उत्तराखंड में आपदा
में फंसे यात्रियों को निकालने के लिए राहत एवं बचाव कार्य जारी है...ये बात अलग
है कि सुरक्षित स्थानों पर पहुंच रहे यात्रियों का अनुभव राहत एवं बचाव कार्य की चौंकाने
वाली हकीकत सामने ला रहा है लेकिन फिर भी उम्मीद करते हैं कि सभी यात्री सकुशल
अपने अपने घर पहुंच जाएं। (जरुर पढ़ें- ओ गंगा तुम, ओ गंगा बहती हो क्यों..?)
सुप्रीम कोर्ट की
सख्ती के बाद सरकार गति में आयी है और राहत एवं बचाव कार्य में अपेक्षाकृत तेजी
दिखाई दे रही है लेकिन एक सवाल बार बार जेहन में उठ रहा है कि जब उत्तराखंड के उत्तरकाशी,
रुद्रप्रयाग और चमोली जिले के अलग अलग क्षेत्रों में फंसे यात्रियों को सकुशल
सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाएगा उसके बाद क्या होगा..?
जो लोग आपदा
प्रभावित इलाकों के रहने वाले हैं...जिनकी घर-गृहस्थी पूरी तरह से तबाह हो चुकी
है...जिनके पास सिर्फ शरीर के कपड़े छोड़कर और कुछ नहीं बचा है...जिनके घर के
कमाने वाले अब उनसे बिछुड चुके हैं उनका क्या होगा..?
ये तो अभी मानसून की
दस्तक मात्र थी...असली बरसात तो अभी बाकी है...ऐसे में कहां वे रहेंगे..? कैसे वे रहेंगे..? कैसे वे दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करेंगे..?
ऐसे तमाम सवाल हैं
जो दिल को दुखा रहे हैं और लगातार उलझन में डाल रहे हैं...लेकिन शायद इसका जवाब न
तो आपदा प्रभावितों के पास है और न ही उस सरकार के पास जिसने हर साल ऐसी ही आपदाओं
से दो चार होने वाले इन लोगों की कभी सुध ली..!
जाहिर है सभी फंसे
हुए लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के बाद सरकार और प्रशासनिक मशीनरी सुस्त
पड़ेगी और फिर से सरकार उसी पुराने ढर्रे पर लौट आएगी..! हालांकि मृतकों और
घायलों के परिजनों के साथ ही अपना सबकुछ गंवा चुके लोगों को सरकारी मदद का ऐलान तो
कर दिया गया है लेकिन ये मदद इनके लिए उसी तरह है जैसे ऊंट के मुंह में जीरा..!
अपनों को खो चुके
लोगों की कमी तो ये राहत राशि कभी नहीं कर पाएगी लेकिन जिंदगी फिर से पटरी पर लौट
सके इसका सिर्फ एक ही विकल्प है...सिर पर छत और जेब में पैसा..!
ऐसा नहीं है कि
सरकार सिर्फ आर्थिक मदद देकर पल्ला झाड़ लेगी...बेघर हो चुके लोगों को पुनर्वासित
करने के लिए भी सरकार काम करेगी लेकिन प्रभावितों का पुनर्वास कब तक हो पाएगा..?
उत्तराखंड में 2010
में आयी आपदा अगर आपको याद हो तो बताना चाहूंगा कि उस वक्त भी प्रदेश के अलग अलग
जिलों में कुछ इस तरह का ही मंजर था। फर्क सिर्फ इतना था कि उस वक्त चार धाम
यात्रा पर कुदरत का कहर इतना नहीं टूटा था और मौत का आंकड़ा भी इतना नहीं था लेकिन
सैंकड़ों लोगों की घर-गृहस्थी आपदा भी भेंट चढ़ गयी थी। सरकार ने उस वक्त भी सभी प्रभावितों
के राहत और पुनर्वास पर काम करते हुए सभी के पुनर्वास का दावा किया था लेकिन जमीनी
हकीकत इससे इतर है...बीते दिनों एक टीवी चैनल पर आई एक रिपोर्ट ने इस सच्चाई पर से
पर्द हटाते हुए दिखाया था कि आज भी कई परिवार ऐसे हैं जिन्हें राहत के नाम पर चंद
सिक्के तो मिले लेकिन सिर पर छत आज तक नसीब नहीं हो पायी है...ये लोग आज भी टेंटों
में जीवन बसर कर रहे हैं..!
वैसे भी राहत और
पुनर्वास के नाम पर जारी कितना पैसा वास्तव में प्रभावितों तक पहुंच पाता है इस
हकीकत से सभी वाकिफ हैं..!
ये ख़्याल तक मन में
एक डर पैदा कर रहा है कि आपदा प्रभावित कैसे अपने आगे का जीवन बसर करेंगे..? क्योंकि सुस्ती के
बाद सरकार की ये चुस्ती तभी तक है जब तक देशभर के यात्री उत्तराखंड में फंसे हैं..! जैसे ही सारे
यात्रियों को सुरक्षित निकाल लिया जाएगा उसके बाद उत्तराखंड के आपदा प्रभावितों को
दर्द साझा करने वाला कोई नहीं होगा..! (जरुर पढ़ें- उत्तराखंड के वो दिल्ली वाले
मुख्यमंत्री..!)
वैसे भी उत्तराखंड
सरकार के लिए तो पहाड़ के लोगों की दिक्कतें आम हैं...फिर चाहे सरकार भाजपा की रही हो या
फिर कांग्रेस की उन्हें लगता है कि इन्हें तो हर साल बरसात में इस दर्द को
बर्दाश्त करने की आदत है शायद इसलिए सब कुछ जानते हुए भी कि पहाड़ में मानसून का
आगमन एक बड़ी विपदा का आगमन है सरकारें इससे निपटने के लिए न तो कोई प्रभावी कार्ययोजना
तैयार की जाती है और न ही आपदा प्रबंधन के पर्याप्त इंतजामात किए जाते हैं..! नतीजा हर साल
आसमानी आफत सैंकड़ों लोगों की जिंदगियां लील जाती है तो हजारों लोगों के सपनों को पानी
में मिला देती है..! एक बार फिर वही स्थिति
है…लोग आपदा का दर्द
झेल रहे हैं लेकिन सवाल वहीं खड़ा है कि क्या इस बार टूटेगी सरकार की नींद..!
deepaktiwari555@gmail.com
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