कुल पेज दृश्य

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

वो 2012 की बात थी...


लो 2013 भी आ गया...वक्त है नई शुरुआत की...नई ऊर्जा, नए जोश और नई उमंग से आगे बढ़ने का। बीते हुए कल से कुछ सीख कर आगे बढ़ने का। उन बातों को...झगड़ों को आपसी मनमुटाव को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने का जो जाने आनजाने बीते साल में कुछ कड़वाहट घोल गए। 2011 के बाद 2012 का सफर भी कुछ इसी अंदाज में करने की मैंने भी पूरी कोशिश की थी लेकिन कहते हैं न कि सब कुछ आपके मन मुताबिक हो ऐसा संभव नहीं है। 2011 में नोएडा में नौकरी करने के दौरान देहरादून में नौकरी का बेहतर अवसर मिला। बेहतर अवसर जान 17 जनवरी 2012 को मैंने देहरादून में नेटवर्क 10 समाचार चैनल के साथ एक नई शुरुआत की। 2008 से अपने गृह प्रदेश उत्तराखंड से दूर मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में उसके बाद ग्वालियर और ग्वालियर से दिल्ली तक का सफर तय किया। इस दौरान नए प्रदेश में नए शहर में नए लोगों के बीच काम करने का अनुभव बेमिसाल था। बहुत कुछ जानने- सीखने को मिला और कई नए दोस्त भी बने। 2012 में वापस उत्तराखंड में काम करने का अवसर मिला तो काफी जद्दोजहद के बाद देहरादून में नेटवर्क 10 समाचार चैनल के साथ जुड़ने का फैसला लिया। नए संस्थान में नए लोगों के बीच सामंजस्य बैठाने में समय लगता है लेकिन इसमें मुझे बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। नया चैनल था तो सभी साथियों में जोश था अपने संस्थान को नंबर वन बनाने की ललक थी। काफी हद तक उत्तराखंड में लोगों के दिलों में जगह बनाने में हम सफल भी हो गए। उत्तराखंड का 24 घंटे का एकमात्र समाचार चैनल होने के कारण भी हमको लोगों के बीच अपनी पहचान बनाने में ज्यादा वक्त नहीं लगा और कम समय में हमने एक मुकाम को हासिल किया। दर्शकों का हमें बेपनाह प्यार और साथ भी मिला जिसकी गवाह क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे विशेष कार्यक्रम में दर्शकों के कभी न बंद होने वाली फोन कॉल्स थी। बस जरूरत थी तो दर्शकों के इस प्यार और विश्वास को बरकरार रखने की जो किसी भी संस्थान के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होता। हम हर तरह की चुनौती का सामना की पूरी कोशिश कर रहे थे लेकिन संस्थान में इस दौरान कई बार हुई प्रबंधकीय उठापठक इस कोशिश को कमजोर कर देती थी। लेकिन हल्के से ठहराव के आगे भविष्य में बेहतरी की उम्मीद लिए सभी कर्मचारी एक बार फिर से अपनी कोशिश को साकार रूप देने में जी जान से जुट जाते थे। इस बीच संस्थान को कई बार खराब आर्थिक हालात का भी सामना करना पड़ा जिसका खामियाजा कर्मचारियों को भी कई बार भुगतना पड़ा लेकिन पहले दिन से संस्थान के साथ जुड़े सभी कर्मचारियों का संस्थान से भावनात्मक लगाव ही था कि इस सब के बाद भी कर्मचारियों का जोश ठंडा नहीं हुआ। स्थितियों में सुधार की उम्मीद के साथ कई लोग संस्थान के साथ जुड़े रहे तो कई लोगों ने इस बीच संस्थान को बॉय बॉय भी कर दिया। 2012 गुजर गया और 2013 का आगमन हो गया लेकिन बीते एक साल में संस्थान ने अपने बहुत ही कम समय में न सिर्फ अपने सर्वोच्च शिखर को छुआ बल्कि कई बार ऐसी स्थितियां आई की लगने लगा कि इसका जीवन सिर्फ 365 दिनों का ही है। बहरहाल 2013 के रूप में नया साल सामने है और नए साल में नई सोच, नई आशा, नई उम्मीद, नए सपने, नए जज्बे के साथ एक नई ऊर्जावान शुरूआत करने के लिए एक बार फिर से कमर कस ली है। इसी उम्मीद के साथ कि बीते साल की तरह मुश्किल दौर भी बीते दिनों की बात हो जाएगी और नया साल 2013 सफलता के नए आयाम गढ़ेगा आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

deepaktiwari555@gmail.com

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

क्या लड़की होना उसका कसूर था ?


13 दिनों तक जीवन और मौत से संघर्ष करने के बाद आखिरकार वो चली गई...उसने तो अभी अपने जीवन की ठीक से शुरुआत भी नहीं की थी। उसके सपनों ने तो अभी ठीक तरह से आकार भी नहीं लिया था...लेकिन कुछ दरिंदों के नापाक ईरादों और शैतानी दिमाग ने उसकी जिंदगी को नर्क बना दिया। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी वो फिर भी जीना चाहती थी...उसके जज्बे और ईच्छाशक्ति को देखकर उसका ईलाज करने वाले डॉक्टर भी दंग थे। उसने जिंदगी की जंग जीतने कीमौत को मात देने की पुरजोर कोशिश भी की लेकिन दरिंदों के दिए जख्म आखिरकार जीत गए और वो हमेशा के लिए खामोश हो गई। एक बार फिर जिंदगी हार गई लेकिन जाते जाते कई ऐसे सवाल खड़े कर गई जिनका जवाब शायद भगवान के पास भी नहीं होगा।
कुछ लोगों के ईरादे नापाक थे लेकिन उसका क्या कसूर था ? क्या लड़की के रूप में जन्म लेना उसका कसूर था ? क्या अंधेरा घिरने से पहले घर न लौटना उसका कसूर था ? क्या उसकी ईज्जत को तार-तार करने वालों का विरोध करना उसका कसूर था ?
इस घटना के बाद राजपाथ पर लोगों का गुस्सा खूब उबाल खाया...एक पोस्टर पर लिखी पंक्तियां मुझे याद आता हैं...नजर तेरी बुरी और पर्दा मैं करूं। पहले सवाल का जवाब तो मुझे इन पंक्तियों में ही नजर आता है- वाकई में नजर कुछ दरिंदों की खराब है...नीयत कुछ लोगों की शैतानी है...इरादे कुछ लोगों के नापाक हैं...लेकिन पर्दा लड़कियां करें। क्यों न इन खराब नजर वालों को...शैतानी नीयत वालों को नापाक इरादों वालों को ही सजा मिले...लेकिन इसे देश का दुर्भाग्य कहें या ऐसे लोगों की अच्छी किस्मत...हमारे देश में कई बार हैवानियत का खेल खेलने वालों को सबूत होने के बाद भी कई बार सजा नहीं मिलती या मिलती भी है तो वो अपनी आधी जिंदगी खुली हवा में गुजार चुके होते हैं। कड़ी सजा मिलती भी है तो इससे बचने का ब्रह्मास्त्र(राष्ट्रपति के पास दया याचिका) उनके पास पहले से ही मौजूद है। हमारी पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में रेप के 4 आरोपियों की मौत की सजा माफ कर पहले ही उदाहरण पेश कर चुकी हैं कि ये ब्रह्मास्त्र खाली नहीं जाता।
जहां तक दूसरे सवाल की बात है कि क्या लड़की के रूप में जन्म लेना उसका कसूर था ?
इसका जवाब एक दूसरे पोस्टर में लिखी कुछ पंक्तियां में दिखाई देता है। पंक्तियां कुछ इस प्रकार है- अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ। ये पंक्तियां ऐसी लड़कियों का दर्द बयां करती हैं जो कहीं न कहीं...किसी न किसी रूप में ऐसी ही घटनाओं का शिकार हुई हैं या फिर उत्पीड़न का शिकार हैं। लड़की के रूप में पैदा होने के बाद ऐसी पंक्तियां लिखी तख्ती पकड़े कोई लड़की आवाज़ बुलंद करे तो उसका दर्द समझा जा सकता है।
अंधेरा घिरने से पहले लड़कियां घर नहीं पहुंचती तो परिजनों की बेचैनी बढ़ जाती है...मन में बुरे ख्याल आने लगते हैं...क्या ये बताने के लिए काफी नहीं कि लड़कियां हमारे देश में आज भी सुरक्षित नहीं हैं..?
कुछ दरिंदे किसी लड़की के साथ जबरदस्ती करते हैं और वो अपनी ईज्जत बचाने के लिए इसका विरोध करती है तो दरिंदे पूरी हैवानियत पर उतर आते हैं और न सिर्फ दिल्ली गैंगरेप केस की तरह उसकी बुरी तरह पिटाई कर उसे चलती बस से फेंक देते हैं बल्कि उसके साथ ऐसा कृत्य करते हैं कि सुनने वाले की तक रूह कांप उठे। क्या ये हैवानियत ये बताने के लिए काफी नहीं कि महिलाओं के प्रति उनके मन में क्या भाव हैं..? उनकी सोच कैसी है..? वो महिलाओं को सिर्फ मनोरंजन का साधन समझते हैं और विरोध करने पर हैवानियत पर उतर आते हैं। यानि कि गलत कार्य का विरोध करने पर भी इसे महिलाओं की जुर्रत समझा जाता है और उनकी पिटाई की जाती है। क्या ऐसे लोगों समाज में रहने के हकदार हैं..? क्या गारंटी है कि ऐसे लोग दोबारा किसी के घर की ईज्जत को तार-तार नहीं करेंगे..? क्या गारंटी है कि ऐसे लोग फिर दिल्ली गैंगरेप जैसे घटना तो नहीं दोहराएंगे..? जाहिर है जब तक हमारे समाज में ऐसे लोग जिंदा हैं...तब तक समाज में महिलाएं सुरक्षित कतई नहीं है। जब तक ऐसे लोगों को सरेआम फांसी देकर मौत की नींद नहीं सुलाया जाएगा तब तक ऐसी सोच के...ऐसी मानसिकता के इनके जैसे दूसरे लोग ऐसा अपराध करने से नहीं हिचकिचाएंगे। उम्मीद करते हैं हमारी सरकार ऐसे कड़े फैसले लेने के लिए दिल्ली गैंगरेप जैसे किसी दूसरी घटना का इंतजार नहीं करेगी।

deepaktiwari555@gmail.com

युवा नेताओं की क्या बिसात..!


दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ बीते दिनों राजपथ पर देश का आक्रोश आजादी के बाद का शायद अपने आप में सबसे बड़ा उग्र प्रदर्शन था...लेकिन सही नेतृत्व न होने के चलते ये आंदोलन कहीं न कहीं दिशाहीन होता दिखाई दिया और एक बड़े आंदलन की गर्भावस्था में ही हत्या हो गई। असल मुद्दा कहीं खो गया और इसकी जगह बरसाती मेंढ़कों की तरह उपजे ऐसे मुद्दों ने ले ली जिन पर बहस से कोई सार्थक हल निकलने की कोई उम्मीद नहीं है। जिस वक्त रायसीना को घेरे हजारों युवाओं की टोली पीड़ित के लिए इंसाफ और महिलाओं की सुरक्ष के लिए आवाज बुलंद कर रही थी उस वक्त खुद को युवाओं की पार्टी कहने वाली...युवाओं को नेतृत्व देने की बातें करने वाली कांग्रेस के युवा नेताओं को राजधानी के दिल राजपथ में युवाओं का ये आक्रोश नजर नहीं आया। ऐसे वक्त में देश के राष्ट्रपति ने तक रायसीना हिल्स से बाहर निकलने का साहस नहीं दिखाया तो कांग्रेस के युवा नेताओं की क्या बिसात..! देश के गृहमंत्री को जब ये युवाओं की टोली माओवादी नजर आने लगे तो फिर कांग्रेस के युवा नेताओं की क्या बिसात..! देश के प्रधानमंत्री जब ठीक है बोलने लगे तो फिर कांग्रेस के युवा नेताओं की क्या बिसात..! इन युवा नेताओं के नेता कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब राजपथ पहुंचने का साहस नहीं जुटा सके तो कांग्रेस के इन युवा नेताओं की क्या बिसात..! राजपथ देश की युवा शक्ति के गुस्से से दमक रहा था लेकिन कांग्रेस के किसी युवा नेता को इसका सामना करने की शायद हिम्मत नहीं हुई। एक बेहद दुखद घटना से ही उपजा सही लेकिन ये एक मौका था राजपथ पर आक्रोश से भरी युवा शक्ति को एक मजबूत नेतृत्व प्रदान करने का...पार्टी लाइन से ऊपर उठकर इंसाफ की लड़ाई को उसके मुकाम तक ले जाने का लेकिन शायद कांग्रेस के युवा नेताओं में भी दूसरे कांग्रेसी नेताओं की तरह 10 जनपथ की अवमानना करने का साहस नहीं था। राजपथ पर उमड़ा युवाओं का जनसैलाब इनका इंतजार कर रहा था लेकिन ये शायद दिल्ली की सर्दी में गर्म कमरों का मोह नहीं छोड़ पाए या यूं कहें कि 10 जनपथ के खिलाफ आवाज उठाने की इनमें हिम्मत नहीं थी। लाल बत्ती और सरकारी बंगला पा चुके कुछ युवा नेताओं में शायद लाल बत्ती लगी सरकारी गाड़ी और सरकारी बंगला छोड़ने का साहस नहीं था तो भविष्य में लाल बत्ती की लालसा पाले बैठे कुछ युवा नेताओं की लालसा शायद कुछ ज्यादा ही जोर मार रही थी। ये खुद को युवाओं के नेता कहते हैं और युवा शक्ति के दम पर देश की सूरत बदलने की बात करते हैं लेकिन उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने का साहस शायद इनमें नहीं हैं। ये सच्चाई है इन युवा नेताओं की जो राजनीति की सीढ़ी तो युवाओं के कंधे पर पैर रखकर चढ़ते हैं या फिर अधिकतर को ये विरासत में मिलती है लेकिन राजनीति के गलियारों में प्रवेश करने के बाद इनका खून भी शायद दूसरे नेताओं की तरह पानी हो जाता है। बात सिर्फ केन्द्र की सत्ता में बैठी कांग्रेस के युवा नेताओं की नहीं है बल्कि इस मुद्दे पर विपक्ष में बैठी देश की दूसरी बड़ी पार्टी भाजपा के युवा नेताओं की चुप्पी भी दोनों ही दलों को एक जमात में खड़ा करती है।  


deepaktiwari555@gmail.com

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

बेटा बोला लेकिन राष्ट्रपति “पिता” खामोश !


दिल्ली गैंगरेप मामले के खिलाफ देशभर में गुस्से की आग भड़की और ये गुस्सा रायसीना हिल्स तक भी पहुंचा। दो दिनों तक रायसीना हिल्स पर गैंगरेप के आरोपियों को फांसी की मांग को लेकर प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली सरकार के साथ ही पुलिस की नींद उड़ा दी लेकिन रायसीना हिल्स से राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी बाहर नहीं निकले और न ही उन्होंने इस घटना पर दुख जताना जरूरी समझा। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी न बोले न सही लेकिन पश्चिम बंगाल की जंगीपुर सीट से उनके सांसद बेटे अभिजीत मुखर्जी ने पिता की इस कमी को पूरी करने में देर नहीं की। कांग्रेस सांसद अभिजीत कहते हैं कि महिलाएं सज-धज कर प्रदर्शन करने आती हैं और कैंडिल मार्च निकालने के बाद डिस्को में जाती है। मुखर्जी साहब यहीं नहीं रूक वे कहते हैं कि कैंडिल मार्च निकालना फैशन हो गया है। बयान पर बवाल मचने के बाद भले ही मुखर्जी ने अपने शब्द वापस ले लिए हों लेकिन फिर भी वे ये कहने से नहीं चूके कि उन्होंने कुछ गलत कहा था। पिता की सीट पर बमुश्किल 2500 वोटों से उपचुनाव जीतकर संसद में पहुंचने वाले अभिजीत मुखर्जी को लगता है सुर्खियों में आने की कुछ ज्यादा ही जल्दी है। शायद यही वजह है कि एक ऐसे मुद्दे पर वे अपना मुंह खोलते हैं जिसको लेकर पहले ही जमकर बवाल मच चुका है। एक संवेदनशील मुद्दे पर राष्ट्रपति मुंह नहीं खोलते लेकिन राष्ट्रपति का सांसद बेटा अगर ऐसा बोलता है तो वाकई में इससे बड़ा दुर्भाग्य इस देश का और क्या हो सकता है। होना तो ये चाहिए था कि राष्ट्रपति को खुद रायसीना हिल्स में बाहर निकलकर लोगों से शांति की अपील करते हुए मामले में दखल देना चाहिए था और सरकार को इस संवेदनशील मुद्दे पर जल्द से जल्द आवश्यक कदम उठाने के निर्देश देने चाहिए थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ और रही सही कसर राष्ट्रपति के सांसद बेटे ने पूरी कर दी। आभिजीत मुखर्जी ने तो प्रदर्शनकारियों पर ही सवाल खड़ा कर दिया कि ये प्रदर्शन तो सिर्फ एक दिखावा था। मुखर्जी साहब कभी एसी कमरों से बाहर निकल कर दिल्ली की सर्दी में एक रात छोड़िए एक घंटा बिताकर दिखा दीजिए आंदोलन और फैशन का फर्क आपको शायद समझ में आ जाएगा..! मुखर्जी साहब जिसे आप फैशन बोल रहे हैं ये न सिर्फ एक पीड़ित को इंसाफ दिलाने की लड़ाई है बल्कि महिलाओं के लिए सुरक्षित वातावरण तैयार करने की ओर महिलाओं की तरफ से बढ़ाया हुआ कदम था लेकिन अफसोस है कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए शुरू हुई इस लड़ाई को न तो आपके पिताश्री समझ पाए जबकि वे तो इन प्रदर्शनकारियों से चंद कदम दूर थे और न ही आप। अरे साहब किसी पीड़ित का दर्द नहीं समझ सकते न सही कम से कम उनके जख्मों पर नमक तो मत छिड़किए। आप पीड़ित का दर्द कम नहीं कर सकते तो उसके जख्मों को कुरदने का भी आपको कोई अधिकार नहीं है। कटाक्ष करने के बाद आपने भले ही माफी मांग ली हो लेकिन जुबान से निकला हुई तीर वापस तो नहीं होता न...बोलने से पहले सोच तो लिया करो महाराज कि क्या बोलने जा रहे हैं...अपना न सही अपने पिताजी के पद और गरिमा का तो कम से कम ख्याल रखिए। आपके पिताजी ने तो चुप रहना ही बेहतर समझा लेकिन आपने तो पिताजी की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।

deepaktiwari555@gmail.com

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

एक कुली ईमानदार है लेकिन प्रधानमंत्री नहीं !


ये उस देश की कहानी है...जो बताती है कि उस देश में रेलवे स्टेशन में यात्रियों का सामान उठाकर दो वक्त की रोजी का जुगाड़ करने वाला एक कुली तो ईमानदार है लेकिन देश का प्रधानमंत्री ईमानदार नहीं है..! सुनने में ये अजीब जरूर लग रहा होगा लेकिन ये सौ फीसदी सच है और दुर्भाग्य से ये कहानी हमारे हिंदुस्तान की है। इस बात को कहने के पीछे एक बड़ा वाक्या है जो मेरे साथ घटित हुआ। बात ज्यादा पुरानी नहीं है- दिल्ली के पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से मुझे काठगोदाम के लिए रवाना होना था। आमतौर पर स्टेशन पर मैं कुली की सेवाएं नहीं लेता हूं...लेकिन भाई की शादी के लिए घर लौट रहा था...ऐसे में मेरे पास कुछ ज्यादा ही सामान था। ऐसे में मैंने एक कुली को आवाज दी। कुली मेरा सामान लेकर आगे आगे चल रहा था। कुछ ही आगे बढ़ा था कि मुझे प्लेटफार्म पर इत्तेफाक से मेरा एक मित्र टकरा गया...मैंने कुछ देर रुककर उससे बातचीत करने लगा। लेकिन इस बीच कुली जो मेरा सामान लेकर आगे आगे चल रहा था उसे शायद मेरे रुकने का आभास नहीं हुआ और वह आगे निकल गया। करीब 5 मिनट के बाद मुझे ध्यान आया कि कुली के पास मेरा सामान है। मैंने चारों तरफ देखा मुझे कुली नहीं दिखाई दिया। मुझे लगा कि मेरी लापरवाही का फायदा कुली ने उठा लिया और वो मेरा सामान लेकर चंपत हो गया। मैंने कुली का बिल्ला नंबर भी नहीं देखा था...ऐसे में कुली को ढूंढ़ना मुझे मुश्किल लगने लगा। करीब 15 मनट हो गए लेकिन काफी तलाश करने के बाद भी मुझे कुली नहीं मिला। ट्रेन छूटने में अभी वक्त था ऐसे में मैं कुली को तलाश करते-करते जीआरपी थाने में कुली की शिकायत दर्ज कराने पहुंचा। वहां का नजारा न सिर्फ हैरान करने वाला था बल्कि मेरी चेहरे की सारी शिकन वहां पहुंचकर गायब हो गई। थाने के बाहर वो कुली मेरे सामान के साथ पहले ही मौजूद था। मुझे वहां देखते ही वो मुझ से बोला- साहब मैं सामान लेकर ट्रेन के पास पहुंच गया था...लेकिन पीछे देखा तो आप दिखाई नहीं दिए। फिर मैंने कुछ देर तक तलाशा और फिर में ये सोचकर यहां पर सामान लेकर आ गया कि आप यहां जरूर आएंगे। जिस कुली के लिए मैं पलभर पहले ही पता नहीं क्या क्या सोच रहा था। मन ही मन उस कुली के साथ सभी कुलियों को गालियां दे रहा था...उस कुली को अपने सामान के साथ सामने देखकर कुली के लिए मेरा नजरिया बदल गया। खैर कुली फिर मेरे साथ चल दिया और उसने मेरा सामान ट्रेन में रखा। मैंने कुली को शुक्रिया बोलते हुए उसे तय रूपए के अलावा कुछ पैसे अलग से देने चाहे लेकिन कुली ने तय पैसे से अधिक पैसे मेरे कई बार आग्रह करने के बाद भी नहीं लिए। मैंने एक बार फिर से कुली का शुक्रिया बोला और वो कुली अपने रास्ते चल दिया और कुछ ही मिनटों में ट्रेन भी चल दी। ये सिर्फ एक घटना थी जो हो सकता है कई और लोगों के साथ भी घटित हुई हो लेकिन ये एक घटना अपने आप में कई बातें कह गई। कुली चाहता तो वो सामान लेकर चंपत भी हो सकता था...हालांकि उसमें बहुत कीमती सामान कुछ नहीं था...लेकिन कुली को तो ये बात नहीं पता था कि सामान क्या है..? लेकिन कुली ने ऐसा कुछ नहीं किया। हमारे देश में जहां आज चारों तरफ सिर्फ भ्रष्टाचार की ही गूंज है और पैसे के लिए व्यक्ति कुछ भी कर गुजरने को तैयार है। भाई – भाई का दुश्मन है...बेटा-बाप का दुश्मन है। ऐसे में एक कुली जो दूसरों का बोझा ढो कर अपना और अपने परिवार का पेट पालता है उसकी ये ईमानदारी ऐसे लोगों के मुंह में एक करारा तमाचा है। मैं ये इसलिए भी कह रहा हैं क्योंकि जिस देश का प्रधानमंत्री ईमानदार न हो तो प्रधानमंत्री के सहयोगी मंत्रियों के साथ ही सरकार में शामिल दूसरे लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है। सरकार के मुखिया और सरकार में शामिल तमाम लोगों पर भ्रष्टाचार और घोटाले के आरोप इस बात को सही भी साबित करते हैं कि भारत का प्रधानमंत्री ईमानदार नहीं है लेकिन स्टेशन में सामान उठाने वाला कुली ईमानदार है। एक तरफ ये कुली और उसके जैसे तमाम लोग हैं...जिनका ईमान अभावों में जीवन बसर करने के बाद भी पैसों के आगे कभी नहीं डोलता और दूसरी तरफ हैं हमारे देश के नेता जो सरकारी दामाद की तरह सारी सुख सुविधाओं का उपभोग तो करते ही हैं साथ ही जनता के खून पसीने की कमाई को घोटालों और भ्रष्टाचार के रूप में उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। सलाम है ऐसे कुली की तरह ईमानदारी की मिसाल पेश करने वाले उन सभी लोगों को।  

deepaktiwari555@gmail.com

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

दिल्ली गैंगरेप- “ठीक है” लोग इसे भी भूल जाएंगे !


