राजनीति के रंग भी
निराले होते हैं, मोदी सरकार के पहले कैबिनेट विस्तार के कैनवास में उभरती
राजनीतिक तस्वीरों में भी कुछ ऐसे ही रंग दिखाई दिए। एक रंग था, भाजपा और शिवसेना
की अहं की लड़ाई का। प्रधानमंत्री मोदी चाहते थे कि कैबिनेट विस्तार के कैनवास में
शिवसेना के रंगों की चमक भी दिखाई दे, लेकिन आखिरी वक्त तक हां, न...हां, न की
ख़बरों के बीच आखिर शिवसेना वाली तस्वीर ब्लैक एंड व्हाईट ही रह गई। उद्धव ठाकरे
ने मुंबई से फ्लाईट पकड़कर दिल्ली पहुंचे अनिल देसाई को एयरपोर्ट से ही वापस बुला
लिया। लेकिन शिवसेना नेता सुरेश प्रभु के कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ लेने से
शिवसेना की तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा रंगीन होता दिखाई दिया, लेकिन सुरेश प्रभु
के भाजपा की सदस्य़ता ले लेने से शिवसेना की बजाए भाजपा के हिस्से की एक और तस्वीर
भगवा रंग में रंग गई। शिवसेना के लिए भाजपा की राजनीतिक शर्तों का तो पता नहीं,
लेकिन महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना की स्थिति के बाद भी शिवसेना को बहुत
कुछ हासिल था और सहज हासिल था, लेकिन शायद ये शिवसेना के मराठी मन को नहीं भाया !
एक और तस्वीर थी, जो
2014 के आम चुनाव के साथ भगवा रंग में रंगने लगी था, ये तस्वीर थी, बिहार के पाटलीपुत्र
से भाजपा सांसद रामकृपाल सिंह की, जो बिहार में लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा
भारती को धूल चटाकर दिल्ली तक पहुंचे थे। कभी राजद में रहते हुए लालू प्रसाद यादव
के सबसे करीबी नेता रहे रामकृपाल ने भी कहां सोचा था कि 2014 में केन्द्र सरकार
में वह मंत्री बनेंगे, लेकिन राजद का दामन छोड़ भाजपा का कमल थामने वाले रामकृपाल
ने न सिर्फ कमल पर सवार होकर जीत दर्ज की बल्कि मोदी सरकार के पहले ही विस्तार में
रामकृपाल मंत्री की कुर्सी भी पा गए।
एक तस्वीर और नजर आई,
कभी हरियाणा कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे चौधरी बिरेन्द्र सिंह की। हरियाणा में
विधानसभा चुनाव से पहले अपनी ही पार्टी कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह
हुड्डा के खिलाफ बगावत का झंड़ा बुलंद कर भाजपा का दामन थामने वाले चौधरी
बिरेन्द्र सिंह की किस्मत भी चमकती दिखाई दी। कांग्रेस में थे, तो कोई पूछने वाला
नहीं बचा था, लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा में आने वाले चौधरी का फैसला
बिरेन्द्र सिंह की चौधराहट कायम रखने वाला रहा। चौधराहट भी मोदी सरकार में कैबिनेट
मंत्री की, जो भाजपा के कई दिग्गजों को नसीब नहीं हुई।
बहरहाल राजनीति के
कैनवास में रंगीन तस्वीरों का सपना तो हर राजनेता का होता है, लेकिन किस्मत शायद
हर किसी पर मेहरबान नहीं होती, या कहें कि सही वक्त पर सही फैसला लेने में अक्सर
राजनेता चूक कर जाते हैं। अब रामकृपाल सिंह राजद की टिमटिमाती लालटेन न छोड़ते और
चौधरी बिरेन्द्र सिंह कांग्रेस का पंजा न छोड़ते तो दोनों आज कहां होते, इसे समझना
जरा भी मुश्किल नहीं है।
बात करें शिवसेना की
तो वक्त की नज़ाकत के हिसाब से सब कुछ सहज और सुलभ होने के बाद भी शिवसेना का ये
फैसला शिवसेना के भविष्य के हिसाब से कितना सही साबित होगा इसे भी समझना मुश्किल
नहीं है। लेकिन अपने फायदे की राजनीति के समय में शिवसेना क्या इसको समझ पाएगी, ये
तो वक्त ही बताएगा !
deepaktiwari555@gmail.com
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