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सोमवार, 3 अगस्त 2015

मानसून सत्र हंगामा- जनहित नहीं सियासी फायदे पर नज़र !

 
जब हर चीज सियासी चश्मे से देखी जाए तो फिर जनता कि किसे पड़ी है। संसद के मानसून सत्र पर छाए संकट के बादलों पर भी इसकी झलक साफ देखी जा सकती है। भाजपा नीत एनडीए सरकार की वरिष्ठ मंत्रियों में से एक विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पर कथित तौर पर ललित मोदी की मदद का आरोप है, लिहाजा विपक्ष सुषमा स्वराज के इस्तीफे की मांग पर अड़ा है।
सरकार चर्चा को तैयार है लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस चर्चा से पहले ही सुषमा के इस्तीफे की मांग पर अडिग है। मानसून सत्र के 12 दिन हंगामे की भेंट चढ़ चुके हैं, लेकिन विपक्ष अपनी मांग से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है। जाहिर है कांग्रेस किसी भी हाल में इस मुद्दे को हाथ से निकलने नहीं देना चाहती है।
सिर्फ सियासी चश्मे से देखें तो इस हंगामे का मकसद सिर्फ सियासी फायदा है। कांग्रेस चाहती है कि सुषमा स्वराज का इस्तीफा हो जाए तो वे इसके बहाने बाकी के बचे चार साल एनडीए सरकार पर जब चाहे तब ऊंगली उठा सके। साथ ही इस दौरान बिहार सहित कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी इस मुद्दे के सहारे ज्यादा से ज्यादा वोट बटोर सके। लेकिन इस चश्मे को उतार फेंके तो तस्वीर साफ होती है कि संसद की कार्यवाही में खर्च होने वाला लाखों रूपए हर रोज हंगामे की भेंट चढ़ रहे हैं। जाहिर है पैसा जनता की गाढ़ी कमाई का है तो ऐसे में हंगामा करने वालों को क्यों इसका दर्द होगा ?
संसद सत्र के एक मिनट का खर्च करीब ढ़ाई लाख रूपए आता है, ऐसे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि सियासी फायदे के लिए संसद की कार्यवाही ठप होने पर कितना बड़ा नुकसान होता है। न सिर्फ पैसे पानी में जा रहे हैं, बल्कि लंबित बिलों की संख्या में भी ईजाफा हो रहा है। जनता ने सांसदों को इसलिए चुनकर संसद में भेजा ताकि वे जनहित के मुद्दों पर सरकार का ध्यान आकर्षित करें। इसलिए नहीं कि वे उनके हितों की अनदेखी करते हुए अपने सियासी फायदे के लिए संसद में हंगामा करें।
जनता के भरोसा का खून रोज संसद में हो रहा है, लेकिन हैरत उस वक्त होती है, जब सांसद इसके पीछे भी जनहित की दुहाई देते हैं। वे कहते हैं कि जनता के लिए ही तो वे ये सब कर रहे हैं। लेकिन किसी भी मुद्दे पर चर्चा से वे क्यों बचना चाह रहे हैं, इसका सीधा सरल जवाब किसी के पास नहीं है।
चर्चा से ही हल निकलता है, परतें खुलती हैं, लेकिन हमारे कुछ सांसदों को शायद ये समझ नहीं आ रहा है। ये उनकी इगो का सवाल बन चुका है, वैसे भी खुद को राजनीतिक तौर पर जिंदा रखना है तो ये सब तो करना ही पड़ेगा।
विपक्ष अपनी मांग पर अडिग है तो सरकार भी अपनी जिद पर कायम है कि उनका कोई मंत्री किसी भी सूरत में इस्तीफा नहीं देगा। जाहिर है इस्तीफे का सीधा मतलब एक तरह से आरोप को स्वीकार कर लेना, ऐसे में सरकार क्यों विपक्ष को खुद पर ऊंगली उठाने का मौका देने वाली।
सरकार और विपक्ष दोनों के जिद पर अड़े रहने से मानसून सत्र पर हंगामे के बादल जमकर बरस रहे हैं, जिसके फिलहाल थमने के कोई आसार भी नज़र नहीं आ रहे हैं। मतलब साफ है हंगामे की इस बाढ़ में सरकार और विपक्ष का तो कुछ होने वाला नहीं लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई जरूर लुट रही है। उम्मीद तो यही करेंगे कि संसद में जारी गतिरोध टूटे और संसद सुचारु रूप से चले। बाकी हमारे सांसदों की मर्जी !

deepaktiwari555@gmail.com   

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