दिल्ली गैंगरेप में मनमोहन सिंह की चुप्पी टूटती है...लेकिन जिस अंदाज में मनमोहन सिंह ने अपनी चुप्पी तोड़ी और उसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पता नही किससे पूछते हैं ठीक है इससे लगता है कि वे मौन ही बने रहते तो ज्यादा अच्छा था। क्या मनमोहन सिंह के सामने कैमरामैन के बाजू में खड़ी सोनिया गांधी से पूछते हैं..?  या फिर जिस किसी ने भी ये स्क्रिप्ट लिखी थी उससे..? जो भी हो लेकिन एक बार फिर इतने संवोदनशील मुद्दे पर प्रधानमंत्री का ऐसा रवैया अपने आप में कई सवाल खड़े करता है..!  एक तरफ मनमोहन सिंह गैंगरेप पर दुख जताते हुए खुद की भी तीन बेटियां होनी की दुहाई देते हैं और आखिर में कहते हैं ठीक है। प्रधानमंत्री जी आपने तो खुद को दी जाने वाले तमाम उपाधियों को आज की घटना के बाद सही ठहरा दिया। यूं ही लोग मनमोहन सिंह को रोबोट नहीं कहते..! यूं ही मनमोहन सिंह को लोग सोनिया के ईशारे पर फैसले लेना वाला नहीं कहते..! यूं ही सोनिया ने पीएम की कुर्सी छोड़कर कई दिग्गज कांग्रेस नेताओं को दरकिनार कर मनमोहन सिंह को दो-दो बार पीएम पद की कुर्सी नहीं सौंपी..! यूं ही बाबा रामदेव आपको मौनी बाबा नहीं कहते..!  यूं ही टाईम मैगजीन के कवर पेज पर दि अंडर अचीवरके टैग के साथ मनमोहन सिंह का फोटो नहीं छपता..! खैर इनके जवाब या तो मनमोहन सिंह खुद दे सकते हैं या फिर सोनिया गांधी। लेकिन दिल्ली गैंगरेप जैसे संवेदनशील मुद्दे पर देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की असंवेदनहीनता ने देशवासियों को एक बार फिर से निराश ही किया है। देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे इस मुद्दे को लेकर कितने संवेदनहीन है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे इंडिया गेट पर गैंगरेप के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों की तुलना माओवादियों से कर देते हैं...वे कहते हैं कल माओवादी प्रदर्शन करें तो वे क्या माओवादियों से भी मिलने जाएं..?  आपको याद दिला दूं कि ये वही शिंदे हैं जो कोयला घोटाले पर कहते हैं कि लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है और लोग बफोर्स घोटाले की तरह कोयला घोटाले को भी जल्द भूल जाएंगे। इसका मतलब क्या शिंदे फिर से ये सोच रहे हैं कि दिल्ली गैंगरेप को भी लोग जल्द भूल जाएंगे..? गजब करते हैं शिंदे साहब एक तरफ आप कहते हैं कि आप की भी तीन-तीन बेटियां हैं और आप इस घटना का दर्द समझते हैं और महिलाओं की सुरक्षा के प्रति चिंतित हैं...लेकिन एक तरफ आपका ये असंवेदनहीन बयान..! बढ़िया है शिंदे साहब आप भी अपने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के नक्शेकदम पर चल रहे हैं..! वैसे बात चारों तरफ गैंगरेप के आरोपियों को मौत की सजा देने की हो रही है लेकिन हम इस बात को नहीं नकार सकते कि मौत की सजा पाने वाले लोगों के पास इस सजा से बचने की काट भी मौजूद है...और वो काट है राष्ट्रपति भवन। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की ही बात कर लें तो उन्होंने अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में 35 कैदियों की मौत की सजा माफ कर दरियादिली दिखाई थी...और खास बात ये है कि इनमें से 5 बलात्कार के बाद पीड़ित की नृशंस हत्या के जुर्म में मौत की सजा पाए हुए थे। मजे की बात तो ये है कि राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने यूपीए सरकार की सलाह पर ही मौत की सजा माफ करने के फैसले लिए थे। अब हम ये कैसे उम्मीद कर लें कि दिल्ली गैंगरेप या ऐसी हैवानियत करने वालों को अगर कानून में संशोधन के बाद मौत की सजा मिल भी जाती है तो वे लोग इसके अंजाम तक भी पहुंचाए जाएंगे। साथ ही ये मत भूलिए कि ये भारत है और इस देश की संसद पर हमला करने वाले आरोपी अफजल गुरु को घटना के 12 साल बाद भी फांसी नहीं दी जाती जबकि सर्वोच्च न्यायालय अफजल को फांसी की सजा सुना चुका है जबकि इसके विपरीत अमेरिका को देखिए चाहे आप अमेरिका की कितनी आलोचना कर लो लेकिन उसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला करने वाले को उसके घर में घुसकर मारा और भारत में संसद के हमले के आरोपी की सरकार जेल में खातिरदारी कर रही है। 

deepaktiwari555@gmail.com

रविवार, 23 दिसंबर 2012

दिल्ली गैंगरेप- जय हो मौनी बाबा की...


दिल्ली गैंगरेप पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के देश के नाम संबोधन की खबर आई तो लगा कि अपने पेटेंट दो दिन 15 अगस्त और 26 जनवरी को बोलने वाले मनमोहन सिंह गैंगरेप के विरोध में गुस्से में उबल रहे देश के सामने कोई ऐसी बात करेंगे जिससे शायद लोगो को गुस्सा कम हो...लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ। जैसी की उम्मीद थी मनमोहन सिंह हिंदी की बजाए अंग्रेजी में ही बोले- मनमोहन सिंह की अंग्रेजी इंडिया गेट पर प्रदर्शन करने वाले और महानगरों में रहने वाले तो शायद समझ गए होंगे...लेकिन मनमोहन सिंह उन करोड़ो लोगों तक अपनी बात नहीं पहुंचा पाए जिनके लिए अंग्रेजी बोलने वाले आज भी किसी अंग्रेज से कम नहीं है और कौतहुल का विषय बने रहते हैं। जाहिर है ऐसे लोगों का तादाद लाखों में हैं जो देश में हर रोज बलात्कार के शिकार तो होते हैं लेकिन जब वे अपनी शिकायत लेकर पुलिस थाने में जाते हैं तो उन्हें दुत्कार दिया जाता है। वैसे अच्छा हुआ मनमोहन सिंह देश की भाषा हिंदी की बजाए अंग्रेजी में ही बोले क्योंकि जो कुछ भी मनमोहन सिंह बोले उससे ज्यादा कि उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती। मनमोहन सिंह को शायद इस घटना के बाद से देश में आया गुस्से का उबाल नहीं दिखाई दिया वर्ना मनमोहन सिंह अपने संबोधन में जिस इंसाफ की मांग देश कर रहा है उस इंसाफ की ओर कुछ कदम बढ़ाते जरूर दिखाते लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ और मनमोहन सिंह गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की तरह खुद भी बेटियों का बाप होने का हवाला देते हुए घटना पर सिर्फ दुख ही जताते दिखे। इसमें मनमोहन सिंह साहब का भी दोष नहीं है क्योंकि उनके बारे में कहा जाता है कि वे उतना ही बोलते हैं जितना बोलने का उन्हें कहा जाता है...आप सोच रहे होंगे कि आखिर देश के प्रधानमंत्री भी क्या किसी के कहने पर ही बोलते या चुप रहते हैं ! लेकिन चौंकिए मत यहां ऐसा भी होता है...सोचिए अगर ऐसा नहीं होता तो क्या मनमोहन सिंह अपने पेटेंट दो दिनों 15 अगस्त औऱ 26 जनवरी के अलावा किसी और मौके पर आपको बोलते हुए नहीं दिखाई देते। प्रधानमंत्री जी आपको नहीं बोलना है मत बोलिए...लेकिन बिना बोले ही कुछ ऐसा कर जाईये...एक ऐसी नजीर पेश कर दीजिए पीएम साहब कि दिल्ली में क्या देश में दिल्ली जैसी घटना की पुनरावृत्ति फिर न हो...हाथ जोड़कर निवेदन है आपसे।

deepaktiwari555@gmail.com

दिल्ली गैंगरेप- ओबामा रोते हैं...हम क्यों सोते हैं !



दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ शनिवार और रविवार तो इंडिया गेट से लेकर रायसीना हिल्स तक जो हुआ वो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। सरकार और पुलिस के खिलाफ गुस्से का ऐसा ज्वार शायद ही इससे पहले कभी फूटा होगा। गैंगरेप की शिकार पीड़ित के लिए इंसाफ की मांग कर रहे युवा मानो किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। लेकिन एक बार फिर से एक जनांदोलन का दमन करने की कोशिश दिल्ली पुलिस और सरकार ने की...लेकिन दमन की कोशिश ने गुस्से की आग को और ज्यादा भड़का दिया है। अमेरिका में एक स्कूल में एक सिरफिरे की अंधाधुंध फायरिंग 20 बच्चों समेत 28 लोगों की दुखद मौत हो जाती है तो अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा घटना पर दुख जताते हैं...लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के राजा भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी साहब को न तो राष्ट्रपति भवन के बाहर गैंगरेप के खिलाफ हजारों लोगों का जनाक्रोश दिखा और न ही राष्ट्रपति ने इस जघन्य कृत्य की निंदा में दो शब्द ही कहे। मौनी बाबा की उपाधि पा चुके हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एफडीआई के मुद्दे पर तो देश को संबोधित करते हैं लेकिन एक जघन्य अपराध के बाद उसकी निंदा करने का वक्त उनके पास नहीं है। अमेरिका को ऐसे ही दुनिया का सरताज नहीं कहा जाता...9/11 के आरोपियों को अमेरिका उसके घर में घुसकर मारता है तो 26/11 के आरोपी कसाब की सुरक्षा पर भारत करोड़ों रुपए खर्च करता है (फांसी को काफी दवाब के बाद और काफी देर से दी गई) और 26/11 के मास्टरमाइंड अफजल गुरु को हमारे देश के गृहमंत्री श्रीअफजल गुरु कहकर संबोधित करते हैं...शायद यही फर्क है भारत और अमेरिका में। दिल्ली गैंगरेप पीड़ित का ईलाज कर रहे डॉक्टरों का बयान साफ बयां करता है कि चलती बस में लड़की के साथ जो दरिंदगी हुई है वो कम से कम कोई इंसान तो नहीं कर सकते...ये काम सिर्फ शैतान ही कर सकते हैं और ऐसे शैतान कानून के मुताबिक सजा होने के बाद भी समाज के लिए खतरा ही बने रहेंगे...जाहिर है ऐसे हैवानियत करने वालों के लिए मौत की सजा भी कम है। लेकिन अफसोस है कि हमारे देश की सरकार देश की राजधानी दिल्ली की सड़कों पर एक मासूम के साथ दरिंदगी का खेल खेलने वाले अपराधियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाने की बात करने से घबराती हुई नजर आ रही है और दुर्भाग्य देखिए देश का...पहले तो इंसाफ की मांग करने वालों को इंडिया गेट तक पहुंचने से रोकने के लिए मेट्रो स्टेशन के साथ ही इंडिया गेट को जाने वाले सभी रास्ते बंद कर दिए जाते हैं...और इसके बाद भी प्रदर्शनकारी इंडिया गेट पर पहुंच जाते हैं तो उन पर आंसू गैस के गोले छोड़े जाते हैं और लाठियां बरसाई जाती हैं। एक लड़की के साथ हैवानियत का खेल खेला जाता है और उसके लिए इंसाफ की मांग करने वाली लड़कियों पर लोगों की रक्षा करने का बीड़ा उठाने वाली हमारी बहादुर पुलिस लाठियां बरसाती हैं...हालांकि ये बात सभी जानते हैं कि पुलिसवाले भी सरकार के इशारे पर ही ये काम कर रहे थे। इसके बाद भी विडंबना देखिए दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे और कांग्रेस सांसद संदीप दीक्षित जब इंडिया गेट पर पुलिसिया कार्रवाई के लिए दिल्ली पुलिस कमिश्नर को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें हटाने की मांग करते हैं तो उनकी माता जी उनके सुर में सुर मिलाती हैं...और कमिश्नर के सिर सारा ठीकरा फोड़ देती हैं...और कमिश्नर को हटाने की बात कहती हैं...क्या ऐसा संभव है कि दिल्ली के सबसे सुरक्षित माने जाने वाले और कड़ी सुरक्षा वाले इलाके में जहां एक तरफ राष्ट्रपति भवन है तो दूसरी तरफ संसद वहां पर हजारों लोग प्रदर्शन करते हैं और उन पर लाठियां बरसती हैं और ये बिना दिल्ली की मुख्यमंत्री की जानकारी के हुआ हो ? लेकिन इसके खिलाफ जब जनाक्रोश भड़कता है तो माननीय मुख्यमंत्री साहिबा इसके लिए दिल्ली पुलिस कमिश्नर को दोषी ठहराती हैं। जाहिर है शीला दीक्षित जानती हैं कि ये जनाक्रोश कहीं 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में उनकी कुर्सी न हिला दे शायद इसलिए पहले शीला दीक्षित के कांग्रेस सांसद बेटे संदीप दीक्षित दिल्ली पुलिस कमिश्नर को हटाने की बात कहते हैं और इसके बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित उनके सुर में सुर मिलाती हैं...लेकिन षीला जी ये भूल गई कि ये पब्लिक है...ये सब जानती है। उम्मीद करते हैं ये आंदोलन अपने अंजाम तक पहुंचे...पीड़ित को इंसाफ मिले और दोषियों को मौत की सजा।

