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शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

स्वाईन फ्लू से हुई अफजल की मौत..?

क्या कहा अफजल की मौत स्वाइन फ्लू से हुई..?
क्या कहा कसाब की मौत डेंगू से हुई थी..?

यकीन तो नहीं होता..!

क्या भारत पर फिर होंगे आतंकी हमले..?


21 नवंबर 2012 के बाद 09 फरवरी 2013 की सुबह भी भारत वासियों के लिए सुकून की खबर लेकर आई। देर से ही सही लेकिन भारत ने मुंबई हमले के आरोपी कसाब के बाद लोकतंत्र के मंदिर पर हमले के आरोपी अफज़ल गुरु को उसके अंजाम तक पहुंचा ही दिया।
हालांकि अफजल की फांसी को लेकर राजनीति का खेल भी खूब खेला गया और यूपीए सरकार पर अल्पसंख्यक वोटों की खातिर अफजल की फांसी को टालने तक के आरोप भी खूब लगे लेकिन अफजल की मौत के साथ ही भारत ने न सिर्फ आतंक के आकाओं को एक कड़ा संदेश दिया बल्कि भारत पर नापाक निगाह रखने वालों को चेता भी दिया कि भविष्य में किसी ने ऐसी हिमाकत करने की कोशिश की तो उसका हश्र भी कसाब और अफजल गुरु की तरह ही होगा।
कसाब के बाद अफज़ल का चैप्टर भी क्लोज हो चुका है लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या अब भारत में भविष्य में इस तरह की आतंकी घटनाएं नहीं होंगी..?
क्या कसाब और अफजल की फांसी आतंकियों में मौत का डर पैदा कर पाएगी ये भी एक बड़ा सवाल है..?
भारत में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने के बाद उनको सजा में देरी क्या आतंकियों का मनोबल नहीं बढ़ाती..?
पकड़े जाने के बाद लंबे समय तक जेल में बंद रहने के दौरान आतंकी जेल में बंद अपने साथी को छुड़ाने के लिए कोशिश भी करते हैं...और इसके लिए निर्दोष लोगों को निशाना बनाते हैं।   
1971 में इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण करने वाला जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के मकबूल बट्ट का मामला सामने है। किस तरह बट्ट को फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद उसके साथियों ने ब्रिटेन में भारतीय राजनायिक रविन्द्र म्हात्रे का अपहरण कर भारत सरकार से बट्ट की रिहाई की मांग की थी और रिहाई न होने पर म्हात्रे की हत्या कर दी थी। हालांकि बट्ट को 11 फरवरी 1984 को दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गई थी लेकिन इसके लिए भारत को अपने राजनायिक को खोना पड़ा था।
24 दिसंबर 1999 को एयर इंडिया के विमान आईसी– 814 के अपहरण मामला भी सामने है किस तरह पाकिस्तानी चरमपंथी विमान का अपहरण कर कंधार लेकर गए और विमान में सवार 176 यात्रियों की जान की कीमत भारत को आखिरकार तीन आतंकियों मौलाना मसूद अजहर, अहमद उमर सईद और मुश्ताक अहमद जरगर को रिहा करके चुकानी पड़ी जिन्हें हमारे सुरक्षाबलों ने अपनी जान की कीमत लगाकर बमुश्किल पकड़ा था।
जाहिर है जब तक आतंकियों के मन में जिंदा बचने की एक प्रतिशत भी उम्मीद बाकी रहेगी तब तक आतंकी अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने की कोशिश करते रहेंगे..!
बहरहाल कसाब के बाद अफजल के अंत के बाद हम तो यही उम्मीद करेंगे कि आतंकवाद की पीड़ा को समय समय पर विभिन्न आतंकी हमलों के द्वारा झेलने के बाद भारत सरकार इस दिशा में अब कोई ठोस कदम उठाएगी ताकि आतंकी भारत की तरफ नजर उठाकर देखने से पहले भी लाख बार सोचें।। जय हिंद।।

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शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

दुर्भाग्य- कुरियन, गैंगरेप और महिला सुरक्षा बिल !


