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बुधवार, 2 जनवरी 2013

शर्म करो नेता जी..!


महिलाओं के हितों की बात हो या फिर उनके साथ घटे अपराध पर उन्हें इंसाफ दिलाने की बात हिंदुस्तान में नेता एक ऐसी कौम हैं, जिन्हें ये सब शायद रास नहीं आता(इसमें सभी नेता शामिल नहीं)। शायद यही वजह है कि जब जब इस से जुड़े मुद्दे उठते हैं...महिलाओं के हक में आवाज उठती है तब - तब महिलाओं को घेरते हुए...उन पर सवाल खड़े करते हुए...उन पर ऊंगली उठाते हुए नेताओं के बेतुके बयान देश के किसी न किसी कोने से जरूर सुनाई दे जाते हैं। जो न सिर्फ पूरे समाज तो आहत करते हैं बल्कि महिलाओं के लिए शर्मनाक स्थिति पैदा कर देते हैं।
दिल्ली गैंगरेप मामले पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के सांसद बेटे अभिजीत मुखर्जी (हर मुद्दे पर कैंडल मार्च निकालने का फैशन चल पड़ा है, लड़कियां दिन में सज-धज कर कैंडल मार्च निकालती हैं और रात में डिस्को जाती हैं।) का बयान हो या फिर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर दिए गए सीपीएम नेता अनीसुर रहमान (आप(ममता बनर्जी) रेप के लिए कितना चार्ज लेंगी?”) का बयान। ये सिर्फ बयान नहीं है बल्कि ये नेताओं की संकुचित सोच को उजागर करते हैं...और जाहिर करते हैं कि महिलाओं को लेकर नेताओं की सोच कितनी विकसित है।
ये बयान ये बताने के लिए काफी हैं कि महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर नेता संवेदनशील नहीं हैं, और उनको रास नहीं आता अगर कोई महिला किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ रही है या फिर अपने हक के लिए आवाज उठा रही है। शायद ये नेता सोचते हैं कि महिलाओं की जगह उनकी जूती की नोंक के नीचे है...हालांकि ये बात सभी नेताओं पर लागू नहीं की जा सकती लेकिन देश की संसद या राज्यों की विधानसभा में बैठने वाला एक भी नेता अगर ऐसी सोच वाला है तो ये शर्म की बात है...क्योंकि बात सिर्फ अभिजीत मुखर्जी और अनीसुर रहमान की नहीं है...देश के गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे(अभिनेत्री और राज्यसभा सांसद जया बच्चन से- मैडम मैडम जरा ध्यान से सुनिए, यह (असम मुद्दा) कोई फिल्मी इशू नहीं है), एनडीए संयोजक शरद यादव(महिला आरक्षण के मुद्दे पर- इस विधेयक के जरिये आप परकटी महिलाओं को सदन में लाना चाहते हैं..?) और मुलायम सिंह(महिला आरक्षण बिल पर- यह बिल पास होने से सदन में ऐसी महिलाएं भर जाएंगी जिन्हें देखकर लोग सीटियां बजाएंगे) सरीखे नेताओं की ऐसी सोच सोचने पर मजबूर करती है।
वहीं दूसरी तरफ नेताओं के ऐसे बयानों को जनता के सामने रखने वाले मीडिया पर ही कुछ लोग सवाल खड़े करते हैं कि सिर्फ टीआरपी बटोरने के लिए मीडिया ऐसे बयानों को तोड़ मरोड़ कर पेश करता है, लेकिन जब मीडिया नेताओं की वास्तविक सोच(जिससे वो बाद में मुकर जाते हैं) को जनता के सामने पेश करता है तो उसमें सभी पक्षों को भी तो सामने रखता है, जिसमें ऐसे बयान देने वाले नेताओं को भी शामिल किया जाता है ऐसे में इसे ये कैसे मान लिया जाए कि मीडिया सिर्फ अपनी टीआरपी के लिए इन बयानों को तोड़ मरोड़कर पेश करता है। आखिर खबरों के साथ ही इन नेताओं की असली सोच को उन लोगों के सामने उजागर करना भी तो मीडिया का काम है, जिन नेताओं को ये लोग चुनाव में वोट देकर विधानसभा या संसद तक पहुंचाते हैं।
खास बात ये है कि बेतुके बयान देने के बाद इनमें से कुछ नेता तो अपनी बात को जायज ठहराते नजर आते हैं, तो कुछ सफेद झूठ बोलते हुए अपनी बयान से साफ पलट जाते हैं और उल्टा मीडिया पर ही बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगाते हैं। महिलाओं के हितों के मुद्दों पर नेताओं की ऐसे बयान न सिर्फ उनकी संकुचित सोच को बयां करते है बल्कि ये सवाल भी खडे करते हैं कि क्या वाकई में देश की आधी आबादी(महिलाएं) जिन नेताओं को ये सोच कर चुन कर संसद/विधानसभा में पहुंचाती हैं, वे नेता उनके हक के लिए संसद में विधानसभा में कैसे आवाज उठाएंगे और क्यों आवाज उठाएंगे..? क्योंकि ये नेता तो महिला हित से जुड़े मुद्दे पर या महिला अपराध पर इंसाफ के लिए उठने वाली आवाज पर ही अपने बेतुके बयान से सवालिया निशान लगा देते हैं। सब से बड़ी बात तो ये है कि इनमें से कई नेता महिला अपराध (बलात्कार, महिला उत्पीड़न आदि) में शामिल होते हैं...ऐसे में कैसे महिलाओं की स्थिति में सुधार की उम्मीद इन नेताओं के भरोसे की जा सकती है...जाहिर है ऐसे नेता न तो संसद में बैठने के काबिल हैं और न ही विधानसभा में और ये काम अगर देश की हर महिला ठान ले तो चुनाव में ऐसे नेताओँ को सबक सिखा कर आसानी से कर सकती है।

deepaktiwari555@gmail.com

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