deepaktiwari555@gmail.com

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

दिल्ली गैंगरेप- यार ये लड़की ऐसी ही होगी !


बात आज सुबह की ही है...एक तरफ दिल्ली में राजपथ पर गैंगरेप के विरोध में हजारों युवाओं का आक्रोश अपने चरम पर था और पीड़ित को इंसाफ दिलाने के लिए युवा किसी भी हद को पार करने के लिए तैयार थे...दूसरी तरफ एक वाक्या जो मेरे सामने घटित हुआ वो वाकई में सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या इंसाफ की मांग को लेकर...आरोपियों की फांसी की मांग को लेकर जो हजारों युवा किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं...उनका आक्रोश क्या दोबारा ऐसी ही घटनाओं को होने से रोकने के लिए काफी है ? क्या वाकई में ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं होंगी ? एक राष्ट्रीय समाचार चैनल पर राजपाथ पर युवाओं का आक्रोश देखने के बाद कुछ देर के लिए घर के पास ही एक बार्बर की शॉप पर मैं सेविंग करवाने पहुंचा। अपनी बारी का इंतजार कर रहा था इसी बीच वहीं पहुंचे दो युवाओं की बातों ने अंदर तक झकझोर के रख दिया था। दोनों की जुबान पर भी दिल्ली गैंगरेप की चर्चा थी...लेकिन सोच का फर्क साफ दिखाई दिया। घटना को याद करते हुए उनमें से एक युवा दिल्ली गैंगरेप पीड़ित के बारे में अभद्र टिप्पणी करता है। वो अपने साथी से कहता है कि यार वो लड़की ऐसी ही रही होगी...ऐसी लड़कियों के साथ ऐसा ही होना चाहिए। मैंने इस पर आपत्ति जताई और उनसे कहा कि कैसे आप किसी के लिए ऐसा सोच सकते हो वे उल्टा इस पर बहस करने लगे और अपनी बात को सही ठहराने लगे। इस वाक्ये से कई सवाल जेहन में उठते हैं जिनका जवाब ढ़ूंढा जाना बेहद जरूरी है...मसलन क्या सिर्फ कड़े कानून बनाए जाने से और आरोपियों को फांसी देने से देशभर में सड़कों पर आक्रोश जताना इस बात की गारंटी होगी कि आगे कोई और लड़की इस तरह के वहशीपन का शिकार नहीं होगी...या कोई और बलात्कार किसी लड़की के साथ नहीं होगा ? क्या इस सब से इंसानों के बीच में समाज में रह रहे भेड़िए जो मौका मिलते ही इस वहशीपन को अंजाम देते हैं उनकी सोच में उनकी मानसिकता में बदलाव आ पाएगा ? जाहिर है सिर्फ कानून कड़े करने से...आरोपियों को सख्त से सख्त सजा देने से ऐसे अपराध नहीं रूकेंगे और समय समय पर ऐसी घटनाएं जो कि दुर्भाग्यपूर्ण हैं आगे भी घटित होती रहेंगी। जब तक लोगों की सोच में बदलाव नहीं आएगा...उनकी मानसिकता में बदलाव नहीं आएगा ऐसे अपराधों को रोकना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। ये घटिया सोच नहीं तो और क्या है कि जहां एक तरफ दिल्ली में लड़की के साथ हुए वहशीपन के खिलाफ देश सड़कों पर उतरकर अपना आक्रोश जता रहा था तो दूसरी तरफ कुछ ऐसी सोच वाले लोग भी थे जो इस वहशीपन के लिए भी पीड़ित को ही जिम्मेदार ठहरा रहे थे। जब तक ये सोच नहीं बदलेगी हालात नहीं सुधरेंगे और आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर अंदर तक झकझोर देने वाले दिल्ली गैंगरेप जैसे जघन्य कृत्य आगे हमें सुनने को मिलें...क्योंकि हमारे समाज में ऐसे लोग मौजूद हैं जो लड़कियों/महिलाओं को सिर्फ और सिर्फ सेक्स की नजरों से देखते हैं और मनोरंजन का सामान समझते हैं और ये वही लोग हैं जो कभी गुवाहाटी में तो कभी दिल्ली में न सिर्फ महिलाओं की ईज्जत को तार – तार करते हैं बल्कि उनका जीवन नर्क बना देते हैं। ये लोग इतना तक नहीं सोचते कि जिसने इनको जन्म दिया है वो भी एक महिला है औऱ इनके घर में भी मां-बहनें हैं...काश ये चीजें इनको समझ में आती। आखिर मैं कहना चाहूंगा कि दिल्ली गैंगरेप पीड़ित को जल्द से जल्द इंसाफ मिले और इस जघन्य कृत्य को अंजाम देने वाले आरोपियों के लिए फांसी की सजा भी कम होगी क्योंकि फांसी से उन्हें तो एक बार में मौत मिल जाएगी...लेकिन इन आरोपियों ने पीड़ित को जो जख्म दिए हैं वो शायद ही कभी भर पाएंगे।

deepaktiwari555@gmail.com

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

मोदी पीएम बनें न बनें राहुल गांधी जरूर बनेंगे


2014 का सेमिफाइनल माने जा रहे गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों ने जहां गुजरात में भाजपा को मुस्कुराने की वजह दे दी है तो हिमाचल में कांग्रेसियों के चेहरे चमक रहे हैं। ये चुनाव अपने आप मे काफी अहम थे और नतीजे आने से पहले नरेन्द्र मोदी की हैट्रिक की बातें तो की ही जा रही थी...लेकिन मोदी के साथ ही एक और चेहरा इस चुनाव के नतीजों के बाद से चर्चा में है...जिसने गुजरात चुनाव में मोदी के साथ ही एक अनोखी हैट्रिक पूरी की है। ये शख़्स और कोई नहीं बल्कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी हैं...जिन्होंने बिहार और उत्तर प्रदेश के बाद गुजरात में भी हैट्रिक पूरी की लेकिन ये हैट्रिक जीत की नहीं बल्की हार की है। बिहार और यूपी के बाद गुजरात में भी राहुल गांधी का जादू नहीं चला और मोदी के कद के आगे राहुल गांधी बौने नजर आए। मोदी और राहुल दोनों की हैट्रिक के साथ ही दोनों में एक बात और खास है कि गुजरात में जीत की हैट्रिक लगाने वाले मोदी भी 2014 में प्रधानमंत्री की कुर्सी के प्रबल दावेदार हैं और गुजरात चुनाव के नतीजों के बाद हार की हैट्रिक लगाने वाले कांग्रेस युवराज राहुल गांधी भी इस कुर्सी के प्रबल क्या कांग्रेस में एकमात्र दावेदार हैं। यहां पर राजनीति का गणित देखिए जीत के हैट्रिक लगाने वाले मोदी की राहें...हार की हैट्रिक लगाने वाले राहुल गांधी से कहीं ज्यादा कठिन है। 2014 में पीएम की कुर्सी के लिए अपने दम पर गुजरात में भाजपा को सत्ता में लाने वाले मोदी के नाम पर जहां उनकी पार्टी के नेताओं में ही आम राय नहीं हैं तो वहीं राहुल गांधी के तमाम राजनीति के टेस्ट में फेल होने के बाद भी कांग्रेस में हर कोई नेता राहुल गांधी के गुणगान करते नहीं थकता और राहुल को ही कांग्रेस में पीएम की कुर्सी का सर्वश्रेष्ठ दावेदार बताता है...अब इसके पीछे क्या वजह है ये तो आप अच्छे से समझते ही होंगे। कुल मिलाकर देखा जाए तो एक बात तो तय है कि नरेन्द्र मोदी जीत की हैट्रिक लगाने के बाद भी कभी प्रधानमंत्री बनें या न बनें...लेकिन कांग्रेस युवराज जरूर एक दिन प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जरूर विराजेंगे...चाहे आगे भी कितने ही टेस्ट में राहुल फेल क्यों न हो जाएं।
deepaktiwari555@gmail.com

