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सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

पल पल क्यों बदल रहे हैं अन्ना ?


अगस्त के पहले सप्ताह में दिल्ली के जंतर मंतर पर जब अन्ना हजारे ने अपनी टीम के साथ चुनावी विकल्प देने के वादे के साथ अचानक अनशन समाप्त करने की घोषणा की थी...तो कहा जाने लगा था कि इस आंदोलन की भ्रूण हत्या हो गई है...एक लंबे सन्नाटे के बाद फिर से सुगबुगाहट शुरु होती है और बीते एक महीने के भीतर ही अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल में राजनीतिक दल गठन पर मतभेद की खबरें सुर्खियां बनती हैं...और इसी बीच अन्ना केजरीवाल से किनारा कर लेते हैं...और अपना नाम और फोटो तक के इस्तेमाल न करने हिदायत देते हैं...अन्ना यहीं नहीं रूकते इसके बाद लगातार कभी अपने बलॉग के जरिए तो कभी मीडिया के सवालों के जवाब में केजरीवाल पर निशाना साधने से नहीं चूकते...इस दौरान अन्ना राजनीति को गंदा कहते हुए इस रास्ते के चयन पर केजरीवाल को जमकर कोसते भी हैं...इस बीच लोगों तक भी ये संदेश जाता है कि अन्ना और केजरीवाल के रास्ते अलग अलग हैं...और अन्ना नई टीम के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ एक नया जनांदोलन खड़ा करेंगे...लेकिन 01 अक्टूबर को सुबह अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसौदिया से मुलाकात के बाद अचानक अन्ना शाम को केजरीवाल के राजनीति के रास्ते को सही ठहराते हुए चुनाव लड़ने पर न सिर्फ केजरीवाल का समर्थन करने का ऐलान करते हैं बल्कि केजरीवाल से दिल्ली के चांदनी चौक से कपिल सिब्बल के खिलाफ चुनाव लड़ने की सलाह देते हुए उनके पक्ष में चुनाव प्रचार करने पर भी हामी भरते दिखाई देते हैं। इस सब घटनाक्रम के बीच न सिर्फ अन्ना के समर्थक बल्कि आम जनता भी असमंजस में जरूर होगी कि आखिर बीते एक महीने में क्यों अन्ना अपनी बात पर कायम नहीं सके। क्यों पल पल अन्ना ने अपने बयान और फैसले बदले...आखिर सुबह केजरीवाल और सिसौदिया के बीच ऐसी क्या गुफ्तगु हुई कि एक दिन पहले तक केजरीवाल को कोसने वाले अन्ना अचानक उनके साथ खड़े होते दिखाई दिए। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि डेढ़ साल पहले शुरू हुई जनलोकपाल की इस लड़ाई में अन्ना के साथ केजरीवाल और उनके दूसरे सहयोगी कंधा से कंधा मिलाकर खड़े रहे और इस आंदोलन की सफलता का श्रेय इनको भी उतना ही जाता है जितना कि अन्ना हजारे को। लेकिन डेढ़ साल तक जो टीम एक साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़ी थी...वो टीम बीते एक महीने में ताश के पत्तों की माफिक बिखर गई। अन्ना के केजरीवाल के समर्थन करने के बयान के बाद अब लगने लगा है कि शायद फिर से आने वाले वक्त पर ये सभी लोग एक मंच पर दिखाई दे सकते हैं। लेकिन सवाल बना हुआ है कि आखिर अन्ना के पल पल बदलते बयानों के पीछे कोई गुस्सा या नाराजगी थी...या फिर कुछ औऱ। अन्ना के केजरीवाल से किनारा करने के बाद जहां उनके समर्थक भी दो गुटों में बंट गए थे...तो वहीं आमजन का मिजाज भी सामने दो रास्ते देख बदलने लगा था...लेकिन अन्ना के बदलते बयानों के बाद अब फिर से संशय गहराने लगा है कि आखिर अन्ना की मंशा क्या है...क्यों अन्ना एक पल तो केजरीवाल के राजनीति के रास्ते को गलत ठहराते हैं और दूसरे ही पल केजरीवाल के रास्ते को सही ठहराते हुए उनके समर्थन की बात करते हैं। क्या इस तरह अन्ना हजारे अपनी इस लड़ाई में अपने समर्थकों के साथ ही लंबे समय तक आमजन का भरोसा बनाए रखने में कामयाब रह पाएंगे। बहरहाल अन्ना और केजरीवाल के बनते बिगड़ते रिश्तों के बीच उनके समर्थकों के साथ ही आमजन असमंजस में है कि आखिर वो करें तो क्या करें...अन्ना को चाहिए कि ऐसी संशय की स्थिति को पैदा होने से रोकें...ताकि उनके समर्थकों और आमजन का विश्वास उन पर बना रहे और एक अच्छे मकसद के लिए शुरु हुई लडाई अपने अंजाम तक पहुंच सके...और इस देश की जनता को भ्रष्टाचार से 100 प्रतिशत नहीं तो कम से कम कुछ हद तक तो राहत मिल सके।

deepaktiwari555@gmail.com

रविवार, 30 सितंबर 2012

झूठा कौन – अन्ना हजारे या अरविंद केजरीवाल ?