पीजे कुरियन...ये नाम तो सुना ही होगा आपने...राज्यसभा के उपसभापति हैं। राज्यसभा में सभापति हामिद अंसारी की अनुपस्थिति में राज्यसभा की कार्यवाही सुचारु रूप से चलाते हुए आपने कई बार इनको शायद देखा होगा...विपक्ष के हंगामे पर सांसदों को चुप कराते कुरियन साहब के लिए अब अपने विरोधियों को चुप कराना आसान नहीं लग रहा है।
केरल के 17 साल पुराने सूर्यनेल्ली गैंगरेप मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से ट्रायल शुरु करने का निर्देश दिया है। कुरियन इस मामले में आरोपी हैं तो जाहिर है कुरियन की मुश्किलें भी बढ़ गई हैं।
कुरियन के इस्तीफे की मांग के बीच कांग्रेस ने कुरियन का बचाव करते हुए साफ किया है कि कुरियन को न्यायपालिका ने क्लीन चिट दी थी ऐसे में नए रहस्योघाटन से हम प्रक्रिया के परे नहीं जा सकते। कुल मिलाकर स्थिति ये है कि संसद के बजट सत्र के दौरान भी उपसभापति कुरियन राज्यसभा की कार्यवाही संचालित करते दिखाई देंगे।
विडंबना देखिए बजट सत्र के दौरान राज्यसभा में महिलाओं की सुरक्षा औऱ महिलाओं के खिलाफ अपराधों की रोकथाम के लिए बिल पेश किया जाएगा और ये बिल ऐसा व्यक्ति पेश करेगा जो खुद गैंगरेप से गंभीर आरोपों से घिरा है..!
खास बात ये है कि ये बिल भी एक गैंगरेप की घटना की वजह से ही सरकार को लाना पड़ रहा है ऐसे में अब क्या कहा जा सकता है..?
कुरियन साहब से यही सवाल जब इंडिया टुडे के एसोसिएट एडिटर एम जी राधाकृष्णन जी ने किया तो कुरियन साहब का जवाब भी लाजवाब था। कुरियन साहब ने अपने इस्तीफे से इंकार करते हुए कहा कि आज कौन आरोपों का सामना नहीं कर रहा है, चाहे वो देश का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो
कुरियन साहब खुद पर आरोप लगने पर अपनी तुलना प्रधानमंत्री से कर देते हैं कि उन्होंने तो इस्तीफा नहीं दिया तो मैं क्यों दूं..?
कुरियन साहब भले ही खुद को निर्दोष बता रहे हों लेकिन चूंकि मामला अदालत में है ऐसे में कुरियन साहब को कम से कम इस मामले में कोई फैसला आने तक राज्यसभा के उपसभापति की कुर्सी से तो दूर ही रहना चाहिए...ये इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आरोप गैंगरेप जैसा गंभीर है और महिला अपराधों की रोकथाम के लिए बिल इसी बजट सत्र में आना है। अगर गैंगरेप के आरोपों से घिरा व्यक्ति इस बिल को पेश करता है तो इससे बड़ा दुर्भाग्य इस देश की जनता का और क्या हो सकता है..?
कैसे देश की महिलाएं ये यकीन कर पाएंगी कि महिला सुरक्षा बिल आने से महिलाओं के खिलाफ आपराध कम होंगे या आरोपियों को कड़ी सजा मिल पाएगी..?

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अब होगा हाफिज सईद का अंत !


लश्कर ए तैयबा के मुखिया हाफिज सईद को लगता है बड़ी गलतफहमी हो गई है। हाफिज सईद कहता है कि वो पाकिस्तान में आम आदमी की तरह खुला घूमता है और अमेरिका उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले हाफिज सईद ने अमेरिका का नाम इसलिए लिया क्योंकि अमेरिका ने उस पर एक करोड़ अमेरिकी डॉलर(करीब 56 करोड़ रूपए) का ईनाम घोषित किया है। हाफिज मुंबई आतंकी हमले का मास्टर माइंड है और मुंबई हमले में मारे गए 166 लोगों में 6 अमेरिकी नागरिक भी शामिल थे।
हाफिज सईद अगर अमेरिका की जगह भारत का नाम लेकर ये बोलता कि भारत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है तो समझ में भी आता क्योंकि भारत मुंबई आतंकी हमले के 4 साल बाद भी हाफिज सईद का बाल भी बांका नहीं कर पाया है..! जबकि हाफिज सईद लगातार सीमा पार से भारत के खिलाफ जमकर जहर उगल रहा है।
जनवरी 2013 में सीमा पर भारतीय सैनिकों के साथ पाकिस्तानी सैनिकों की बर्बरता के बाद ये खबर भी आई थी कि हाफिज ने ही पाक सैनिकों को इसके लिए उकसाया था और इस घटना से कुछ दिन पहले सईद ने एलओसी का दौरा भी किया था। लेकिन इस सब के बाद भी भारत सिर्फ पाकिस्तान से हाफिज को उसे सौंपने की मांग ही करता रहा है..!
अल कायदा का प्रमुख ओसामा बिन लादेन तो याद ही होगा आपको अमेरिका के न्यूयार्क शहर में वर्लड ट्रेड सेंटर में 11 सितंबर 2001 की तबाही के बाद देर से ही सही लेकिन अमेरिका ने पाकिस्तान में घुसकर 2 मई 2011 को लादेन को मौत के घाट उतारा था और उसको संरक्षण देने वाली पाकिस्तान सरकार तक कुछ नहीं कर पाई..!
64 साल का हाफिज सईद शायद 2 मई 2011 की तारीख भूल गया है इसलिए ही वो कह रहा है कि उसकी किस्मत खुदा के हाथ में है अमेरिका के हाथ में नहीं..!
हाफिज के हिसाब से सोचें तो वो शायद कुछ हद तक सही भी कह रहा है..! उसको ये कहना भा चाहिए क्योंकि पड़ोसी देश भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में वह सीमा पार बैठकर 166 लोगों को मौत की नींद सुला देता है और भारत चुप बैठता है..! वो भारत के खिलाफ लगातार जहर उगलता है और भारत सरकार चुप रहती है..! वो कश्मीर की लडाई को अंजाम तक पहुंचाने की बात करता है और भारत चुप बैठता है..!
हाफिज को लगता है कि पडोसी देश उसका कुछ नहीं बिगाड़ सका तो अमेरिका तो बहुत दूर की बात है।
भारत से तो बहुत ज्यादा उम्मीद तो है नहीं लेकिन अमेरिका से उम्मीद जरूर है कि किसी दिन अचानक ओसामा बिन लादेन की ही तरह एक और खबर सुनने को मिलेगी- पाकिस्तान में घुसकर अमेरिकी सैनिकों ने किया आतंक के सरगना हाफिज सईद का अंत..!