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

24 घंटे में 66 बलात्कार


भूख के कई रूप हैं...एक है पेट की भूख...जो इंसान को कुछ भी करने को मजबूर कर देती है...कुछ लोग इस भूख को नजरअंदाज करने की कोशिश करते हैं लेकिन बार बार लौट पर आने वाली भूख कई बार इंसान पर भारी पड़ती है और आखिर में इंसान को ही खा जाती है...भारत में हर रोज भूख से होने वाली होने वाली करीब 5 हजार मौतें ये बताने के लिए काफी है। भूख का एक और रूप है जो इंसान की जान तो नहीं लेता लेकिन जिस पर ये भूख टूटती है वो एक जिंदा लाश बनकर रह जाती है। उसे अपना जीवन खुद पर बोझ लगने लगता है...और कई बार हमने देखा है कि इस भूख की शिकार महिलाएं, युवतियां इस बोझ को नहीं ढ़ो पाती और खुद मौत को गले लगा लेती हैं। भूख के इस दूसरे रूप को हवसके नाम से भी जाना जाता है। दिल्ली रविवार रात चलती बस में जो हुआ वो भूख का ही दूसरा रूप था या कहें कि एक वहशीपन था जिसे कोई शैतान ही अंजाम दे सकता है। पुलिस ने भले ही 6 में से 4 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया हो...और माना इनको सजा भी हो जाएगी...क्योकि इन्होंने जघन्य अपराध किया है...लेकिन जिस लड़की के साथ ये घटित हुई या होती आयी है...उसे तो दोषियों से भी बड़ी सजा मिलती है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर कब तक इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी और आखिर क्यों हर बार पुलिस और सरकार इन घटनाओं के होने के बाद ही हरकत में आती हैं और इन घटनाओं को रोकने के लिए इस पर मंथन होता है ? देश में पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं लेकिन सवाल वहीं का वहीं है कि उसके बाद की जाने वाली बड़ी बड़ी बातें सिर्फ बातों तक ही सीमित रह जाती हैं और उन पर अमल नहीं होता और इसका नतीजा ये होता है कि कुछ अंतराल के बाद ऐसी ही घटनाओं की गूंज तन बदन को झकझोर कर रख देती है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के सिर्फ 2011 के आंकड़ों पर ही नजर डाल लें तो तस्वीर काफी हद तक साफ हो जाती है कि आखिर महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं। महिलाओं के साथ बलात्कार, शारीरिक उत्पीड़न और छेड़छाड़ के साथ ही महिलाओं के अपहरण और घर में पति या रिश्तेदारों के उत्पीड़न के मामलों की लिस्ट काफी लंबी है। साल 2011 में हर रोज 66 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुई। एनसीआरबी के अऩुसार 2011 में बलात्कार के 24 हजार 206 मामले दर्ज हुए जिनमें से सजा सिर्फ 26.4 फीसदी लोगों को ही हुई जबकि महिलाओं के साथ बलात्कार के अलावा उनके शारीरिक उत्पीड़न, छेड़छाड़ के साथ ही उनके उत्पीड़न के 2 लाख 28 हजार 650 मामले दर्ज किए गए जिसमें से सजा सिर्फ 26.9 फीसदी लोगों को ही हुई। ये वो आंकड़ें हैं जिनमें की हिम्मत करके पीड़ित ने दोषियों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई...इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि असल में ऐसी कितनी घटनाएं घटित हुई होंगी क्योंकि आधे से ज्यादा मामलों में पीड़ित समाज में लोक लाज या फिर दबंगों के डर से पुलिस में शिकायत ही नहीं करती या उन्हें पुलिस स्टेशन तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है। सबसे बड़ी बात ये है कि आंकड़ें इस पर से पर्दा हटाते हैं कि इन मामलों में कार्रवाई का प्रतिशत सिर्फ 25 है...यानि कि 75 फीसदी मामले में या तो आरोपी बच निकले या फिर ये मामले सालों तक कोर्ट में लंबित पड़े रहते हैं और आरोपी जमानत पर खुली हवा में सांस ले रहा होता है। शायद यही वजह है कि इंसान के रूप में समाज में घूम रहे ऐसे वहशी दरिंदे कानून की इन खामियों का फायदा उठाते हैं और सरेआम ऐसे जघन्य अपराध करने से भी नहीं चूकते क्योंकि वे उन्हें लगता है कि आसानी से कानून की इन खामियों का फायदा उठाकर वे बच निकलेंगे। मैंने अपने आसपास कुछ महिलाओं और लड़कियों से ऐसे अपराधियों को सजा देने पर उनकी राय जाननी चाही तो उनके चेहरा जवाब देते वक्त गुस्से से लाल था और उनके मन से जो आवाज निकली वो थी कि ऐसे अपराधियों का जिंदा रहना समाज के हित में नहीं है और इन्हें मौत की सजा की सबने वकालत की। कोई चौराहे पर फांसी देने की बात कह रही थी तो कोई सरेआम गोलियों से भून देने की बात कर रही थी। संसद में दिल्ली गैंगरेप के बाद ऐसे आरोपियों को फांसी की सजा देने की बात उठी और गृहमंत्री ने भी सख्त से सख्त कार्रवाई का भरोसा तो दिलाया है...लेकिन इसके बाद भी सच ये है कि महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही हैं। जरूरत इस बात कि है कि दिल्ली की इस घटना के बाद जो बड़ी बड़ी बातें की जा रही हैं...सरकार के साथ ही पुलिस भी उन पर अमल करे और इन घटनाओं को रोकने के साथ ही महिलाओं की सुरक्षा के लिए सरकार गंभीर कदम उठाने पर तत्काल फैसला ले। इसके साथ ही बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा देने के प्रावधान पर सरकार पूरी गंभीरता से विचार करे...एक ऐसी सजा जिसके बारे में सोचने पर ही अपराध करने से पहले अपराधी हजार बार सोचे।

deepaktiwari555@gmail.com

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

दो गेंदबाजों ने लगाई टीम इंडिया की वॉट


भारत और इंग्लैंड के बीच टेस्ट सीरीज शुरु होने से पहले इसे बदले की सीरीज कहा जा रहा था क्योंकि 2011 में इंग्लैंड के दौरे पर गई टीम इंडिया को अंग्रेजों ने टेस्ट सीरीज में 4-0 से करारी मात दी थी। भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को उम्मीद थी कि भारत अंग्रेजों को 4-0 से मात देकर 2011 की हार का बदला ले लेगा। सीरीज शुरु हुई तो अहमदाबाद टेस्ट में भारत की 9 विकेट से जीत के बाद ये लगने भी लगा था। लेकिन मुंबई में लय में लौटे अंग्रेजों ने भारत को 10 विकेट से करारी मात देकर न सिर्फ सीरीज में जोरदार वापसी की बल्कि भारतीय खिलाड़ियों की अहमदाबाद जीत की खुमारी भी उतार दी। कोलकाता में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला और अंग्रेजों ने भारत को 7 विकेट से हराकर सीरीज में 2-1 की बढ़त बना ली जो निर्णायक भी साबित हुई। पुजारा पहले और दूसरे टेस्ट मैच में तो दीवार बने लेकिन बाद के दो टेस्ट मैच में अंग्रेजों ने पुजारा का भी तोड़ ढ़ूंढ लिया। नागपुर टेस्ट में कोहली और धोनी का बल्ले की खामोशी तो टूटी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और अंग्रेज भारत के सीरीज जीतने के सपने को चकनाचूर कर चुके थे। भारतीय गेंदबाज स्पिन खेलने में परांगत कहे जाते हैं लेकिन पूरी सीरीज में यही भारतीय बल्लेबाज अपने घर में ही अंग्रेज स्पिनरों के आगे घुटने टेकते नजर आए। पूरी सीरीज में सिर्फ दो अंग्रेज स्पिनरों ने भारतीय बल्लेबाजों पर कैसे नकेल कसी इसका अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि पनेसर और स्वान ने मिलकर सीरीज के 4 टेस्ट मैचों में 37 विकेट झटके जिसमें से स्वान ने 4 मैचों में 20 तो पनेसर ने 3 मैच में 17 विकेट झटके। यानि कि स्पिन गेंदबाजों को खेलने में महारत हासिल रखने वाले भारतीय बल्लेबाज स्वान और पनेसर की फिरकी में ऐसे उलझे की एक के बाद एक पवेलियन लौटते चले गए। सिर्फ दो स्पिन गेंदबाजों ने ही भारतीय टीम की वॉट लगा के रख दी। बाउंस होती विदेशी पिचों पर भारतीय बल्लेबाज सीमर्स को नहीं खेल पाते ये तो समझ में आता था लेकिन अपने ही देश में घरेलु परिस्थितियों में फिरकी में उलझ जाना ये समझ से परे है। स्वान और पनेसर के अलावा तेज गेंदबाज एंडरसन के आगे भी भारतीय बल्लेबाज संघर्ष करते नजर आए। हालांकि एंडरसन 4 टेस्ट मैच में सिर्फ 12 ही विकेट ले सके लेकिन अंग्रेजों की जीत में एंडरसन की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। स्वान, पनेसर और एंडरसन ने पूरी सीरीज में 49 विकेट लेकर 28 साल बाद भारत में अपनी टीम की सीरीज जीत की पटकथा लिख दी थी। जबकि भारत के 5 फिरकी गेंदबाज ओझा, अश्विन, हरभजन, चावला और जडेजा पूरी सीरीज में अंग्रेजों के सिर्फ 43 विकेट ही ले सके। भारतीय बल्लेबाज जिस पिच पर ताश के पत्तों की तरह ढ़हते नजर आए उसी पिच पर अंग्रेज बल्लेबाजों ने जिस तरह बल्लेबाजी कि उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। खासकर अंग्रेज कप्तान कुक ने पूरी सीरीज में जो बल्लेबाजी की वो वाकई में दर्शनीय थी। हालांकि पीटरसन, ट्राट, कॉम्पटन और बेल ने भी जरूरत के वक्त अपने बल्ले की चमक बिखेरी और इंग्लैड का भारत में 28 साल बाद सीरीज जीतने के सपने को पूरा किया। कुल मिलाकर देखा जाए तो अंग्रेज खिलाड़ियों ने एक संगठित टीम की तरह खेल दिखाया औऱ सभी खिलाड़ियों ने हर मैच में अपना पूरा योगदान दिया...और नतीजा सबके सामने हैं...जबकि भारतीय टीम में ये कमी साफ तौर पर नजर आई। भारत की हार के बाद आलोचनाओं का बाजार गर्म है और टीम के पोस्टमार्टम के साथ ही धोनी की कप्तानी पर भी सवाल उठने लगे हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि चयनकर्ताओं को अपने चयन पर सोचने के साथ ही कुछ कड़े फैसले लेने का साहस जुटाना चाहिए ताकि ये मिथक टूटे की भारतीय चयनकर्ता खिलाड़ी के प्रदर्शन नहीं बल्कि खिलाड़ी के कद को देखकर टीम का चयन करते हैं। साथ ही हर खिलाड़ी को अपने प्रदर्शन का आत्म अवलोकन करना चाहिए कि क्या वाकई में उसने अपने नाम के अनुरुप प्रदर्शन किया है ?

deepaktiwari555@gmail.com 

शीला जी दिल्ली में भूख से क्यों होती है मौत ?


दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित कहती हैं कि 5 लोगों का परिवार 600 रूपए महीने में पेट आसानी से भर जाता है...यानि की शीला जी के अनुसार सिर्फ 4 रूपए में एक व्यक्ति का पेट भर जाता है। ये बयान उस शीला दीक्षित का है जिनके राज में दिल्ली में हर हफ्ते एक व्यक्ति भूख की वजह से दम तोड़ देता है। दिल्ली में कांग्रेस सरकार के 14 साल के कार्यकाल में 737 लोगों की मौत की वजह भूख और गरीबी रही। ये जानकारी एक आरटीआई के जवाब में दिल्ली पुलिस मुख्यालय ने ही दी है। लेकिन शीला जी कहती हैं कि 4 रूपए में एक आदमी आसानी से दाल रोटी खा सकता है...अगर शीला जी ऐसा होता तो आपकी दिल्ली में कम से कम भूख से तो कोई मौत नहीं होनी चाहिए। आपकी दिल्ली में ही क्यों भारत में भूख से कोई मौत नहीं होनी चाहिए जहां विश्व के करीब 95 करोड़ भूखे लोगों में से करीब 45 करोड़ भारत में ही हैं। क्योंकि 4 रूपए का जुगाड़ तो आदमी मेहनत, मजदूरी करके या फिर भीख मांग कर भी कर लेता है...लेकिन इसके बाद भी भारत में रोज हजारों लोगों की मौत की वजह सिर्फ भूख है। अब शीला दीक्षित ने ये गणित कैसे बैठाया ये तो वही जानें लेकिन शीला के इस बयान ने एक बार फिर से जाहिर कर दिया है कि वाकई में गरीबों के हित की बात करने वाले राजनेताओं की सोच में कितना फर्क है। ये वही राजनेता हैं जो विधानसभा और संसद में उन्हें मिल रहे वेतन भत्ते को बढ़ाने को नाकाफी बताते हुए उसे समय समय पर बढ़ाने की मांग को लेकर खूब हो हल्ला मचाते हैं लेकिन एक 5 लोगों के गरीब परिवार की एक महीने की रोजी रोटी के लिए इन्हें 600 रूपए काफी लगते हैं। ये राजनेता जिन गाड़ियों में चलते हैं उसका एवरेज प्रति किलोमीटर लगभग 5 से 6 का होता है...यानि कि एक किलोमीटर चलने में ये लोग 40 से 50 रूपए खर्च कर देते हैं...दिन के और महीने के इनके और इनके परिवार के खाने का खर्चा की तो बात ही क्या। ये हिंदुस्तान है यहां कुछ भी हो सकता है यहां योजना आयोग भोजन पर शहर में 32 रूपए रोज और गावों में 26 रूपए रोज खर्च करने वालों को गरीब नहीं मानता लेकिन योजना आयोग के दफ्तर में 35 लाख रूपए टॉयलेट बनाने पर खर्च कर देता है...अब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने 600 रूपए महीने अगर 5 लोगों के परिवार की महीने भर की दाल रोटी के लिए पर्याप्त बता दिया तो कल कोई और अपने अनोखे बयान से गरीबों को उपहास उड़ाएगा...क्या फर्क पड़ता है ? फर्क तो उस दिन पड़ेगा जिस दिन ये गरीब अपने वोट की ताकत को पहचानेंगे और अपने वोट से ऐसे नेताओं को सबक सिखाएंगे।

deepaktiwari555@gmail.com

रविवार, 16 दिसंबर 2012

प्रमोशन में आरक्षण ने बना दिया दुश्मन !


