकार में बहुगुणा साहब ने ये नहीं बताया कि जब गैरसैंण में राजधानी उन्हें विवादित विषय लगता है तो फिर गैरसैंण में विधानभवन की नींव क्यों रखी गई..? क्या ये प्रदेश की जनता को बेवकूफ बनाने का खेल नहीं है..? प्रदेश की जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करना नहीं है..?
बहुगुणा साहब शायद ये सोच रहे होंगे कि गैरसैंण में विधानभवन की नींव रखकर अगले कुछ और साल स्थायी राजधानी के मसले को लटका कर रखेंगे ताकि जैसे तैसे एक साल का सफर पूरा किया है उसी तरह चार साल और कट जाएंगे..!
वैसे भी गैरसैंण में राजधानी को लेकर बहुगुणा सरकार कितनी संजीदा है इसका अंदाजा तो उसी दिन हो गया था जब गैरसैंण में विधानभवन की नींव रखने के लिए मुख्यमंत्री समेत उनके मंत्रिमंडल के ज्यादातर मंत्री हवाई मार्ग से गैरसैंण पहुंचे। बहुगुणा और उनके मंत्री जब एक दिन गैरसैंण सड़क मार्ग से जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए तो क्यों ये चाहेंगे कि गैरसैंण में राज्य की स्थायी राजधानी बने..?  
इसका दूसरा उदाहरण उस वक्त देखने को मिला जब मंत्रियों के प्रदेश दौरे के लिए सड़क मार्ग की बजाए करोड़ों रूपए खर्च कर किराए का हेलिकॉप्टर लेने का फैसला बहुगुणा सरकार ने लिया। (जरूर पढ़ें- 50 लाख का जनता दरबार..!)
बकौल बहुगुणा गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए सरकार को 60 हजार करोड़ रूपए चाहिए। चलिए, आपने कहा और हमने मान लिया..! लेकिन इतना और हमारा सामान्य ज्ञान बढ़ा दो कि इसमें से कितना पैसा वास्तव में गैरसैंण में खर्च होगा और कितना गैरसैंण के बहाने सुविधा शुल्क के बस्ते में जाएगा..? बहुगुणा साहब गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी बनाना है मकाऊ नहीं कि वहां पर विश्व भर की ऐशो- आराम की सारी सुविधाएं जुटानी हैं..! (जरूर पढ़ें- शराब के लिए पैसे हैंरसोई गैस के लिए नहीं…!)
साक्षात्कार में बहुगुणा साहब ये भी बोले कि वे अपने पिता हेमवंती नंदन बहुगुणा के आदर्शों पर चलते हैं। बहुगुणा साहब जहां तक मैंने आपके पिताश्री के बारे में पढ़ा है तो ये समझ में आया कि वे बड़े स्वाभिमानी थे। यहां तक की उन्होंने कांग्रेस में रहते हुए भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष कभी पूर्ण समर्पण नहीं किया। साथ ही अविभाजित उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने पहाड़ के विकास के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन आप तो दिल्ली दरबार में राहुल गांधी के चाटुकारिता करने का कोई मौका नहीं छोड़ते चाहे आपको राहुल की फटकार ही क्यों न सुननी पड़े..! (जरूर पढ़ें-विजय बहुगुणा कैसे बने मुख्यमंत्री?) ये कैसा स्वाभिमान है बहुगुणा साहब जो चाटुकारिता से भरपूर है और स्वाभिमान तो माइक्रोस्कोप से भी नहीं दिखाई देता..! आपके पिताश्री हेमवंती नंदन बहुगुणा को हर्गिज ऐसे न थे...फिर कैसे आप उनके आदर्शों पर चलने का दम भर रहे हो..!

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बुधवार, 6 मार्च 2013

अन्न के लिए तरसते अन्नदाता


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एनडीए के शासनकाल से यूपीए शासनकाल की तुलना करते हुए संसद में कहते हैं कि भारत की कृषि विकास दर यूपीए शासन में 3.5 प्रतिशत रही जबकि एनडीए के शासनकाल में ये दर सिर्फ 2.9 प्रतिशत थी। आंकड़ों के बाजीगरी से प्रधानमंत्री ने संसद में यूपीए सरकार की जमकर पीठ थपथपाई।
कृषि विकास दर पर प्रधानमंत्री इठलाते हुए तो दिखाई दिए लेकिन किसानों के लिए 2009 के आम चुनाव से ठीक पहले 2008 में 4 करोड़ 29 लाख किसानों के लिए शुरु की गयी 52 हजार करोड़ की कर्ज माफी योजना में धांधली पर वे सिर्फ दोषियों के खिलाफ सिर्फ जांच का आश्वासन ही दे पाए।
ये एक कृषि प्रधान देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि एक तरफ देश के प्रधानमंत्री बढ़ती विकास दर पर इठलाते हैं तो दूसरी तरफ कर्ज के बोझ तले दबे किसानों के लिए 52 हजार करोड़ की कर्ज माफी योजना में करीब 10 हजार करोड़ की धांधली सामने आती है। इससे भी दुखद पहलू ये है कि बढ़ती कृषि विकास दर के बावजूद किसानों की आत्महत्या की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं और एक आंकड़े के मुताबिक आज भी देश में हर महीने करीब 70 किसान मौत को गले लगा रहे हैं।
कैग की रिपोर्ट के मुताबिक कैग ने 25 राज्यों के 52 जिलों में जिन 90 हजार 567 मामलों की जांच की उनमें से करीब 22.32 फीसदी यानि 20 हजार 206 मामलों में गड़बड़ी पाई गयी। कैग के मुताबिक इस योजना को लागू करने में जबरदस्त धांधली हुई है। जो किसान इस योजना के लिए पात्र थे उन्हें इस योजना का लाभ नहीं मिला जबकि अपात्र लोगों को योजना का लाभ दे दिया गया। जाहिर है अगर योजना में धांधली नहीं होती और पात्र किसानों को ही इसका लाभ मिलता और उनका कर्ज माफ कर दिया जाता तो शायद कर्ज के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या करने पर मजबूर नहीं होते।