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गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

2014- राम मंदिर, बाबरी विध्वंस और हिंदू आतंकवाद !


नेताओं का न कोई रूप होता है और न ही रंग...ये समय के साथ परिस्थितियों के अनुरूप ढ़लते चले जाते हैं। ये हवा और पानी के समान है जहां जितनी जगह मिले उसी आकार में खुद को ढ़ाल लेते हैं। हिंदू सामने होते हैं तो राम मंदिर की बात करते हैं...मुस्लिम सामने होते हैं तो बाबरी विध्वंस की बात और अगर सिख सामने होते हैं तो दिलाते हैं 1984 की याद..! (सभी नेता नहीं)।
ये किसी का हमदर्द बनने की कोशिश कर उसे साधने का कोई मौका नहीं चूकते...ये बात अलग है कि काम हो जाने पर मुंह फेरने में भी देर नहीं करते...इन्हें बस मौका मिलना चाहिए..! (सभी नेता नहीं)।
राजनीति और नेताओं का सालों पुराना इतिहास भी इसकी गवाही देता है तो देश में राजनीति का वर्तमान परिदृश्य भी यही बयां कर रहा है..!
2014 का चुनाव सामने है...कुछ समय पहले तक यूपीए सरकार विकास के नाम पर जनता के हित में सरकार की योजनाओं के नाम पर जनता के बीच जाने की बात कर रही थी तो भाजपा यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार, घोटालों, महंगाई और आर्थिक मोर्चे पर सरकार के फैसलों पर सवाल खड़ा करते हुए सत्ता में वापसी का दम भर रही थी।
सीमा पर भारतीय सैनिकों के साथ पाकिस्तानी सैनिकों की बर्बरता के बाद एकाएक स्थितियां बदलने लगती हैं...सरकार पाकिस्तान को तो माकूल जवाब नहीं दे पाई लेकिन हमारे देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जयपुर में कांग्रेस पार्टी के चिंतन शिविर में जबरदस्त चिंतन के बाद एक नए शब्द को ईजाद जरूर कर दिया...हिंदू आतंकवाद। न तो ये शिंदे साहब की जुबान की फिसलन थी और न ही ये सिर्फ एक शब्द है..! दरअसल इस शब्द के पीछे का चिंतन था आतंकवाद को एक धर्म और जाति से जोडकर दूसरे धर्म और जाति के लोगों को खुश कर उनके वोट हासिल करने की ओर एक कदम..!
किसी भी धर्म या जाति के लोगों के बहुसंख्य वोट हासिल करने का इससे बढ़िया तरीका शायद हो भी नहीं सकता...ये तरीका भी तो इन्हीं नेताओं ने ही ईजाद किया है..!
इसका रिएक्शन भी त्वरित हुआ और शिंदे के खिलाफ हल्लाबोल के बहाने शुरु हो गया फिर से धर्म और जाति के नाम पर बहुसंख्य वोटों को साधने का काम..!
इस बीच इस तरह के कई और घटनाक्रमों के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह कुंभनगरी पहुंचते हैं तो एकाएक महाकुंभ की धरती से राम नाम की गूंज सुनाई देती है। जाहिर है दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक आस्था के सागर से राम नाम की गूंज 2014 से पहले बहुसंख्यकों को साधने का शुरुआती कदम है। इसके बीच कांग्रेस नेता शकील अहमद गुजरात के गोधरा के बहाने नरेन्द्र मोदी पर नमक खाकर गुजरात के खून का आरोप लगाते हुए बहुसंख्य लोगों के जख्मों को हरा करते हुए अपना काम कर जाते हैं और उन्हें 2014 से पहले सोचने के लिए दे जाते हैं एक वजह..!
चुनाव की तारीख करीब आते-आते राजनीतिक दलों के एजेंडे से भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई और जनता से जुड़े विकास के तमाम मुद्दे धर्म और जाति की राजनीति की गर्माहट में भाप की तरह उड़ने लगे हैं और शुरु हो गया है बहुसंख्य वोटों के लिए लोगों की याददाश्त को नफरत की बर्फ में जमाने का काम..!
ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या एक बार फिर से जाति और धर्म की राजनीतिभ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई और जनता से जुड़े विकास के तमाम मुद्दों पर कहीं भारी तो नहीं पड़ जाएगी..?

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बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

लोकतंत्र का राजा- मतपेटी से आता है मां के पेट से नहीं !