प्रमोशन में आरक्षण बिल को लेकर महाभारत थमने का नाम नहीं ले रहा है। राजनीतिक दल इस बिल के सहारे एक बार फिर से अपनी अपनी रोटियां सेंकने में जुट गए हैं। बिल को लेकर विरोध की चिंगारी इतनी तेज हो गई है जो कभी भी बड़ी आग का रूप ले सकती है...लेकिन सरकार ने संविधान संशोधन बिल पारित करने की पूरी तैयारी कर ली है। राजनीतिक दलों की नजर 2014 के आम चुनाव पर है और वोटों के लिए ये लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखाई दे रहे हैं। ये वही राजनीतिक दल और राजनेता हैं जो अपने भाषणों में तो सभी के हिमायती होने का दावा करते हैं....देश से जात-पात के अंतर को खत्म करने की बात करते हैं....लेकिन प्रमोशन में आरक्षण बिल ये बताने के लिए काफी है कि इनकी कथनी और करनी में कितना फर्क है। बिल ने एक ही छत के नीचे साथ साथ बैठकर काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों को एक दूसरे का दुश्मन बना दिया है। एक वर्ग बिल के विरोध में सड़कों पर उतर कर आंदोलन कर रहा है तो दूसरा वर्ग बिल के समर्थन में अपनी निर्धारित 8 घंटे की ड्यूटी से भी ज्यादा काम करने को तैयार हैं। बिल को लेकर अलग अलग लोगों की व्यक्तिगत राय अलग अलग हो सकती है लेकिन मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि प्रमोशन में आरक्षण बिल दो वर्गों के बीच एक गहरी खाई पैदा करने का ही कार्य करेगा जो कि बिल्कुल भी सही नहीं है। किसी को सिर्फ जाति के आधार पर उसे उसके सहकर्मी से ऊपर प्रमोट कर दिया जाना कहां तक सही है  ? अगर ऐसा किया जाता है तो क्या दूसरी जाति के कर्मचारी के मन में हीन भावना उतपन्न नहीं होगी ? वह कैसे अपने कार्य को पूरे मन से कर पाएगा...क्योंकि उसके सहकर्मी को तो प्रमोशन दे दिया जाएगा...लेकिन वह सालों तक उसी जगह पर कार्य करता रह जाएगा। क्या इससे उसके कार्यक्षमता पर फर्क नहीं पड़ेगा ? इसका नुकसान किसे होगा...जाहिर है वह अपने साथ ही दूसरों का भी नुकसान करेगा। इससे बेहतर क्या ये नहीं कि प्रमोशन के लिए कर्मचारी की कार्यकुशलता और उसके प्रदर्शन के साथ ही उसके व्यवहार को पैमाना बनाया जाए ? अगर ऐसा किया जाता है तो जाहिर है प्रमोशन पाने के लिए कर्मचारी पूरे मन से काम करेगा और काम में लापरवाही नहीं बरतेगा। उसके काम का आउटपुट बढ़ेगा और इसका फायदा न सिर्फ संबंधित विभाग को होगा बल्कि उस कर्मचारी को प्रमोशन भी मिलेगा। जिस कर्मचारी को प्रमोशन नहीं मिल पाएगा क्या वो प्रमोशन के लिए और अधिक मेहनत से कार्य नहीं करेगा ? जाहिर है तरक्की हर किसी को अच्छी लगती है और तरक्की के लिए कर्मचारी अच्छा कार्य करेगा। इसके साथ ही जिस पद पर प्रमोशन होना है क्यों न उस पद के लिए उसकी योग्यता मापने के लिए विभागीय परीक्षा आयोजित की जाए ? सभी कर्मचारी उस विभागीय परीक्षा में शामिल हों और अपनी योग्यता के आधार पर प्रमोशन पाएं। किसी को उसकी कार्यकुशलता और पद की  योग्यता के बाद भी सिर्फ उसकी जाति के आधार पर प्रमोशन न मिलना या देर से मिलना क्या उस मेहनती कर्मचारी के साथ अन्याय नहीं होगा ?  इसका ये मतलब न निकाला जाए कि दूसरी जाति के कर्मचारी काबिल नहीं है। साथ ही किसी को कार्यकुशल न होने के बाद भी सिर्फ जाति के आधार पर प्रमोशन दिया जाना भी तर्कसंगत तो कहीं से नहीं है। प्रमोशन हर किसी कर्मचारी का हक भी है और उसे मिलना भी चाहिए...लेकिन इसे जल्दी पाने के लिए किसी कर्मचारी के जाति विशेष के होने की दीवार खड़ी करना कहीं से भी सही नहीं होगा। सोचिए जब एक ही छत के नीचे साथ बैठकर काम करने वाले कर्मचारी इस बिल की आहट मात्र से एक दूसरे के खिलाफ तलवार खींच कर बैठ गए हों...तो इसके लागू होने के बाद सरकारी दफ्तरों के अंदर का नजारा क्या होगा ? राजनीतिक दलों को भी इस संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति से परे हटकर सोचना होगा ताकि पहले से ही आम जनता को परेशान करने के लिए बदनाम सरकारी दफ्तरों में बेहतर काम का माहौल बनाया जा सके...और इस माहौल का लाभ आम आदमी के साथ ही देश को मिल सके।

deepaktiwari555@gmail.com

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

क्यों रूठ गई है कुदरत ?


देहरादून में सुबह आंख खुली तो बाहर कड़कड़ाती ठंड थी। बर्फीली हवाओं ने एहसास करा दिया था कि इस बार कुदरत दिसंबर में बही मेहरबान हो रही है। देर रात मसूरी में हुई बर्फबारी का ही नतीजा था कि देहरादून की फिज़ाओं में  बर्फीली ठंडक घुल गई थी। छत पर जाकर देखा तो नजारा मन को मोह लेने वाले था। मसूरी की ऊंची चोटियां बर्फ की सफेद चादर से ढ़की हुई थी...और सूर्य की किरणें सुनहरी चमक बिखेर रही थी। मसूरी से बह रही ठंडी हवाएं दिसंबर की शुरुआत में ही जनवरी की कड़कड़ाती ठंड का एहसास करा रही थी। सुना है दशकों पहले सर्दियों में कभी देहरादून में भी बर्फ के दीदार हो जाया करते थे....लेकिन मसूरी को जाने वाले राजपुर रोड ईलाके के लिए ये बात ज्यादा पुरानी नहीं है और बीते कुछ सालों तक राजपुर रोड का कुछ ईलाका भी मामूली बर्फबारी के लिए पहचाना जाता था...लेकिन बढ़ते शहरीकरण के बाद न सिर्फ कुदरत देहरादून से रूठ गई बल्कि राजपुर रोड़ के इलाके को भी बर्फ के दीदार के लिए तरसा दिया। कम होती हरियाली और खत्म होते जंगलों के बीच तेजी से फैलते कंक्रीट के जंगल का ही असर है कि मसूरी में भी बर्फबारी का मौसम खिसक कर जनवरी तक पहुंच गया...और अक्सर जनवरी या फरवरी में ही मसूरी में बर्फ के दीदार होते हैं...लेकिन इस बार दिसंबर की शुरुआत में मसूरी में बर्फबारी ने मसूरी जिसके लिए जाना जाता था उसकी याद फिर से ताजा कर दी। खुद मसूरी में रहने वाले लोगों के लिए दिसंबर में बर्फबारी इस बार किसी चमत्कार से कम नहीं है। हालांकि ये बर्फबारी हल्की ही थी...लेकिन दिसंबर में बर्फ फिर भी यहां के पुराने दिनों की याद ताजा करा गया। कंक्रीट का फैलता जंगल और कटते वनों के साथ ही बढ़ता प्रदूषण निश्चित ही बदलते मौसम का मुख्य कारक है...देहरादून की ही अगर बात करें तो इस ईलाके की हरियाली मन को मोह लेती थी...और देहरादून में सालों से रह रहे लोग भी कहते हैं कि देहरादून की हरियाली विकास की अंधी दौड़ की भेंट चढ़ गयी। बेतरतीब होते विकास ने जहां न सिर्फ एक खूबसूरत शहर से उसकी सुंदरता यानि की हरियाली छीन ली बल्कि यहां का सदाबहार मौसम भी पहले जैसा नहीं रहा। देहरादून से मसूरी को जाने वाले रास्ते पर जहां पहले हरे भरे पहाड़ सीना तान कर खड़े रहते थे...वहां अब हरियाली के बीच में तेजी से फैलता कंक्रीट का जाल आसानी से देखा जा सकता है...और ये बेतरतीब तरीके से जारी है। ये हाल सिर्फ देहरादून का ही नहीं है बल्कि पूरे उत्तराखंड में अमूमन ऐसे ही हालात है...फिर चाहे नैनीताल हो या फिर रानीखेत या फिर देश का कोई और शहर...कंक्रीट का फैलता जाल धीरे धीरे हरियाली को चट करता जा रहा है। आंकड़ें कहते हैं कि देश में हर साल 30 से 35 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र विकास की भेंट चढ़ता है लेकिन इसका सिर्फ एक तिहाई हिस्से की ही भरपाई हो पाती है। 1980 में बना देश का वन संरक्षण कानून भी कहता है कि एक पेड़ काटने पर उसके बदले तीन पेड़ लगाने पड़ते हैं...लेकिन आप ने अपने आस पास ही इसको महसूस किया होगा कि वाकई में क्या ऐसा हो पाता है ? पर्यावरण मंत्रायल का अध्ययन कहता है कि देश में उत्सर्जित होने वाली 11.25 फीसदी ग्रीन हाउस गैसों यानि करीब 13.38 करोड़ टन कार्बन आक्साईड गैसों को वन सोखते हैं। वन तो कम हो रहे हैं लेकिन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है...आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर ये सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो जलवायु में कितना परिवर्तन आएगा। राष्ट्रीय वन नीति कहती है की देश के भू-भाग के 33 फीसदी हिस्से पर वन होने चाहिए लेकिन हिंदुस्तान में सिर्फ 21.02 फीसदी हिस्से पर ही वन हैं जबकि 2.82 फीसदी भू-भाग पर पेड़ हैं...और अगर इनको भी वनों का हिस्सा मान लिया जाए तो देश का कुल वन क्षेत्रफल 23.83 फीसदी ही होता है...यानि कि वन नीती के मुताबिक अभी और वनों को विकसित करने की जरूरत है न कि विकास के लिए पेड़ों की बलि ली जाए। दिसंबर में बर्फबारी के बहाने बात निकली है तो आईए एक संकल्प लें पेड़ों को लगाने का और वनों को बचाने का।

deepaktiwari555@gmail.com

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

अफजल...खुश तो बहुत होगा आज !


