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रविवार, 11 नवंबर 2012

ऑटो में आउटिंग


सप्ताहांत में आउटिंग करने का अलग लुत्फ है। जो परिवार वाले हैं वे परिवार के साथ इस पल का आनंद उठाते हैं तो युवा अपने दोस्तों की मंडली के साथ जमकर मस्ती करते हैं। ये हमारे जीवन का आम होने के साथ ही अहम पल होता है। ये पल हर किसी की जिंदगी में आता है...बस इस पल को सेलिब्रेट करने का तरीका अलग है। कुछ लोग सब कुछ होने के बावजूद अपनी रोज की परेशानियों में इस तरह घिरे रहते हैं कि वे इस पल का लुत्फ ही नहीं उठा पाते तो कुछ पैसा कमाने की दौड़ में इस तरह भाग रहे होते हैं कि ये पल उन्हें फिजूल लगते हैं। लेकिन इस सब के बीच कुछ लोग ऐसे होते हैं जो तमाम परेशानियों और अभावों के बावजूद अपने व्यस्तता के बीच ऐसे पल निकाल लेते हैं और इसका जमकर लुत्फ उठाते हैं। एक वाक्या जिसने मुझे इस पर लिखने को मजबूर किया आपके साथ साझा कर रहा हूं। शनिवार का दिन था देहरादून के इंदिरा नगर में दैनिक जागरण के दफ्तर के पास मैं अपने एक मित्र का इंतजार कर रहा था..जो कुछ ही देर में वहां पहुंचने वाला था। जिस स्थान पर मैं खड़ा था वहीं पास में एक व्यक्ति ठेले पर चाऊमीन, मोमो और सूप बेच रहा था। इसी बीच वहां पर आए एक ऑटो आखर रूका तो ऑटो में पीछे की सीट पर एक महिला और दो बच्चे बैठे थे। महिला की उम्र करीब 35 साल रही होगी तो दोनों बच्चों की उम्र 8 और 12 साल रही होगी। ऑटो चालक ऑटो रोककर उसमें बैठी महिला और बच्चों से पूछता है कि उन्हें क्या खाना है...जिस तरह से बच्चे पापा पापा कहते हुए अपनी पसंद की चीजें बता रहे थे उससे ये समझ आ गया था कि ऑटो में उस ऑटो चालक का परिवार था...और ऑटो चालक अपने परिवार को आउटिंग पर लेकर आया था...जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया था कि फुर्सत के पलों में या सप्ताहांत में अक्सर लोग आउटिंग पर निकलते हैं। हर कोई अपनी जेब और सुविधा के अनुसार इन पलों का आनंद लेता है और शायद ऑटो चालक की जेब और सुविधा के हिसाब से ये पल उसके जीवन में खास थे...और ये उसका अपना तरीका था परिवार के साथ हफ्ते में कुछ पल बाहर बिताने का या बाहर खाना खाने का। इस वाक्ये से एक बात तो समझ में आती है कि आज की भागदौड़ और आपाधापी से भरी जिंदगी में जहां लोग सिर्फ और सिर्फ पैसे के पीछे भाग रहे हैं और उनके पास अपनों के लिए वक्त नहीं होता...और जो व्यक्ति शायद जितना अमीर होता है शायद ये समस्या उसके साथ उतनी ही ज्यादा है...और शायद वे लोग ज्यादा परेशान भी रहते हैं। यहां पर ये स्पष्ट करना चाहूंगा कि ये बात सौ प्रतिशत लोगों पर लागू हो...ये नहीं कहा जा सकता। जिन लोगों के पास जितना कम पैसा और सीमित आय के साधन होते हैं और जो लोग रोज सुबह घर से बाहर निकलकर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करते हैं...उनमें अधिकतर लोग अपने लिए अपने परिवार के लिए वक्त निकाल लेते हैं...और परिवार के साथ इस पल का जमकर आनंद लेते हैं और जीवन में खुश भी रहते हैं...या यूं कहें की अभावों और रोजमर्रा की समस्याओं से भरी जिंदगी में वे दो पल खुशी के निकाल लेते हैं। हर किसी के लिए इस वाक्ये के मतलब हो सकता हैं अलग अलग हों...या कुछ लोग इससे सहमत न हों...लेकिन कहीं न कहीं देखा जाए तो ये वाक्या बताता है कि एक आम आदमी जो अभावों में जीवन व्यतीत करता है...कहीं न कहीं कुछ हद तक दूसरे लोगों से ज्यादा खुश देखा जाता है, जबकि जिस व्यक्ति का कद जितना बड़ा होता जाता है शायद ये पल उसके जीवन में उतने कम होते जाते हैं। इस वाक्ये के बाद कम से कम मैंने तो ये महसूस किया कि परिवार के साथ सप्ताहांत में फुर्सत के दों पलों का मतलब सिर्फ ये नहीं कि आपके जेब पैसों से भरी हो और आपके पास के बड़ी गाड़ी हो जिसमें आप अपने परिवार के साथ आउटिंग के लिए निकले और किसी बढ़िया रेस्तरां में खाना खाने जाएं।
  
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