2014 के आम चुनाव में किसकी सरकार बनेगी...? से बड़ा सवाल ये उठ रहा है कि 2014 में देश का प्रधानमंत्री कौन बनेगा..?  
मैंने तो सुना था कि लोकतंत्र का राजा मां के पेट से नहीं मतपेटी से निकलता है लेकिन यूपीए सरकार बनाने की स्थिति अगर आती है तो इस बार लगता है कि लोकतंत्र का राजा मतपेटी से नहीं मां के पेट(परिवारवाद) से ही आएगा..! समझ तो आप गए ही होंगे कि मैं किसकी बात कर रहा हूं..?
बात यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के बेटे और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की ही हो रही है..। वही राहुल गांधी जिन्हें हाल ही में कांग्रेस में नंबर दो की कुर्सी सौंपकर अघोषित तौर पर 2014 के लिए कांग्रेस का पीएम उम्मीदवार घोषित किया गया है।
लेकिन अगर एनडीए की सरकार बनने की स्थिति आती है तो यहां पर भी तस्वीर लगभग- लगभग साफ ही है लेकिन इस पर से राजनीतिक कुहासा हटना अभी बाकी है। भाजपा ने मोदी के चेहरे पर दांव खेलने की तैयारी तो कर ली है लेकिन मोदी के नाम पर विरोध करने वालों की भी एनडीए में कमी नहीं है। गनीमत है कि एनडीए की सरकार बनेगी तो लोकतंत्र का राजा मतपेटी(परिवारवाद नहीं) से ही निकलेगा..!
कुल मिलाकर प्रमुख रूप से दो नाम राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी अभी सामने हैं...ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर जनता किसकी ताजपोशी का रास्ता तैयार करेगी..?
हर पांच साल में लोकतंत्र के महापर्व के दिन तो जनता ही राजा होती है लेकिन ये अलग बात है कि बाकी के 4 साल 364 दिन जनता हाशिए पर चली जाती है क्योंकि जनता जिस पर भरोसा करके उसे अपना राजा चुनती है उन लोगों के निजि हित जनता के हित पर भारी पड़ते दिखाई देते हैं। एक ऐसे ही अनुभव से रूबरू होने के बाद कहीं न कहीं देश की जनता एक बार फिर से उसी मुहाने पर खड़ी है कि आखिर अपना राजा किसे चुनें..?
एक ऐसा राजा जो देश की बात करे...जनता के सरोकारों की बात करे...देश की तरक्की की बात करे...हर गरीब, पिछड़े की तरक्की की बात करे।  
करीब 15 महीने के बाद लोकतंत्र के महापर्व से पहले जनता को धर्म और जाति के नाम पर साधने का खेल फिर से शुरु हो गया है..! हिंदू आतंकवाद के शब्द को जन्म दिया जा चुका है तो इलाहाबाद में आस्था का महाकुंभ...राजनीति के महाकुंभ में तब्दील हो गया है..!
सत्ता के जहर को पीने के लिए नीलकंठ(राहुल गांधी) का भेष धारण किया जा रहा है तो...सत्ता को हासिल करने धर्म संसद के बहाने महामंथन से अमृत(नरेन्द्र मोदी) निकालने की तैयारी की जा रही है...!  
सत्ता को पाने के लिए हर तरफ से हर तरह की कवायद जारी है...वक्त बदल गया है...लेकिन जनता को लुभाने के हथकंडे वही पुराने हैं...ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि क्या जनता का मानस बदला है..?
ऐसा नहीं है कि मानस बदलने की कोशिश नहीं हुए..! कोशिशें बहुत हुई...अन्ना हजारे ने दो साल पहले शुरुआत भी की थी...बाबा रामदेव ने भी आवाज बुलंद की थी...अरविंद केजरीवाल भी उनके मुताबिक एक इमानदार कोशिश कर रहे हैं...लेकिन एक सवाल फिर खड़ा होता है कि क्या 2014 तक जनता की जनता की याददाश्त ताजा रहेगी..? ये सवाल इसलिए भी क्योंकि 70 के दशक में एक कोशिश जेपी ने भी की थी...लेकिन स्थितियां आज भी जस की तस है..!
बहरहाल फैसला जनता के ही हाथ है कि लोकतंत्र का राजा मतपेटी से निकलेगा या मां के पेट(परिवारवाद) से हम तो यही उम्मीद करेंगे कि उसकी सर्वोच्च प्राथमिक्ता देश और देश की प्रजा हो।  

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महाकुंभ- राहुल “जहर” या मोदी “अमृत”