सरकार भले ही अब दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का भरोसा दे रही हो लेकिन देश में अन्नदाता के नाम पर हुई करीब 10 हजार करोड़ की इस गड़बड़ी का जवाब किसी के पास नहीं है।
हमारे प्रधानमंत्री यूपीए के कार्यकाल में कृषि विकास दर में वृद्धि पर खुशी मना रहे हैं लेकिन ये भी कड़वी सच्चाई है कि देश में किसानों की आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ें कहते हैं कि 2010 में देशभर में 15 हजार 964 किसानों ने आत्महत्या की जबकि 2011 में भी ये आंकड़ा करीब 15 हजार के आस पास ही है। 1995 से हम अगर ये आंकड़ा देखें तो 1995 से अब तक करीब 2 लाख 70 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ये सच्चाई उस भारत देश की है जिसकी 60 प्रतिशत अर्थव्यवस्था सिर्फ कृषि पर निर्भर है।
आरटीआई से मिली एक जानकारी के अनुसार 2007 से 2012 देश में सबसे अधिक किसानों ने सूदखोरों और महाजन से कर्ज लिया हुआ है। सूदखोरों और महाजन से कर्ज लेने वाले किसानों की संख्या सवा लाख तो करीब 53 हजार 902 किसान परिवारों ने व्यापारियों से कर्ज लिया है जबकि बैंकों से 1 लाख 17 हजार 100 किसानों ने तो को-ऑपरेटिव सोसोयटी से करीब 1 लाख 14 हजार 785 किसानों ने कर्ज लिया है। वहीं सरकार से कर्ज लेने वाले किसानों की संख्या करीब 14 हजार 769 हजार है तो अपने रिश्तेदारों और मित्रों से कर्ज लेने वाले किसान परिवारों की संख्या करीब 77 हजार 602 है।
जाहिर है किसान आज भी सूदखोरों और महाजनों के चक्कर में फंसे हुए हैं जो सूद के रूप में किसानों के खून की एक-एक बूंद तक चूसने में पीछे नहीं हटते। मजबूरन किसान आत्महत्या पर मजबूर होते हैं। सरकार किसानों की आत्महत्या के मामलों में कमी आने की बात कर इसके क्रेडिट लेने से नहीं चूकती लेकिन सवाल ये है कि अगर देश में एक भी किसान अगर आत्महत्या कर रहा है तो आखिर क्यों..? आखिर एक किसान की जान की कीमत क्यों नहीं सरकार में बैठे लेगों को समझ में आती..? आखिर क्यों ये जानने का प्रयास नहीं किया जाता कि किसान आत्महत्या जैसा कदम उठाने पर क्यों मजबूर हुआ..? लेकिन किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में कमी को सरकार अपनी उपलब्धि मानती है..! लेकिन सरकार ये नहीं सोचता कि आखिर अन्नादाता अनाज के एक-एक दाने के लिए क्यों मोहताज हुआ..?

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जो मौन रहते हैं वो क्या करते हैं..?


मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बने हुए 9 साल हो गए हैं लेकिन एक चीज मनमोहन सिंह के बारे में आज ही पता चली। खास बात ये है कि मनमोहन सिंह ने संसद में खुद अपने एक राज पर से पर्दा हटाया...वो भी अपना मौन तोड़कर। 2004 में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने के साथ ही ये राज गहरा गया था कि आखिर मनमोहन सिंह मौन ही क्यों रहते हैं..?
गंभीर होना एक अलग मसला है लेकिन देश से जुड़े अहम मसलों पर देश के प्रधानमंत्री की चुप्पी हमेशा से ही समझ से परे रही है। हालांकि इसके अपने – अपने हिसाब से मतलब निकालने के लिए देशवासी स्वतंत्र हैं और मतलब निकाले भी गए हैं लेकिन इसके बाद भी इस राज पर से पर्दा नहीं हट पाया कि मनमोहन सिंह को बोलने से पहले अऩुमति लेने पड़ती है या फिर ये पीएम की कुर्सी पर आसीन होने के एग्रीमेंट की एक शर्त है..! (जरूर पढ़ें- जब मनमोहन सिंह बने शोले के गब्बर सिंह !)
प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का दूसरा कार्यकाल समाप्त होने को है ऐसे में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर अपने भाषण के दौरान मनमोहन सिंह ने मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधते हुए अपनी मौनी छवि के राज पर से पर्दा हटाया। बकौल मनमोहन सिंह जो गरजते हैं वो बरसते नहीं हैं। लेकिन मनमोहन सिंह ने मुहावरे से अपनी मौनी छवि का राजफाश तो किया लेकिन ये समझ में नहीं आया कि जो गरजते हैं वो बरसते नहीं तो जो मौन रहते हैं वो क्या करते हैं..?”
मनमोहन सिंह को गरजते हुए तो मुझे याद नहीं आता कभी मैंने देखा होगा लेकिन ये भी सच है कि बरसते हुए भी कभी नहीं देखा, चाहे देश की राजधानी में दिल को दहला देने वाले गैंगरेप हो या फिर सीमा पर भारतीय सैनिकों का सिर कलम करने की पाकिस्तान की बर्बर कार्रवाई..! चाहे गैंगरेप के बाद राजपथ पर उमड़ा जनसैलाब हो या फिर हैदराबाद धमाके..!
हर बार तो प्रधानमंत्री मौन ही रहे...हां, जब जब मौन टूटा तो एक शेरो-शायरी जरूर उनके श्री मुख से सुनाई दी। फिर चाहे वो कोयला घोटाले पर अपनी खामोशी के सवाल पर उनका पढ़ा ये शेर हो- हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी या फिर भाजपा पर कटाक्ष करता मिर्जा गालिब का उनका ये दूसरा शेर- हमको है  उनसे वफा की उम्मीद, जो जानते नहीं हैं वफा क्या है
अपनी चुप्पी पर प्रधानमंत्री के खुलासे के बाद भाजपा ने भी खुद के ऊपर पढ़े मनमोहन सिंह के शेर का उधार तुरंत चुकता कर दिया। सुषमा स्वराज ने प्रधानमंत्री को जवाब देते हुए बशीर बद्र का शेर पढ़ा- कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता। सुषमा स्वराज ने मनमोहन पर एक शेर उधार भी कर दिया जिसका जवाब शायद कभी संसद में प्रधानमंत्री एक शायरी पढ़कर दें...शेर इस तरह है- तुम्हें वफा याद नहीं, हमें जफा याद नहीं। जिंदगी के दो ही तराने हैं एक तुम्हें याद नहीं, एक हमें नहीं
बहरहाल संसद में प्रधानमंत्री के मौन टूटने और मौन रहने के राज का खुलासे के बाद सता पक्ष और विपक्ष के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर खूब चला। मनमोहन सिंह ने जहां यूपीए के कार्यकाल को एनडीए से बहतर साबित करने में ही लगे रहे तो वहीं भाजपा ने यूपीए के 9 साल के कार्यकाल में ऊंगली उठाने का कोई मौका नहीं छोड़ा।
भाजपा और कांग्रेस  तो आरोप प्रत्यारोप की दौड़ में ही खूब आगे दिखाई दी लेकिन पीछे रह गई तो देश की 121 करोड़ जनता जिसके सवालों का चुनाव के वक्त तो खूब जिक्र होता है लेकिन संसद में जिक्र नहीं होता। ऐसे में देश का प्रधानमंत्री मौन रहे या फिर मौन तोड़े देश की हालत में...देश की जनता की हालत में तो सुधार होने की उम्मीद कम ही है।

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50 लाख का जनता दरबार..!


उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा साहब कहते हैं कि जनता दरबार लगाना उनके लिए महंगा सौदा साबित हो रहा है। उनकी मानें तो मुख्यमंत्री का एक जनता दरबार 50 लाख रूपए का पड़ता है ऐसे में भविष्य में बहुगुणा साहब जनता की समस्याओं के निराकरण के लिए दरबार न ही लगाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
हां, अगर खुद के लिए और अपने मंत्रियों के लिए करोड़ों रूपए खर्च कर लग्जरी गाड़ियां खरीदने की बात हो तो ये महंगा सौदा नहीं है क्योंकि मंत्रियों के लिए लग्जरी गाड़ी खरीदना बेहद जरूरी है लेकिन जनता दरबार में आर्थिक मदद के लिए पहुंचे अति जरूरतमंदों की मदद करना बकौल मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा जरूरी नहीं है..!
पहाड़ी राज्य में भ्रमण के लिए माननीय मंत्रियों के लिए करोड़ों रूपए खर्च कर 100 घंटे के लिए हेलिकॉप्टर किराए पर लेना बेहद जरूरी है...क्योंकि पहाड़ी राज्य में पहाड़ चढ़ने में मंत्रियों की सासें फूल जाती हैं लेकिन राज्य की जनता की समस्याओं के निराकरण के लिए जनता दरबार लगाना बकौल मुख्यमंत्री महंगा सौदा है। ज्यादा दिन पुरानी बात नहीं है प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सुरेन्द्र सिंह नेगी जिला योजना की समीक्षा के लिए अल्मोड़ा और बागेश्वर पहुंचे। मंत्री जी का ये दौरा औपचारिकता से ज्यादा कुछ साबित नहीं हुआ। इस दौरे में खर्च तो आया करीब 5 लाख रूपए का लेकिन काम दौरे के दौरान मंत्री जी कुछ खास नहीं करके गए और तो और अपनी समस्याएं लेकर पहुंचे लोगों के हाथ भी मायूसी ही लगी। (पढ़ें- हवाई यात्रा में 5 लाख फूके और मंत्री जी फुर्र)
मुख्यमंत्री के हिसाब से शराब में 20 प्रतिशत वैट की छूट देने से सरकारी खजाने पर भार नहीं पड़ेगा लेकिन जनता दरबार में अति जरूरतमंदों की आर्थिक मदद करने से सरकारी खजाना खाली हो रहा है..!
बकौल मुख्यमंत्री रसोई गैस में वैट पर 5 प्रतिशत छूट देने से सरकार पर आर्थिक बोझ पड़ रहा है लेकिन शराब में 20 प्रतिशत वैट में छूट देना जरूरी है..! (पढ़ें- शराब के लिए पैसे हैंरसोई गैस के लिए नहीं…!)
बहुगुणा सरकार को बने लगभग एक साल हो गया है लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद जब पहली बार अप्रेल 2012 में विजय बहुगुणा ने सीएम निवास में जनता दरबार लगाया था तो उस वक्त भी बहुगुणा साहब के तेवर कुछ ऐसे ही थे..!
मुख्यमंत्री के पहले जनता दरबार में लोग बड़ी आस के साथ अपनी समस्या लेकर उनके पास पहुंचे थे लेकिन न तो मुख्यमंत्री के पास अति जरूरतमंदों को देने के लिए नौकरी थी और न ही उनकी आर्थिक सहायता के लिए बजट..! (जरूर पढ़ें- एमपी नहीं मुख्यमंत्री कहो...)
ये बात अलग है कि जब विधायकों के वेतन भत्ते और सुख सुविधाएं बढ़ाने की बात आती है तो सरकार के पास बजट की कोई कमी नहीं होती है। उस वक्त सरकारी खजाने पर कोई बोझ नहीं पड़ता क्योंकि उस वक्त बारी खुद की होती है लेकिन जनता के लिए सरकारी खजाने में पैसा नहीं है..!
बहरहाल जैसे तैसे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने विजय बहुगुणा का ये हाल तब है जब सरकार को बने महज एक साल का ही वक्त हुआ है...अब बचे हुए चार साल के कार्यकाल में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा(अगर मुख्यमंत्री रहे तो..?) क्या गुल खिलाएंगे इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

