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बुधवार, 29 जुलाई 2015

याकूब को फांसी- हमदर्दी मुझे भी होती अगर...


कोशिश तो बहुत हुई याकूब मेमन को फांसी के फंदे से बचाने की लेकिन ये कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई। सुप्रीम कोर्ट से लेकर महाराष्ट्र के राज्यपाल और राष्ट्रपति के दरवाजे तक याकूब की जिंदगी बख्शने की तमाम कोशिश बेकार साबित हुई। हैरानी होती है ये देखकर की सैंकड़ों लोगों की मौत के गुनहगार को आखिरी वक्त तक फांसी के फंदे से बचाने के लिए आधी रात को वकीलों की टोली मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू के घर पहुंच गयी और न सिर्फ आधी रात को सुप्रीम कोर्ट खुला बल्कि याकूब मामले की सुनवाई तक हुई। ये अलग बात है कि वकीलों की दलीलें सुप्रीम कोर्ट के गले नहीं उतरी। लिहाजा 30 जुलाई की सुबह 6 बजकर 25 मिनट पर तयशुदा कार्यक्रम के तहत याकून मेमन को फांसी पर लटका दिया गया।
मुबंई धमाकों के पीड़ितों का दर्द कम तो नहीं हो सकता लेकिन इस फैसले से देश की न्यायपालिका पर उनका भरोसा जरूर मजबूत हुआ होगा। साथ ही उन लोगों के मन में खौफ पैदा होगा जो अपने नापाक मंसूबे लेकर भारत को दहलाने की साजिश रचने में मशगूल रहते हैं।
लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो गमज़दा होंगे, शायद वही जिन्होंने याकूब मेमन को फांसी के फंदे से बचाने के लिए हर संभव कोशिश की थी।
हिंदुस्तान की जेलों में हजारों लोग सड़ रहे हैं। लेकिन उनकी आवाज़ उठाने के लिए इनमें से कभी कोई सामने नहीं आया। उनके लिए कभी किसी ने दरियादिली नहीं दिखाई लेकिन सैंकड़ों निर्दोष लोगों की मौत के गुनहगार को फांसी के फंदे से बचाने के लिए ये राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर दया याचिका स्वीकार करने की अपील भी करते हैं और आधी रात को सर्वोच्च न्यायाधीश के दर पर गुहार लगाने तक पहुंच जाते हैं।
ये हमारे देश में ही सकता है, जहां पर एक आतंकी को बचाने के लिए नेता से लेकर अभिनेता, सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर वकील और कुछ पत्रकार तक सामने आ जाते हैं। शायद यही वजह है कि आतंकी बेखौफ होकर वारदातों को अंजाम देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि पकड़े जाने पर भी मौत की सजा का कानूनी रास्ता तो लंबा है ही। साथ ही मौत की सजा होने पर भी मौत के मुंह से बचाने वालों की लंबी फौज़ खड़ी है। इसे समझने के लिए याकूब मेमन केस से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है ?
याकूब को भी अपनी जिंदगी से प्यार होगा, वो भी और जीना चाहता होगा, अपनी बीवी बच्चों से प्यार करता होगा लेकिन याकूब ने कभी ये सोचा होता कि मुबंई धमाकों में मारे गए लोगों के भी सपने थे, उनका भी परिवार था तो शायद आज याकूब की जिंदगी में भी ये दिन नहीं आता। हमदर्दी मुझे भी होती लेकिन अगर किसी निर्दोष को फांसी पर लटकाया जा रहा होता तब।

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