महाकुंभ में श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगाकर अपने पापों से मुक्ति पाने की कोशिश में लगे हैं तो राजनीतिक दल कहां पीछे रहने वाले थे। संतों के सहारे भाजपा ने जहां 2014 पर नजरें गड़ा दी हैं तो कांग्रेसियों ने भी बहती गंगा में हाथ धोने शुरु कर दिए हैं। चाटुकारिता की हद पार करते हुए कांग्रेसियों ने राहुल गांधी के चिंतन शिविर में दिए भाषण के अंश- सत्ता जहर हैको सार्थक करने की कोशिश करते हुए राहुल को भोलेनाथ की संज्ञा दे दी तो यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की तुलना रानी लक्ष्मीबाई से कर दी है..!
आस्था का महाकुंभ अब राजनीति के रंग में रंगा दिखाई दे रहा है। राजनीति के महाकुंभ में अब नेताओं में डुबकी लगाने की होड़ शुरु हो चुकी है। कुछ नेता खुद डुबकी लगा रहे हैं तो कुछ अपने पसंदीदा नेताओं के नाम का जप कर चाटुकारिता की डुबकी लगा रहे हैं। इन नेताओं को उम्मीद है कि महाकुंभ में डुबकी लगाने का फल मिले न मिले लेकिन चाटुकारिता की डुबकी लगाने का फल उन्हें देर सबेर जरूर मिलेगा..!
भाजपा ने आस्था के इस महाकुंभ के जरिए करोड़ों श्रद्धालुओं में हिंदुत्व की भावना के नाम पर उन्हें साधने की पूरी तैयारी कर ली है..! भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह कुंभनगरी पहुंच चुके हैं। माना ये जा रहा है कि राजनाथ सिंह संतों संग महामंथन के बाद निकलने वाले मोदी अमृत (पहले से तय) के सहारे 2014 में भाजपा की वैतरणी पार लगाने की जुगत में हैं ताकि 2009 की हार का दाग भी अपने माथे से मिटाया जाए..!
भाजपा एक बार फिर से अपने पुराने एजेंडे पर लौटती दिखाई दे रही है। हिंदू आतंकवाद शब्द को जन्म देकर गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे पहले ही भाजपा के हाथ में लड्डू दे चुके हैं ऐसे में भाजपा कैसे इस मौके को चूकती लिहाजा महाकुंभ के बहाने इस मुद्दे को भी भुनाने की पूरी तैयारी भाजपा ने कर ली है।
पीछे तो 2014 में हैट्रिक लगाने की कोशिश में जुटी कांग्रेस भी नहीं है...शुरुआत चाटुकार कांग्रेसी नेताओं ने राहुल और सोनिया के चाटुकारिता से भरे पोस्टरों को कुंभनगर में लहराकर कर ही दी है लिहाजा अब उन्हें ये भी पूरी उम्मीद है कि राहुल और सोनिया कुंभनगर से बह रही 2014 की राजनीति की गंगा में हाथ धोने क्या स्नान करने जरूर आएंगे..!
बहरहाल आस्था के महाकुंभ में राजनीति की गंगा बहाने के बाद राजनीतिक दलों के निशाने पर 2014 का आम चुनाव है...ऐसे में देखना ये होगा कि सत्ता के जहर को राहुल गांधी अपने कंठ में समाकर कांग्रेस की हैट्रिक लगा पाने में कामयाब हो पाएंगे या फिर हिंदुत्व के महामंथन से भाजपा के लिए निकलने वाला मोदी अमृत भाजपा की वैतरणी पार लगा पाएगा।

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मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

क्यों न एक फतवा जारी किया जाए...?


कश्मीर में मुस्लिम लड़कियां संगीत में अपने भविष्य के सपने बुनती हैं तो इसे इस्लाम के खिलाफ बताकर फतवा जारी कर दिया जाता है..!  कभी लड़कियों के जींस पहनने पर फतवा जारी कर दिया जाता है तो कभी लड़कियों के मोबाइल फोन इस्तेमाल करने पर फतवा जारी कर दिया जाता है..!
लेकिन जेहाद के नाम पर लोगों की हत्या करने पर कोई फतवा जारी नहीं होता है। आखिर क्यों..?
फतवे जारी कर अपनी संकुचित सोच का प्रदर्शन करने वाले ऐसे मौलवी या उलेमा कभी इस्लाम में किसी की हत्या की इजाजत नहीं दिए जाने की बात नही करते लेकिन रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़कर जब कोई लड़की अपने सपनों को पूरा करने के लिए आसमान की बुलंदिया छूने की कोशिश करती है तो उसके पंख कतरने में ये लोग जरा भी देरी नहीं करते...आखिर क्यों..?
अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान के रास्ते भारत में जेहाद के नाम पर जब आतंकी हमले किए जाते हैं...बम विस्फोट किए जाते हैं लोगों का सिर कलम कर दिया जाता है उस वक्त कोई फतवा जारी नहीं होता..! आखिर क्यों..?
निर्दोष लोगों पर जब बेवजह गोलियां की बौछार कर दी जाती है...किसी वो विधवा कर दिया जाता है...छोटे – छोटे बच्चों के सिर से बाप का साया उठ
जाता है...किसी मां से उसके बेटे को छीन लिया जाता है...किसी बहन से उसके भाई को जुदा कर दिया जाता है...तब कोई फतवा जारी नहीं होता है। आखिर क्यों..
?
आज तक क्यों नहीं ऐसे लोगों ने किसी आतंकवादी संगठन के खिलाफ फतवा जारी नहीं किया...? आज तक क्यों नहीं किसी आतंकवादी के खिलाफ फतवा जारी नहीं किया गया..?
क्या ऐसे कथित मौलवी और उलेमाओं के हिसाब से क्या आतंकवादी संगठन और आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देना इस्लाम के अनुसार सही है..?
जाहिर है कोई भी धर्म किसी की जान लेने की इजाजत तो नहीं देता है लेकिन अमन के दुश्मन फर्क नहीं पड़ता...वे किसी भी देश के...किसी भी धर्म के हों इन घटनाओं में लिप्त रहते हैं..!   
अनाप शनाप फतवे जारी करने वाले ऐसे मौलवी और उलेमा दरअसल कूप मंडूक(कुएं के मेंढ़क) की तरह होते हैं...ये लोग सोचते हैं कि दुनिया इतनी ही बड़ी है और हर कोई यहां इनके हिसाब से रहे...ऐसे में जब कोई इस कूप से बाहर निकलने की कोशिश करता है तो इनको ये बर्दाश्त नहीं होता है और फतवे के नाम पर उसकी आजादी को...उसके सपनों को कुचलने का काम शुरु कर दिया जाता है..!
ऐसे में क्यों न एक नेक काम किया जाए...ऐसे कथित मौलवी और उलेमाओं के खिलाफ ही एक फतवा जारी किया जाए..! ताकि बिना किसी डर के लड़कियों के सपने आकार ले सकें...वे आसमान की बुलंदियों को छू सकें...इनमें से भी कोई कल्पना चावला जैसी बन सके...और भारत का नाम रोशन करे।