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मंगलवार, 5 मार्च 2013

इरोम शर्मिला- न जीने देते हैं न मरने देते हैं..!


क्या सिर्फ उग्रवादी होने के शक के आधार पर किसी की सरेआम गोली मारकर हत्या कर देना जायज है..? या फिर ऐसे किसी कानून को हटाए जाने की मांग को लेकर 12 सालों से भूख हड़ताल पर बैठी किसी महिला की सुध न लेकर उसे मरने के लिए छोड़ देना जायज है..?
मेरी समझ से दोनों ही मामलों में अधिकतर लोगों का जवाब नहीं में होगा..! लेकिन दुर्भाग्य से दोनों ही मामलों में ऐसा ही कुछ हो रहा है।  जिस देश में मुबंई जैसे आतंकी हमले में सैंकड़ों लोगों की हत्या के दोषी कसाब को सारे सबूत उसके खिलाफ होने के बाद भी पूरी कानूना प्रक्रिया के बाद...उसे बचाव का पूरा मौका देने के बाद फांसी की सजा सुनाई जाती है...उस देश में तो कम से कम शक के आधार पर किसी की गोली मारकर हत्या कर देना कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता।
जिस देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव अनशन पर बैठते हैं तो उन्हें मनाने के लिए उनका अनशन समाप्त करने के लिए तमाम सरकारी कोशिशें होती हैं...उस देश में 12 साल से भूख हड़ताल पर बैठी सामाजिक कार्यकर्ता की सुध न लेना भी कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता।
आज जब 12 साल से मणिपुर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाए जाने की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर बैठी समाज सेविका इरोल शर्मिला पर आमरण अनशन के दौरान खुदकुशी की कोशिश के मामले में आरोप तय किए जाने की खबर पढ़ी उस वक्त से ये सवाल जेहन में उठ रहे हैं। दरअसल इरोम शर्मिला मणिपुर में लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की मांग को लेकर 2001 से अनशन पर बैठी हैं और 6 साल से ज्यादा समय से पुलिस हिरासत में हैं। 2006 में इरोम पर जंतर मंतर पर आमरण अनशन के दौरान खुदकुशी करने का आरोप है और इसी मामले में दिल्ली की एक अदालत ने इरोम के खिलाफ आरोप तय कर दिए हैं।
मणिपुर के इंफाल घाटी के मालोम में 2 नवंबर 2000 में असम रायफल्स के जवानों ने 10 लोगों को उग्रवादी बताकर गोली मार दी थी जसमें एक गर्भवती महिला की जान भी गई थी। इस घटना के बाद से इरोम मणिपुर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर बैठी हैं। इसी तरह असम रायफल्स ने 2004 में मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता थांगजाम मनोरमा देवी को गिरफ्तार कर उसके साथ सामूहिक बलात्कार कर उसकी गोली मारकर हत्या कर दी थी।
दरअसल सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून 11 सितंबर 1958 को संसद में पारित किया गया था और इसके तहत सुरक्षाबलों को अशांत क्षेत्रों में शरारती तत्वों को गोली मार देने, बिना वारंट के तलाशी लेने या गिरफ्तार करने के साथ ही संपत्ति जब्त करने या नष्ट करने जैसे विशेषाधिकार प्राप्त हैं। इस कानून की धारा 6 के तहत केन्द्र की अनुमति के बिना सशस्त्र बलों के खिलाफ किसी तरह का अभियोग नहीं लगाया जा सकता। समय – समय पर सुरक्षाबलों पर इस कानून के दुरुपयोग करने के तक आरोप लगते रहे हैं और इरोम 2000 में इंफाल में हुई ऐसी ही घटना के बाद भूख हड़ताल पर बैठी हैं।
अत्याधिक उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में इस कानून को लगाने का मतलब समझ में आता है लेकिन इस पर भी सिर्फ शक के आधार पर किसी को गोली मार देना गले नहीं उतरता। माना सुरक्षा बल अपनी जान हथेली पर लेकर ऐसे इलाकों में तैनात रहते हैं और वे स्थितियों को बेहतर समझ सकते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि किसी की ये पहचान करने में कि ये उग्रवादी नहीं है वे कभी गलती कर ही नहीं सकते।
एक महिला 12 सालों से भूख हड़ताल पर बैठी है लेकिन उसकी सुध लेने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। न ही राज्य सरकार के पास और न ही केन्द्र सरकार के पास। एक दर्जन से ज्यादा महिलाएं निर्वस्त्र होकर असम रायफल्स के हेडक्वार्टर के बाहर 2004 की घटना के विरोध में प्रदर्शन करती हैं लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। मनमोहन सरकार में मंत्री रहते हुए अगाथा संगमा इरोमा से मिलकर उनकी आवाज इंफाल से लेकर दिल्ली तक उठाने का दम भरती हैं लेकिन अगाथा का दम भी 24 घंटे में ही फूल जाता है।
माना सरकार की अपनी मजबूरियां हैं और सरकार पूरे राज्य से इस कानून को नहीं हटा सकती लेकिन 12 साल से भूख हड़ताल पर बैठी इरोमा को अपनी और सशस्त्र बलों की मजबूरी बताकर अनशन खत्म करवाने की कोशिश कर सकती थी। भविष्य में इस कानून को हटान पर विचार करने का आश्वासन दे सकती थी लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ..!
इरोमा की ये हालत तब है जब 2004 में मनोरमा दी हत्याकांड की जांच के लिए गठित जीवन रेड्डी कमेटी ने 2005 में अपनी रिपोर्ट में इस कानून को हटाने की सिफारिश की थी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी खुद इस कानून को हटाने के पक्ष में हैं।
12 साल से इरोमा की भूख हड़ताल कई सवाल खड़े करती है... सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून पर..! समय समय पर सशस्त्र बलों की एकतरफा कार्रवाई पर..! और सबसे बड़ा सवाल राज्य और केन्द्र सरकार पर कि आखिर क्यों सरकार ने इरोमा की सुध नहीं ली..? क्यों इरोमा को 12 साल से न तो जीने दिया जा रहा है और न ही मरने..? जबकि इरोमा ने अदालत में खुद ये बात कही कि वो अपनी जिंदगी जीना चाहती है।