जिस आंदोलन ने सरकार की चूलें हिला दी थी...उस आंदोलन को खड़ी करने वाली टीम एक झटके में बिखर गई...ऐसे में जाहिर है इसका दर्द इतने जल्दी दिल से नहीं जाएगा...गाहे बगाहे इसके पीछे की दास्तां और इसका दर्द जुबां पर आ ही जाता है...19 सितंबर 2012 को केजरीवाल से राजनीतिक दल के गठन पर मतभेद के बाद अपने सहयोगियों से किनारा कर जब अन्ना दिल्ली से रालेगण सिद्धी लौटे तो उसके बाद से कभी अन्ना ने अपने बलॉग के जरिए तो कभी पत्रकारों के सवाल देते हुए इस दर्द को जाहिर किया और अपरोक्ष रूप से इसके लिए केजरीवाल पर भी निशाना साधा। ब्लॉग के जरिए जहां अन्ना ने राजनीति को आंदोलन का बंटाधार करने के लिए जिम्मेदार ठहराया तो साथ ही ये भी कहा कि राजजीतिक दल गठन के फैसले के समर्थन में वे कभी रहे ही नहीं...अन्ना के इस बयान के बाद ये भी सवाल उठता है कि जब अगस्त में जंतर मंतर में अन्ना हजारे और उनकी टीम ने जनता को चुनावी विकल्प देने की जरूरत बताते हुए अपना अनशन समाप्त किया तो उस वक्त क्यों नहीं अन्ना ने इसका विरोध किया...आखिर क्यों अन्ना ने अनशन के समाप्त होने के कुछ दिनों बाद अपनी मंशा स्पष्ट करते हुए किसी राजनीतिक दल के गठन और उसके साथ जुड़ने के खिलाफ होने की बात कही। अन्ना अगर राजनीति में आने के पक्षधर नहीं थे...जैसा वे कह रहे हैं तो इसका सीधा मतलब ये निकलता है कि अन्ना पर जंतर मंतर पर अनशन समाप्त करने के वक्त या उससे पहले अपने कुछ सहयोगियों का चुनावी विकल्प के फैसले का समर्थन करने का भारी दबाव था। हालांकि अरविंद का ताजा बयान इसको झुठलाते हुए नजर आता है...जिसमें अरविंद ने कहा है कि राजनीतिक दल गठन के इस फैसले के समर्थन में अन्ना भी थे, लेकिन अब न जाने क्यों वे इस बात से इंकार कर रहे हैं। कई ऐसे सवाल हैं जो लगातार जेहन में उठ रहे हैं कि आखिर कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ...लेकिन अन्ना जिस तरह से लगातार अब बड़े ही तल्ख लहजे में राजनीतिक दल गठन करने के फैसले का विरोध करते हुए अपने पूर्व सहयोगियों को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं उससे तो फिलहाल ये साफ होता दिख रहा है कि चुनावी विकल्प के फैसले पर अन्ना पर अपने कुछ सहयोगियों का भारी दबाव था...किरण बेदी के इस बयान के बाद भी इस पर मुहर लगती दिखती है...जिसमें वे ये कहती हैं कि जिन लोगों को राजनीति बेहतर विकल्प लगा वे अपने रास्ते चले गए हैं...और जो लोग आंदोलन के साथ थे...वो अन्ना हजारे के साथ खड़े हैं। बहरहाल देर सबेर इस पर से भी पर्दा उठ ही जाएगा...लेकिन फिलहाल अन्ना ने साफ कर दिया है कि जनलोकपाल के समर्थन में आंदोलन जारी रहेगा और आंदोलन ही एकमात्र रास्ता है जो भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जनलोकपाल की लड़ाई को उसके अंजाम तक पहुंचाएगा। इसके लिए दिल्ली में अन्ना अब नई टीम बनाने की कवायद में भी जुट गए हैं...जिसमें स्वयं सेवकों के साथ ही रिटायर आईएएस, आईएफएस और आईपीएस अधिकारियों के साथ ही कई बड़े नाम शामिल हो सकते हैं...लेकिन यहां पर भी सवाल ये खड़ा उठता है कि क्या नई टीम के साथ भी अन्ना का आंदोलन उस ऊर्जा...उस धार के साथ आगे बढ़ पाएगा...और अपने अंजाम तक पहुंच पाएगा। 

deepaktiwari555@gmail.com