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सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

यकीन नहीं होता- इस्लाम ऐसी शिक्षा देता है !


आज समाचार चैनलों में एक खबर को देखने से पहले मैं तो कम से कम यही सोचता था कि हिंदुस्तान को आजाद हुए 66 साल हो गए हैं...लेकिन इस खबर को देखने के बाद लगा कि कहीं मैं गलत तो नहीं हूं..! क्या वाकई में हमें आजादी मिले 66 साल हो गए हैं..? अगर इसका जवाब हां है तो फिर जरूर ये खबर झूठी होगी..! लेकिन अफसोस न तो ये खबर गलत थी और न ही ये झूठ है कि हिंदुस्तान को आजाद हुए 66 साल हो गए हैं।
कश्मीर में लड़कियों के एकमात्र बैंड प्रगाश के बंद होने की खबर थी। इसके पीछे जो वजह बताई जा रही थी वो और भी हैरान करने वाली थी। खबर के मुताबिक सर्वोच्च मुफ्ती बशीरूद्दीन अहमद ने लड़िकयों के गाने को गैर इस्लामिक करार देते हुए इनके खिलाफ फतवा जारी किया है। ये भी कहा जा रहा है कि एक कट्टरपंथी उग्रवादी महिला संगठन दुश्तकान ए मिल्लत ने बैंड में शामिल लड़कियों के परिवार के सामाजिक बहिष्कार तक की धमकी दी है। जिसके बाद बेहद डरी हुई इन लड़कियों ने अपने बैंड को बंद करने के साथ ही संगीत को छोड़ने का फैसला लिया है।
गलत व अनैतिक कार्य न करने की शिक्षा तो सभी धर्म देते हैं लेकिन संगीत से दूर रहने की शिक्षा भी कोई धर्म देता है ये आज ही पता चला। यहां पर अपने मुस्लिम मित्रों का मार्गदर्शन चाहूंगा क्योंकि मेरा सामान्य ज्ञान तो यही कहता है कि संगीत तो कम से कम गैर इस्लामिक नहीं हो सकता और मेरे हिसाब से तो ये बिल्कुल गलत है कि गायकी इस्लामिक शिक्षा के अनुरूप नहीं है।
संगीत पर तो गुलाम भारत में भी अंग्रेजों ने शायद ही रोक लगाई होगी लेकिन आज हमें आजाद हुए 66 साल हो गए हैं...हम चांद के बाद मंगल ग्रह तक पहुंच गए हैं लेकिन अभी भी हमारे समाज में ऐसे लोग मौजूद हैं जिन्हें लड़कियों की गायकी पर आपत्ति है।
बसीरूद्दीन साहब कल्पना चावला तो याद ही होगी आपको...आज से 10 साल पहले 1 फरवरी 2003 को दुखद हादसे में हमें छोड़ कर चली गयी। अंतरिक्ष के रहस्यों को सुलझा रही थी कल्पना लेकिन आप क्या समझोगे आपकी सोच तो घर की चारदीवारियों से बाहर ही नहीं निकल पाती है।
अच्छा लगा की जम्मू- कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला ने लड़कियों का समर्थन किया है लेकिन और अच्छा लगता अगर मुख्यमंत्री उमर साहब फतवा जारी करने वालों के खिलाफ कानूनी फतवा जारी करवाते और चार दीवारी के अंदर की सोच रखने वाले ऐसे लोगों को ही जेल की चार दीवारी में कैद करने की पहल कर ऐसी सोच वाले लोगों को ये संदेश देने की कोशिश करते कि हिंदुस्तान को आजाद हुए 66 साल हो गए हैं।
बहरहाल ये वक्त है कि मुस्लिम समुदाय खुद आगे आए और रॉक बैंड में अपने भविष्य के सुनहरे सपने देख रही इन लड़कियों का उत्साह बढ़ाएं और ऐसे फतवे जारी करने वालों को खुद सबक सिखाए।

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कौन अन्ना...कैसा आंदोलन..?