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छलनी भी बोले जिसमें 72 छेद..!


उत्तर प्रदेश में पुलिस अधिकारी जिया उल हक समेत तीन लोगों की मौत पर जब विपक्षी पार्टी बसपा सरकार पर कानून व्यवस्था को लेकर निशाना साधते हुए यूपी में जंगलराज और गुंडाराज होने की बात कहती हैं तो जवाब में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव कहते हैं- सूप बोले तो बोले, छलनी भी बोले जिसमें बहत्तर छेद। मायावती की सरकार के कई मंत्री और विधायक रेप, भ्रष्टाचार जैसे मामलों में जेल की सजा काट रहे हैं, ऐसे में उन्हें सपा सरकार के बारे में बोलने का कोई हक नहीं है
गजब करते हो मुलायम सिंह साहब उत्तर प्रदेश में पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी जाती है...आपकी सरकार के मंत्री रघुराज प्रताप सिंह ऊर्फ राजा भैया पर हत्या कराने का आरोप लगता है और आप ये कहकर संतोष कर रहे हैं कि पिछली सरकार में भी तो ऐसा ही कुछ हुआ था..! पिछली सरकार के कई मंत्री और विधायक ऐसे ही मामलों में जेल की हवा खा रहे हैं..! मतलब जो पिछली सरकार में हुआ अगर वैसा ही सपा सरकार में हो रहा है तो सब ठीक हैये तो वही बात हुई पिछली सरकार में शामिल लोगों ने उत्तर प्रदेश को जमकर लूटा, निर्दोष लोगों की हत्या की है इसलिए हम भी ऐसा ही करेंगे..!
आपकी बात का तो यह मतलब निकलता है कि हम तो यूपी में सुशासन नहीं लाएंगे...हम अपराधियों पर नकेल नहीं कसेंगे...हम भ्रष्टाचारियों और घोटालेबाजों पर लगाम नहीं लगाएंगे क्योंकि यही तो पिछली सरकार ने भी किया था। बड़ा ही शानदार तरीका है आपका तो गलत चीजों को जस्टिफाई करने का..!
वैसे भी यूपी में ऐसी घटनाएं होनी की आशंका उस दन प्रबल हो गयी थी जब प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मंत्रिमंडल विस्तार में दागियों को अपनी टीम में शामिल किया था। (पढ़ें- अखिलेश यादव- तकदीर पर ग्रहण ! )
उत्तर प्रदेश की सबसे युवा मुख्यमंत्री का खिताब हासिल कर चुके अखिलेश यादव के लिए अपने पिता की राजनीतिक दोस्ती का वास्ता रखना हर कदम पर महंगा सौदा साबित हो रहा है। चाहे पिता के करीबी दागी नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल करने की बात हो या फिर दागियों के अपराधों पर पर्दा डालने की बात। एक युवा चेहरे से देश के सबसे बड़े राज्य के लोगों को जो उम्मीद थी वो अपराधों की गर्मी में झुलसती दिखाई दे रही है। इस उम्मीद को हकीकत में बदलता हम तब तक नहीं देख पाएंगे जब तक अखिलेश के पिता मुलायम सिंह का दखल सरकार में कम नहीं होता और अखिलेश पूरी स्वतंत्रता से काम नहीं करते लेकिन अफसोस इस बात का है कि ऐसी उम्मीद करना ठीक उसी तरह है जैसे 2014 में मुलायम सिंह के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद करना..!