13 दिसंबर 2001 को भारत की संसद पर बेखौफ आतंकी हमला करते हैं...और लोकतंत्र के मंदिर में खून की होली खेलते हैं। हमले का मुख्य आरोपी अफजल गुरु कानून के शिकंजे में भी आ जाता है...और घटना के 4 साल बाद 2005 में देश का सर्वोच्च न्यायालय मुख्य आरोपी अफजल गुरु की फांसी पर मुहर भी लगा देता है...लेकिन इसके बाद भी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंदिर पर हमला करने वाले को फांसी नहीं दी जाती है। अफजल की फांसी पर मुहर लगने के बाद सात साल में सरकार अफजल की फांसी पर कोई फैसला नहीं ले पाती है। सात साल से अफजल की फाइल दिल्ली सरकार, गृह मंत्रालय और राष्ट्रपति भवन के बीच झूल रही है। फांसी पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लगने के बाद 2005 से 2012 तक के सात साल अपने आप में कई सवाल खड़े करते हैं कि आखिर क्यों अफजल गुरु की फांसी पर सरकार और राष्ट्रपति भवन कोई फैसला क्यों नहीं ले पाया। दिल्ली में पिछले 14 सालों से कांग्रेस की सरकार है तो केन्द्र की सत्ता 2004 के बाद से कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के पास है तो वहीं राष्ट्रपति की कुर्सी पर पहले प्रतिभा देवी सिंह पाटिल और अब प्रणव मुखर्जी आसीन है...लेकिन अफजल की फांसी की फांस को खत्म करने के लिए किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। ये हाल उस अफजल का है जो संसद पर हमले का आरोपी है और इसी संसद में सारे मंत्री और सांसद बैठते हैं तो इसके बाजू में राष्ट्रपति भवन है। फांसी पर मुहर लगने के सात साल बाद भी अफजल फांसी न हुई न सही...देशवासियों को उम्मीद है कि देर सबेर अफजल का किस्सा जरूर खत्म होगा...लेकिन 11वीं बरसी पर जब संसद पर हमले में शहीद हुए लोगों को श्रद्धांजलि दी जा रही थी और शहीदों के परिजन उन्हें याद कर आंसू बहा रहे थे तो ऐसे में एक केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ये बयान देते हैं कि अफजल को फांसी की बजाए उम्रकैद हो तो सोचिए क्या गुजरी होगी उन लोगों पर जिन्होंने अपनों को इस हमले में खोया है। बेनी बाबू शहीदों के परिजनों का दर्द न बांट सको कोई बात नहीं कम से कम उनके जख्मों में नमक तो मत छिड़को...ये बात शायद आप भूल गए कि ये वही अफजल है जिसने उस संसद में अपने साथियों के साथ हमला किया था जहां आप जैसे महानुभाव (जिन्हें जनता जाने क्यों चुन लेती है) बैठते हैं। खैर आप ये दर्द समझते तो ऐसा बयान नहीं देते...वो भी संसद पर हमले के आरोपी पर क्योंकि जो लोग शहीद हुए उनमें आपका कोई अपना नहीं था न। वैसे भी आप को आदत है विवादों में रहने की...महंगाई बढ़ती है तो आप खुश होते हैं...सलमान खुर्शीद 71 लाख का घालमेल करते हैं...तो आप कहते हैं कि 71 लाख का घालमेल कोई बड़ी बात नहीं...यहां तक तो ठीक था...लेकिन आपने तो हद ही कर दी 11वीं बरसी पर आप अफजल की फांसी पर सवाल खड़ा कर देते हैं। बेनी बाबू आपके इस बयान से देश की जनता तो नहीं लेकिन अफजल गुरु जरूर बहुत खुश होगा। अब ये आपका बड़बोलापन था या आपके बहाने कांग्रेस का ये शिगूफा छोड़ने की कोशिश कि अफजल के मामले में सरकार का रूख नरम है और इस बहाने जनता का मिजाज भांप लिया जाए और अल्पसंख्यक वोटों को साध लिया जाए तो ये आपकी और आपकी पार्टी की बड़ी भूल होगी...क्योंकि हिंदुस्तान की जनता चाहे वो किसी भी जाति या समुदाय से हो भ्रष्टाचार और घोटालों से घिरी आपकी सरकार और नेताओं को तो एक बार को माफ कर दे लेकिन देश की संप्रभुता पर हमला करने वाले अफजल जैसे आतंकी और इनकी पैरवी करने वाले आप जैसे नेताओं को कभी माफ नहीं करेगी। उम्मीद करते हैं कि अफजल के मामले में सरकार नींद से जागेगी और देश की संप्रभुता पर चोट करने वाले को उसके अंजाम तक पहुंचाने में अब औऱ देर नहीं करेगी...और सही मायने में यही संसद हमले में शहीद हुए जांबाजों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। सभी शहीदों को 11वीं बरसी पर मेरा नमन औऱ विनम्र श्रद्धांजलि।

deepaktiwari555@gmail.com

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

अब पछताए होत क्या...जब चिड़िया चुग गयी खेत


देश में चुनावी मौसम शबाब पर है...हिमाचल प्रदेश में मतदान हो चुका है तो गुजरात में मतदान की उल्टी गिनती शुरु हो चुकी है। इसके साथ ही आने वाले साल 2013 में नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है...तो 2014 में आम चुनाव के साथ ही 6 राज्यों में विधानसभा प्रस्तावित है। ऐसे में भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोप से जुड़े आरोपों से घिरी होने के साथ ही महंगाई और आर्थिक सुधारों से जुड़े फैसलों को लेकर सवालों में घिरी केन्द्र सरकार इस जुगत में है कि कैसे वोटों का गणित बैठाया जाए ताकि चुनाव में अपनी डूबती नैया को तारा जाए। कैश सब्सिडी योजना का ऐलान कर सरकार ने पहला दांव खेला तो चुनाव आयोग के दखल के बाद सरकार को गुजरात और हिमाचल प्रदेश में इस योजना पर रोक लगानी पड़ी। इसके बाद गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए पहले दौर के मतदान से दो दिन पहले पैट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने सब्सिडी वाले सिलेंडरों की संख्या 6 से बढ़ाकर 9 करने के संभावनाओं को बल देकर मतदाताओं को रिझाने का फिर प्रयास किया...लेकिन यहां भी चुनाव आयोग ने सख्ती दिखाई तो मोइली साहब सफाई देते नजर आए कि सरकार ने अभी इस पर कोई फैसला नहीं किया है। इससे पहले भी केन्द्र की यूपीए सरकार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की घोषणा कर चुकी...यानि वोटरों को लुभाने की कोशिश सरकार पहले भी करती नजर आई है। सरकार भले ही इन सब को लेकर अपने इरादों पर सफाई देती हुई नजर आ रही हो...लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आखिर सरकार ने घोषणाओं के लिए चुनाव से पहले का वक्त क्यों चुना ? जाहिर है भ्रष्टाचार, घोटालों के साथ ही महंगाई और आर्थिक सुधारों के अपने फैसलों को लेकर सरकार सवालों के घेरे में है और शायद सरकार में शामिल लोगों को ये डर है कि कहीं इसका खामियाजा चुनाव में न भुगतना पड़े...और शायद चुनाव से ऐन पहले कुछ हद तक सरकार घोषणाएं कर जनता के गुस्से को कम करने की कोशिश में है। बात सिर्फ हिमाचल प्रदेश और गुजरात चुनाव तक होती तो शायद सरकार इतनी नहीं घबराई होती...लेकिन इन दो राज्यों के चुनाव से शुरु हो रहा चुनावी मौसम सरकार की परेशानी का सबब बना हुआ है। 2013 की अगर बात करें तो 2013 में दिल्ली के साथ ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्नाटक, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा और नागालैंड में विधानसभा चुनाव होना है...और ये चुनाव तय करेंगे कि 2014 के आम चुनाव यूपीए की हैट्रिक होगी या फिर बंधेगा यूपीए का बोरिया बिस्तर...ऐसे में ये बात कांग्रेस नीत यूपीए सरकार अच्छे से जानती है कि कहीं भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों के साथ ही महंगाई और आर्थिक सुधारों के नाम पर लिए गए सरकार के फैसले कहीं चुनाव में उसपर भारी न पड़ जाए...इसलिए ही चुनाव से पहले सरकार एक एक कर घोषणाएं कर जनता की नाराजगी दूर करने की पूरी कोशिश कर रही है। 2013 के बाद 2014 में आम चुनाव के साथ ही 6 राज्यों आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, ओडिशा और सिक्किम में विधानसभा चुनाव होना है...यानि कि कांग्रेस का इम्तिहान 2014 में सिर्फ आम चुनाव तक ही नहीं बल्कि उसके साथ ही प्रस्तावित 6 राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी होगा। बहरहाल चुनावी मौसम की शुरुआत तो हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनाव के साथ हो गयी है...और 20 दिसंबर की तारीख जब हिमाचल और गुजरात के नतीजे आएंगे ये तय करेगी कि सरकार के लिए 2013 के साथ ही 2014 की राह कितनी मुश्किल होने वाली है और जनता के फायदे की घोषणाएं कर अपनी राह आसान करने की कोशिश कर रही कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की कवायद का जनता पर कितना असर होता है...लेकिन इस सब को देखते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है कि...अब पछताए होत क्या...जब चिड़िया चुग गयी खेत।

deepaktiwari555@gmail.com

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

आरक्षण की फांस...माया-मुलायम ने अटकाई सांस


एफडीआई के हो हल्ले में खोया प्रमोशन में आरक्षण का जिन्न एक बार फिर से बाहर आ गया है...और फिर से बढ़ गयी हैं सरकार की मुश्किलें। सरकार की एफडीआई की डूबती नैया तो सपा और बसपा ने पार लगा दी...लेकिन प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर तो सपा और बसपा ही सरकार की नैया डुबाने की पूरी तैयारी में है। सरकार के लिए राहत की बात ये है कि सपा को छोड़ अधिकतर राजनीतिक दल इस मुद्दे पर सरकार का न तो विरोध करने के मूड में दिखाई दे रहे हैं और न ही इस मुद्दे को लेकर जल्दबाजी में है। लेकिन सरकार की मुश्किल ये भी है कि क्योंकि ये संविधान संशोधन विधेयक है ऐसे में सरकार को इसे पास कराने के लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत होगी यानि की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा का साथ भी उसे चाहिए होगा...हालांकि भाजपा इसका विरोध नहीं कर रही है लेकिन भाजपा ने प्रमोशन में आरक्षण संविधान संशोधन विधेयक के ड्राफ्ट सामने आने के बाद ही अपने पत्ते खोलने की बात कही है...यानि की भाजपा ने सरकार की सांसे अटका कर जरूर रखी हुई हैं। इसके साथ ही सरकार को अपने सहयोगियों खासकर सपा को तो हर हाल में मनाना ही होगा लेकिन सपा के तेवर फिलहाल ठंडे पड़ते नहीं दिख रहे हैं। सरकार सपा को मनाने में लगी है तो यूपी में अपनी खोई राजनीतिक जमीन को इस मुद्दे के सहारे वापस पाने की कोशिश में लगी बसपा की जल्दबाजी सरकार के लिए सिरदर्द बनी हुई है। मायावती ने तो सरकार को तीन दिन का अल्टिमेटम तक दे दिया है...सरकार भी प्रमोशन में आरक्षण पर संविधान संशोधन लाने के मूड में है और शायद ये आश्वासन सरकार ने माया को एफडीआई पर साथ देने के बदले दिया भी था...लेकिन सपा के विरोध सरकार की राह में सबसे बड़ी बाधा है। मानसून सत्र के दौरान राज्यसभा में सपा सांसद नरेश अग्रवाल और बसपा सांसद अवतार सिंह के बीच हाथापाई को ज्यादा दिन नहीं हुए हैं और ये साबित करने के लिए काफी है कि प्रमोशन में आरक्षण को लेकर सपा और बसपा अपने अपने फायदे के लिए किस हद तक जा सकते हैं। जाहिर है दोनों के अपने अपने राजनितिक हित हैं...और 2014 के आम चुनाव के मद्देनजर दोनों दल इसको लेकर कुछ ज्यादा ही संजीदा भी हैं लेकिन दोनों की सोच इसको लेकर अलग अलग है। बसपा जहां इसके लागू होने पर इससे लाभांवित होने वाले जाति विशेष के लोगों वोट हासिल करने की कोशिश में है तो सपा इसके लागू होने की दशा में इससे प्रभावित होने वाले सरकारी कर्मचारियों और उनके परिजनों के वोटों(जिनकी संख्या उत्तर प्रदेश में तकरीबन 20 लाख के आस पास है) को साधने की जुगत में है। फिलहाल वॉलमार्ट रिपोर्ट पर संसद नें हंगामा मचा है...जो शांत होने के आसार कम ही नजर आ रहे हैं...यानि कि एक बार फिर से प्रमोशन में आरक्षण संविधान संशोधन विधेयक का मसला टलता दिखाई दे रहा है...जो मायावती बिल्कुल नहीं चाहती। बहरहाल मनमोहन के लिए एक बार फिर से एमफैक्टर मुश्किल का सबब बना हुआ हैऔर एफडीआई पर सरकार को तारने वाले ये एम फैक्टर कहीं मनमोहन सरकार पर भारी न पड़ जाए।
deepaktiwari555@gmail.com

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

125 करोड़ में बिक गया भारत ???