2014 के आम चुनाव में अभी करीब 15 महीने का वक्त है लेकिन देश की दोनों बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा को उम्मीद ही नहीं पूरा भरोसा है कि सरकार उनकी ही बनेगी। यहां तक तो ठीक था लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी को लेकर भी जोर आजमाईश चरम पर है। कांग्रेस नीत यूपीए में तो अघोषित तौर पर राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार हैं तो भाजपा नीत राजग में प्रधानमंत्री की उम्मीदार को लेकर घमासान मचा है। सब कुछ यूपीए और एनडीए के आसपास ही घूमता दिखाई दे रहा है।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर दो साल पहले शुरु हुई बदलाव और भ्रष्टाचार मुक्त शासन की बयार आखिर क्यों मंद पड़ गई..?
वो नजारा मेरी तरह आपके जेहन में भी शायद ताजा होगा जब आज से करीब दो साल पहले समाजसेवी अन्ना हजारे ने अपने सहयोगियों संग दिल्ली के जंतर मंतर से लोकपाल के समर्थन में भ्रष्टचार के खिलाफ हुंकार भरी थी तो अन्ना के समर्थन में देशभर में सड़कों पर उतरा जनसैलाब एक नयी क्रांति के उदघोष का आभास करा रहा था..!
लगने लगा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरु हुई ये लड़ाई अपने अंजाम तक पहुंचेगी और 2014 का आम चुनाव निर्णायक सिद्ध होगा। लेकिन टीम अन्ना में विघटन के रूप में अरविंद केजरीवाल का राजनीतिक विकल्प चुनकर आम आदमी पार्टी का गठन करना शायद आम आदमी का भरोसा ले डूबा क्योंकि बड़ी संख्या में लोग राजनीति विकल्प के इस फैसले के समर्थन में नहीं थे..!    
टीम अन्ना का विघटन सरकार के साथ ही दूसरे राजनीतिक दलों के लिए संजीवनी की काम कर गया और उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई पर सवाल उठाने के मौके मिल गए।
हालांकि अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल अलग अलग रास्तों से अपनी लड़ाई को आम आदमी के सहारे अंजाम तक पहुंचाने की उम्मीद लगाए बैठे हैं लेकिन ये बात अन्ना, केजरीवाल और उनके सहयोगी और समर्थक भी अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी राह आसान नहीं है..!
इसके पीछे की बड़ी वजह ये भी है कि जिस आम आदमी के साथ की उम्मीद में ये लड़ाई लड़ी जा रही है वही आम आदमी कहीं न कहीं अभी भी देश के दो प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पाया है..!
भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई, बेरोजगारी से त्रस्त आम आदमी राजनीति में किसी तीसरे विकल्प पर मुहर लगाने की सोचता तो है लेकिन जब ऐसा करने की बारी आती है तो उसका ऊंगलियां कमल या हाथ की तरफ ही या फिर लोकप्रिय क्षेत्रीय दलों के चुनाव चिन्ह के आस पास ही घूमती नजर आती हैं..!
भारतीय राजनीति का इतिहास उठा कर अगर देख लें तो इक्का दुक्का मौके को छोड़कर ये बात साबित भी हो जाती है कि आम आदमी का मानस परिवर्तन कर सत्ता परिवर्तन इतना आसान तो कभी नहीं रहा।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि जनता को भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई, बेरोजगारी जैसी सौगातें देने वाले ऐसे राजनीतिक दलों को ढोना ही क्या अब इस देश की नियती बन गई है..?
सवाल ये उठता है कि क्या हम इन सब चीजों के आदि हो गए हैं और हमें इस सब से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता..?
इसका जवाब शायद यूएनडीपी की ह्यूमन डेवलेपमेंट रिपोर्ट में मिल जाए जिसके अनुसार भारत में गरीबों की संख्या 42 करोड से ज्यादा है। यूएनडीपी की नजर में गरीब का मतलब वह परिवार है जिसे हर रोज एक डॉलर से भी कम आमदनी में गुजारा करना पड़ता है जो आज के हिसाब से तकरीबन 50 रूपए के आस पास है।
121 करोड़ की आबादी वाले देश में ये वो संख्या है जिनकी ये हालत भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई, बेरोजगारी की वजह से ही है और इस सब से सबसे ज्यादा यही लोग प्रभावित भी हैं और दूसरे लोगों के साथ ही इनका वोट बदलाव की ताकत रखता है।  
लेकिन विडंबना देखिए यही लोग भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ आवाज बुलंद नहीं कर पाते क्योंकि इनको इस सब की जानकारी ही नहीं होती है और ये लोग चाहकर भी अपनी आवाज नहीं उठा पाते क्योंकि सुबह होते ही ये लोग दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में जुट जाते हैं।
इनके पास तो वक्त ही नहीं है अपनी आवाज उठाने का..वैसे भी जब पेट ही नहीं भरेगा तो आवाज कोई कैसे उठाएगा..?
कहते भी हैं - भूखे पेट तो भजन भी नहीं होते हैं..! सत्ता परिवर्तन, व्यवस्था परिवर्तन के खिलाफ आंदोलन कैसे होगा..?

deepaktiwari555@gmail.com

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

राहुल गांधी पीएम बनने लायक नहीं !