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सोमवार, 4 मार्च 2013

फिर से- पाकिस्तान की तो..!


हमारी सीमा में घुसकर पाकिस्तानी सैनिक हमारे सैनिकों का सिर कलम कर देते हैं लेकिन हमारी सरकार कुछ नहीं करती..! बड़ी जद्दोजहद के बाद घटना के एक हफ्ते बाद 14 जनवरी को प्लैग मीटिंग होती है को उल्टा पाकिस्तान बड़ी बेशर्मी से सारे आरोपों को नकार कर भारतीय सेना पर सीज फायर उल्लंघन का आरोप लगा देता है लेकिन हमारी सरकार कुछ नहीं करती..!
एक हफ्ते बाद हमारे प्रधानमंत्री का मौन टूटता है तो वे कड़ी कार्रवाई की बात तो करते हैं लेकिन फिर भी सरकार कुछ नहीं करती..!
हमारे गृहमंत्री हिदूं आतंकवाद का शिगूफा छोड़कर सीमा पार बैठे अमन के दुश्मनों का हौसला बढ़ाते हैं लेकिन अपने सैनिकों का सिर कलम होने पर कोई कार्रवाई नहीं करते..! (पढ़ें- पाकिस्तान की तो..!)
शुक्र है कि पाकिस्तान की तरह भारत में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का खुलेआम मखौल नहीं उड़ाया जाता है इसलिए सीमा पर भारतीय सैनिकों का सिर कलम करने की पाकिस्तानी सैनिकों की बर्बर कार्रवाई पर दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के केन्द्र सरकार को नोटिस पर उम्मीद जगी है कि शायद अब भारत सरकार नींद से जागेगी..!
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने सर्वा मित्तर की याचिका पर सुनवाई करते हुए केन्द्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है कि भारत सरकार ने इस घटना के बाद क्या कदम उठाए..? मित्तर ने अपनी याचिका में कोर्ट से मांग की है कि पाकिस्तान की बर्बर कर्रवाई जिनेवा कन्वेंशन का उल्लंघन है और कोर्ट सरकार को ये निर्देश दे कि सरकार मामले को आंतर्राष्ट्रीय अपराध कोर्ट में उठाए और पाकिस्तान से शहीद हेमराज का सिर वापस मांगे। (पढ़ें- सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया केंद्र सरकार को नोटिस)
सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी करने के साथ ही कारगिल युद्ध में शहीद हुए कैप्टन सौरभ कालिया के संबंध में दायर एक जनहित याचिका का भी जिक्र किया है जिसमें पाकिस्तान से कालिया का क्षत-विक्षत शव लौटाने की मांग की गई थी...ये याचिका भी अभी न्यायालय में लंबित है।
पाकिस्तान सीमा पर अपनी नापाक हरकतों से कभी बाज नहीं आया और जनवरी 2013 में भारतीय सैनिकों का सिर कलम करना भी पाकिस्तान की अमानवीयता को दर्शाता है जबकि 1949 में जिनेवा कन्वेंशन में कहा गया है कि कोई भी देश युद्धबंदियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करेगा और साथ ही किसी दूसरे देश के सैनिक या असैन्य नागरिक के शव के साथ अमानवीय कृत्य या शव पर किसी तरह का परीक्षण नहीं करेगा। लेकिन कारगिल में शहीद कैप्टन सौरभा कालिया और उनके 5 साथियों के शव के साथ ही जनवरी 2013 में भारतीय सीमा में घुसकर शहीद हेमराज और सुधाकर के शव के साथ पाकिस्तान ने अमानवीयता और बर्बरता की सारी हदें पार कर डाली।
इन घटनाओं ने पूरे देश का खून खौला दिया लेकिन हमारी सरकार में शामिल लोगों का खून नहीं खौला..! खौलेगा भी कैसे इनका खून तो लगता है कि देशभक्ति की बजाए भ्रष्टाचार और घोटालों से रंगा हुआ है..! जो देश की रक्षा के लिए होने वाले सौदों में भी अपना फायदा ढूंढ लेता है..! (पढ़ें- लेकिन इनका खून नहीं खौलता..!)
अपने सैनिकों के साथ बर्बरता पर 1999 में कारगिल फतह पर वाहवाही लूटने वाली एनडीए की सरकार का रवैया और वर्तमान में यूपीए सरकार का रवैया एकसमान दिखता है...ऐसे में कैसे इनसे पाकिस्तान की नापाक हरकतों पर जवाबी कार्रवाई की उम्मीद की जा सकती है..!
सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को नोटिस जरूर जारी किया है ऐसे में अब तक कुछ न करने वाली सरकार से बहुत ज्यादा उम्मीद तो नहीं है लेकिन इस जुमले को भी नहीं झुठला सकते कि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है
एक उम्मीद है कि शायद अब तो सरकार चेतेगी और ऐसे कदम उठाएगी ताकि कम से कम भविष्य में देश रक्षा के लिए घर परिवार से दूर विपरित परिस्थितियों में सीमा में तैनात हमारे जांबाज सैनिकों के साथ ऐसी बर्बरता फिर न हो। देश रक्षा के लिए खुशी खुशी अपने प्राण न्यौछावर करने वाले सभी वीर शहीदों को मेरा शत शत नमन।।जय हिन्द।।

