जिंदा रहने के मौसम
बहुत हैं मगर, जान देने की रुत रोज आती नहीं...ये पंक्तियां मानो भारतीय सैनिकों
के लिए ही रची गयी। सीमा पर दुश्मन को मुंह तोड़ जवाब देना हो या फिर देश के भीतर
आयी कोई भीषण आपदा या विपदा सहारा सिर्फ और सिर्फ भारत के वीर सैनिकों का ही है।
भारत के वीर जवानों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वे विपरित परिस्थितियों में भी
किसी भी मुश्किल हालात का सामना कर सकते हैं। फिर चाहे सीमा पर दुश्मन की गोलियों
का जवाब देना हो या फिर उत्तराखंड जैसे किसी राज्य में जिंदगी और मौत की जंग लड़
रहे आपदा में फंसे हजारों लोगों को खतरों से भरे दुर्गम पहाड़ी इलाकों से सुरक्षित
स्थान पर पहुंचाना हो।
उत्तरकाशी,
रुद्रप्रयाग और चमोली के दुर्गम पहाड़ी इलाकों में जहां एक तरफ पहाड़ों से मौत के
रुप में पत्थर और विशालकाय बोल्डर बरस रहे हों और दूसरी तरफ पूरे उफान पर नदियों
में मौत बह रही हो...ऐसे रास्तों से आपदा में फंसे हजारों लोगों को सुरक्षित
निकालना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है लेकिन भारतीय सेना के वीर जवानों ने अपनी
जान की परवाह किए बगैर दिन रात एक करके हजारों लोगों की जिंदगी की उम्मीद को जिंदा
रखा।
राहत एवं बचाव कार्य
में लगे सभी जवानों का जोश और जज्बा देखने लायक है। खुद को मौत के मुंह में झोंक
पर दूसरे की जान बचाना कोई इनसे सीखे।
अपने कंधों पर खतरों
से भरे रास्ते पर उन श्रद्धालुओं को उठाकर पहाड़ों पर चढ़ना...जहां पर एक गलत कदम
उन्हें पूरे उफान पर मौत के रुप में बहती नदियों में झोंक सकता है...वाकई में रोंगटे
खड़े कर देता है लेकिन सेना के इन वीर जवानों के चेहरे पर इसके बाद भी कोई शिकन
नहीं है। एक श्रद्धालु को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाकर वे दूसरे श्रद्धालु की जान
बचाने में जी जान से जुट जाते हैं।
आईटीबीपी की आठवीं
बटालियन के कमांडिग ऑफिसर जी एस चौहान कहते हैं कि आपदा के बाद कई जवानों ने तो
पहले से स्वीकृत अपनी छुट्टियों पर जाने से खुद ही मना कर दिया और जो जवान छुट्टी
पर थे भी वे लोग भी आपदा के बाद मुश्किल में फंसे लोगों की मदद करने के लिए वापस आ
गए। सलाम है ऐसे वीर जवानों को।
तस्वीर का एक पहलू
और देखिए एक तरफ ये जवान हैं जो अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों की जान बचा रहे
हैं और दूसरी तरफ हैं उत्तराखंड के वो दिल्ली वाले मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा जो आपदा
के बाद आपदाग्रस्त क्षेत्रों में कैंप कर प्रभावितों का हौसला बढ़ाने की बजाए अपने
उडनखटोले को दिल्ली की ओर मोड़ लेते हैं और जब वापस आते भी हैं तो देहरादून में
बैठकर सुबह शाम प्रेस कांफ्रेंस कर इस आपदा को प्रकृति का कहर बताते हुए अपनी
जिम्मेदारियों से पल्ला झाडने का कोई मौका नहीं छोड़ते..! वैसे भी जिस व्यक्ति
ने पहाड़ को, पहाड़ के लोगों की पीड़ा को कभी समझा ही नहीं उससे और क्या उम्मीद की
जा सकती है..?
deepaktiwari555@gmail.com
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