एफडीआई का भूत सरकार का पीछा छोड़ता नहीं दिखाई दे रहा है। एफडीआई को लेकर पहले से ही सवालों में घिरी सरकार अब वॉलमार्ट रिपोर्ट को लेकर कठघरे में आ गई है। सरकार पर एफडीआई लागू करने को लेकर विदेशी ताकतों के दबाव में काम करने का आरोप लगा था...जैसे तैसे सरकार ने बड़ी मुश्किल से सब कुछ मैनेज करके दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा में एफडीआई को मंजूरी दिलाकर एफडीआई लागू होने का रास्ता साफ किया ही था कि अमेरीकी सीनेट में वॉलमार्ट की रिपोर्ट में भारत के बाजार में प्रवेश के लिए लॉबिंग के नाम पर 125 करोड़ रूपए खर्च करने की खबर ने एक बार फिर से सरकार की नींद हराम कर दी है। हालांकि साढ़े चार हजार करोड़ डॉलर के सालाना टर्न ओर वाले कंपनी वॉलमार्ट को उम्मीद है कि भारत का बाजार पांच हजार करोड़ डॉलर का है...ऐसे में अगर वॉलमार्ट 125 करोड़ रूपए सिर्फ लॉबिंग पर खर्च करता है तो वॉलमार्ट के लिए ये कोई घाटे का सौदा नहीं है। वॉलमार्ट भारत में इसी शर्त पर प्रवेश कर सकता है जब एफडीआई को भारत सरकार लागू करे। भारत सरकार ने जिस तरह एफडीआई को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दिखाई थी...और संसद के दोनों सदनों में इसे पारित करवाने में पूरी ताकत लगा दी थी...उससे ये सवाल भी खड़ा होता है कि 125 करोड़ की जो राशि वॉलमार्ट ने खर्च की है...उसमें से कुछ राशि क्या सरकार में शामिल किसी व्यक्ति या किसी भारतीय राजनेता को भी मिली है...जो भारत सरकार से वालमार्ट के लिए लॉबिंग कर रहा था...और बिचौलिये की भूमिका में था और इसी को लेकर सरकार पर एफडीआई को हर हाल में भारत में लागू करने का दबाव था..?  ये सवाल इसलिए भी खड़ा होता है क्योंकि वॉलमार्ट की रिपोर्ट के अनुसार 2008 से 2012 तक खर्च की गई 125 करोड़ की राशि में से सितंबर 2012 में खत्म हुई अंतिम तिमाही में भारत में निवेश के मुद्दे पर चर्चा के लिए लॉबिंग पर 10 करोड़ रूपए खर्च किए गए10 करोड़ रूपए किसे मिले इस पर भी सवाल खड़ा होता है। माना कि वॉलमार्ट ने अमेरिकी कानून के मुताबिक लॉबिंग की और ये सही है...औऱ वॉलमार्ट ने ये लॉबिंग अपने फायदे के लिए की...क्योंकि साढ़े चार हजार करोड़ डॉलर के सालाना टर्नओवर वाली कंपनी को भारत जैसे बड़े बाजार में घुसना है जहां का बाजार उसके मुताबिक 5 हजार करोड़ डॉलर का है तो वॉलमार्ट क्या कोई इस बाजार में घुसने के लिए उतावला होगा और 125 करोड़ जैसे रकम उसके लिए मामूली होगी। लेकिन सवाल यहां ये भी खड़ा होता है कि लॉबिंग भारत में गैर कानूनी है और अगर वॉलमार्ट भारत में आता है तो वह शुरुआत में फिलहाल सिर्फ 18 शहरों में ही अपना कारोबार कर पाएगा...लेकिन क्या वॉलमार्ट का सिर्फ 18 शहरों में कारोबार कर खुश रहना चाहेगा...जाहिर है नहीं और ये निश्चित ही वॉलमार्ट के लिए घाटे का सौदा होगा...क्योंकि वॉलमार्ट सिर्फ इन 18 शहरों में धंधा करने नहीं बल्कि 5000 करोड़ के भारतीय बाजार पर कब्जा जमाने की फिराक में है। ऐसे में क्या वॉलमार्ट भारत में प्रवेश करने के बाद दूसरे शहरों और उन राज्यों में अपना व्यापार बढ़ाने के लिए उन राज्यों की सरकारों से लॉबिंग का प्रयास नहीं करेगा। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की अगर बात करें जहां सपा की सरकार है और सपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में काबिज है...क्या वॉलमार्ट नहीं चाहेगा कि उत्तर प्रदेश जहां आधा दर्जन से ज्यादा शहरों की आबादी 10 लाख से अधिक है वहां अपनी दुकानें सजाई जाएं...ऐसे में क्या वो सपा सरकार से लॉबिंग की कोशिश नहीं करेगा और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के चरित्र से हर कोई वाकिफ है कि वो कब कहां डोल जाएं कोई नहीं जानता...क्या गारंटी है कि वे वॉलमार्ट के प्रलोभन में नहीं आएंगे...? वैसे भी मुलायम सिंह एफडीआई के विरोध का नाटक तो खूब कर रहे हैं लेकिन संसद के दोनों सदनों में वॉक आउट कर सरकार का फायदा पहुंचा चुके हैं। इसी तरह अन्य राज्य जो अभी एफडीआई का खुलकर विरोध कर रहे हैं...क्या गारंटी है कि वॉलमार्ट के प्रलोभन में नहीं आएंगे...? इसका प्लस पाइंट राज्य सरकारों के लिए ये है कि इसका फैसला करने के लिए वे स्वतंत्र हैं कि वॉलमार्ट जैसी कंपनियों को वे अपने राज्य में कारोबार करने की अनुमति दें या न दें। खैर ये तो बाद की बातें हैं फिलहाल पहला सवाल तो वॉलमार्ट रिपोर्ट के बाद सरकार पर उठ खड़ा हुआ है कि आखिर इस 125 करोड़ की लॉबिंग का पूरा राज क्या है...? क्या इसके तार भारत के किसी राजनेता या सरकार में शामिल किसी व्यक्ति से जुड़े हुए हैं...जिसने इसमें बिचौलिए की भूमिका निभाई हो..? देर सबेर इस पर से भी पर्दा हट ही जाएगा...फिलहाल तो विपक्ष ने इस पर होमवर्क शुरु कर सरकार की नींद हराम करने का काम तो शुरु कर ही दिया है...जो साफ ईशारा कर रहा है कि संसद के शीतकालीन सत्र का बचा हुआ वक्त भी हंगामे की भेंट चढ़ने के पूरे आसार हैं।

deepaktiwari555@gmail.com

रविवार, 9 दिसंबर 2012

बधाई सोनिया जी- जन्मदिन की नहीं अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस की


9 दिसंबर बड़ी ही महत्वपूर्ण तारीख है...दुनिया इसे अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस के रूप में मनाती हैं...दुनिया भर में इस मौके पर खूब आयोजन हुए और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने की और इसे खत्म करने का संकल्प लिया गया। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने सभी देशों से संयुक्त राष्ट्र के भ्रष्टाचार के खिलाफ समझौते में हस्ताक्षर करने की साथ ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की कसम खाने की सभी से अपील की। भारत की अगर बात करें तो ट्रांस्पेरेंसी इंटरनेश्नल की 2012 की सूची में भारत 176 देशों की सूची में 94वें स्थान पर है। भारत में भ्रष्टाचार किस कदर अपनी जड़ें पसार रहा है इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। देश की वर्तमान यूपीए 2 सरकार को ही देख लें तो भ्रष्टाचार और घोटालों के सारे रिकार्ड ये सरकार तोड़ने पर आमादा है। बात भ्रष्टाचार औऱ यूपीए सरकार की हो रही है तो यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी तो कैसे भूल सकते हैं। वो भी आज के दिन जब कि सोनिया गांधी 66 साल की हो गई हैं। दरअसल आज 9 दिसंबर को सोनिया गांधी का जन्मदिन भी होता है और 9 दिसंबर को ही अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस भी मनाया जाता है। सोनिया के जन्मदिन पर 10 जनपथ पर खूब आतिशबाजी हुई और कांग्रेसियों ने जश्न भी खूब मनाया और मिठाइयां भी बांटी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने और उनके मंत्रिमंडल के सभी मंत्रियों ने सोनिया को जन्मदिन की बधाई दी। कांग्रेस नेताओं में तो मानो होड़ लगी थी कि कौन पहले सोनिया को जन्मदिन की शुभकामनाएं देगा। कुछ एक समझदार नेताओं ने तो एक दिन पहले ही सोनिया को पैदाईश की मुबारकबाद दे दी। लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि हिमाचल और गुजरात चुनाव में प्रचार के दौरान सोनिया गांधा से लेकर प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेसी नेता भ्रष्टाचार को कैंसर बताते हुए इसके खिलाफ खूब बोले लेकिन अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस पर किसी भी नेता के श्रीमुख से एक शब्द तक नहीं निकला। बेहतर होता सोनिया गांधी अपने जन्मदिन की बजाए अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस मनाती और यूपीए अध्यक्ष होने के नाते यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री से लेकर मंत्रियों और कांग्रेसी नेताओं को उनका जन्मदिन मनाने की बजाए भ्रष्टाचार विरोधी दिवस मनाने को कहती और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का शंखनाद करने का संकल्प सबको दिलवाती...लेकिन ऐसा नहीं हुआ। होती भी कैसे ये तो वही सोनिया है जो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे अपने मंत्रियों को प्रमोशन देती हैं...सलमान खुर्शीद तो याद ही होंगे आपको भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे थे...चारों तरफ खूब आलोचना हो रही थी...लेकिन सोनिया ने खुर्शीद को कानून मंत्री से प्रमोट कर विदेश मंत्री का ओहदा दे दिया। सोनिया जी पैदाईश की हमारी तरफ से भी ढ़ेरों शुभकामनाएं...लेकिन एक अनुरोध है...भ्रष्टाचार के खिलाफ आप चुनावी रैलियों में जितने विश्वास से भाषण पढ़ती हैं...उतनी ही प्रतिबद्धता इसके खिलाफ लड़ाई में भी दिखाएं तो मानें। कथनी और करनी का फर्क देश की जनता भी समझती हैं...देर सबेर चुनाव में जनता इसका जवाब भी आपको दे ही देगी...हम तो यही कहेंगे कि भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देना बंद करें और कथनी को करनी में बदल कर अपने जन्मदिन की तारीख 9 दिसंबर को सार्थक करें। सोनिया जी एक बार फिर से शुभकामनाएं इस बार जन्मदिन की नहीं अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस की।

deepaktiwari555@gmail.com