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रविवार, 3 मार्च 2013

कुछ भी करेंगे 2014 के वास्ते..!


2014 में ज्यादा वक्त नहीं है लिहाजा 2014 में केन्द्र की सत्ता तक पहुंचने के रास्ते तैयार किए जाने लगे हैं तो अपने-अपने विरोधियों को रास्ते में ही धराशायी करने की कोशिशें भी खूब परवान चढ़ रही हैं। 2014 में केन्द्र की सत्ता के वास्ते राजनेता कुछ भी कर गुजरने को तैयार बैठे हैं...फिर चाहे इसके लिए किसी पर कीचड़ उछालने की बात हो या फिर खुद को जनता का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने के लिए किसी भी हद तक जाने की बात..!  
यूपीए सरकार में वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने बजट के जरिए महिलाओं, युवाओं और गरीब तबके के सहारे 2014 की सीढ़ी तैयार करने की कोशिश की तो दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में भाजपा से पीएम पद के प्रबल दावेदार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि भाजपा मिशन के लिए है जबकि कांग्रेस कमीशन के लिए..! मोदी ने यूपीए सरकार के तमाम घोटालों का जिक्र कर कांग्रेस बदरंग छवि प्रस्तुत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
मोदी ने कांग्रेस को दीमक बताते हुए भाजपा कार्यकर्ताओं से अपने मेहनत के पसीने से कांग्रेस को जड़ से उखाड़ फेंकने का आह्वान किया तो मणिशंकर अय्यर ने मोदी को मुसलमानों की हत्या करने वाला और सांप –बिच्छू तक की संज्ञा दे डाली..!
मोदी ने सोनिया – राहुल पर निशाना साधते हुए पर्दे के पीछे से शासन करने का आरोप लगाते हुए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर चौकीदार नियुक्त करने की बात कही तो राजीव शुक्ला ने मोदी को राष्ट्रीय नेता के लिए मोदी की क्षमता पर ही सवाल खड़ा कर दिया..!
मोदी ने 2014 में भाजपा को कांग्रेस के कुशासन का विकल्प बताते हुए कांग्रेस को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया तो राशिद अल्वी ने भाजपा में नेताओं को टोटा बताते हुए कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए प्रणव और लाल बहादुर शास्त्री का नाम लेने की बात कही..!
कुल मिलाकर 2014 में केन्द्र की सत्ता की मंजिल तक पहुंचने के लिए देश की दोनों प्रमुख पार्टियां खूब जोर लगा रही हैं। आपस में जुबानी जंग तेज हो चुकी है और नेताओं में अऩुशासन के साथ ही उनकी भाषा का संयम भी खोता जा रहा है..!
दरअसल लड़ाई सिर्फ अपने बल पर जीत हासिल करने तक होती तो ठीक था लेकिन लड़ाई विरोधियों की राह में ज्यादा से ज्यादा रोड़े अटका कर उनको मंजिल तक पहुंचने से पहले रोकने की भी है। अच्छा खेलकर तो हर कोई भी जीत हासिल कर लेता है लेकिन ये राजनीति है यहां खुद के अच्छा खेलकर जीत हासिल करने की बजाए दूसरे का खेल ज्यादा खराब करके या दिखाकर खुद बिना अच्छा खेले ही जीतने की परंपरा है। लिहाजा 2014 के लिए अपनी जीत का रास्ता तैयार करने के लिए एक बार फिर से इसी परंपरा का सहारा लिया जा रहा है..!
2014 में भ्रष्टाचार अहम मुद्दा है और जिस तरह से मोदी ने आज भाजपा को मिशन के लिए और कांग्रेस को कमीशन के लिए बताते हुए यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार को अपना हथियार बनाया उससे तो यही लगता है कि भाजपा हिंदुत्व के चेहरे के साथ ही भ्रष्टाचार की नाव में सवार यूपीए सरकार की नैया डुबाने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाली। लेकिन सबसे अहम बात ये है जो कांग्रेस ने मोदी के कमीशन वाले जुमले पर जवाब में कही कि भाजपा को अपने पूर्व अध्यक्ष बंगारु लक्ष्मण के कारनामे नहीं भूलने चाहिए कि किस तरह फर्जी रक्षा सौदे की डील के दौरान तहलका के स्टिंग ऑपरेशन में बंगारु लक्ष्मण एक लाख रूपए की रिश्वत लेते हुए कैमरे में पकड़े गए थे।
मोदी ने कहा कि देश की जनता के पास भाजपा ही एकमात्र विकल्प है...लेकिन भाजपा का बीता हुआ कल कहीं न कहीं भाजपा को भी कांग्रेस की ही जमात में खड़ा करता है यानि जब – जब दोनों सत्ता में आए तब-तब दोनों ने ही भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगाने के कोई मौके नहीं छोड़े...ये बात अलग है कि कांग्रेसी ज्यादा बेहतर गोताखोर साबित हुए हैं..!
फैसला एक बार फिर से जनता को ही करना है लेकिन दामन किसी का भी पाक साफ नहीं है..! सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि जनता के पास भी कोई मजबूत औऱ भरोसेमंद विकल्प नहीं है...ऐसे में देखना ये होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ समाजसेवी अन्ना हजारे की मुहिम और योगगुरु बाबा रामदेव का कालेधन के खिलाफ आंदोलन के साथ ही अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी की आम आदमी पार्टी क्या लोगों के दिलों में एक नए विकल्प का दीप जला पाने में कामयाब होगी या फिर एक बार फिर से जनता देश के दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों में से किसी एक पर भरोसा जताकर उसके हाथ में देश की बागडोर सौंपेगी..?