2014 के आम चुनाव से ऐन पहले राहुल गांधी ने आखिरकार हिम्मत दिखाई और कांग्रेस के उपाध्यक्ष की कुर्सी संभाल कर बड़ी जिम्मेदारी निभाने की तरफ कदम बढ़ाया। राहुल से कांग्रेसियों को उम्मीदें भी हैं और राहुल ने भी बड़ी जिम्मेदारी संभालने के बाद युवाओं के सहारे 2014 में यूपीए की हैट्रिक कराने का दम भी भरा। हालांकि कांग्रेस की तरफ से पीएम पद के लिए प्रोजेक्ट न होते हुए भी राहुल गांधी ही सरकार बनने की स्थिति में कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
कांग्रेसी तो काफी पहले ही चाहते थे कि राहुल पीएम बनें या सरकार में अहम जिम्मेदारी संभालें लेकिन राहुल हर बार कदम पीछे खींचते रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद कई बार राहुल से सरकार में शामिल होने का आग्रह करते रहे हैं लेकिन राहुल ने कभी हामी ही नहीं भरी या कहें कि हिम्मत नहीं दिखाई।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अन्य राजनीतिज्ञों की अपेक्षा युवा और चर्चित चेहरा हैं।
निश्चित ही कांग्रेसियों के साथ ही देश के युवाओं को राहुल गांधी से बड़ी उम्मीदें भी होंगी लेकिन सवाल ये उठता है कि विपक्ष के राहुल को अपरिपक्व कहने पर उन्हें जवाब देते हुए खुद को परिपक्व कहने वाले राहुल गांधी आखिर क्यों हर बार सरकार में शामिल होने से बचते रहे..?
क्या राहुल गांधी को खुद पर भरोसा नहीं था..? या फिर राहुल एक ऐसी सरकार में शामिल नहीं होना चाहते थे जो पहले से ही भ्रष्टाचार, घोटालों और आर्थिक मोर्चे पर अपने फैसलों को लेकर सवालों के घेरे में है..?
जाहिर है राहुल एक ऐसी सरकार का हिस्सा रहकर 2014 में आम जनता के बीच नहीं जाना चाहते थे जिसका जवाब उन्हें जनता को देना भारी पड़ जाता..! ऐसे में राहुल ने जानबूझकर कांग्रेस में बड़ी जिम्मेदारी संभालने के लिए 2014 के आम चुनाव से पहले का वक्त चुना और ये संकेत भी दिया कि वे युवाओं के सहारे युवा भारत की तकदीर लिखेंगे। लेकिन यहां पर ये सवाल जेहन में आता है कि जब राहुल के पास संगठन के अलावा कोई दूसरा अनुभव नहीं है तो 2014 में यूपीए की सरकार बनने की स्थिति आने पर वे कैसे देश को चला पाएंगे..?
राहुल के चाहने वाले शायद यहां पर शायद ये तर्क देंगे कि कोई भी व्यक्ति पेट से कुछ सीखकर नहीं आता और कहीं न कहीं से शुरुआत जरूर करता है और राहुल बहुत ही काबिल राजनेता हैं लेकिन इसका जवाब मैं ये देना चाहूंगा कि- देश को चलाना न तो एनएसयूआई के चुनाव कराने जैसा काम है और न ही खाली वक्त में किसी राज्य के किसी अति पिछड़े गांव में दलित के घर जाकर भोजन करने का काम..! या प्लास्टिक के तसले(बर्तन) में मिट्टी ढ़ो कर जमीन से जुड़े होने का एहसास कराने का काम..!
यहां सवाल राहुल की काबलियत का नहीं है बल्कि सवाल ये है कि 34 साल की उम्र में राजनीति में प्रवेश करने वाले राहुल गांधी 8 साल के अपने राजनीति जीवन में (जिसमें भी वे कभी सरकार का हिस्सा नहीं रहे) क्या इतने परिपक्व हो गए हैं कि सरकार बनने की स्थिति में वे 2014 में देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाल सकें..?
हां राहुल के पास एकमात्र और अनोखी काबलियत ये जरूर है कि उनका जन्म गांधी परिवार में हुआ और राजनीति उन्हें विरासत में मिली और गांधी परिवार के दम पर ही उनका राजनीति अस्तित्व कायम भी है।
क्या सिर्फ उनकी इस एकमात्र काबिलियत को ये पैमाना बनाया जा सकता है कि सिर्फ 8 साल के राजनीतिक अनुभव वाले राहुल पीएम की कुर्सी के लिए योग्य हैं..?
हालांकि 8 साल के राजनीतिक जीवन का अनुभव राहुल के हिस्से में सिर्फ एक ये उपलब्धि दर्शाता है कि 2009 के आम चुनाव में राहुल ने 2004 की अपेक्षा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति को सुधारा और कांग्रेस की सीटों की संख्या 9 से बढ़ाकर 21 करने में सफलता हासिल की जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी का जादू नहीं चला और तीनों ही राज्यों में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी।   
बहरहाल राहुल गांधी बड़ी जिम्मेदारी संभलकर कांग्रेस उपाध्यक्ष के साथ ही कांग्रेस में नंबर दो हो गए हैं और अघोषित रूप से 2014 में कांग्रेस के घोषित पीएम उम्मीदवार हैं लेकिन देखने वाली बात ये होगी कि फैसला करने वाली देश की जनता क्या राहुल गांधी पर भरोसा करेगी..?

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