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क्यों पड़े हो शिंदे के पीछे..?


कुछ लोग कहते हैं कि आप बेवजह गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के पीछे पड़े हैं...बेवजह शिंदे की आलोचना करते फिरते हो...कुछ लोगों ने ये भी कहा कि शिंदे चूंकि दलित हैं इसलिए भी शिंदे के खिलाफ आप लिखते हो। सच कहूं तो मुझे को ये सारे सवाल ही बेवजह लगते हैं जो शिंदे से सहानुभूति रखते हुए से प्रतीत होते हैं..!
मेरे पास ये कहने के लिए वाजिब वजह भी हैये बात अलग है कि कुछ लोग इससे इतत्फाक न रखते हों..! वैसे भी मैं आपको ज्यादा पीछे नहीं लेकर जा रहा हूं...संसद के बजट सत्र की ही बात कर लेते हैं। गृहमंत्री शिंदे साहब ने राज्यसभा में महाराष्ट्र के भंडारा में तीन सगी बहनों के रेप के मामले में अपना बयान पढ़ते हुए तीनों का नाम लेते हुए उनकी पहचान जाहिर कर दी। हालांकि विपक्ष के हंगामे के बाद गृहमंत्री के इस बयान को सदन की कार्यवाही से हटा दिया गया लेकिन सवाल ये उठता है कि आखिर हर बार माननीय गृहमंत्री साहब ही क्यों गलतियां करते हैं..?
गौरतलब है कि क्रिमिनल लॉ आर्डिनेंस 2013 के मुताबिक रेप पीड़ित की पहचान जाहिर नहीं की जा सकती। ऐसे में गृहमंत्री की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति ऐसी गलती कैसे कर सकता है..? वो भी संसद की कार्यवाही के दौरान जब पूरा देश टीवी पर उसका सीधा प्रसारण देख रहा है..! क्या गृहमंत्री साहब को इतना ज्ञान नहीं है कि रेप पीड़ित की पहचान जाहिर नहीं की जा सकती या फिर गृहमंत्री साहब सिर्फ गृह मंत्रायल से उनके पास आए छपे छपाए बयान को सिर्फ अपनी आवाज दे रहे थे..!
ये पहली बार होता तो समझ में आता लेकिन इससे पहले भी गृहमंत्री ऐसा कर चुके हैं जब संसद में ही मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद को शिंदे ने श्री औरमिस्टर कहकर संबोधित किया था।
कोयला घोटाले पर शिंदे के बोल तो याद ही होंगे आपको...जब शिंदे साहब ने कहा था कि बोफोर्स की तरह लोग कोयला घोटाले को भी भूल जाएंगे। जयपुर में कांग्रेस चिंतन शिविर में शिंदे के बयान पर भी खूब बवाल मचा था जब शिंदे ने आतंकवाद को जाति और धर्म से जोड़कर हिंदू आतंकवाद के शब्द को ईजाद किया था ये बात अलग है कि बाद में शिंदे को अपना बयान वापस लेना पड़ा और शिंदे ने माफी मांग ली। (पढ़ें- गृहमंत्री रहने लायक नहीं शिंदे !)
हैदराबाद में बम धमाके होते हैं तो धमाकों के बाद गृहमंत्री कहते हैं कि सरकार को आशंका थी कि धमाके हो सकते हैं लेकिन फिर धमाके क्यों हुए इसका जवाब शिंदे साहब के पास नहीं है। बाद में शिंदे साहब इसे रूटीन अलर्ट कहकर  अपना पल्ला झाड़ते नजर आते हैं..! (पढ़ें- सरकार गरजती है आतंकी बरसते हैं..!)
सुशील कुमार शिंदे देश के गृहमंत्री हैं...देश की सुरक्षा का जिम्मा उनके हवाले हैं ऐसे में हम कैसे उनसे बार – बार गैर जिम्मेदाराना बयान की उम्मीद कर सकते हैं..! सुशील कुमार शिंदे साहब का गैर जिम्मेदार रवैया और बिना सोचे समझे वेवजह की बयानबाजी ही एक मात्र वजह है जो शिंदे की इतनी आलोचना होती है लेकिन हैरत होती है तब जब कुछ दिनों बाद शिंदे की गैर जिम्मेदारी का एक और नमूना सामने आ जाता है। अब शिंदे साहब को ही शर्म नहीं है तो क्या कर सकते हैं...?

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